एक लंबी सुबह वाली उबासी
लेते हुए... टाइम तो देखूँ! ...हे भगवान! दस बज गए। छुट्टी
के दिन टाइम बहुत भागता है। कमबख़्त कहीं का! एक दिन तो मिलता है कमर सीधी करने
का...आराम करने का...तय समय से थोड़ा आधिक सोने का...अपने हाथ की एक गरम चाय बनाकर
एक प्याली सुरूर से पीने का...! शर्मिला के मन में यही वाक्य आ जा रहे थे।
सुबह के दस बज चुके थे।
शर्मिला अब पूरी तरह से जाग चुकी थी। बिस्तर में बगल पर कोई नहीं था। इसका साफ
मतलब था कि मानव अपने काम पर जा चुका था। उसकी रविवार को छुट्टी नहीं होती। उसने
बिस्तर पर बैठे बैठे बगल में हाथ फेरा। उसने शायद मानव को महसूस करने की कोशिश की।
उसने एक लंबी सांस भरी। तभी दरवाजे पर घंटी बजी।
उसने अपनी अस्त व्यस्त
मैक्सी को दुरुस्त किया। बालों को दोनों हाथों से संभालते हुए जुड़ा कसा। लेकिन
उनमें तैल न लगा होने के कारण जुड़ा ढीला बंधा। इस बात पर ध्यान दिये बिना वह उठी
और दरवाज़े की तरफ बढ़ी। दरवाजे पर दो कुंडियाँ लगी थीं। उसने अपना दम लगाते हुए
जैसे तैसे उन्हें खोला और अपने सामने अक्षर को पाया। वह शर्मिला को देखते ही बोला-
“शर्मिला दीदी... मैं कितनी बार आ चुका हूँ। और आप हैं कि दरवाजा खोल ही नहीं रही
हैं। ...लाइये जल्दी से कूड़ा दीजिये...नीचे बड़ा भाई खड़ा रिक्शा लेकर..!” शर्मिला
जो थकावट महसूस कर रही थी, ने अनमना चेहरा बनाते हुए कहा- “अक्षर
अब तू भी डाँटेगा क्या? पता नहीं सनडे है। थकावट से नींद आ
जाती है। सर्दियों में तो और। ...आजा(पीछे हटते हुए) घर में बैठ कुछ देर। चाय
पिएगा। तू भी कितना मेहनती है। जब नया नया आया था तब कितना छुटकू सा था। आज तेरी
लंबाई मेरी लंबाई से भी ऊपर जा रही है।” पीछे मुड़कर देखते हुए शर्मिला ने थोड़ा
ज़िद्द करते हुए कहा- “आ भी जा। कार्ड भेजूँ!”
अक्षर ने बड़ा सा थैला बाहर
रखते हुए रसोई की ओर रुख किया और फटाफट कूड़े की पोलिथीन उठाकर दरवाज़े की ओर लपका।
शर्मिला ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई। अक्षर बाहर जाते हुए बोला- “दीदी मार्च
में पेपर शुरू होंगे। इसलिए जल्दी जल्दी काम कर के मुझे पढ़ाई करनी होती है। जब
आपकी लगातार छुट्टी होगी तब आऊँगा। आप चाय अच्छा बनाते हो।” ऐसा कहते हुए वह फटाफट
सीढ़ियाँ उतरने लगा। शर्मिला दरवाज़े तक आई और अक्षर के कदमों की आवाज को सुनती रही।
जब आवाज़ गायब हो गई तब वह दरवाजे की सिर्फ एक कुंडी लगाकर वापस अपने घर के बीच
वाले हिस्से में खड़ी हो गई। उसने चारों तरफ नज़रें दौड़ाई। उसे लगा कि यह किसी अजनबी
का घर है। फिर वह अपने सोने के कमरे में गई। बिस्तर की मुड़ी-तुड़ी बेतरतीब चादर और
कंबल को देखकर उसे अजीब लगा। उसने सिर्फ कंबल ठीक किया और धड़ाम से सर्दी को महसूस
करते हुए कंबल में घुस गई। बालों का ढीला जुड़ा खुल गया और वह आँखें बंद कर लेट गई।
