Tuesday, 31 March 2020

शब्दों के पास जो कोमा है, वहीं अटक गई हूँ

12 मार्च के बाद से घर से बाहर नहीं निकल पाई हूँ. इस लॉकडाउन में रोज़मर्रा में बहुत महीन पर असर करने वाले बदलाव मन में धीरे धीरे जम कर बड़े हो रहे हैं. सब घर में बंद कर दिए गए हैं. कितनी ही ज़ुबानें ख़ामोशी की तरफ़ मोड़ने की कोशिश हुई पर ऐसा हुआ नहीं है. एक बड़-बड़ लगातार जारी है. टीवी पर आने वाली ख़बरों में या फिर घर में बैठे लोगों की बातचीत में. अजीब सी बड़-बड़! कान में अब घाव पनपने शुरू हो गए हैं. ऐसा नहीं है कि मैं नौकरीशुदा थी और रोज़ ही बाहर आना जाना लगा रहता था. या फिर मेरी दोस्ती का सर्किल बहुत बड़ा था. या फिर मेरा सोशल दायरा किसी वीडियो की तरह था जो बहुत वायरल था. ऐसा बिलकुल नहीं है. हफ़्ते में एक या ज़्यादा से ज़्यादा दो दिन निकलना होता था. उसमें भी बसों से सफ़र करना शामिल था. कुछ औपचारिक काम एक बड़े अनजान दायरे में जाने का कारण बन ही जाता था. 

इसके अलावा दिमाग में यह बोझ नहीं था कि घर में क़ैद हूँ. घर में ही रहना अपना चुनाव था. दिन कब बीत जाता था पता ही नहीं चलता था. या यूं कहूँ, मैंने कभी घड़ी की सुइयों को इतने ध्यान से नहीं देखा था जितना अब देख रही हूँ. जब 12 या साढ़े 12 बजते हैं, तब ख़ुशी होती है कि मैंने/हमने आधा दिन गुजार दिया है. इसके बाद पास ही टंगे कैलंडर पर नज़र जाती है कि अब कितने दिन और? ऐसा रोज़ होता है. कभी कभी फेसबुक पर वीडियो देखकर माथा भनभना जाता है. कुछ दिन पहले ऐसा ही हुआ जब एक बिहार के बच्चे को रोते हुए देखा. ज़ुबान गाली के लिए शब्द खोज रही थी. किसे जिम्मेदार ठहरा कर गाली दी जा सकती थी, यह भी सोच रही थी. लेकिन मुझे कोई ख़ास संतोषजनक शब्द नहीं मिले तब यही ग़ुबार झुंझलाहट में तब्दील हो गया. मैं बस बोले जा रही थी. मेरे अम्मी-अब्बू मुझे अजीब सी चुप्पी के साथ घूर रहे थे. वे कुछ बोलना भी चाह रहे थे पर वे बोल नहीं पा रह थे. मेरे रिश्तेदार मेरे इस रूप से अधिक वाकिफ़ नहीं थे. वे भी कल घबरा कर मेरे पास से इतर-बितर हो गए. 

यह महज एक मूड का रूप है. दो दिन पहले एक मूड यह था कि खीझ  बन कर तैयार हो रही थी. यह कहीं बाहर से नहीं आ रही थी बल्कि अंदर से अपने आप तैयार हो होकर बाहर आ रही थी. बहुत कुछ करना चाहती हूँ.लेकिन कहना इतना मुश्किल कभी नहीं लगता था.इन 16 से 17 दिनों में कुछ हो रहा है और लगातार हो रहा है. जो भी रिपोर्ट या ख़बर दिखती है लगभग सभी को पढ़ लेती हूँ. लेकिन यह भी नहीं पता चलता कि पढ़कर समझ क्या आता है? खीझ को मैंने कभी बहुत पास नहीं देखा था. ऐसा बिलकुल कम हुआ था. अक्सर जब मेरे साथ इस तरह की स्थिति आती थी तब मैं दिमाग को इतर-बितर कर लेती थी. अगर लोग इसकी वजह होती तो उनको बोलकर या लड़कर(बेहद कम मामलों में) बोझ हल्का कर लेती थी. लेकिन अभी ऐसा नहीं है. अभी ऐसा लग रहा है कि अपने आप को जाहिर कर लेने की सुविधा छीन ली गई है. दिमाग में एक झुला घूमता रहता है. और यह इतना भूतिया है कि मैं बता नहीं सकती. इस झूले पर अक्सर कोई झूलता बही नहीं. यह निशानी बन गया है कि कहीं कुछ अच्छा और ठीक नहीं है.

इतने ही वक़्त में मुझे स्पेस की ख़ूबी और ख़ामी भी महसूस होने लगी है. अब तो लगता है कि इसी स्पेस में उन तमाम लोगों को किसी शक्ति से देख सकती हूँ जो भौतिक रूप से मुझसे बहुत दूर हैं पर ख़बरों, रपटों, सूचनाओं, वीडियो ने उन्हें मेरे बगल में उठाकर रख दिया है. सब के अंदर एक बेचैनी है. इस मामले में कश्मीर को कैसे भुलाया जा सकता है? कश्मीर के बच्चे गर्म कम्बल जैसे मोटे कपड़े पहने हुए मेरे पास बैठकर कह रहे हैं, "तुमको अब पता चल रहा है? कैसा लगता है एक जगह पर कैद रहना?"मैं अपना चेहरा घुमा लेती हूँ और कोई जवाब नहीं देती. ऐसा नहीं है कि मेरे पास जवाब है और मैं देना नहीं चाहती. सच तो यह है कि मेरे पास जवाब में रखने के लिए कुछ नहीं है. कोई ज़ोरदार बात नहीं है. हमारे अंदर एक राष्ट्रीय स्वार्थ है. और मेरा यकीन कीजिए यह कोई बहुत अच्छी चीज़ नहीं है. पैदा होते ही कितना स्वार्थ खून में अफीम की तरह मिला दिया जाता है. और पूरी उम्र गुज़र जाती है लेकिन यह कभी नहीं मरता. हमको यह बिलकुल स्वाभाविक लगता है. अपने अंदर ऑक्सीजन खींचने की प्रक्रिया की तरह. इसमें दोहराना शामिल है.

हमको नहीं बताया जाता कि दूसरे के दुःख भी उतने मायने रखते हैं. हमको नहीं बताया जाता कि जब कहीं दूर कोई मार दिया जाता है वह हत्या होती है और उसकी खिलाफ़त में हमें भी अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए. कहीं भी कुछ ग़लत होता है तब हमको टीवीनुमा बुरा लगता है. जब तक टीवी चालू होता है तब तक दुःख की साँस चलती है. और जब वह बंद होता है तब सब ख़त्म हो जाता है. हमारे यह व्यक्तिगत स्वार्थ अब बड़े रूप में राष्ट्रीय स्वार्थ में तब्दील कर दिए गए हैं. हम बहुत बुरा हो जाने पर भी चुप रहते हैं. इसमें मैं पूरी तरह शामिल हूँ और मेरे बगल का चेहरा भी. मेरे पीछे की आवाजें भी और मेरे सामने का पड़ोस वाला घर भी. हम सभी तो शामिल हैं. हम कभी भी इकठ्ठा होकर एक आवाज़ नहीं बन पाते. हम कभी भी उन मौतों का सदमा नहीं समझ पाते जिन्हें नहीं होना चाहिए था, बेवक्त.

दूर मत जाइए. मैं अपने शहर की बात बताती हूँ, अपने बारे में. जब दिल्ली में फरवरी के महीने में दंगा हो रहा था तब मैंने कुछ भी नहीं कहा और न किया. हालाँकि ईमानदारी से कहूँ तो मुझे अपने मरने का भय सता रहा था. मैंने एक मार्च की रात इस डर को भीतर तक देखा भी था. मैं बच गई इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा और न किया. मेरे जन्मदिन वाले दिन यानी पाँच जनवरी के दिन मैं जे.एन.यू. में ही थी. अपनी दोस्त के साथ रिंग रोड का चक्कर लगा रही थी और बहुत सी बातें भी कर रही थी. उस दिन हम दोनों बाकि दिनों के मुक़ाबले बहुत हँसे थे. इतना कि मेरे गाल दर्द हो रहे थे और आँखों से आँसू तक गिर रहे थे. लेकिन जब घर लौट कर आई और शाम छ बजे अपना केक काटकर फोन पर ख़बर देखी तब मुझे संगीन करंट लगा. मेरी दोस्त फँस गई थी. उसके हॉस्टल पर हमला हुआ था और वह और उसके साथ मौज़ूद लोग घबराये हुए थे. मेरी दोस्त को मैं फोन से हौंसला देती रही और यह काम हम दोनों ने लगभग पूरी रात एक अच्छे स्कॉलर की तरह किया. मेरी क़िस्मत देखिए मैं इस दिन भी बच गई. मैं मरी नहीं. मुझे चोट नहीं आई. मुझे कुछ नहीं हुआ. लेकिन क्या वास्तव में मुझे कुछ नहीं हुआ? मैं आपको जाहिर नहीं कर सकती लेकिन मुझे इन घटनाओं से बहुत बड़े मानसिक धक्के लगे. इस समय भी हममें से ऐसे बहुत से लोग थे जो इस हमले का जश्न मना रह थे और जायज ठहरा रहे थे.

