12 मार्च के बाद से घर से बाहर नहीं निकल पाई हूँ. इस लॉकडाउन में रोज़मर्रा में बहुत महीन पर असर करने वाले बदलाव मन में धीरे धीरे जम कर बड़े हो रहे हैं. सब घर में बंद कर दिए गए हैं. कितनी ही ज़ुबानें ख़ामोशी की तरफ़ मोड़ने की कोशिश हुई पर ऐसा हुआ नहीं है. एक बड़-बड़ लगातार जारी है. टीवी पर आने वाली ख़बरों में या फिर घर में बैठे लोगों की बातचीत में. अजीब सी बड़-बड़! कान में अब घाव पनपने शुरू हो गए हैं. ऐसा नहीं है कि मैं नौकरीशुदा थी और रोज़ ही बाहर आना जाना लगा रहता था. या फिर मेरी दोस्ती का सर्किल बहुत बड़ा था. या फिर मेरा सोशल दायरा किसी वीडियो की तरह था जो बहुत वायरल था. ऐसा बिलकुल नहीं है. हफ़्ते में एक या ज़्यादा से ज़्यादा दो दिन निकलना होता था. उसमें भी बसों से सफ़र करना शामिल था. कुछ औपचारिक काम एक बड़े अनजान दायरे में जाने का कारण बन ही जाता था.
इसके अलावा दिमाग में यह बोझ नहीं था कि घर में क़ैद हूँ. घर में ही रहना अपना चुनाव था. दिन कब बीत जाता था पता ही नहीं चलता था. या यूं कहूँ, मैंने कभी घड़ी की सुइयों को इतने ध्यान से नहीं देखा था जितना अब देख रही हूँ. जब 12 या साढ़े 12 बजते हैं, तब ख़ुशी होती है कि मैंने/हमने आधा दिन गुजार दिया है. इसके बाद पास ही टंगे कैलंडर पर नज़र जाती है कि अब कितने दिन और? ऐसा रोज़ होता है. कभी कभी फेसबुक पर वीडियो देखकर माथा भनभना जाता है. कुछ दिन पहले ऐसा ही हुआ जब एक बिहार के बच्चे को रोते हुए देखा. ज़ुबान गाली के लिए शब्द खोज रही थी. किसे जिम्मेदार ठहरा कर गाली दी जा सकती थी, यह भी सोच रही थी. लेकिन मुझे कोई ख़ास संतोषजनक शब्द नहीं मिले तब यही ग़ुबार झुंझलाहट में तब्दील हो गया. मैं बस बोले जा रही थी. मेरे अम्मी-अब्बू मुझे अजीब सी चुप्पी के साथ घूर रहे थे. वे कुछ बोलना भी चाह रहे थे पर वे बोल नहीं पा रह थे. मेरे रिश्तेदार मेरे इस रूप से अधिक वाकिफ़ नहीं थे. वे भी कल घबरा कर मेरे पास से इतर-बितर हो गए.
यह महज एक मूड का रूप है. दो दिन पहले एक मूड यह था कि खीझ बन कर तैयार हो रही थी. यह कहीं बाहर से नहीं आ रही थी बल्कि अंदर से अपने आप तैयार हो होकर बाहर आ रही थी. बहुत कुछ करना चाहती हूँ.लेकिन कहना इतना मुश्किल कभी नहीं लगता था.इन 16 से 17 दिनों में कुछ हो रहा है और लगातार हो रहा है. जो भी रिपोर्ट या ख़बर दिखती है लगभग सभी को पढ़ लेती हूँ. लेकिन यह भी नहीं पता चलता कि पढ़कर समझ क्या आता है? खीझ को मैंने कभी बहुत पास नहीं देखा था. ऐसा बिलकुल कम हुआ था. अक्सर जब मेरे साथ इस तरह की स्थिति आती थी तब मैं दिमाग को इतर-बितर कर लेती थी. अगर लोग इसकी वजह होती तो उनको बोलकर या लड़कर(बेहद कम मामलों में) बोझ हल्का कर लेती थी. लेकिन अभी ऐसा नहीं है. अभी ऐसा लग रहा है कि अपने आप को जाहिर कर लेने की सुविधा छीन ली गई है. दिमाग में एक झुला घूमता रहता है. और यह इतना भूतिया है कि मैं बता नहीं सकती. इस झूले पर अक्सर कोई झूलता बही नहीं. यह निशानी बन गया है कि कहीं कुछ अच्छा और ठीक नहीं है.