उसे याद आया कि इतनी अधिक सर्दी में वह मैक्सी में कैसे अभी तक रह गई थी। उसे अपने
पर खिन्न आई। उसने अपनी करवट बदली और मानव के हिस्से पर अपना हाथ कंबल से निकालकर
उसे सहलाने लगी। उसने अपनी करवट को फिर सीधा किया और आँखें बंद ही करे रही। चार
साल पहले का एक दृश्य दिखा जिसमें वह मानव के साथ कोर्ट में शादी कर रही है। घर
वालों में कोई नहीं है। महज कुछ दोस्त हैं। वह रजिस्टर पर दस्तख़त कर रही है। उसने
नीली साड़ी पहनी है। मानव ने सफ़ेद कमीज़। दोनों गंभीर दिख रहे हैं। उसके चेहरे पर इस
दृश्य को देखकर भी कोई भाव नहीं आया।

सिरहाने के पास पड़ी छोटी
मेज पर अपनी और मानव की शादी का फोटो फ्रेम रखा हुआ था। उसने चुपके से उस फोटो को
निहारा। चार साल हो गए। वह हैरान हो गई। वह धप से अचानक उठकर बैठ गई। उसके बाल फिर
से चेहरे के ऊपर आ गए। उसने गुस्से से उन्हें पीछे किया। वह बड़बड़ाई। अजीब मुसीबत
हैं ये बाल। इनसे तो आज छुटकारा पाकर ही रहूँगी चाहे मानव कुछ भी कहता रहे। मैंने
क्या उसकी पसंद की चीजों को ढोने का ठेका लिया हुआ है। वह लड़खड़ाती हुई कंबल से
फुर्र से उठ खड़ी हुई। गुसलखाने की तरफ लपकी। न जाने उसे क्या याद आया और अलमारी की
ओर मुड़ी। चर्र की आवाज़ हुई और हाथ में उसके एक कैंची नज़र आई। वह घुसी तो कैंची से
कुछ खर्र खर्र काटने की आवाज़ आई और उसके बाद नल से गिरते हुए पानी का बाल्टी में
अपना आयतन बनाना ही समझ आया।
शर्मिला नहाकर जब बाहर निकली
तब वह अपने आप को बहुत हल्का महसूस कर रही थी। वह सीधे आईने के सामने गई। उसने
तौलिये से फिर से बालों का टपकता हुआ पानी पोंछा। वह पहली बार आज मुसकुराई। वह बहुत
खुश हुई। उसने खुशी से एक उछाल लगाई और बोली- येएएए..! उसे सर्दी का अहसास हुआ।
उसने अलमारी के चरमराते हुए दरवाजे को फिर खोला और मरून शाल निकाल कर जल्दी से
अपने चारों ओर लपेट ली। इसके बाद गुसलखाने की तरफ जल्दी जल्दी गई। लंबे लबे कटे
हुए बेजान बालों को रसोई में रखे कूड़े के बड़े डिब्बे में ऐसा पटका जैसे कोई बेहद
घिन्न की वस्तु हो। उसे इस काम से फिर राहत महसूस हुई।
वह सोने के कमरे में वापस
लौटी। कंबल तय कर बिस्तर ठीक किया। वह कमरे से बाहर निकल ही रही थी तभी उसने शादी
की फोटो को औंधे मुंह रख दिया। वह बड़बड़ाई- “चौबीस घंटे एक ही फ्रेम को देखकर कितनी
अजब सा अनुभव होता है। ज़िंदगी भी बड़ी चिपचिपी हो जाती है। मानव को आने दो। रात को
कहूँगी कोई नई फोटो फ्रेम करवा ले। बदलाव भी तो जरूरी है।” फिर कमरे की दीवारों पर
नज़र फेरते हुए बोली- “इसका रंग भी बदलवा लेंगे। थोड़ी सर्दी कम हो जाये। बिस्तर के
सामने वाली दीवार पर वॉन गॉग की सूरजमुखी वाली पेंटिंग लगाएंगे... बड़ी सी। क्या
शानदार लगेगा कमरा फिर।” वह थोड़ा उत्साहित हो गई थी। उसे सर्दी महसूस हुई और उसने
