जब मैं छोटी थी तब से इस दिन को लेकर मेरे आसपास कुछ ऐसा रचा जाता रहा है कि मैं इस दिन के अच्छे और बुरे होने के चुनाव में काफी अरसे तक उलझी रही। पर मैंने अब यह फैसला किया है कि इस उलझन को एक मुकाम तक पहुंचाया जाये और इस पर आगे बहुत ज़्यादा समय नहीं दिया जाए। सच में समय बहुत क़ीमती है। उसे सांस लेने में और उस तरंग से जोड़ा जाए जो जीवंत है और उर्ज़ा देती रहती है। 14 फरवरी का नामकरण किसी प्रेम के संत के नाम पर रखा गया था। पहले भी बोलने में ज़ुबान लड़खड़ा जाती थी और आज भी हालात कुछ बदले नहीं है। लेकिन तय तो यह हुआ है कि बुरा बोलने से अच्छा है जुबान पर प्रेम शब्द रख दिया जाए.
प्रेम के जिस रूप को समझ पाई हूँ वह बहुत शांत है जो शायद हम सबके अंदर है. प्रेम एक ही वक़्त पर बेहद निजी एहसास है तो उसी वक़्त वह कब सामूहिक बन जाता है, पता ही नहीं चलता. प्रेम, प्रेम जैसा भी हो सकता है और प्रेम उस जैसा भी हो सकता है जिसकी कभी कल्पना नहीं की गई. कल्पना के परे कौन सी कल्पना रहती है, यह जानने की ज़रुरत नहीं क्योंकि हमारी ज़िन्दगी देखने सुनने में गुज़र रही है. अगर जानने की इच्छा है तो जानिये. पूरा विश्व नक्शा बना बैठा है. बुला रहा है.
समुद्रके तल में जो ख़ामोशी होती है उसे मुझे एक बार महसूस करना है. मैंने कभी ऐसी ख़ामोशी का अनुभव नहीं किया. क्या इसका मतलब यह समझा जाए कि सबसे बड़ा प्रेमी समुद्र जैसा भी हो सकता है? हो सकता है! कितना कम समय है यह सब जादू जानने औरसमझने के लिए. कितने दिन किसी के बारे में बुरा सोचकर बिता दिए हमने और उन पलों को नाजायज ही बर्बाद कर दिया. कुछ पलों की भरपाई या मुआवजा कभी नहीं होता. उनके लिए प्रायश्चित ही एक तरीका है. पछताने और प्रायश्चित में फर्क है. मसोस कर रह जाने में भी अंतर है. इसलिए जब भी कोई प्रेम का दिवस हो तो उसे मजबूत करने में सहयोग करें न कि कोसने और हिंसा करने में. कभी कभी प्रायश्चित भी नसीब नहीं होता. अपने मन में एक दस्तक देते रहिये. यही दस्तक आपको याद दिलाती रहेगी कि आप एक इंसान हैं.
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