इतने ही वक़्त में मुझे स्पेस की ख़ूबी और ख़ामी भी महसूस होने लगी है. अब तो लगता है कि इसी स्पेस में उन तमाम लोगों को किसी शक्ति से देख सकती हूँ जो भौतिक रूप से मुझसे बहुत दूर हैं पर ख़बरों, रपटों, सूचनाओं, वीडियो ने उन्हें मेरे बगल में उठाकर रख दिया है. सब के अंदर एक बेचैनी है. इस मामले में कश्मीर को कैसे भुलाया जा सकता है? कश्मीर के बच्चे गर्म कम्बल जैसे मोटे कपड़े पहने हुए मेरे पास बैठकर कह रहे हैं, "तुमको अब पता चल रहा है? कैसा लगता है एक जगह पर कैद रहना?"मैं अपना चेहरा घुमा लेती हूँ और कोई जवाब नहीं देती. ऐसा नहीं है कि मेरे पास जवाब है और मैं देना नहीं चाहती. सच तो यह है कि मेरे पास जवाब में रखने के लिए कुछ नहीं है. कोई ज़ोरदार बात नहीं है. हमारे अंदर एक राष्ट्रीय स्वार्थ है. और मेरा यकीन कीजिए यह कोई बहुत अच्छी चीज़ नहीं है. पैदा होते ही कितना स्वार्थ खून में अफीम की तरह मिला दिया जाता है. और पूरी उम्र गुज़र जाती है लेकिन यह कभी नहीं मरता. हमको यह बिलकुल स्वाभाविक लगता है. अपने अंदर ऑक्सीजन खींचने की प्रक्रिया की तरह. इसमें दोहराना शामिल है.
हमको नहीं बताया जाता कि दूसरे के दुःख भी उतने मायने रखते हैं. हमको नहीं बताया जाता कि जब कहीं दूर कोई मार दिया जाता है वह हत्या होती है और उसकी खिलाफ़त में हमें भी अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए. कहीं भी कुछ ग़लत होता है तब हमको टीवीनुमा बुरा लगता है. जब तक टीवी चालू होता है तब तक दुःख की साँस चलती है. और जब वह बंद होता है तब सब ख़त्म हो जाता है. हमारे यह व्यक्तिगत स्वार्थ अब बड़े रूप में राष्ट्रीय स्वार्थ में तब्दील कर दिए गए हैं. हम बहुत बुरा हो जाने पर भी चुप रहते हैं. इसमें मैं पूरी तरह शामिल हूँ और मेरे बगल का चेहरा भी. मेरे पीछे की आवाजें भी और मेरे सामने का पड़ोस वाला घर भी. हम सभी तो शामिल हैं. हम कभी भी इकठ्ठा होकर एक आवाज़ नहीं बन पाते. हम कभी भी उन मौतों का सदमा नहीं समझ पाते जिन्हें नहीं होना चाहिए था, बेवक्त.
दूर मत जाइए. मैं अपने शहर की बात बताती हूँ, अपने बारे में. जब दिल्ली में फरवरी के महीने में दंगा हो रहा था तब मैंने कुछ भी नहीं कहा और न किया. हालाँकि ईमानदारी से कहूँ तो मुझे अपने मरने का भय सता रहा था. मैंने एक मार्च की रात इस डर को भीतर तक देखा भी था. मैं बच गई इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा और न किया. मेरे जन्मदिन वाले दिन यानी पाँच जनवरी के दिन मैं जे.एन.यू. में ही थी. अपनी दोस्त के साथ रिंग रोड का चक्कर लगा रही थी और बहुत सी बातें भी कर रही थी. उस दिन हम दोनों बाकि दिनों के मुक़ाबले बहुत हँसे थे. इतना कि मेरे गाल दर्द हो रहे थे और आँखों से आँसू तक गिर रहे थे. लेकिन जब घर लौट कर आई और शाम छ बजे अपना केक काटकर फोन पर ख़बर देखी तब मुझे संगीन करंट लगा. मेरी दोस्त फँस गई थी. उसके हॉस्टल पर हमला हुआ था और वह और उसके साथ मौज़ूद लोग घबराये हुए थे. मेरी दोस्त को मैं फोन से हौंसला देती रही और यह काम हम दोनों ने लगभग पूरी रात एक अच्छे स्कॉलर की तरह किया. मेरी क़िस्मत देखिए मैं इस दिन भी बच गई. मैं मरी नहीं. मुझे चोट नहीं आई. मुझे कुछ नहीं हुआ. लेकिन क्या वास्तव में मुझे कुछ नहीं हुआ? मैं आपको जाहिर नहीं कर सकती लेकिन मुझे इन घटनाओं से बहुत बड़े मानसिक धक्के लगे. इस समय भी हममें से ऐसे बहुत से लोग थे जो इस हमले का जश्न मना रह थे और जायज ठहरा रहे थे.