मानसिक धक्के न दिखनेवाले तीखे दबाव और तनाव होते हैं. मेरी जो भी उम्र है उनमें मैंने कुछ तनाव और दबावों को देख औरजी लिया है. जिन दबावों औरतनावों को मैं कम कर सकती थी, उन्हें मैंने किया भी है लेकिन जिनको नहीं कर सकती उनके लिए खोज जा रही है. उन्हें नज़रन्दाज़ किया ही जा सकता है. लेकिन कई बार या नुस्खा भी काम नहीं आता. अब उसी दिन की बात लीजिए. एक बच्ची की फ़ोटो कितनी वायरल हुई. वह सिर पर बड़ा सा बैग लिए अपने घर की दूरी नाप रही थी. बताइए कुछ बच्चियां सिन्ड्रेला की कहानियाँ बुनती हैं और बार्बी डॉल उठाए घूमती हैं उसी उम्र में यह बच्ची अपने माँ पापा के साथ अपने बड़े हो जाने की ज़िद्द में जबरन देश के महान नेता द्वारा धकेल दी गई है. बच्चों को तो बच्चों की तरह होना चाहिए. लेकिन वह तो बड़ी हो रही है. उसके छोटे पाँव कितनी दूरी तय कर चुके हैं, जब तक मैं यह सब उसके बारे में लिख रही हूँ. वो जब बड़ी होगी तब उसके बचपन के दिन में से बचपन की चोरी कर ली गई होगी. यह एक राष्ट्रीय शर्म होगी. लोग ये बोलते हुए मिलते हैं कि फलां लोग दूसरे देश में जाकर होटल में से चीजें चुरा लेते हैं. इससे देश को कितनी शर्मिंदगी होती है. मेरे लिए वह कोई बड़ी बात नहीं है. न ही मुझे उसमें कोई शर्मिंदगी महसूस होती है. मैं विदेश कभी गई नहीं. और जिन विदेशियों को देखा है वे भी कोई हमसे ज़्यादा अलग नहीं हैं. वे भी यहाँ (भारत में) बहुत उलटे सीधे काम करते हैं. लेकिन हम कभी उनके देश के नाम के ख़राब होने की दुहाई नहीं देते. मुझे देश वाली शर्म इस बच्ची की फ़ोटो देख भीतर तक महसूस हुई. भीतर तक. हो सकता है मैं बहुत संवेदनशील व्यक्ति हूँ पर आप क्यों नहीं हैं? क्या संवेदनशील होना आपकी प्राथमिकता नहीं है? क्या आप इंसान की नस्ल के नहीं हैं?

इत्तेफाक से मैंने मानव कौल की लिखी किताब जो एक यात्रा वृत्तान्त है पढ़कर पूरा किया. शीर्षक था 'बहुत दूर, कितना दूर होता है'. वास्तव में 'बहुत दूर' शब्दों के पास जो कोमा है, मैं वहीं अटक गई हूँ. न आगे बढ़ पा रही हूँ और न पीछे. किताब बहुत बेहतरीन नहीं है लेकिन उसमें कुछ ख़ास है. लेखक भीतर की यात्रा में भटक रहा है. मुझे नहीं पता आप लोग भी इस यात्रा के भेद समझते हैं या नहीं. लेकिन अगर आप नहीं समझते तब आपको इसे समझने के लिए कुछ देर अलग थलग बैठ जाना चाहिए. इस किताब की एक बात और बहुत शानदार है और वह यह कि लेखक और यात्री, किसी मोह के चलते रूक नहीं रहे हैं. लेखक को किसी से प्यार है और दिल में वह चाहता है कि रूक भी जाए, पर वह नहीं रुकता. वह अपनी यात्रा पूरी करता है. वह चलता है और समेट लेने की ज़िद्द नहीं करता कि सब कुछ घोंट कर पी जाए. जो उसके साथ शामिल होता है उसका भी स्वागत है और जो नहीं उसका भी स्वागत है. वह नए लोगों से जब अपने होने के साथ मिलता वह हिस्सा बहुत अच्छा है. ख़ुद को न बदलकर सामने वाले के साथ अपने को हुबहू रख देना एक ज़िन्दगी वाली स्किल है.

इस किताब बहुत सी ख़ूबियों पर बात की जा सकती है. लेकिन आज के वक़्त में इसमें से ऐसा क्या लिया जाए जो मायने रखता है? मुझे लगता है एक ख़ामोशी की यात्रा को समझना चाहिए. उस बच्ची की फ़ोटो देखने के बाद कुछ न कर पाने की बेबसी ने अंदर तक कोई ख़ंजर उतार दिया है. एक दर्द तो है जिसमें निरंतरता है. छटपटाहट है. अपने दौर से यही सौगात मिली है. अब किसी से बात करने का मन नहीं करता. हालाँकि औपचारिकता तो हमेशा ही बनी रहती है. घर में बात न करो तो लगेगा कुछ हो गया है. रोने का स्पेस पहले से ही मैंने ख़ुद ख़त्म कर लिया है. हर कोई यह समझता है, 'अरे ज्योति तो बहुत मज़बूत है!' लेकिन इस चित्र में घुटन होती है. इसलिए जार-जार रो लेने का स्पेस बनाना चाहती हूँ. मेरा लिखना मेरा रोना ही है. जो मन में आए बेधड़क लिख दिया. हर लफ्ज़ एक आँसू ही है. इसके साथ ही अपने आप को एक जोड़ी जूता बनते हुए भी देख रही हूँ. जो चल चल कर घिस जाएगा. एक रोज़ पुराना जूता नए जूतों द्वारा रिप्लेस हो जाएगा लेकिन तब क्या नया जूता पुराने की तरह संवेदनशील होगा? कुछ कहा नहीं जा सकता!
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चित्र- विन्सेंट वान गॉग 

 

Wednesday, 18 March 2020

दस्तक

जब मैं छोटी थी तब से इस दिन को लेकर मेरे आसपास कुछ ऐसा रचा जाता रहा है कि मैं इस दिन के अच्छे और बुरे होने के चुनाव में काफी अरसे तक उलझी रही। पर मैंने अब यह फैसला किया है कि इस उलझन को एक मुकाम तक पहुंचाया जाये और इस पर आगे बहुत ज़्यादा समय नहीं दिया जाए। सच में समय बहुत क़ीमती है। उसे सांस लेने में और उस तरंग से जोड़ा जाए जो जीवंत है और उर्ज़ा देती रहती है। 14 फरवरी का नामकरण किसी प्रेम के संत के नाम पर रखा गया था। पहले भी बोलने में ज़ुबान लड़खड़ा जाती थी और आज भी हालात कुछ बदले नहीं है। लेकिन तय तो यह हुआ है कि बुरा बोलने से अच्छा है जुबान पर प्रेम शब्द रख दिया जाए.   

प्रेम के जिस रूप को समझ पाई हूँ वह बहुत शांत है जो शायद हम सबके अंदर है. प्रेम एक ही वक़्त पर बेहद निजी एहसास है तो उसी वक़्त वह कब सामूहिक बन जाता है, पता ही नहीं चलता. प्रेम, प्रेम जैसा भी हो सकता है और प्रेम उस जैसा भी हो सकता है जिसकी कभी कल्पना नहीं की गई. कल्पना के परे कौन सी कल्पना रहती है, यह जानने की ज़रुरत नहीं क्योंकि हमारी ज़िन्दगी देखने सुनने में गुज़र रही है. अगर जानने की इच्छा है तो जानिये. पूरा विश्व नक्शा बना बैठा है. बुला रहा है.

समुद्रके तल में जो ख़ामोशी होती है उसे मुझे एक बार महसूस करना है. मैंने कभी ऐसी ख़ामोशी का अनुभव नहीं किया. क्या इसका मतलब यह समझा जाए कि सबसे बड़ा प्रेमी समुद्र जैसा भी हो सकता है? हो सकता है! कितना कम समय है यह सब जादू जानने औरसमझने के लिए. कितने दिन किसी के बारे में बुरा सोचकर बिता दिए हमने और उन पलों को नाजायज ही बर्बाद कर दिया. कुछ पलों की भरपाई या मुआवजा कभी नहीं होता. उनके लिए प्रायश्चित ही एक तरीका है. पछताने और प्रायश्चित में फर्क है. मसोस कर रह जाने में भी अंतर है. इसलिए जब भी कोई प्रेम का दिवस हो तो उसे मजबूत करने में सहयोग करें न कि कोसने और हिंसा करने में. कभी कभी प्रायश्चित भी नसीब नहीं होता. अपने मन में एक दस्तक देते रहिये. यही दस्तक आपको याद दिलाती रहेगी कि आप एक इंसान हैं.

Sunday, 15 March 2020

अपना कमरा


हम सब किसी इंतज़ार में (शायद)एक दिशा की तरफ़ जा रहे हैं. एक बात जो दिमाग में रहती है और धीरे धीरे दिल की तरफ़ भी दौड़ती है. वह यह कि हम सब अपने जीवन में एक निष्कर्ष पर पहुँच ही जाते हैं. फिर चाहे देर हो या सवेर. अंत में सब ठीक हो जाता है. उस वक़्त यही इंतज़ार रहता है जो अपने पूरे सफ़र की कहानी बतलाता है. इसकी ही तो अवैल्बिलिटी रहती है. 

