हम सब किसी इंतज़ार में (शायद)एक दिशा की तरफ़ जा रहे हैं. एक बात जो दिमाग में रहती है और धीरे धीरे दिल की तरफ़ भी दौड़ती है. वह यह कि हम सब अपने जीवन में एक निष्कर्ष पर पहुँच ही जाते हैं. फिर चाहे देर हो या सवेर. अंत में सब ठीक हो जाता है. उस वक़्त यही इंतज़ार रहता है जो अपने पूरे सफ़र की कहानी बतलाता है. इसकी ही तो अवैल्बिलिटी रहती है.
अपने दर्द, कोरोना का पैनिक दौर, सिर के अंदर घूमती तमाम बातों के साथ आज 'अपना कमरा' (अ रूम ऑफ़ वंस ओन-वर्जीनिया वुल्फ) दुबारा पढ़कर पूरा किया. क्या सच कहूँ? पहली बार में बहुत समझ नहीं आया था पर अभी काफी समझ आया है. पढ़ने के तुरंत बाद यह पोस्ट लिख रही हूँ. अंदर कुछ मधुर सा घूम रहा है. यह भी सोच रही हूँ कि जब वर्जीनिया उन लड़कियों के आगे अपनी बातें रख रही होंगी तब कितना जीवंत माहौल बना होगा. कुछ महत्वपूर्ण लोगों को सुनना कानों और दिमाग के लिए बेहतरीन तोहफा होता है.
अक्टूबर 1928 में वर्जीनिया ने 'औरत और कथा-साहित्य' विषय पर दो व्याख्यान दिए थे. 'अपना कमरा' किताब की नींव इन्हीं व्याख्यानों के आधार पर खड़ी है. उन्होंने 'वीमेन एंड फिक्शन' विषय पर एक लेख लिखा था जो 'फोरम' पत्रिका में 1929 छपा था. इसी लेख को और विस्तृत करके निखार के साथ 1929 'अपना कमरा' किताब उभर कर आई. इस किताब का अगला भाग 'थ्री गिनीज' माना जाता है जो सन् 1938 में प्रकाशित हुआ. पढ़ी किताब के अनुसार इस किताब में तर्क है दिया गया है. वह यह कि अक्षमताएं सामाजिक और आर्थिक है. उसकी मुक्ति की कुंजी उस कमरे में ही मिलेगी, जिसे वह अपना कह सके और जिसमें वह अपने भाइयों की तरह ही आज़ादी और ख़ुद्दारी से रह सके.*
अभी कोरोना वायरस से बीमारी फैली है. देश के प्रधानमंत्री तक रोगी को अलग कमरे में रहने की सलाह दे रहे हैं. ऐसे ही कोई बीमारी पुराने वक़्त में फैली होगी और पहले के प्रधानमंनत्रियों ने भी ऐसी ही सलाहें और खुशनुमा मशविरें दिए होंगे. लेकिन यही सब तो पेचीदा लगता है. जब एक बहुत बड़ी आबादी रोज़ रोज़ रेंगकर एक कमरे में जी रही है तब बीमारी में कैसे संभव है कि बीमार के पास अलग कमरा हो? जरा श्रमिक बस्तियों में जाकर देखिए, सच्चाई बाहर आ जाएगी. शुचिता का पर्व मनाने में हम बेहद आगे रहने वाले लोग हैं.वास्तव में इस बहुरुपिया पृथ्वी पर रहना ही तो महान रचना का विषय है. कुछ समय पहले किसी के लिए रिपोर्ट बना रही थी. वह अपनी कार में बिठाकर एक निश्चित जगह पर उतार देती थीं. वह बहुत अच्छा बोलती हैं. सफ़र के दौरान वो बहुत सी बातें कहती थीं. जिस बात को उन्होंने कई दोहराया वह यह थी कि आसमान में उड़ने पर वास्तविक स्थिति का बहुत पता नहीं चलता. असली स्वाद के लिए आपको ज़मीन पर रेंगना होता है. उनकी यही बात आज जब इस किताब को पढ़कर पूरा किया तब मन में आ जा रही है. हम सच्चाई से रहने वाले जीव हैं. एक भ्रम का जाल है. दिलचस्प यह है कि इस जाले की बुनाई अमीरों की लिखी किताबों से होकर हम तक आई है और कहती है, जितना है उसमें भी खुश रहो...लेकिन यह जितना है, आख़िर यह इतना ही क्यों है, सवाल आता है. साथ ही सवालों की ढेर सारी लड़ी भी उभरने लगती है.