मानसिक धक्के न दिखनेवाले तीखे दबाव और तनाव होते हैं. मेरी जो भी उम्र है उनमें मैंने कुछ तनाव और दबावों को देख औरजी लिया है. जिन दबावों औरतनावों को मैं कम कर सकती थी, उन्हें मैंने किया भी है लेकिन जिनको नहीं कर सकती उनके लिए खोज जा रही है. उन्हें नज़रन्दाज़ किया ही जा सकता है. लेकिन कई बार या नुस्खा भी काम नहीं आता. अब उसी दिन की बात लीजिए. एक बच्ची की फ़ोटो कितनी वायरल हुई. वह सिर पर बड़ा सा बैग लिए अपने घर की दूरी नाप रही थी. बताइए कुछ बच्चियां सिन्ड्रेला की कहानियाँ बुनती हैं और बार्बी डॉल उठाए घूमती हैं उसी उम्र में यह बच्ची अपने माँ पापा के साथ अपने बड़े हो जाने की ज़िद्द में जबरन देश के महान नेता द्वारा धकेल दी गई है. बच्चों को तो बच्चों की तरह होना चाहिए. लेकिन वह तो बड़ी हो रही है. उसके छोटे पाँव कितनी दूरी तय कर चुके हैं, जब तक मैं यह सब उसके बारे में लिख रही हूँ. वो जब बड़ी होगी तब उसके बचपन के दिन में से बचपन की चोरी कर ली गई होगी. यह एक राष्ट्रीय शर्म होगी. लोग ये बोलते हुए मिलते हैं कि फलां लोग दूसरे देश में जाकर होटल में से चीजें चुरा लेते हैं. इससे देश को कितनी शर्मिंदगी होती है. मेरे लिए वह कोई बड़ी बात नहीं है. न ही मुझे उसमें कोई शर्मिंदगी महसूस होती है. मैं विदेश कभी गई नहीं. और जिन विदेशियों को देखा है वे भी कोई हमसे ज़्यादा अलग नहीं हैं. वे भी यहाँ (भारत में) बहुत उलटे सीधे काम करते हैं. लेकिन हम कभी उनके देश के नाम के ख़राब होने की दुहाई नहीं देते. मुझे देश वाली शर्म इस बच्ची की फ़ोटो देख भीतर तक महसूस हुई. भीतर तक. हो सकता है मैं बहुत संवेदनशील व्यक्ति हूँ पर आप क्यों नहीं हैं? क्या संवेदनशील होना आपकी प्राथमिकता नहीं है? क्या आप इंसान की नस्ल के नहीं हैं?
इत्तेफाक से मैंने मानव कौल की लिखी किताब जो एक यात्रा वृत्तान्त है पढ़कर पूरा किया. शीर्षक था 'बहुत दूर, कितना दूर होता है'. वास्तव में 'बहुत दूर' शब्दों के पास जो कोमा है, मैं वहीं अटक गई हूँ. न आगे बढ़ पा रही हूँ और न पीछे. किताब बहुत बेहतरीन नहीं है लेकिन उसमें कुछ ख़ास है. लेखक भीतर की यात्रा में भटक रहा है. मुझे नहीं पता आप लोग भी इस यात्रा के भेद समझते हैं या नहीं. लेकिन अगर आप नहीं समझते तब आपको इसे समझने के लिए कुछ देर अलग थलग बैठ जाना चाहिए. इस किताब की एक बात और बहुत शानदार है और वह यह कि लेखक और यात्री, किसी मोह के चलते रूक नहीं रहे हैं. लेखक को किसी से प्यार है और दिल में वह चाहता है कि रूक भी जाए, पर वह नहीं रुकता. वह अपनी यात्रा पूरी करता है. वह चलता है और समेट लेने की ज़िद्द नहीं करता कि सब कुछ घोंट कर पी जाए. जो उसके साथ शामिल होता है उसका भी स्वागत है और जो नहीं उसका भी स्वागत है. वह नए लोगों से जब अपने होने के साथ मिलता वह हिस्सा बहुत अच्छा है. ख़ुद को न बदलकर सामने वाले के साथ अपने को हुबहू रख देना एक ज़िन्दगी वाली स्किल है.
