Sunday, 26 April 2020

...और इस तरह बुलबुल की आवाज़ गुम हो गई!

आप आधी रात तक जगे हैं और अपने आप को बिना बात के रोते हुए देखते हैं. शायद बहुत सी वजहें हों पर आपको ठीक से नहीं पता कि आप किस वजह से रो रहे हैं. आप अपनी दोस्त को मैसेज करते हैं और कहते हैं कि आप ठीक होना चाहते हैं, आप अपने पर काम कर रहे हैं. आपकी दोस्त आपको संभालती है और कुछ बातें करती है. वह आपको मेडीटेट करने के लिए कहती है. और भी काफी कुछ कहती है. लेकिन आप उसे मैसेज से यह कन्वे करने में सफ़ल होते हैं कि आप रो नहीं रहे आप ठीक हैं. आप थके हुए हैं पर नींद नहीं आ रही. आप कई दिनों से इसलिए भी परेशां हैं क्योंकि आपके जानने वाले बड़ी तादाद में आपको फोन कर आपकी हालत का जायज़ा लेना चाहते हैं. लेकिन आप इस रात में कहीं अटक गए हैं. उसी वक़्त आपके किसी और परिचित को आपके बारे में पता चलता है और वह फोन करता है. आप फोन नहीं उठाते. आप एक व्हाट्सएप पर स्टेटस लगाते हैं कि आप ठीक हैं लेकिन बात करने की हालत में नहीं हैं. ठीक होने पर सबको फोन करने की कोशिश होगी. आप उनको उनके केयर और कंसर्न के लिए शुक्रिया भी कहते हैं. लेकिन आप रो रहे हैं. चुपके से. आपके रोने के बारे में घर में किसी को ख़बर नहीं. होनी भी नहीं चाहिए वरना इमोशनल ब्रेक डाउन हो सकता है, आपका पहले से है. बाक़ी लोगों का आपको देखने के बाद. 


लॉक डाउन में कुछ ऐसे ही हालात हैं. खानपान ठीक है पर वह नाम के लिए है. आपके गले में हल्का सा भी कुछ दर्द है तो आप अपना आंतरिक और मानसिक मुआयना करने लगते हैं. आप गले को छूकर देखते हैं कि आपको दर्द किस हिस्से में है? आप डर जाते हैं कई बार, क्योंकि आपके पेरेंट्स ओल्ड एज में हैं. आपको लगता है कि कहीं कुछ ग़लत न हो जाए. यह ग़लत क्या है? आप रुकते हैं और फिर अपने गले पर हाथ फेरते हैं. आपको थोड़ा फिलोसफी से भी जीना आना चाहिए, ये आप सोचते हैं और उठ बैठते हैं. यह सिलसिला सुबह तक चलता हैं और आपको इस दौरान नींद का झोंका भर आता है. जब आपका नाम जाँच के लिए लिखा जा रहा था, उस दौरान आप सवालों के जवाब किसी मशीन की तरह दे रहे थे. आप सोचते हैं कि ये सब कब ख़त्म होगा? लेकिन इसी समय आप ये भी सवाल करते हैं कि ये सब कभी ख़त्म भी होगा?

आप कई दिनों से यह महसूस कर रहे हैं कि आप की आवाज़ जो काफी ठीक ठाक थी वह कहीं गले के अंदर अधूरे रास्ते में अटक गई है. आप के अंदर सब कुछ भरा हुआ है लेकिन आप बात करने में असमर्थ हैं. आपको पता है. ये वास्तव में खौफ़नाक है कि आप बोल नहीं पा रहे हैं, जबकि आप बोलना, बात करना या थोड़ा बहुत गा लेना जानते हैं. आपका एक दोस्त टेलीग्राम पर कर्ण से जुड़ा एक लेख जो जनसत्ता में प्रकाशित हुआ था, भेजता है. आप उसे पढ़ते हैं और कुछ कोशिश में आप उसे पूरा पढ़ लेते हैं. आपको खुन्नस आती है कि ये क्या चल रहा है? कर्ण, महाभारत या रामायण का मतलब क्या है, इस मौके पर? आप को लेखक क्या कहना चाहता हैं, भी ठीक से समझ नहीं आता और आप अपने दोस्त से कहते हैं कि लेखक को अपनी बात साफ़ लिखनी चाहिए थी. आप साथ में एक लाइन और लिखते हैं- "ढोंग लगेगा, लेकिन जो बच्ची अपने गाँव से महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर मार दी गई उसकी पहचान करें या उसे क्या जवाब दें.., इस घटना और इसी तरह की घटनाओं को देखकर, पढ़कर रात भर नींद नहीं आती." आपका दोस्त अंग्रेज़ी में 'same' लिखकर जवाब देता है. 