दीवार घड़ी पर नज़र दौड़ाई। अब तक बारह बजने में दस मिनट शेष थे। वह जल्दी जल्दी कमरे
निकल कर रसोई की तरफ बढ़ी। अपने लिए चाय का पानी गैस जलाकर रखा। सब्ज़ी की छोटी से
प्लास्टिक की टोकरी में से अदरक खोजकर बेलन से कपड़े पर रख कूट-कूट कर चाय के बरतन
में डाल दी। उसने इसके बाद चीनी और चायपत्ती डाली। चाय थोड़ी देर में खोलने लगी।
शर्मिला ने चाय के निखार को देखा। भूरी भूरी। दमकती। उसे खाना पकाना नहीं सुहाता
पर चाय की तो उसे नशेबाजी है। उसने बड़ा सा चाय का मग लिया। उसमें सारी चाय उड़ेलकर
वह सोने के कमरे के बाहर वाले बैठक में पहुँच गई। वहाँ सोफ़े पर वह आहिस्ता से
बैठी। चाय को सामने ही रखी छोटी टेबल पर रखकर उसने दोनों पैर ऊपर कर पालथी बनाई। बाल
अभी भी नम थे। शाल को कसकर ठीक से लपेटा। फिर मग उठाकर चाय की एक घूंट को अपने
अंदर लिया। उसे बेहद अच्छा लगा। उसे लगा कि उसे कितने बरस हो गए हैं कहीं लौटे
हुए। वह कहाँ से लौट रही है उसे मालूम नहीं चला।

उसे हफ्ते के छ दिन तो गुम
रहने का अहसास होता है। दिन दफ्तर में कट जाता है। कंप्यूटर की स्क्रीन कितनी
उकताहट दे देती है। लेकिन जब महीने में बैंक में सैलरी का मैसेज आता है तब उसे
अपनी मेहनत के ऊपर नाज होता है। ख़र्चे का दोनों बंटवारा करते हैं। ताकि दोनों एक
दूसरे पर बोझ जैसे अहसास न छोड़ें। उसे अहसास हुआ कि घुटने मोड़े हुए उसे काफी देर
हो गई है और दर्द हो रहा है। उसने पैर पसार दिये। चाय पीने के बाद उसे क़रार मिला।
उसे कुछ खयाल आया कि वह कुछ करे। उसे लगा कि वह चिट्ठियाँ लिखना चाहती है। पर किसे? वह यह नहीं जानती। वह फटाफट उठी और अलमारी के नीचे दराज़ में खोजबीन करने
लगी।
नीचे के दराज़ में इस
खोजबीन के दौरान उसने सोचा- “मैंने अपनी रचनात्मकता को कितनी तहों में दबा दिया
है। भूल गई हूँ कितना कुछ! उसके हाथ में धूल चढ़ीं कुछ किताबें
आ गईं। कुछ उपन्यास। कुछ कहानियों की किताबें। उसके चेहरे पर दूसरी बार ख़ालिस
मुस्कान उतर आई। उसे फिर से बेहद अच्छा लगा। बहुत अच्छा। शाल के एक किनारे से ही
उसने उन किताबों की धूल हटाई। उसकी पसंद की सारी किताबें थीं। उसने कई पढ़ी भी थीं।
पर उससे कोई गर कोई पूछे की कौन सी किताब में लिखा हुआ है तो उसकी ज़ुबान लड़खड़ा
जाएगी। सुबह से दूसरी बार था जो उसने अपने आप को खोजा था। पहली दफा बाल काटने में
दूसरी दफा धूल से सनी किताबों में।
उसे तलब हुई कि वह फिर कुछ
लिखे। पर किसे? उसे इस बार भी अहसास नहीं हुआ। उसने सारी
किताबों को ठीक से साफ किया और सोने के कमरे में रखी कपड़ों की अलमारी में ऐसी जगह
सजा आई कि जब भी वह अलमारी खोले उसे कपड़ों से पहले ये किताबें पहले दिखें। उसे खयाल