इस किताब बहुत सी ख़ूबियों पर बात की जा सकती है. लेकिन आज के वक़्त में इसमें से ऐसा क्या लिया जाए जो मायने रखता है? मुझे लगता है एक ख़ामोशी की यात्रा को समझना चाहिए. उस बच्ची की फ़ोटो देखने के बाद कुछ न कर पाने की बेबसी ने अंदर तक कोई ख़ंजर उतार दिया है. एक दर्द तो है जिसमें निरंतरता है. छटपटाहट है. अपने दौर से यही सौगात मिली है. अब किसी से बात करने का मन नहीं करता. हालाँकि औपचारिकता तो हमेशा ही बनी रहती है. घर में बात न करो तो लगेगा कुछ हो गया है. रोने का स्पेस पहले से ही मैंने ख़ुद ख़त्म कर लिया है. हर कोई यह समझता है, 'अरे ज्योति तो बहुत मज़बूत है!' लेकिन इस चित्र में घुटन होती है. इसलिए जार-जार रो लेने का स्पेस बनाना चाहती हूँ. मेरा लिखना मेरा रोना ही है. जो मन में आए बेधड़क लिख दिया. हर लफ्ज़ एक आँसू ही है. इसके साथ ही अपने आप को एक जोड़ी जूता बनते हुए भी देख रही हूँ. जो चल चल कर घिस जाएगा. एक रोज़ पुराना जूता नए जूतों द्वारा रिप्लेस हो जाएगा लेकिन तब क्या नया जूता पुराने की तरह संवेदनशील होगा? कुछ कहा नहीं जा सकता!
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चित्र- विन्सेंट वान गॉग
इतने ही वक़्त में मुझे स्पेस की ख़ूबी और ख़ामी भी महसूस होने लगी है. अब तो लगता है कि इसी स्पेस में उन तमाम लोगों को किसी शक्ति से देख सकती हूँ जो भौतिक रूप से मुझसे बहुत दूर हैं पर ख़बरों, रपटों, सूचनाओं, वीडियो ने उन्हें मेरे बगल में उठाकर रख दिया है. सब के अंदर एक बेचैनी है. इस मामले में कश्मीर को कैसे भुलाया जा सकता है? कश्मीर के बच्चे गर्म कम्बल जैसे मोटे कपड़े पहने हुए मेरे पास बैठकर कह रहे हैं, "तुमको अब पता चल रहा है? कैसा लगता है एक जगह पर कैद रहना?"मैं अपना चेहरा घुमा लेती हूँ और कोई जवाब नहीं देती. ऐसा नहीं है कि मेरे पास जवाब है और मैं देना नहीं चाहती. सच तो यह है कि मेरे पास जवाब में रखने के लिए कुछ नहीं है. कोई ज़ोरदार बात नहीं है. हमारे अंदर एक राष्ट्रीय स्वार्थ है. और मेरा यकीन कीजिए यह कोई बहुत अच्छी चीज़ नहीं है. पैदा होते ही कितना स्वार्थ खून में अफीम की तरह मिला दिया जाता है. और पूरी उम्र गुज़र जाती है लेकिन यह कभी नहीं मरता. हमको यह बिलकुल स्वाभाविक लगता है. अपने अंदर ऑक्सीजन खींचने की प्रक्रिया की तरह. इसमें दोहराना शामिल है.