अपने दर्द, कोरोना का पैनिक दौर, सिर के अंदर घूमती तमाम बातों के साथ आज 'अपना कमरा' (अ रूम ऑफ़ वंस ओन-वर्जीनिया वुल्फ) दुबारा पढ़कर पूरा किया. क्या सच कहूँ? पहली बार में बहुत समझ नहीं आया था पर अभी काफी समझ आया है. पढ़ने के तुरंत बाद यह पोस्ट लिख रही हूँ. अंदर कुछ मधुर सा घूम रहा है. यह भी सोच रही हूँ कि जब वर्जीनिया उन लड़कियों के आगे अपनी बातें रख रही होंगी तब कितना जीवंत माहौल बना होगा. कुछ महत्वपूर्ण लोगों को सुनना कानों और दिमाग के लिए बेहतरीन तोहफा होता है.  

अक्टूबर 1928 में वर्जीनिया ने 'औरत और कथा-साहित्य' विषय पर दो व्याख्यान दिए थे. 'अपना कमरा' किताब की नींव इन्हीं व्याख्यानों के आधार पर खड़ी है. उन्होंने 'वीमेन एंड फिक्शन' विषय पर एक लेख लिखा था जो 'फोरम' पत्रिका में 1929 छपा था. इसी लेख को और विस्तृत करके निखार के साथ 1929 'अपना कमरा' किताब उभर कर आई. इस किताब का अगला भाग 'थ्री गिनीज' माना जाता है जो सन् 1938 में प्रकाशित हुआ. पढ़ी किताब के अनुसार इस किताब में तर्क है दिया गया है. वह यह कि अक्षमताएं सामाजिक और आर्थिक है. उसकी मुक्ति की कुंजी उस कमरे में ही मिलेगी, जिसे वह अपना कह सके और जिसमें वह अपने भाइयों की तरह ही आज़ादी और ख़ुद्दारी से रह सके.*  

अभी कोरोना वायरस से बीमारी फैली है. देश के प्रधानमंत्री तक रोगी को अलग कमरे में रहने की सलाह दे रहे हैं. ऐसे ही कोई बीमारी पुराने वक़्त में फैली होगी और पहले के प्रधानमंनत्रियों ने भी ऐसी ही सलाहें और खुशनुमा मशविरें दिए होंगे. लेकिन यही सब तो पेचीदा लगता है. जब एक बहुत बड़ी आबादी रोज़ रोज़ रेंगकर एक कमरे में जी रही है तब बीमारी में कैसे संभव है कि बीमार के पास अलग कमरा हो? जरा श्रमिक बस्तियों में जाकर देखिए, सच्चाई बाहर आ जाएगी. शुचिता का पर्व मनाने में हम बेहद आगे रहने वाले लोग हैं.वास्तव में इस बहुरुपिया पृथ्वी पर रहना ही तो महान रचना का विषय है. कुछ समय पहले किसी के लिए रिपोर्ट बना रही थी. वह अपनी कार में बिठाकर एक निश्चित जगह पर उतार देती थीं. वह बहुत अच्छा बोलती हैं. सफ़र के दौरान वो बहुत सी बातें कहती थीं. जिस बात को उन्होंने कई दोहराया वह यह थी कि आसमान में उड़ने पर वास्तविक स्थिति का बहुत पता नहीं चलता. असली स्वाद के लिए आपको ज़मीन पर रेंगना होता है. उनकी यही बात आज जब इस किताब को पढ़कर पूरा किया तब मन में आ जा रही है. हम सच्चाई से रहने वाले जीव हैं. एक भ्रम का जाल है. दिलचस्प यह है कि इस जाले की बुनाई अमीरों की लिखी किताबों से होकर हम तक आई है और कहती है, जितना है उसमें भी खुश रहो...लेकिन यह जितना है, आख़िर यह इतना ही क्यों है, सवाल आता है. साथ ही सवालों की ढेर सारी लड़ी भी उभरने लगती है.   

ऐसे में वर्जीनिया वुल्फ का यह पूरा चिंतन बेहद आकर्षक है. क्योंकि ख़ुद वर्जीनिया ने व्यंजना भाषा की बात की है इसलिए इस पर बात कर लेना ठीक ही होगा. अगर इस पंक्ति का ज्यों का त्यों उठाकर देर तक पढ़ा या समझा जाए तब कितने ही ऐतिहासिक से लेकर वर्तमान तक के चित्र उभर आयेंगे. कमरे का पूरा झगड़ा, उसके लिए हुए संघर्ष, उसमें रहने की आदत और उसमें लगने वाली जद्दोजहद, उसके अंदर की सजावट (किताबों और लेखन के संदर्भ में) उसके अंदर की रौशनी, उसकी दीवारों पर बनी रौशनदार खिड़कियाँ, उसमें रहने वाली आत्मा और उसका संगीत...यह फेहरिश्त ख़त्म नहीं होगी. लेकिन सवाल यह है कि आख़िर कितनों को यह सुखद कमरा नसीब हुआ है? देखा, सवाल बहुत हैं, यही तो मुख्य और संतोषजनक बात है.



जब ख़ुद (ख़ुदा मुझमें ही है, फ़र्क आ की मात्रा का ही है) को देखती हूँ तब पाती हूँ कि मुझे अपना कमरा अभी तक हासिल नहीं हुआ है. जब अपना कमरा कह रही हूँ तब इसके कई मतलब हैं. सिर्फ कमरे की इच्छा का ही प्रतीक नहीं है यह. मेरा दिमाग अभी तक उन सभी जानकारियों से भरा हुआ है और उनमें सोच के स्तर तर-डूबा हुआ है जो मुझे हर तरफ़ से मिलती आई हैं. लेकिन मैं उनकी खिलाफ़त नहीं कर रही है. कम से कम इसके चलते मुझे ज्ञान जैसे शब्द को दूर से देखने सौभाग्य तो मिला. मुझे अपने बचपन के दिन याद आ रहे हैं जब भारत सरकार के प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम चला करते थे और मेरे घर तक (शायद मेरी अम्मी के लिए)  भी उसकी खूबसूरत बुकलेट आई थी. उसमें हिंदी वर्णमाला के अक्षर और चित्र बने हुए थे. बड़े आ से आला अभी तक याद है. बाक़ी अगर दिमाग पर ज़ोर डालकर याद भी करूँ तो याद नहीं आ पाएगा. अक्षर से पहले मुलाकात इसी तरह हुई है.  बहाव का स्रोत मायने रखता है.

मुझे लगता पढ़ने लिखने की प्रक्रिया में सुनना भी अहम है ही. इसलिए जो पहला शब्द दिमाग में सुनने से छपा था वह 'दूरदर्शन' शब्द था. उस वक़्त इसका अर्थ नहीं मालूम था. यह पता था कि यह टीवी पर आता है. यहाँ कई कार्यक्रम आते हैं. सन्डे के दिन के कार्यक्रम विशेष तो थे ही. लेकिन तब भी सच कह रही हूँ, 'अपना कमरा' बना लेने का ख्वाब नहीं था. शायद स्कूल के दिन याद करने चाहिए. वहाँ पढ़ने जाती थी लेकिन सभी जानते हैं, वहाँ एक बहुत बुरी बात हुई. मेरे साथ ज़्यादा हुई. क्या यह कहूँ कि यह सरकारी स्कूल था इसलिए? हो सकता है! तो वहाँ बुरी बात 'ख़्वाब न दिखाने' की है. वो घर के काम तो देते थे. होम साइंस पढ़ाते थे. इतिहास पढ़ाते थे, चित्रकला करवाते थे. एस.एस.टी. पढ़ाते थे, गणित पढ़ाते थे. सब करते थे पर ख़्वाब का जाने क्यों एक पीरियड न लगता था? क्या यह सरकारी स्कूल ही ऐसा करता था या निजी स्कूल भी इसी के शिकार थे? नहीं पता!

ख़्वाब देखने चाहिए. अपने कमरे के! यह बेहद ग़लत बात है कि जो बच्चे तिकोने घर चित्रों में तो उतारते हैं लेकिन उनके अंदर उसको पाने का ख़्वाब नहीं उतारा जाता. उनको बेहतर जिंदगी वो टीचर नहीं बतलाती/बतलाता जो होती है. बेहतर जिंदगी की परिभाषा सबकी अलग होगी. लेकिन सभी को उस परिभाषा पर सोच और विचार करना आना चाहिए. उसे बहुत ध्यान से मांझना चाहिए. उसे गैर कानूनी हरकतों से बनाने की बजाय मेहनत से बनाने पर ज़ोर होना चाहिए. 'चार दिन की ज़िन्दगी फिर अँधेरी रात है' वाली बात चाहे जितनी ठीक और नाजुक हो पर क्या चार जो चांदनी के दिन हैं वे अच्छे से नहीं गुज़रने चाहिएं? कब तक खैराती स्वास्थ्य शिविरों में चेक अप करवाते रहेंगे? कब तक 25% निजी बड़े स्कूल में पाने के लिए तरसते रहेंगे? कितने ही सवालों को खड़े और बड़े होते हम देखते हैं. और जब मरते हैं तब भी ये सवाल हमारे पीछे किसी दूसरे को डराने के लिए ठीक उसी तरह बने रहते हैं जैसे हमारे जिंदा रहने में बने रहते थे. आप सोचिये. आपको लगेगा कि हमारा जन्म से मरण तक का सफ़र एक बनाए गए मैन्युअल का शिकार है. किसी और ने हमारा पाठ्यक्रम तैयार करने का जबरन जिम्मा ले रखा है.