ऐसे में वर्जीनिया वुल्फ का यह पूरा चिंतन बेहद आकर्षक है. क्योंकि ख़ुद वर्जीनिया ने व्यंजना भाषा की बात की है इसलिए इस पर बात कर लेना ठीक ही होगा. अगर इस पंक्ति का ज्यों का त्यों उठाकर देर तक पढ़ा या समझा जाए तब कितने ही ऐतिहासिक से लेकर वर्तमान तक के चित्र उभर आयेंगे. कमरे का पूरा झगड़ा, उसके लिए हुए संघर्ष, उसमें रहने की आदत और उसमें लगने वाली जद्दोजहद, उसके अंदर की सजावट (किताबों और लेखन के संदर्भ में) उसके अंदर की रौशनी, उसकी दीवारों पर बनी रौशनदार खिड़कियाँ, उसमें रहने वाली आत्मा और उसका संगीत...यह फेहरिश्त ख़त्म नहीं होगी. लेकिन सवाल यह है कि आख़िर कितनों को यह सुखद कमरा नसीब हुआ है? देखा, सवाल बहुत हैं, यही तो मुख्य और संतोषजनक बात है.
जब ख़ुद (ख़ुदा मुझमें ही है, फ़र्क आ की मात्रा का ही है) को देखती हूँ तब पाती हूँ कि मुझे अपना कमरा अभी तक हासिल नहीं हुआ है. जब अपना कमरा कह रही हूँ तब इसके कई मतलब हैं. सिर्फ कमरे की इच्छा का ही प्रतीक नहीं है यह. मेरा दिमाग अभी तक उन सभी जानकारियों से भरा हुआ है और उनमें सोच के स्तर तर-डूबा हुआ है जो मुझे हर तरफ़ से मिलती आई हैं. लेकिन मैं उनकी खिलाफ़त नहीं कर रही है. कम से कम इसके चलते मुझे ज्ञान जैसे शब्द को दूर से देखने सौभाग्य तो मिला. मुझे अपने बचपन के दिन याद आ रहे हैं जब भारत सरकार के प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम चला करते थे और मेरे घर तक (शायद मेरी अम्मी के लिए) भी उसकी खूबसूरत बुकलेट आई थी. उसमें हिंदी वर्णमाला के अक्षर और चित्र बने हुए थे. बड़े आ से आला अभी तक याद है. बाक़ी अगर दिमाग पर ज़ोर डालकर याद भी करूँ तो याद नहीं आ पाएगा. अक्षर से पहले मुलाकात इसी तरह हुई है. बहाव का स्रोत मायने रखता है.
मुझे लगता पढ़ने लिखने की प्रक्रिया में सुनना भी अहम है ही. इसलिए जो पहला शब्द दिमाग में सुनने से छपा था वह 'दूरदर्शन' शब्द था. उस वक़्त इसका अर्थ नहीं मालूम था. यह पता था कि यह टीवी पर आता है. यहाँ कई कार्यक्रम आते हैं. सन्डे के दिन के कार्यक्रम विशेष तो थे ही. लेकिन तब भी सच कह रही हूँ, 'अपना कमरा' बना लेने का ख्वाब नहीं था. शायद स्कूल के दिन याद करने चाहिए. वहाँ पढ़ने जाती थी लेकिन सभी जानते हैं, वहाँ एक बहुत बुरी बात हुई. मेरे साथ ज़्यादा हुई. क्या यह कहूँ कि यह सरकारी स्कूल था इसलिए? हो सकता है! तो वहाँ बुरी बात 'ख़्वाब न दिखाने' की है. वो घर के काम तो देते थे. होम साइंस पढ़ाते थे. इतिहास पढ़ाते थे, चित्रकला करवाते थे. एस.एस.टी. पढ़ाते थे, गणित पढ़ाते थे. सब करते थे पर ख़्वाब का जाने क्यों एक पीरियड न लगता था? क्या यह सरकारी स्कूल ही ऐसा करता था या निजी स्कूल भी इसी के शिकार थे? नहीं पता!