हमको नहीं बताया जाता कि दूसरे के दुःख भी उतने मायने रखते हैं. हमको नहीं बताया जाता कि जब कहीं दूर कोई मार दिया जाता है वह हत्या होती है और उसकी खिलाफ़त में हमें भी अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए. कहीं भी कुछ ग़लत होता है तब हमको टीवीनुमा बुरा लगता है. जब तक टीवी चालू होता है तब तक दुःख की साँस चलती है. और जब वह बंद होता है तब सब ख़त्म हो जाता है. हमारे यह व्यक्तिगत स्वार्थ अब बड़े रूप में राष्ट्रीय स्वार्थ में तब्दील कर दिए गए हैं. हम बहुत बुरा हो जाने पर भी चुप रहते हैं. इसमें मैं पूरी तरह शामिल हूँ और मेरे बगल का चेहरा भी. मेरे पीछे की आवाजें भी और मेरे सामने का पड़ोस वाला घर भी. हम सभी तो शामिल हैं. हम कभी भी इकठ्ठा होकर एक आवाज़ नहीं बन पाते. हम कभी भी उन मौतों का सदमा नहीं समझ पाते जिन्हें नहीं होना चाहिए था, बेवक्त.
दूर मत जाइए. मैं अपने शहर की बात बताती हूँ, अपने बारे में. जब दिल्ली में फरवरी के महीने में दंगा हो रहा था तब मैंने कुछ भी नहीं कहा और न किया. हालाँकि ईमानदारी से कहूँ तो मुझे अपने मरने का भय सता रहा था. मैंने एक मार्च की रात इस डर को भीतर तक देखा भी था. मैं बच गई इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा और न किया. मेरे जन्मदिन वाले दिन यानी पाँच जनवरी के दिन मैं जे.एन.यू. में ही थी. अपनी दोस्त के साथ रिंग रोड का चक्कर लगा रही थी और बहुत सी बातें भी कर रही थी. उस दिन हम दोनों बाकि दिनों के मुक़ाबले बहुत हँसे थे. इतना कि मेरे गाल दर्द हो रहे थे और आँखों से आँसू तक गिर रहे थे. लेकिन जब घर लौट कर आई और शाम छ बजे अपना केक काटकर फोन पर ख़बर देखी तब मुझे संगीन करंट लगा. मेरी दोस्त फँस गई थी. उसके हॉस्टल पर हमला हुआ था और वह और उसके साथ मौज़ूद लोग घबराये हुए थे. मेरी दोस्त को मैं फोन से हौंसला देती रही और यह काम हम दोनों ने लगभग पूरी रात एक अच्छे स्कॉलर की तरह किया. मेरी क़िस्मत देखिए मैं इस दिन भी बच गई. मैं मरी नहीं. मुझे चोट नहीं आई. मुझे कुछ नहीं हुआ. लेकिन क्या वास्तव में मुझे कुछ नहीं हुआ? मैं आपको जाहिर नहीं कर सकती लेकिन मुझे इन घटनाओं से बहुत बड़े मानसिक धक्के लगे. इस समय भी हममें से ऐसे बहुत से लोग थे जो इस हमले का जश्न मना रह थे और जायज ठहरा रहे थे.
मानसिक धक्के न दिखनेवाले तीखे दबाव और तनाव होते हैं. मेरी जो भी उम्र है उनमें मैंने कुछ तनाव और दबावों को देख औरजी लिया है. जिन दबावों औरतनावों को मैं कम कर सकती थी, उन्हें मैंने किया भी है लेकिन जिनको नहीं कर सकती उनके लिए खोज जा रही है. उन्हें नज़रन्दाज़ किया ही जा सकता है. लेकिन कई बार या नुस्खा भी काम नहीं आता. अब उसी दिन की बात लीजिए. एक बच्ची की फ़ोटो कितनी वायरल हुई. वह सिर पर बड़ा सा बैग लिए अपने घर की दूरी नाप रही थी. बताइए कुछ बच्चियां सिन्ड्रेला की कहानियाँ बुनती हैं और बार्बी डॉल उठाए घूमती हैं उसी उम्र में यह बच्ची अपने माँ पापा के साथ अपने बड़े हो जाने की ज़िद्द में जबरन देश के महान नेता द्वारा धकेल दी गई है. बच्चों को तो बच्चों की तरह होना चाहिए. लेकिन वह तो बड़ी हो रही है. उसके छोटे पाँव कितनी दूरी तय कर चुके हैं, जब तक मैं यह सब उसके बारे में लिख रही हूँ. वो जब बड़ी होगी तब उसके बचपन के दिन में से बचपन की चोरी कर ली गई होगी. यह एक राष्ट्रीय शर्म होगी. लोग ये बोलते हुए मिलते हैं कि फलां लोग दूसरे देश में जाकर होटल में से चीजें चुरा लेते हैं. इससे देश को कितनी शर्मिंदगी होती है. मेरे लिए वह कोई बड़ी बात नहीं है. न ही मुझे उसमें कोई शर्मिंदगी महसूस होती है. मैं विदेश कभी गई नहीं. और जिन विदेशियों को देखा है वे भी कोई हमसे ज़्यादा अलग नहीं हैं. वे भी यहाँ (भारत में) बहुत उलटे सीधे काम करते हैं. लेकिन हम कभी उनके देश के नाम के ख़राब होने की दुहाई नहीं देते. मुझे देश वाली शर्म इस बच्ची की फ़ोटो देख भीतर तक महसूस हुई. भीतर तक. हो सकता है मैं बहुत संवेदनशील व्यक्ति हूँ पर आप क्यों नहीं हैं? क्या संवेदनशील होना आपकी प्राथमिकता नहीं है? क्या आप इंसान की नस्ल के नहीं हैं?