कमरे का महत्त्व और भी बड़ा है हर उस बात से जो बात नहीं है. मुझे ठोस रूप से एक कमरे की तलाश है जहाँ बैठकर मैं मन मुताबिक़ और गैर निर्भर ज़िन्दगी बिता सकूँ. जहाँ बैठकर इस ब्लॉग पोस्ट की तरह एक बकवास पोस्ट लिख सकूँ और जब चाहे अपने लिए एक मधुर गीत गा संकू या बजा संकू. वर्जीनिया वुल्फ का जमाना जो था वह आज कितना वैसा ही है और कितना वैसा नहीं है, सोच सकूँ. जब कोई लड़की बात करने या मिलने आये तब उसे भी अपना कमरा बनाने के लिए उकसा सकूँ. उसे अपना कम्फर्ट जतला सकूँ ताकि वह भी 'अपना कमरा' बनाने के लिए तत्पर हो जाए.   

अब मेरा ख़याल 'एमिली' (फ्रेंच के जानकार जानते हैं क्या उच्चारण है) फ़िल्म में जाना चाहता है. वहाँ उसकी पूरी ज़िंदगी में उस कमरे का कितना सुंदर योगदान है. उस कमरे की खिड़की और उसमें लगा मद्धम रंग का पर्दा, कितना सुकून देता है. वह जब काम से लौटकर आती है तब अपने कमरे में जाकर कितना फुर्सत पाती है. क्या आपने अंत का दृश्य देखा है? आपको देखना चाहिए. उसका प्रेमी उसके घर के बाहर आकर उसके दरवाजे पर खड़ा है. कितनी ही फिल्मों में नायिका हीरो के कमरे में प्रेम की तलाश में जाती हैं. लेकिन यहाँ प्रेमी आता है. कितनी नायिकाएं बिना संपत्ति के मर गईं इतिहास में. 'एमिली' नहीं मरेगी और मैं भी. मेरी जिद्द तमन्ना है कि एक कमरा कमर तोड़ मेहनत कर के तैयार कर ही लिया जाए.

अपने दिमाग के कमरे की सजावट का जब सोचती हूँ तब मन करता है कि हर तरह की किताबों का शेल्फ बना लूं. सही ग़लत का फ़र्क करती फिरूं. बाहर से आने वाली हवाएं मुझ पर अपना दबाव न बना दें, इस बात की चिंता करना चाहती हूँ अपने दिमागी कमरे में रहकर. कोई कब मेरे व्यक्तित्व पर हमला करता है और उसे कैसे रोकना है की रणनीति बना सकूँ. बहुत कुछ कर सकती हूँ इस कमरे में. लेकिन उससे पहले मुझे अपने लिए एक ठोस, मजबूत और सुंदर कमरा बनाना ज़रूरी है. इसके लिए एक अच्छी जॉब चाहिए. ताकि मेहनत के दम पर अपने लिए कमरा तैयार कर सकूँ. आप गौर कीजिए, अब जॉब को कौन नियंत्रित कर रहा है?          

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*अपना कमरा किताब से 
चित्र- विन्सेंट वोन गोग



Friday, 13 March 2020

कोरोना

फ़िल्म 'बहू बेग़म' का गीत "हम इंतज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक, ख़ुदा करे कि क़यामत हो और तू आए..." आजकल बेहद याद आता है. जिस तरीके से कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं और जितनी मौतें हो चुकी हैं, यह सब भयानक और डरा देने वाला है. घर में क़ैदी सी ज़िंदगी बन रही है. हर बात में खौफ़ तो अंदर समा ही रहा है साथ ही वहम भी कि कहाँ-कहाँ से वायरस शरीर में घुस सकता है. कितनी मामूली सी झिल्ली है ज़िंदगी और मौत की! न दिखने वाला प्राणी हम इंसान की जान को कितनी शिद्दत से इश्क़ कर रहा है. जान की सलामती की बात की जा रही है. कुछ कुछ देर के बाद हाथ धोना, दूर जाकर छींकना या छींक रहे व्यक्ति से परे हट जाना, ये करना वो करना...लेकिन यह बात कितने ही लोगों को मालूम है कि एक बहुत बड़े तबके के पास हाथ धोने क्या, पीने तक का पानी नहीं है. कभी भी प्यास के लिए IPL मैच रद्द नहीं किए गए. लेकिन जो लोग स्टेडियम में बैठ कर लाइव मैच का मज़ा ले सकते हैं, उनकी जान और उनसे कहीं संक्रमण न फ़ैल जाए, जैसे कारणों के चलते सब रद्द हो रहा है. इस बीमारी का सबसे ज़्यादा नुकसान ग़रीब और साधन रहित लोगों को होगा जो इतिहास के किसी भी पन्ने में दर्ज़ नहीं होगा. आगे अगर हम बच भी गए तो इंसानी नस्ल के बच्चों को मोदी सरकार के गौरव का पाठ्यक्रम पढ़ाया जाएगा? यही तो हमारा इतिहास है. कौन से राजा ने कितने युद्ध जीते और कब राजा बना और कब मर गया! लेकिन कभी ने उस इतिहास को जानने और लिखने की दिलचस्पी को गहरा नहीं किया कि कितने लोगों के बेवक़्त क़त्ल हुए और कितने परिवार उजड़ गए, किसी राजा के सिंहासन के लिए. आप बोर हो रहे हैं न यह सब पढ़ कर?

नहीं, सच बोर नहीं करता, वह परेशां करता है. इसलिए हम भागते हैं. मैं भी भागती हूँ. कल किसी ने मुझसे बातों बातों में साझा किया कि लोगों का ड्रामा शुरू हो गया है कि उनके घर में मौज़ूद 'हेल्प' गंदी/गंदा है और डर है कि कोरोना से संक्रमित कर ही दे. मुझे बेहद तरस और ग़ुस्सा आता है इन दो टके तथाकथित मालिक लोगों पर. पहली बात यह वायरस उन लोगों से पहले भारत में आया जो विदेश की यात्रा कर रहे थे. जबकि अधिकांश जनता तो पूरी ज़िंदगी दिन-रात की रोटी और सरकारी लाइनों में लगने में ज़िंदगी बुज़ुर्ग कर लेती है कि पासपोर्ट कार्यालय उर्फ़ ऑफिस की शक्ल भी नहीं देख पाता. फिर वह मेहनतकश कैसे एक थ्रेट बन गया? बल्कि अमीरों ने यह संक्रमण देश में लाकर धोखा किया है. लेकिन मेरा फिर भी यह मानना है कि बीमार व्यक्ति को सबसे पहले उपचार का हक़ है और ख़याल रखे जाने की ज़रुरत है. उसके ठीक होने की आरज़ू भी रखनी चाहिए. क़ुदरत के कम्पैशन वाले बर्ताव को हर हाल में व्यवहार में लाना चाहिए. लेकिन इंसानों के लिए यह सबसे मुश्किल बात है. आप ख़ुद सोचिये कि आप के मन में कभी भी समानता की बात ने दस्तक दी या नहीं? कुछ ज़रूरी सवाल सबसे पहले ख़ुद से करने चाहिएं.

एक ख़बर ने और मुझे परेशां किया. आज किसी रिश्तेदार ने दूर अरब देशों में गए एक और व्यक्ति बात बताई. सुनी हुई ख़बर के मुताबिक़ वे लोग एक कमरे में बारह की संख्या में रहते थे. किसी व्यक्ति को कोरोना संक्रमण हुआ और अनजाने में उस व्यक्ति के संक्रमण ने बाक़ी लोगों को भी संक्रमित कर दिया. उनका अपने परिवार के पास, यानी भारत में फोन आया था और वे रो रहे थे. कह रहे थे-"मुझे बचा लो...मैं मर जाऊँगा!" ऐसी ख़बरें बहुत परेशां कर देती हैं. एक आंतरिक मौन दुःख मन में उभर आता है. अभी अभी दंगों का घाव भरा भी नहीं है कि ये सब खबरें कान से दिल तक अपना दर्द लेकर उतर रही हैं. क्या आपके पास इस तरह की ख़बरें नहीं आ रहीं? क्या आप कल्पना नहीं करते कि इटली में एक ही दिन में ख़बरों के मुताबिक़ 133 लोग बिना वक़्त मारे गए और चीन में संख्या चार हज़ार तक हो गई है. ईरान भी नहीं बचा. कुछ दुःख बड़े और भारी होते हैं. एक बार कंधें पर सवार हो जाएं तो दिमाग ख़त्म होता है फिर दुनिया की सबसे बड़ी मौत होती है, चुपके से...दिल की मौत!



इस बीच शायद कुछ हुआ है जिनसे हमारी आँखें खुल जानी चाहिए. कोरोना हिन्दू, मुसलमान और इसाई नहीं देख रहा. वह सबको प्यार कर रहा है. उसके लिए सारे शरीर आरामदायक घर हैं. वह जहाँ जा रहा है अपना कर्त्तव्य कितनी अच्छे तरीके से निभा रहा है. हमारा क्या? हम कितने बड़े भेदभाव वाले हैं. देखिए तो हमारे देवता के घर भी कैसे सूने पड़े हैं. चाहे कोई भी धर्म हो, चाहे कोई भी देवता, बचाने नहीं आ रहा. कोई अवतार नहीं ले रहा. किसी देवी को ग़ुस्सा नहीं आ रहा. तीसरी क्लास की बच्ची के रेप के बाद हत्या...ओह! लेकिन इतने सारे ईश्वर में से किसी का भी दिल ग़ुस्सा भर कर नहीं उभरा..! वो कैसा रचनाकार है...मेरा जिस आसमान पर यकीन है वो मेरे सिर पर महज नीली चादर भर नहीं है. अक्सर उसकी ओर देख कर ये सब सवाल पूछ लेती हूँ? लेकिन जवाब, वो तो आपको भी ख़ुद खोजना चाहिए.     

