Friday, 13 March 2020

कोरोना

फ़िल्म 'बहू बेग़म' का गीत "हम इंतज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक, ख़ुदा करे कि क़यामत हो और तू आए..." आजकल बेहद याद आता है. जिस तरीके से कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं और जितनी मौतें हो चुकी हैं, यह सब भयानक और डरा देने वाला है. घर में क़ैदी सी ज़िंदगी बन रही है. हर बात में खौफ़ तो अंदर समा ही रहा है साथ ही वहम भी कि कहाँ-कहाँ से वायरस शरीर में घुस सकता है. कितनी मामूली सी झिल्ली है ज़िंदगी और मौत की! न दिखने वाला प्राणी हम इंसान की जान को कितनी शिद्दत से इश्क़ कर रहा है. जान की सलामती की बात की जा रही है. कुछ कुछ देर के बाद हाथ धोना, दूर जाकर छींकना या छींक रहे व्यक्ति से परे हट जाना, ये करना वो करना...लेकिन यह बात कितने ही लोगों को मालूम है कि एक बहुत बड़े तबके के पास हाथ धोने क्या, पीने तक का पानी नहीं है. कभी भी प्यास के लिए IPL मैच रद्द नहीं किए गए. लेकिन जो लोग स्टेडियम में बैठ कर लाइव मैच का मज़ा ले सकते हैं, उनकी जान और उनसे कहीं संक्रमण न फ़ैल जाए, जैसे कारणों के चलते सब रद्द हो रहा है. इस बीमारी का सबसे ज़्यादा नुकसान ग़रीब और साधन रहित लोगों को होगा जो इतिहास के किसी भी पन्ने में दर्ज़ नहीं होगा. आगे अगर हम बच भी गए तो इंसानी नस्ल के बच्चों को मोदी सरकार के गौरव का पाठ्यक्रम पढ़ाया जाएगा? यही तो हमारा इतिहास है. कौन से राजा ने कितने युद्ध जीते और कब राजा बना और कब मर गया! लेकिन कभी ने उस इतिहास को जानने और लिखने की दिलचस्पी को गहरा नहीं किया कि कितने लोगों के बेवक़्त क़त्ल हुए और कितने परिवार उजड़ गए, किसी राजा के सिंहासन के लिए. आप बोर हो रहे हैं न यह सब पढ़ कर?

नहीं, सच बोर नहीं करता, वह परेशां करता है. इसलिए हम भागते हैं. मैं भी भागती हूँ. कल किसी ने मुझसे बातों बातों में साझा किया कि लोगों का ड्रामा शुरू हो गया है कि उनके घर में मौज़ूद 'हेल्प' गंदी/गंदा है और डर है कि कोरोना से संक्रमित कर ही दे. मुझे बेहद तरस और ग़ुस्सा आता है इन दो टके तथाकथित मालिक लोगों पर. पहली बात यह वायरस उन लोगों से पहले भारत में आया जो विदेश की यात्रा कर रहे थे. जबकि अधिकांश जनता तो पूरी ज़िंदगी दिन-रात की रोटी और सरकारी लाइनों में लगने में ज़िंदगी बुज़ुर्ग कर लेती है कि पासपोर्ट कार्यालय उर्फ़ ऑफिस की शक्ल भी नहीं देख पाता. फिर वह मेहनतकश कैसे एक थ्रेट बन गया? बल्कि अमीरों ने यह संक्रमण देश में लाकर धोखा किया है. लेकिन मेरा फिर भी यह मानना है कि बीमार व्यक्ति को सबसे पहले उपचार का हक़ है और ख़याल रखे जाने की ज़रुरत है. उसके ठीक होने की आरज़ू भी रखनी चाहिए. क़ुदरत के कम्पैशन वाले बर्ताव को हर हाल में व्यवहार में लाना चाहिए. लेकिन इंसानों के लिए यह सबसे मुश्किल बात है. आप ख़ुद सोचिये कि आप के मन में कभी भी समानता की बात ने दस्तक दी या नहीं? कुछ ज़रूरी सवाल सबसे पहले ख़ुद से करने चाहिएं.