इत्तेफाक से मैंने मानव कौल की लिखी किताब जो एक यात्रा वृत्तान्त है पढ़कर पूरा किया. शीर्षक था 'बहुत दूर, कितना दूर होता है'. वास्तव में 'बहुत दूर' शब्दों के पास जो कोमा है, मैं वहीं अटक गई हूँ. न आगे बढ़ पा रही हूँ और न पीछे. किताब बहुत बेहतरीन नहीं है लेकिन उसमें कुछ ख़ास है. लेखक भीतर की यात्रा में भटक रहा है. मुझे नहीं पता आप लोग भी इस यात्रा के भेद समझते हैं या नहीं. लेकिन अगर आप नहीं समझते तब आपको इसे समझने के लिए कुछ देर अलग थलग बैठ जाना चाहिए. इस किताब की एक बात और बहुत शानदार है और वह यह कि लेखक और यात्री, किसी मोह के चलते रूक नहीं रहे हैं. लेखक को किसी से प्यार है और दिल में वह चाहता है कि रूक भी जाए, पर वह नहीं रुकता. वह अपनी यात्रा पूरी करता है. वह चलता है और समेट लेने की ज़िद्द नहीं करता कि सब कुछ घोंट कर पी जाए. जो उसके साथ शामिल होता है उसका भी स्वागत है और जो नहीं उसका भी स्वागत है. वह नए लोगों से जब अपने होने के साथ मिलता वह हिस्सा बहुत अच्छा है. ख़ुद को न बदलकर सामने वाले के साथ अपने को हुबहू रख देना एक ज़िन्दगी वाली स्किल है.
इस किताब बहुत सी ख़ूबियों पर बात की जा सकती है. लेकिन आज के वक़्त में इसमें से ऐसा क्या लिया जाए जो मायने रखता है? मुझे लगता है एक ख़ामोशी की यात्रा को समझना चाहिए. उस बच्ची की फ़ोटो देखने के बाद कुछ न कर पाने की बेबसी ने अंदर तक कोई ख़ंजर उतार दिया है. एक दर्द तो है जिसमें निरंतरता है. छटपटाहट है. अपने दौर से यही सौगात मिली है. अब किसी से बात करने का मन नहीं करता. हालाँकि औपचारिकता तो हमेशा ही बनी रहती है. घर में बात न करो तो लगेगा कुछ हो गया है. रोने का स्पेस पहले से ही मैंने ख़ुद ख़त्म कर लिया है. हर कोई यह समझता है, 'अरे ज्योति तो बहुत मज़बूत है!' लेकिन इस चित्र में घुटन होती है. इसलिए जार-जार रो लेने का स्पेस बनाना चाहती हूँ. मेरा लिखना मेरा रोना ही है. जो मन में आए बेधड़क लिख दिया. हर लफ्ज़ एक आँसू ही है. इसके साथ ही अपने आप को एक जोड़ी जूता बनते हुए भी देख रही हूँ. जो चल चल कर घिस जाएगा. एक रोज़ पुराना जूता नए जूतों द्वारा रिप्लेस हो जाएगा लेकिन तब क्या नया जूता पुराने की तरह संवेदनशील होगा? कुछ कहा नहीं जा सकता!
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चित्र- विन्सेंट वान गॉग