इसपोस्ट की शुरुआत जिस गाने से की थी उसके बारे में अब कहूँगी. हमारी ज़िंदगी ख़ुद हमारी भी नहीं. इसलिए अगर आप किसी को चाहते हैं तो कह दीजिए कि आप चाहते हैं. क़यामत आ गई है. अगर उसे आना है तो आ ही जाए. कुछ पल तो सुकून के मिलेंगे. इस गीत को बार बार सुनिए तो हर बार आपको नया सा लगेगा. कोरोना बेशक़ हमसे ताकतवर है लेकिन वह यह नहीं समझता की प्यार क्या है? उसे नहीं पता कि प्यार का एक पल सौ जिंदगियों से भी भारी और महान है. जब एक मार्च को मेरे यहाँ दंगे की अफ़वाह उड़ी तब मैं खड़े खड़े सुन्न ज़रूर हो गई थी पर मेरा दिमाग उतनी ही फुर्ती से आख़िर ख्वाहिश तय करने में लगा था. वह यह भी तय कर रहा था कि अब जब घर में 'वो' आग लगायेंगे तब किताबों को कैसे बचाया जाए. अगर हम बच भी गए तब मेरे किस हिस्से में घाव गहरे होंगे और उसके बाद की ज़िंदगी कैसी होगी? मैं तो एक लड़की हूँ...दंगें में लड़कियों के साथ क्या क्या होता है????

फिर भी एक बात कहूँगी...दंगों से अच्छा कोरोना है. कम से कम आबरू तो नहीं लूट रहा..! ज़मीन पर क़दम न रखने वाले राजनेता भी अपने कार्यकर्म रद्द करते फिर रहे हैं. सबके सीने के दिल में दर्द की समान दरारें उभरकर आ रही हैं. उनको भी पता चला कि मौत की आहट से ख़राब कुछ भी नहीं होता. इस बीमारी में तसल्ली का तत्व गुम हो गया है. क्योंकि यह बीमारी फैलने वाली है इसलिए किसी के रोते हुए चेहरे को सीने से भी नहीं लगाया जा सकता. उसे हौंसला भी नहीं बंधाया जा सकता. है न ये सब कितना ख़तरनाक! ज़िंदगी एक सस्ता तमाशा बन गई है. इतना सस्ता की लोग चवन्नी भी नहीं फेंक पा रहे हैं.

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चित्र- बी. प्रभा




Friday, 6 March 2020

पैरासाइट: हमारा अक्स


अगर आप आज भी अपनी स्किन में संवेदनशीलता को लिए फिरते हैं तब फ़िल्म ‘पैरासाइट’ आपके अन्दर घुस कर बेचैन कर देगी. कुछ देर के लिए आपको लगेगा कि आप सामाजिक पैरासाइट बनकर घूम रहे हैं. हो सकता है आप ख़ुद को एक परजीवी के रूप में देखना शुरू कर दें. ‘पैरासाइट’ दक्षिण कोरियाई निर्देशक बोंग जून हो की लिखी और निर्देशित फ़िल्म है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस फ़िल्म की ख़ूब चर्चा हुई और हो रही है. अच्छा सिनेमा देखने वालों के लिए यह फ़िल्म सोच के स्तर पर प्रभावित करने वाली है. यही नहीं इस फ़िल्म के बनाए गए पोस्टर्स तक भी सोचने पर मजबूर करते हैं. इस फ़िल्म पर ढेरों चर्चाएं और समीक्षाएं हो रही हैं. अभी तक हुई समीक्षाओं के अनुसार इसमें दो परिवारों की कहानी की बात कही जा रही है. जबकि फ़िल्म में तीन महत्वपूर्ण परिवार हैं और कहानी इनकी वजह से ही दिलचस्प है. किम टेक परिवार, पार्क परिवार और पार्क मून ग्वांग और उसका पति. इस फ़िल्म को बार देखा जा सकता है साथ ही लम्बे नोट्स बनाकर रखे जाने चाहिएं और उन्हें बार बार पढ़ा जाना चाहिए.    

तीन परिवार
किम परिवार में चार सदस्य हैं जो बेहद ग़रीब हैं और पिज्जा के गत्ते वाले डिब्बे बनाकर अपनी ज़िन्दगी जैसे तैसे चला रहे हैं. इस काम में वे चारों अपना काफी समय देते हैं फिर भी उनकी कमाई रोज़ के खर्चों के लिए कम ही है. सही से गत्तों की पैकिंग न होने से उनके पैसे भी काट लिए जाते हैं. वे एक भीड़भाड़ वाले इलाक़े में सेमी बेसमेंट में रहते हैं जहाँ एक खिड़की है. वही एक खिड़की है जिससे उनके घर में सूरज की रौशनी घुस पाती है. बाक़ी वक़्त उनका जीवन सीलन और कम-ज़्यादा अँधेरे में बीत रहा है. इतना ही नहीं उनके पास कपड़े सुखाने की भी जगह नहीं है. 

दूसरा परिवार पार्क परिवार है. इसमें में भी चार सदस्य हैं. बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ते हैं और उनके लिए निजी ट्यूटर की व्यवस्था घर पर ही की जाती है. उनके लिए महंगे सामान ऑनलाइन ऑर्डर कर मंगाए जाते हैं. घर में एक ‘हेल्प’ भी है जो सारा काम संभालती है. इनका घर शहर के बेहद अच्छे इलाक़े में ऊंचाई पर स्थित है. उनके घर में अलग अलग कमरों में जाने के लिए सुन्दर और डिजाइनर सीढ़ियाँ हैं. परिवार की सुन्दर फ़ोटो दीवारों पर लगी हैं. बड़ा किचन है. इसके साथ ही एक बहुत बड़ी दीवारनुमा शीशे की खिड़की है. इसके बाहर हरी घास वाला पार्क है. धूप यहाँ सुंदर उपहार और सौभाग्य है. लेकिन इस घर में डिजाइनर द्वारा बनाया गया डीप-गहरा बेसमेंट भी है जहाँ कई सीढ़ियों से नीचे उतर कर जाया जा सकता है. इसके बारे में अमीर पार्क परिवार को कोई ख़बर नहीं है.


 
तीसरा परिवार पार्क परिवार की हेल्पर का है. वह कई सालों से पार्क परिवार की देखभाल करती है और अपने काम की बेहतर समझ रखती है. लेकिन चोरी छिपे और कर्जों वालों के डर से उसने दुनिया से संपर्क खो चुके अपने पति को उस बेसमेंट में छुपा कर रखा है और गुपचुप रोज़ खाना देती है. एक रोज़ उसका पति खाने की तलाश में बेसमेंट से बाहर भी आता है. इसे देखकर पार्क परिवार का सबसे छोटा सदस्य उनका बेटा भूत समझ लेता है और सदमे का शिकार हो जाता है. इस बात के लिए मिसेज पार्क को उसकी चिंता भी है. 

कहानी-कथानक
किम परिवार के सदस्य ‘की वू’ का दोस्त कहीं बाहर जाने के चलते उसे अपने बदले पार्क परिवार की लड़की को ट्यूशन पढ़ाने को कहता है. साथ ही वह एक लकी पत्थर भी उसको तोहफे देता है ताकि उनके घर में समृद्धि आए. ‘की वू’ एक चालाक किस्म का लड़का है और जब उसे पता चलता है कि पार्क परिवार को एक आर्ट पढ़ाने वाले ट्यूटर की ज़रुरत है तब वह अपनी बहन ‘की जेओंग’ को जेसिका बनाकर मिसेज पार्क से मिलवाता है. जेसिका चालाकी से उनके शरारती बेटे को संभाल लेती है और वहाँ पक्की नौकरी पा जाती है. जेसिका अब अपने पिता और किम परिवार के मुखिया ‘किम टेक’ को ड्राईवर की पोस्ट पर नियुक्त करवा लेती है. इसके लिए वह पहले के कार ड्राईवर को चालाकी से निकलवा देती है. अब ख़ुद किम टेक अपनी पत्नी को वहाँ हेल्प का काम दिलवाने के लिए उसकी पुरानी हेल्प को निकलवा देता है. किम टेक मिसेज पार्क को अपनी पुरानी हेल्पर ‘मूंग ग्वांग’ के बारे में कहता है कि वह टीबी से पीड़ित है और यह बीमारी अब उसके बच्चों को भी हो सकती है. मिसेज पार्क बिना सोचे समझे अपनी पुरानी हेल्पर को काम से बाहर कर लेती है. किम टेक अपनी पत्नी ‘चूंग सूक’ को वहाँ एक एजेंसी के थ्रू काम पर रखवा देता है. इस तरह किम परिवार के सभी सदस्यों को अमीर पार्क परिवार में काम मिल जाता है.  