एक ख़बर ने और मुझे परेशां किया. आज किसी रिश्तेदार ने दूर अरब देशों में गए एक और व्यक्ति बात बताई. सुनी हुई ख़बर के मुताबिक़ वे लोग एक कमरे में बारह की संख्या में रहते थे. किसी व्यक्ति को कोरोना संक्रमण हुआ और अनजाने में उस व्यक्ति के संक्रमण ने बाक़ी लोगों को भी संक्रमित कर दिया. उनका अपने परिवार के पास, यानी भारत में फोन आया था और वे रो रहे थे. कह रहे थे-"मुझे बचा लो...मैं मर जाऊँगा!" ऐसी ख़बरें बहुत परेशां कर देती हैं. एक आंतरिक मौन दुःख मन में उभर आता है. अभी अभी दंगों का घाव भरा भी नहीं है कि ये सब खबरें कान से दिल तक अपना दर्द लेकर उतर रही हैं. क्या आपके पास इस तरह की ख़बरें नहीं आ रहीं? क्या आप कल्पना नहीं करते कि इटली में एक ही दिन में ख़बरों के मुताबिक़ 133 लोग बिना वक़्त मारे गए और चीन में संख्या चार हज़ार तक हो गई है. ईरान भी नहीं बचा. कुछ दुःख बड़े और भारी होते हैं. एक बार कंधें पर सवार हो जाएं तो दिमाग ख़त्म होता है फिर दुनिया की सबसे बड़ी मौत होती है, चुपके से...दिल की मौत!



इस बीच शायद कुछ हुआ है जिनसे हमारी आँखें खुल जानी चाहिए. कोरोना हिन्दू, मुसलमान और इसाई नहीं देख रहा. वह सबको प्यार कर रहा है. उसके लिए सारे शरीर आरामदायक घर हैं. वह जहाँ जा रहा है अपना कर्त्तव्य कितनी अच्छे तरीके से निभा रहा है. हमारा क्या? हम कितने बड़े भेदभाव वाले हैं. देखिए तो हमारे देवता के घर भी कैसे सूने पड़े हैं. चाहे कोई भी धर्म हो, चाहे कोई भी देवता, बचाने नहीं आ रहा. कोई अवतार नहीं ले रहा. किसी देवी को ग़ुस्सा नहीं आ रहा. तीसरी क्लास की बच्ची के रेप के बाद हत्या...ओह! लेकिन इतने सारे ईश्वर में से किसी का भी दिल ग़ुस्सा भर कर नहीं उभरा..! वो कैसा रचनाकार है...मेरा जिस आसमान पर यकीन है वो मेरे सिर पर महज नीली चादर भर नहीं है. अक्सर उसकी ओर देख कर ये सब सवाल पूछ लेती हूँ? लेकिन जवाब, वो तो आपको भी ख़ुद खोजना चाहिए.     

इसपोस्ट की शुरुआत जिस गाने से की थी उसके बारे में अब कहूँगी. हमारी ज़िंदगी ख़ुद हमारी भी नहीं. इसलिए अगर आप किसी को चाहते हैं तो कह दीजिए कि आप चाहते हैं. क़यामत आ गई है. अगर उसे आना है तो आ ही जाए. कुछ पल तो सुकून के मिलेंगे. इस गीत को बार बार सुनिए तो हर बार आपको नया सा लगेगा. कोरोना बेशक़ हमसे ताकतवर है लेकिन वह यह नहीं समझता की प्यार क्या है? उसे नहीं पता कि प्यार का एक पल सौ जिंदगियों से भी भारी और महान है. जब एक मार्च को मेरे यहाँ दंगे की अफ़वाह उड़ी तब मैं खड़े खड़े सुन्न ज़रूर हो गई थी पर मेरा दिमाग उतनी ही फुर्ती से आख़िर ख्वाहिश तय करने में लगा था. वह यह भी तय कर रहा था कि अब जब घर में 'वो' आग लगायेंगे तब किताबों को कैसे बचाया जाए. अगर हम बच भी गए तब मेरे किस हिस्से में घाव गहरे होंगे और उसके बाद की ज़िंदगी कैसी होगी? मैं तो एक लड़की हूँ...दंगें में लड़कियों के साथ क्या क्या होता है????

फिर भी एक बात कहूँगी...दंगों से अच्छा कोरोना है. कम से कम आबरू तो नहीं लूट रहा..! ज़मीन पर क़दम न रखने वाले राजनेता भी अपने कार्यकर्म रद्द करते फिर रहे हैं. सबके सीने के दिल में दर्द की समान दरारें उभरकर आ रही हैं. उनको भी पता चला कि मौत की आहट से ख़राब कुछ भी नहीं होता. इस बीमारी में तसल्ली का तत्व गुम हो गया है. क्योंकि यह बीमारी फैलने वाली है इसलिए किसी के रोते हुए चेहरे को सीने से भी नहीं लगाया जा सकता. उसे हौंसला भी नहीं बंधाया जा सकता. है न ये सब कितना ख़तरनाक! ज़िंदगी एक सस्ता तमाशा बन गई है. इतना सस्ता की लोग चवन्नी भी नहीं फेंक पा रहे हैं.

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चित्र- बी. प्रभा




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