ख़्वाब देखने चाहिए. अपने कमरे के! यह बेहद ग़लत बात है कि जो बच्चे तिकोने घर चित्रों में तो उतारते हैं लेकिन उनके अंदर उसको पाने का ख़्वाब नहीं उतारा जाता. उनको बेहतर जिंदगी वो टीचर नहीं बतलाती/बतलाता जो होती है. बेहतर जिंदगी की परिभाषा सबकी अलग होगी. लेकिन सभी को उस परिभाषा पर सोच और विचार करना आना चाहिए. उसे बहुत ध्यान से मांझना चाहिए. उसे गैर कानूनी हरकतों से बनाने की बजाय मेहनत से बनाने पर ज़ोर होना चाहिए. 'चार दिन की ज़िन्दगी फिर अँधेरी रात है' वाली बात चाहे जितनी ठीक और नाजुक हो पर क्या चार जो चांदनी के दिन हैं वे अच्छे से नहीं गुज़रने चाहिएं? कब तक खैराती स्वास्थ्य शिविरों में चेक अप करवाते रहेंगे? कब तक 25% निजी बड़े स्कूल में पाने के लिए तरसते रहेंगे? कितने ही सवालों को खड़े और बड़े होते हम देखते हैं. और जब मरते हैं तब भी ये सवाल हमारे पीछे किसी दूसरे को डराने के लिए ठीक उसी तरह बने रहते हैं जैसे हमारे जिंदा रहने में बने रहते थे. आप सोचिये. आपको लगेगा कि हमारा जन्म से मरण तक का सफ़र एक बनाए गए मैन्युअल का शिकार है. किसी और ने हमारा पाठ्यक्रम तैयार करने का जबरन जिम्मा ले रखा है.
कमरे का महत्त्व और भी बड़ा है हर उस बात से जो बात नहीं है. मुझे ठोस रूप से एक कमरे की तलाश है जहाँ बैठकर मैं मन मुताबिक़ और गैर निर्भर ज़िन्दगी बिता सकूँ. जहाँ बैठकर इस ब्लॉग पोस्ट की तरह एक बकवास पोस्ट लिख सकूँ और जब चाहे अपने लिए एक मधुर गीत गा संकू या बजा संकू. वर्जीनिया वुल्फ का जमाना जो था वह आज कितना वैसा ही है और कितना वैसा नहीं है, सोच सकूँ. जब कोई लड़की बात करने या मिलने आये तब उसे भी अपना कमरा बनाने के लिए उकसा सकूँ. उसे अपना कम्फर्ट जतला सकूँ ताकि वह भी 'अपना कमरा' बनाने के लिए तत्पर हो जाए.
अब मेरा ख़याल 'एमिली' (फ्रेंच के जानकार जानते हैं क्या उच्चारण है) फ़िल्म में जाना चाहता है. वहाँ उसकी पूरी ज़िंदगी में उस कमरे का कितना सुंदर योगदान है. उस कमरे की खिड़की और उसमें लगा मद्धम रंग का पर्दा, कितना सुकून देता है. वह जब काम से लौटकर आती है तब अपने कमरे में जाकर कितना फुर्सत पाती है. क्या आपने अंत का दृश्य देखा है? आपको देखना चाहिए. उसका प्रेमी उसके घर के बाहर आकर उसके दरवाजे पर खड़ा है. कितनी ही फिल्मों में नायिका हीरो के कमरे में प्रेम की तलाश में जाती हैं. लेकिन यहाँ प्रेमी आता है. कितनी नायिकाएं बिना संपत्ति के मर गईं इतिहास में. 'एमिली' नहीं मरेगी और मैं भी. मेरी जिद्द तमन्ना है कि एक कमरा कमर तोड़ मेहनत कर के तैयार कर ही लिया जाए.
अपने दिमाग के कमरे की सजावट का जब सोचती हूँ तब मन करता है कि हर तरह की किताबों का शेल्फ बना लूं. सही ग़लत का फ़र्क करती फिरूं. बाहर से आने वाली हवाएं मुझ पर अपना दबाव न बना दें, इस बात की चिंता करना चाहती हूँ अपने दिमागी कमरे में रहकर. कोई कब मेरे व्यक्तित्व पर हमला करता है और उसे कैसे रोकना है की रणनीति बना सकूँ. बहुत कुछ कर सकती हूँ इस कमरे में. लेकिन उससे पहले मुझे अपने लिए एक ठोस, मजबूत और सुंदर कमरा बनाना ज़रूरी है. इसके लिए एक अच्छी जॉब चाहिए. ताकि मेहनत के दम पर अपने लिए कमरा तैयार कर सकूँ. आप गौर कीजिए, अब जॉब को कौन नियंत्रित कर रहा है?
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*अपना कमरा किताब से
चित्र- विन्सेंट वोन गोग
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