अब किम परिवार का जीवन ठीक चल रहा होता है. एक दिन पार्क परिवार कैम्पिंग के लिए जाता है. उनके जाते ही किम परिवार के लोग उनके सामान का इस्तेमाल करते हैं और उनकी जैसी जिंदगी जीते हैं. वे सभी बैठे बैठे भावी जीवन से जुड़े सपने की बुनाई करते हैं. तभी घर की घंटी बजती है. चूंग सूक देखती है कि घर की पुरानी हेल्प मून ग्वांग आई है. वह घर में आती है तुरंत रसोई में ख़ुफ़िया दरवाजे से नीचे जाकर अपने पति को खाना देती है. मून ग्वांग कहती है कि उसके मुश्किल दिनों के चलते उसे यहाँ अपने पति को कई साल से छुपा कर रखना पड़ा है. वह मिन्नत करती है कि चूंग सूक रोज़ उसके पति को खाना दे दे और घर की मालकिन से कुछ न बताए. लेकिन चूंग सूक तैयार नहीं होती. इसी बीच किसी तरह बाक़ी किम परिवार के सदस्य मून ग्वांग के आगे गिर पड़ते हैं और उसे समझ आ जाता है कि ये सब चाल चलकर मिसेज पार्क के यहाँ काम कर रहे हैं और उनकी गैर-मौजूदगी में उनके सामान और घर का मज़ा ले रहे हैं. वह एक विडियो बना लेती है और उसे मिसेज पार्क के फोन पर भेज देने की धमकी देती है. किम परिवार मार पिटाई से मून ग्वांग और उसके पति को नियंत्रित कर लेते हैं और उन्हें वापस बेसमेंट में कैद कर आते हैं. हाथापाई में मून ग्वांग को चोट लगती है और वह बुरी तरह घायल हो जाती है. इसी बीच मौसम ख़राब होने और भारी बारिश के चलते पार्क परिवार बिना कैम्पिंग के वापस लौट रहा है. मिसेज पार्क फ़ोन कर के अपनी नई हेल्पर चूंग सूक को कुछ पकाकर रख देने के लिए भी कहती है. 

इस ख़बर को पाकर किम परिवार के सारे सदस्य घर साफ़ करने लगते हैं. पार्क परिवार घर जल्दी ही पहुँच जाता है, इसलिए किम टेक और उनके बेटे की वू और बेटी किम जेओंग उर्फ़ जेसिका को घर की बैठक में रखे बड़े टेबल के नीचे छुपना पड़ता है. इस दौरान वे ‘मि. एंड मिसेज पार्क’ की बातचीत सुन लेते हैं. मि. पार्क कहते हैं कि उन्हें उनके ड्राईवर से गाड़ी में एक अजीब सी बदबू आती है. इसे सुनकर गरीब किम को बेहद दुःख लगता है. किसी तरह वे लोग घर से बाहर निकलते हैं और उसी भारी बारिश वाली रात में अपने घर की तरफ़ दौड़ते हैं. 

वहाँ सबकुछ डूब रहा है. उनके सेमी बेसमेंट घर में बारिश और सीवर का पानी घुस आया है. उन लोगों को गहरी हताशा होती है. उन्हें रात एक सहायता प्राप्त और पीड़ित लोगों के हॉल में गुज़ारनी पड़ती है. बेटा की वू उस लकी पत्थर को छाती से लगाये साथ रखता है. उसे लगता है कि उसकी क़िस्मत इस पत्थर से जुड़ी है. दूसरी तरफ़ मिसेज पार्क बेटे के जन्मदिन की अगले दिन तैयारी करती हैं. बारिश के बंद हो जाने और सुहावने दिन के कारण वे पार्क में बेटे के जन्मदिन का इंतजाम करवाती हैं. इसमें किम परिवार के दोनों ट्यूटर (की जेओंग और की वू) को निमंत्रण देती हैं. 



की वू बारिश से घर की तबाही को भूल नहीं पाता और घर का बेटा होने के चलते बेसमेंट में मून ग्वांग और उसके पति को ठिकाने लगाने अपने लकी पत्थर के साथ चल देता है. लेकिन मून ग्वांग के चोट के कारण काफी खून बहने से मौत हो चुकी है. इसलिए उसका पति ग़ुस्से में उसके लकी पत्थर को की वू के सिर पर दे मारता है. वह बहुत दिनों बाद बेसमेंट से बाहर निकला है. उसका दिमाग ख़राब है. उसकी पत्नी की मौत हो चुकी है. उसे अब किम परिवार के बाक़ी सदस्यों से बदला लेना है. 

चाक़ू लेकर वह बाहर पार्क में चल रही जन्मदिन पार्टी में जाता है. वहाँ वह की जेओंग (जेसिका) को देखते ही उसके सीने में चाकू मार देता है. अपनी बेटी के खून को देखकर मि. किम उस तक पहुँचते हैं. इस बीच मून ग्वांग का पति चूंग सूक की तरफ़ बढ़ता है लेकिन वह ख़ुद को बचाती है और उसे आत्म सुरक्षा में मार डालती है. इस भारी क़त्लेआम को देखकर मि. पार्क का बेटा बेहोश हो जाता है. वह अपने द्वारा देखे हुए भूत को एक बार दुबारा देख लेता है. मि. पार्क, मि. किम से जल्दी से गाड़ी निकालने को कहते हैं. वह अपनी बेटी को छोड़ नहीं पाते और वहीं से चाभी मि. पार्क की तरफ़ फेंकते हैं. चाभी बरसों से बेसमेंट में रह रहे मून ग्वांग के पति की लाश के पास गिरती है. मि. पार्क को उसके अंदर से एक बदबू आती है और वह अपनी नाक सिकोड़ लेते हैं. इसे देखकर अपनी बेटी को खो चुके और घायल बेटे को देख चुके मि. किम को बेहद गुस्सा आता है और वह पास ही पड़ा लम्बा खंजर मि. पार्क के सीने में उतार देते हैं. उनकी भी वहीं. मौत हो जाती है. 

मि. किम, मि. पार्क को मारकर उसी बेसमेंट में छिप जाते हैं. वह उस अँधेरे बेसमेंट से अपने बेटे की वू, जो कोमा से बाहर आया है, को सिग्नल भेजते हैं. सिग्नल को उनका बेटा पढ़ लेता है और पिता के नाम एक चिट्ठी लिखता है. वह लिखता है कि वह बहुत पैसा कमाएगा और उस घर को ख़रीदकर उन्हें आज़ाद करेगा. फ़िल्म इस सपने और मि. किम के बेसमेंट के बाहर आकर रसोई से खाना चुराते हुए दृश्य पर ख़त्म हो जाती है. 

फ़िल्म में प्रतीकात्मकता- इस फ़िल्म में ऐसे बहुत से प्रतीकों, दृश्यों, संवादों आदि का इस्तेमाल किया गया है जिससे दर्शकों को यह फ़िल्म सोचने पर मजबूर तो करती ही है साथ ही गहरा प्रभाव भी डालती है. यह कहानी हमारे दौर के सामाजिक, आर्थिक, व्यावहारिक, सांस्कृतिक ताने बाने को पेश करती है. अंत में इस ताने बाने में जो बचता है वह त्रासदी ही है. इस फ़िल्म दिखाई गए प्रतीकों को समझना ज़रूरी है. हमारा रहन सहन इन वस्तुओं से जुड़ा हुआ है. फ़िल्म में ये बिना किसी संवाद के अपना असर दर्शकों पर छोड़ती हैं.    

खिड़कियाँ- फ़िल्म में दो खिड़कियाँ हैं. किम परिवार के घर की छोटी खिड़की है. वही एक मात्र साधन है जिससे वे बाहर की दुनिया से जुड़े हैं. वहीं से वे इंटरनेट के सिग्नल की तलाश करते हैं. बाहर के आते जाते लोगों को देखते हैं. सरकारी कर्मचारी जब कीड़ों को मारने की गैस छोड़ता है तब पार्क परिवार परेशान हो जाता है. ठीक यही परजीवियों(पैरासाइट) के साथ होता है. उनके जान को ख़तरा होता है. उनका जीवन मुश्किल होता है. समाज में ऐसे ही गरीब लोग हैं जो काम के लिए दूसरे वर्ग पर निर्भर हैं. उनके रहने की जगह तंग, अँधेरी, कम रोशनदार, बदबू से भरी हुई है. किम परिवार के घर की खिड़की एक उम्मीद का भी प्रतीक है जिससे उनकी जिंदगी में अच्छा बदलाव आ सकता है. इस खिड़की से उनके घर में बड़ी कम रौशनी आती है. इतनी कि उनका जीवन कीड़ों की तरह बना रहे. जितनी छोटी खिड़की उतना तंग जीवन यहाँ दीखता है. दूसरी तरफ पार्क परिवार के घर की बड़ी खिड़की है जिससे घर के बाहर विशाल और भव्य दृश्य दिखाई देता है. सूरज की धूप तो आती ही है और बाहर का नजारा भी खूबसूरत मिलता है. दोनों ही घर की खिडकियों एक विशेषता यह है कि उसके आरपार देखा जा सकता है. फर्क यह कि दोनों खिडकियों में से दिख क्या रहा है?
दोनों का आकार क्या है? दोनों के आकार के पीछे कारण क्या हैं और इसके लिए कौन जिम्मेदार है?