आया कि मानव गुस्सा करेगा। उसने इस बात पर ध्यान नहीं दिया। सोचा- “जाने दो, वह कब मेरी बातों पर खुश होता है! जब देखो उसे कुछ कुछ न परेशानी सालती
रहती है। वह हमेशा बाहर खुशी को खोजता है। खुशी को मैकडोनाल्ड और पिज्जा हट में
खोजता है। महंगे कपड़ों पर टिकी दूसरों की भौंचक नज़रों में वह अपने को तलाशता है।
कभी कभी मानव मुझे मेरा हमसाया नहीं लगता। बल्कि वह, वह साया
बन रहा है जिससे कि पीछा छूटे।” उसने कमरे को फिर से चारों तरफ से देखा और मायूस
होकर वापस सोफ़े के पास लौट आई। वह धड़ाम से सोफ़े पर बैठी न हो जैसे गिर पड़ी हो।
थोड़ी देर बाद वह सोफ़े पर ही लेट गई।
लेटे लेटे उसने छत के
पंखें को कुछ मिनट तक घूरा। इस बीच वह कुछ सोच नहीं पाई। उसने पंखे की पंखुड़ियों
पर नज़र दौड़ाई। कितनी धूल जमा थी। उसे घिन्न आई। उसे लगा कि वह अपने घर को कभी ठीक
से जान समझ नहीं पाई। जिस बिल्डिंग में उनका यह फ्लैट है उसका नाम चाँद बिल्डिंग
है। उसे तुरंत बिल्डिंग का नाम सोचकर हंसी आई। उसका यह फ्लैट उर्फ घर पांचवें माले
पर है। शादी के अगले साल वह यहाँ रहने आई थी। तब वह काम नहीं करती थी। तब मानव पर
ही सारी ज़िम्मेदारी थी। किस्तों को भरने के लिए और बेहतर ज़िंदगी के लिए उसने काम
करना शुरू किया।
वह उस समय ऐसी नहीं थी। वह
गाती थी। झूमती थी। घूमने की लालच लिए वह अपने कुँवारेपन में कहाँ कहाँ नहीं भटक
आई थी। उसे बाहर जाने के लिए किसी के साथ की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। लोगों के बीच
उसका दम घुट जाता था। उसे यह मालूम था कि खुद को कैसे चाहा जाता है। वह जानती थी
कि वह किस क़िस्म की इंसान है।
उसे मानव से प्यार था
क्योंकि मानव भी उसे चाहता था। उसे लगा मानव भी एक इंसान ही है। सो उसने शादी के
लिए हाँ कर दी। पर कहीं दिल में एक धुकधुकी बाक़ी रह गई कि क्या मानव सच में मुझे
भी मानव समझेगा। पता नहीं शहर में रहने का श्राप है या फिर कर्मों का दोष कि वह चार
साल के अंदर गुम हो चुकी है। वह धीरे-धीरे गुमशुदा हो रही है। उसे लेटे लेटे याद आया
कि उसे खुद को खोजने की एक रिपोर्ट दर्ज़ करनी होगी, वह भी खुद
के अन्तर्मन में। यही अलख उसे मानव के अन्तर्मन में भी जगानी होगी।
उसे तीव्र तलब हुई कि वह
एक चिट्ठी लिखे। इस बार उसे पता है कि उसे चिट्ठी किसे लिखनी होगी। वह तपाक से उठी
और अलमारी के दराज से कॉपी निकाल लाई। उसने लिखा- “मैं भी कमबख़्त हूँ। कितना सोती
हूँ! ज़िंदगी की नींद अब खुली है। लग रहा था कि मैं कितना सो गई हूँ कि अब उठना
नामुमकिन है। पर नहीं कुछ मानसिक धक्के लगने ज़रूरी होते हैं। हमारा मन, हमारा तन और हमारी इंद्रिया कितना जगाती हैं पर हम... कान होते हुए भी
बहरे हो चुके हैं। मुझे मानव के कंधे पर सिर रख आँखें बंद कर बैठे हुए कितना समय