लकी पत्थर- हमारे यहाँ जाने कितने ही लोग मेहनत पर यकीन करते हुए कब सौभाग्य जगाने वाले पत्थर नीलम, मोती आदि पहनने लगते हैं, पता चलता रहता है. कई लोग अपने हाथ की रेखाएं पढ़वाने चल देते हैं तो कई अपने सौभाग्य की खोज दिनों, देवताओं आदि के पूजन में करते हैं. ठीक इसी तरह यह पत्थर उस गरीब परिवार के पास उम्मीद और अच्छे सौभाग्य के साथ तोहफे के रूप में आता है. लेकिन वही लकी पत्थर एक हथियार भी बन जाता है और यर्थाथ की ज़मीन पर ले आता है. लालच किसी भी अच्छी जगह ले जाए पर उसका अंजाम बुरा ही होता है. किम परिवार अमीर बनने के सपने में मेहनत तो करते हैं पर वे अपने जैसे ही दूसरे कामकाजी लोगों को धोखे से रिप्लेस करते हैं. वे मूंग ग्वांग की हत्या भी कर देते हैं. पत्थर शुरुआत में लकी बनकर आता है पर अपने अंत में वह अपने ही मालिक को बुरी तरह से घायल करने का हथियार बन जाता है. पत्थर का मालिक सिर पर वार होने की वजह से कोमा में चला जाता है. चाहत में डूबी हमारी इच्छाएं अंधविश्वास को भी बहुत मजबूत शक्ल-ओ-सूरत में तब्दील कर देती हैं.  

सीढ़ियाँ- पार्क परिवार के घर में सीढ़ियों की संख्या अधिक है. घर में बनी हुई सीढ़ियाँ ऊपर की तरफ़ जाती हैं जहाँ सबके अपने लग्ज़री कमरे हैं. और जब उन सीढ़ियों से नीचे उतरा भी जाता है तो शानदार बैठक खाना और रसोई है. सीढ़ियाँ सम्पन्नता का प्रतीक हैं. लेकिन एक दूसरे प्रकार की सीढ़ियाँ उनके घर के ही बेसमेंट में हैं जिससे पार्क परिवार बेखबर है. बेसमेंट में सीढ़ियों के नीचे सीढ़ियाँ हैं. जितने नीचे उतना ही ‘पैरासाइटी जीवन’ अँधेरे और शीलन में पनप रहा है. वहाँ सूरज नहीं है. लग्ज़री जीवन के साधन नहीं हैं. रौशनी का अभाव है. दुनिया से कटाव है. सामान्य जीवन नदारद है. लेकिन यही बेसमेंट की सीढ़ियाँ ऊपर आती हैं तब रात के समय किचन से खाना चुराने के लिए साधन भी बनती हैं. जैसे रात में सबके सो जाने पर कीड़े घूमने लगते हैं. यही काम पहले मून ग्वांग का पति और बाद में मि. किम करते हैं. क्योंकि दोनों के अपराध आगे बढ़ने की कोशिश में हुए अनचाहे अपराध हैं. इसलिए अब वे छुपी हुई ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं. सीढ़ियाँ अमीर और ग़रीबी के भयानक फ़र्क को दिखलाती हैं. 

खाने की टेबल- किम परिवार के घर की खाने की टेबल छोटी है जिस पर परिवार का खाना लगभग बिखरी हुई अवस्था में रहता है. खाने की ऐसी दशा होती है जैसे किसी खाने पर कीड़े जुट जाते हैं. वही अमीर पार्क परिवार का कोई एक टेबल एक नहीं बल्कि कई हैं. वे डिजाइनर टेबल हैं. शानदार हैं. सफाई से चमक रहे हैं. कम लोगों में बड़े टेबल हैं. पार्क परिवार के कैम्पिंग में जाने के बाद किम परिवार बैठक में रखे टेबल का प्रयोग करता है और अपने सपने बुनता है. फ़िल्म के दृश्य में उनके बैठने के तरीकों को भी ‘पैरासाइटी व्यवहार’ के साथ दिखाया गया है. वास्तव में ग़रीबों का जीवन कुछ इसी तरह तब्दील होता जा रहा है. अमीरों के पास कुछ इस तरह के घर हैं जो आसमान की ऊँचाई को छू रहे हैं तो दूसरी तरफ़ ग़रीब लोगों के पास माकन तक नहीं हैं. कुछ लोगों के पास मकान के नाम पर माचिस की डिबियाएं हैं. 

जब पार्क परिवार घर पहुँचता है तब घर के मालिक के गैर मौजूदगी में जी रहे किम परिवार के सदस्य उसी टेबल के नीचे कीड़ों की तरह दम रोककर छुपकर लेट जाते हैं. यहाँ टेबल समाज के दोनों खानों का आईना है. जहाँ एक और शानदार दुनिया जी खा रही है तो दूसरी तरह एक तबका उस ज़िन्दगी से महरूम है. उनके पास रहने और खाने के आधारभूत साधन भी नहीं हैं. 

भारी वर्षा- बिना मौसम के भारी वर्षा जलवायु परिवर्तन की तरफ संकेत करती है. इसके साथ ही इस ज़ोरदार बारिश का अमीर और गरीब लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है यह भी समझ आता है. इस वर्षा में मामूली ज़िन्दगी जी रहे लोगों का घर और सामान सब डूब जाता है तो वहीं. अमीर लोगों के लिए बड़ी खिड़की से बारिश देखना मनोरंजन है. यही नहीं, अगले दिन उन्हें यह महसूस होता है कि मौसम सुहावना हो गया है. हवा साफ़ है. हेल्थ के लिए अच्छा है. यह समाज के अंदर बढ़ती प्राकृतिक परेशानियों की तरफ़ भी इशारा है. क्यों अमीर और पूंजीपति ऐसे साधनों की छाया में रहते हैं जहाँ उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती लेकिन गरीब इन दिक्कतों से पार नहीं पाता और उसकी जान पर भी बन आती है. 

बदबू- किम परिवार कम स्वच्छ और गैर रोशनीदार घर में रहते हैं. इसलिए उनके पास जीने की बुनियादी सुविधाएं भी नहीं मिलतीं. शीलन वाली ज़िंदगी में वाजिब है कि एक महक जुड़ जाती है. इसके अलावा शरीरिक श्रम में भी शरीर से पसीना निकलता है जो बताता है कि असली श्रम कौन करता है. किम परिवार के मुखिया क्योंकि मि. पार्क के ड्राईवर हैं, वे श्रम करते हैं. लेकिन उनके बदन से एक महक आती है जो मि. पार्क के लिए परेशानी का सबब है. वह इसका ज़िक्र अपनी पत्नी मिसेज पार्क से भी करते हैं. ग़रीब और सर्विस प्रोवाइडर के प्रति अमीर वर्ग की सोच और रवैया दिखाया गया है. वह आभार नहीं मानते बल्कि एक्स्ट्रा पे के नाम पर उनको अधिक समय काम पर लगाया जाता है. यह अमीरी गरीबी की खाई इतनी ख़तरनाक है कि मि. पार्क को मि. किम मार डालते हैं. इसके पीछे वजह बेशक बदबू को दिखाया गया है, पर कहीं न कहीं मि. किम, मि. पार्क अमानुष रवैये से आहत होते हैं. यहाँ पार्क परिवार भी पैरासाइट है. वे ‘लेबर’ का अत्यधिक इस्तेमाल कम पे के साथ कर रहे हैं. अमीरों की ‘अच्छाई’ पर एक संवाद भी है. की वू कहता है कि ये लोग अमीर होने के बाद भी अच्छे हैं. इस बात पर उसकी माँ कहती है कि वे अमीर हैं इसलिए अच्छे हैं. इसके अलावा फ़िल्म में रेड इंडियन खेल और पोशाक को भी प्रतीक के रूप में समझा जा सकता है. 
  
दक्षिण कोरियाई या अन्य किसी भी देश के समाजों के लोगों में बढ़ती अमीरी गरीबी की खाई, उनका आपसी टकराव, लालच, तरीके, ग़रीबों के आपसी टकराहट आदि को यह फ़िल्म बहुत ही सरलता से दिखाती चलती है. फ़िल्म का अंत सबसे मार्मिक है. वह उस नौजवान बेटे के सपने वाले ख़त से जुड़ा है जिसमें वह अपने पिता को एक उम्मीद के साथ तब तक उसी बेसमेंट में रहने को कहता है जहाँ वह मि. पार्क को मारकर घुस चुका है, जब तक वह ढेर सारा रुपया कमाकर उस आलिशान घर को ख़रीद नहीं लेता. अंत का दृश्य उस लड़के की उम्मीद वाली पर दर्द से भरी आँखों पर ही ख़त्म होता है. कोई नहीं जानता कि वह इतना पैसा कमा पाएगा भी या नहीं. हिंदी फिल्में होती तो ज़रूर चमत्कार पकड़ा देतीं, लेकिन यह फ़िल्म पत्थर की तरह एक भारी सच सीने में चिपका देती है कि शायद ही ऐसा हो. आपको उस वक़्त एक कड़वेपन का एहसास होता है. इस कड़वेपन के कारण को हम अपने समाज में कहाँ कहाँ देखते और समझते हैं, इस सोच तक पहुँचाने का काम यह फ़िल्म बखूबी करती है.                    
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(नोट: यह लेख सबलोग ऑनलाइन पत्रिका में दूसरे शीर्षक के साथ भी छपा है.)

Monday, 2 March 2020

मैं ठीक हूँ!