गुज़र गया है। न उसे होश रहता है और न मैं उसे तलाशती हूँ। मुझे होश ही नहीं होता कि उस ‘आदिम’ के तन मन में झांक आने का मौका खोजूँ। उसकी तरल कल्पना तक में मैं अब
गायब हो चुकी हूँ। ...एक दूसरे में दिलचस्पियों का मर जाना ज़िंदगी में ऊब मन की
पैदाइश करना होता है। एक ही जगह गर्दन टिकाये बैठे हैं। दफ़्तर की मुश्किलों को हम
दोनों ख़ूबी के साथ हल कर लेते हैं पर अपनी ज़िंदगियों को हम कठिन सवाल में तब्दील
कर रहे हैं।...।”
शर्मिला अपने लिए लिखने
वाली चिट्ठी को तीन घंटे तक लगातार लिखती रही। बदहवाश सी वह पेन को कागज पर चलाती
रही। जब उसने दीवार पर टंगी घड़ी पर नज़र दौड़ाई तो वक़्त शाम के पाँच बजने की ओर जा
रहा था। उसे ज़ोरों की भूख लगी। उसे याद आया कि उसने सुबह से सिर्फ एक प्याला चाय
को ही गले से नीचे उतारा है। वह कॉपी और पेन को टेबल पर आराम से रखकर उठी और रसोई
की तरफ बढ़ी। उसे पहली बार रसोई में बिखरे हुए सामान से और गंदगी से तेज़ बदबू का
अहसास हुआ। उसने जल्दी से उस सर्दी वाले दिन में खिड़की खोली और साफ सफाई में
तल्लीन हो गई। उसे लगभग 2 घंटे लगे इस काम में। उसे अपनी छोटी सी रसोई को साफ करके
फिर से बहुत खुशी का अहसास हुआ। सुबह से तीसरी बार। अब उसने अपने लिए एक प्याली
चावल लेकर ज़ायकेदार खिचड़ी बनाने की तैयारी की। इस दौरान उसने मोबाइल में आशिक़ी
फिल्म के गाने डाउनलोड किए। उसने ‘बस एक सनम चाहिए
आशिक़ी के लिए’ गाने को बार बार सुना। खिचड़ी के पक जाने पर उसे
एक प्लेट में रखकर वह वापस पेन और कॉपी के पास आ गई। उसने जब चम्मच से पहला खिचड़ी
का कौर मुंह में लिया तब उसे अपने पर हैरानी हुई कि वह भी अच्छा खाना पका लेती है।
वह फिर से बेहद खुश हुई। उसे लगा कि छुट्टी के दिन उसने अपने को पा लिया है। वह
अपने को प्रेम करना फिर से जान गई है।
इसी बीच पलंग के सिरहाने
के पास छोटी मेज पर रखी अलार्म खड़ी तेज़ी से बज उठी। शर्मिला को अपने कंधे पर किसी
के हाथ रखे जाने का अहसास हुआ। जाना पहचाना स्पर्श। “शर्मिला उठो...जाना नहीं है
क्या...पाँच बज रहे हैं...फिर कहोगी देरी हो गई। मानव तुमने उठाया नहीं..!” वह
झटके से उठ बैठी। मानव को लगा कोई डरावना सपना देखा है उसने। उसने शर्मिला को गले
से लगाते हुए कहा- “कुछ नहीं हुआ। सपना देख रही थीं तुम शायद।” उसके माथे को चूमा।
उसके माथे पर आए बालों को ठीक करते हुए बोला- “तुम्हारे बाल बेजान से हो गए हैं।
कटवा क्यों नहीं लेतीं। ढोती रहती हो।” ...मानव कुछ बोलता जा रहा था। इधर शर्मिला
अपने सपने के बारे में सोच सोच कर अपने पर हैरान हो रही थी। उसने मानव को और कसते
हुए कहा- “हाँ अब बोझ नहीं ढोऊँगी!” वह कुछ देर मानव
में खोई रही। उसे लगा जैसे उस के अंदर सीने में एक रोशनी का गोला फूट रहा है। वह
गुमशुदा होते होते बच गई।
-------------------------------------
चित्र गूगल से साभार