कल शाम मैं एक चीनी कहानी 'मेंढक' पढ़ रही थी जिसे 'मो चान' ने लिखा है. कहानी ज़्यादा बड़ी नहीं थी फिर भी मैंने उसे पढ़ने में ज़्यादा वक़्त ले लिया था. मेरे पिता बीच बीच में कुछ पूछ भी रहे थे, जिसे मैंने हाँ और न के साथ उन्हें जवाब दिया. मुझे अंदर से बेहद अच्छा लग रहा था. मेरी शाम जो रात की तरफ़ बढ़ती है अक्सर कुछ ऐसी ही होती हैं. एक बार घर लौट आने के बाद मैं वापस कहीं नहीं जाती. कॉलेज से पढ़ा आने के बाद, रविवार मेरे लिए बाक़ी दिनों की तरह अच्छा ही बीतता है. मुझे कुछ देर के लिए बेहतर नींद भी आ जाती है. नींद में सोच कुछ देर के लिए रूक भी जाती है. जाती हुई सर्दियों की नींद में कुछ ख़ास होता है. जैसे वो सपने में अपना सामान बाँध रही हो अगले बरस फिर आने के लिए.   

मैंने कहानी जब पूरी की, तब मुझे एक भारी और लगातार शोर की आवाज़ आनी शुरू हुई. मैंने तुरंत अपने पिता से कहा- "पापा, कहीं से अजीब सा शोर आ रहा है." उन्होंने कहा- "किसी के घर कुछ प्रोग्राम होगा. आजकल सभी के यहाँ कुछ न कुछ होता रहता है या फिर बच्चे शोर कर रहे होंगे." लेकिन मुझे वो शोर बच्चों के शोर से अलग महसूस हुआ साथ ही कड़वा सा लगा. मैं दौड़ कर छत पर गई. सच में एक भयानक शोर हो रहा था. कुछ सेकंड के लिए मैं सुन्न हो गई. लोगों की भिन्नभिनाहट से जो आवाज़ कानों ने छांट कर ली थी- "दरवाजे जल्दी बंद करो. वो आ गए हैं...वो आ गए हैं...सब घर में घुस जाओ." ...इसी बीच नीचे से मेरी एक मासूम रिश्तेदार ने कहा, "ये रख लो वो रख लो...जल्दी करो. बहुत शोर हो रहा है बाहर गली में..." इतने में मेरे घर में आये दो बच्चे तेज़ी से रोने लगे...उनमें से एक रोते हुए कहने लगी- "पापा के पास जाना है..." और मैं वहीं खड़ी रही. जैसे मंदिर का भगवान अपनी जगह से नहीं हिलता वैसे ही मैंने भी किया. 

मेरे पिता ने मेरा घरेलू नाम लिया और तब मुझे कुछ होश आया. नीचे आते ही घर के मुख्य दरवाजे और बच्चों को समेटने के लिए भागी. मेरे पिता बाहर हालात का जायजा लेने गए थे...इस बीच माँ ने जो किया उसे देखकर और सोचकर हिम्मत आई. वो बिलकुल नहीं घबराई थी. उन्होंने कहा- "आने दो उन्हें!" हालाँकि उस वक़्त मैंने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और बच्चों को चिपकाए इधर से उधर घूम रही थी. जब वो शांत हुए तब पापा, पापा चिल्लाने लगी. "घर में आओ... जल्दी आओ..."

वास्तव में हम सभी लोग एक अफवाह के शिकार हो गए थे. घबराने वाली कोई बात नहीं थी. बहुत दिनों बाद मैं गली में खड़ी थी और हर भागने और दौड़ने वालों को घूर रही थी. मुझे सब चेहरे नए से लगे. हर आदमी नया सा लगा. कोई भी बच्चा पहचान में नहीं आया कि किसका है. इसी जगह पर रहते हुए इतने साल हो गए और मेरी ये हालत थी कि मैं लोगों को पहचान भी नहीं पा रही थी. अगर वास्तव में कुछ घटना घट ही जाती तो मैं क्या करती? मैंने किताबों में कुछ इस क़द्र अपनी दुनिया बसा ली है कि मुझे, मैं और मेरे कुछ लोग ही समझ आते हैं. बाक़ी की मुझे कोई सुध-बुध नहीं रहती. कई बार क़िताब भी नहीं पढ़ती, कई दिन हो जाते हैं. उस दौरान फ़िल्म देखती हूँ और सपने की बुनाई करती हूँ. कल मेरे दो विदेशी दोस्तों का तुरंत मैसेज आया और उनमें से एक ने कहा कि मैं प्रार्थना कर रही हूँ तुम्हारे लिए. वो अक्सर मेरे लिए बहुत सी प्रार्थना करती है और मैं उसे स्माइल भेजती हूँ. मैं कुछ नहीं कहती. मुझे भगवान जैसी चीज और सोच या तो परेशां करती है या डरा देती है. लेकिन कई बार मैं सिर ऊपर कर लेती हूँ जैसे कोई मुझे सुन रहा है. फिर क्या कहती हूँ उसकी याद नहीं. दूसरी दोस्त ने मिलने की इच्छा जाहिर की. हम काफ़ी दिनों के अन्तराल में मिल लेते हैं और बहुत कुछ बाँट लेते हैं. इसके बाद मैं कुछ ठीक सी हो जाती हूँ.



फिर मेरी कॉलेज की दोस्त का मैसेज आया. वही सब दोहराया गया...मैं ठीक हूँ. फिर व्हाट्स एप कॉल पर किसी से बात हुई. बातें होती रहीं...मैंने फिर दोहराया मैं ठीक हूँ...मैंने सभी को कहा मैं ठीक हूँ...मुझे इस बात पर खुश होना चाहिए था कि मेरे पास ऐसे लोगों का गुच्छा है जो मेरी इस वक़्त ख़बर ले रहा है. लेकिन मुझे कोई ख़ुशी नहीं हुई...मुझे हैरानी इस बात पर हो रही थी कि मैं कब और कैसे ठीक नहीं थी और मैं कब और कैसे ठीक हो गई...मुझे फिर एक कहानी याद आई जो हाल फ़िलहाल पढ़ी थी...(ऐसे मौके पर कहानी या कुछ भी याद आता रहती है...)

कहानी मार्गरेट एटवुड की 'हैपी एंडिंग' थी. बेहद खूबसूरत और प्रभावी कहानी है. कहानी कहने की शैली के चलते ये शानदार कहानी है. कहानी में उन्होंने बताया है कि हमारा अंत एक ही होता है. ख़ुद उनके शब्दों में-"अंत को आप किसी भी तरह से तराश कर देखें, वे एक जैसे होते हैं." मैंने फिर इस बात को अपने अंदर दोहराया. अंत एक ही हो सकता है. कहीं मेरी माँ ने मुझसे पहले ये कहानी तो नहीं पढ़ ली थी? लेकिन ऐसा हो नहीं सकता. वो तो पढ़ना ही नहीं जानती. लेकिन फिर भी कुछ तो जानती है. वो ख़ाली तो नहीं हैं न!  

फिर लगभग पूरी रात मैंने किससे क्या बातें कीं मुझे याद है लेकिन फिर भी कुछ भूलती गई. पूरी रात मैंने ख़ुद को और उसने मुझे महज ये समझाने और एहसास में पिरो देने में लगाई- "कुछ नहीं होगा. ख़ाली अफवाह थी. तुम सो जाओ..." मैंने बदले में कहा- "मुझे नींद नहीं आ रही. आँखें बंद करने पर शोर सुनाई दे रहा है...मुझे कुछ हो गया तो...!" मैं कितनी महान डरपोक हूँ. पूर्वी दिल्ली में जो हुआ उसके मुकाबले मुझे तो हवा ने भी नहीं छुआ था. उनका तो सब कुछ तबाह हो गया. उनकी जान चली गई. लोगों ने हिंसा को अपने ऊपर झेला है सहा है...भयंकर अत्याचार हुआ...और मुझे क्या हुआ?...कुछ भी नहीं! मैं तो ठीक हूँ.

मैंने उसी दिन अपनी चिंता कुछ समझदार लोगों के बीच रखनी शुरू कर दी थी जब झुंड बनाकर इंसान को मारा गया था. मुझे अंदर तकलीफ हुई थी. मैंने बार बार और कई मर्तबा कहा था कि ये सब ग़लत है और रास्ता भयानक होगा. लेकिन उन समझदार लोगों में से एक दो ने मुझे कहा- "तुम चुप रहो. तुम्हें क्या? दूसरी सरकार का भी देखो...क्या किया है उन्होंने?" किसी दूसरे ने कहा- "कुछ मत बोलो ज्योति...कहीं तुम्हें कुछ हो गया तो?" लेकिन दिलचस्प है कि मुझे वो 'कुछ' नहीं हुआ. मुझे कल भी कुछ नहीं हुआ. इसका सबूत यह है कि मैं यह पोस्ट लिख रही हूँ. एक सेल्फ थेरपी कर रही हूँ. जैसे बैरी जॉन को लगता है कि थिएटर एक थेरपी है वैसे मुझे लगाता है कि लिखना एक थेरपी है. बैरी जॉन वही हैं जिनके स्कूल में शाहरुख़ खान ने एक्टिंग की क्लासेज ली हुई हैं. लेकिन आजकल तो वो बादशाह भी कुछ नहीं बोलता! मेरी तरह! हम दोनों ही ठीक हैं.

लेकिन मेरे न बोलने और कुछ न करने के बावजूद मैं तो ठीक हूँ. मुझे कुछ भी नहीं हुआ. यह ठीक होना क्या वास्तव में ठीक है? अब मुझे यही सवाल परेशां कर देता है...आज के वक़्त में ठीक वही हैं जो चुप्पी को चुन रहे हैं. चुप्पी तो कब्रवालों की भी निशानी है. तो मैं क्या उन्हीं जैसी ठीक हूँ? हाँ, शायद!
 
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Painting: B. Prabha (1933-2001)

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...