आप बैठ गए और सोचते हैं. आप सोचते हैं कि इस वजह से आपकी आवाज़ चली गई? आप फिर उन तमाम घटनाओं को सोचते हैं. आप सारी मौत का सोच रहे हैं. आप कभी अमरीका नहीं गए लेकिन जब वहाँ से मौत की ख़बरें आती हैं तब आप फिर रात में अपने आप को रोते हुए पाते हैं और किसी को खोजते हैं, बात करने के लिए. लेकिन दुःख की बात यह है कि आप अपनी आवाज़ खो चुके हैं. आप बोल नहीं पा रहे. इस दौरान आपके कॉलेज के बच्चे आपके साथी आपकी फ़िक्र करते हैं और वो सवाल करते हुए आपसे बात करना चाहते हैं. पर आप कैसे बताएं कि उनकी दोस्त और टीचर जो लेक्चर्स में कितनी बातें रखती थी, करती थी उसकी आवाज़ खो गई है. वह गुम गई है. वह हर जगह से ग़ायब हो जाना चाहती है. वह हर उस जगह और लोगों से कट जाना चाहती है, जो उससे बात करना या रहना चाहते हैं. आपको लगता है कहीं आप पागल तो नहीं हो रहे? लेकिन बात इतनी बड़ी नहीं है. बात महज यह है कि आपकी आवाज़ आपके भीतर घूम रही है लेकिन वह बाहर आकर ख़ुद को जाहिर नहीं करना चाहती. आप उसे भी परेशान कर देते हैं जिसे आप चाहने लगे हैं. आप अपनी ही कही बातों को ख़ारिज करते हैं. आप क्या क्या कह जाते हैं आपको ख़ुद नहीं मालूम. फिर भी वह आपके साथ बना हुआ था/है, क्योंकि वह जानता है कि आप ठीक नहीं हैं. इसलिए सम्भावना यह है कि वह जिसे आप चाहने लगे हैं अब 'था' में रहने लगा है. लेकिन उसे भी यह नहीं पता कि आप अपनी आवाज़ कुछ रोज़ पहले कैसे खो चुके हैं! है न भयानक? यह बात आपको सिर्फ आपको और पहले पैराग्राफ़ में आई दोस्त को पता है. शायद आपका मानस भी यह बात जानता है. एक एक कोशिका भी. 

आवाज़ खो जाने से क्या होता? बहुत कुछ! आपकी आँखों को बात करनी पड़ती है. उन्हें हर एहसास जाहिर करना पड़ता है. आँखों को हर रोज़ चौकन्ना रहना पड़ता है कि कहीं आवाज़ खो जाने के बारे में किसी को पता न चल जाए. आप फैले हुए आसमान के नीचे जाते हैं और उसे देखते हैं. लेकिन इस दौरान आप भूलते भी हैं. जैसे आप भूल गए कि आँखों का असली काम क्या होता है? आप भूल गए कि आपने फ्रिज का दरवाज़ा कौन से सामान को निकालने के लिए खोला था. आप कंफ्यूज हो जाते हो. आपकी कन्फ्यूज़न की गवाही आपका ख़ुद का कमरा देता है, क्योंकि वह आपकी तरह ही बिखरा पड़ा हुआ है. वह भी फीका सा पड़ा हुआ कहीं गुम हो चुका है. आपने कुछ दिन पहले ही यह तय किया था कि इस कमरे की दीवार को यह रंग देंगे, तो कितनी अच्छी फीलिंग आया करेगी. लेकिन आपकी योजना मर गई क्योंकि आप 1 मार्च की तारीख में दंगे के बीच में घिरे हुए थे, आप बहुत सी मौतों की ख़बरों से गुज़र रहे थे और फिर इस बीमारी के खौफ़ में जी रहे हैं. लेकिन यहाँ खौफ़ से भी गहरी बात है. वास्तव में आवाज़ जाने के कारण के पीछे कई कारण हैं. एक यह भी है कि जो लिस्ट आपने संक्रमित लोगों की देखी उसमें वे बच्चे भी शामिल हैं, जिन्हें अक्सर आप शाम के वक़्त खेलते हुए देखते थे. शोर मचाते हुए पाते थे. शायद उन बच्चों ने चिड़ी या फुटबॉल से मारा भी होगा. शायद किसी ने चिल्लाकर कहा होगा- 'दीदी जल्दी हटो! आपको बॉल लग जाएगी.' 

आप अभी उन बच्चों की आवाज़ को अपने भीतर इकठ्ठा कर रहे हैं. हर उस बच्चे के दर्द को भी अपने अंदर रख रहे हैं जो लॉकडाउन के चलते रास्ते में मर गए. कुछ भूख से भी मर रहे हैं. लग रहा है आवाज़ जाने का ये भी एक और कारण है. फ़िलहाल ठीक से समझ नहीं आ रहा कि आवाज़ गुम कैसे हो गई? दोस्त के अलावा किसी को नहीं बताया कि आवाज़ चली गई है. लोग इसे ढोंग समझें शायद. बाक़ी जाने क्या क्या..! लेकिन सच्चाई तो यही है कि आवाज़ चली गई.

Friday, 24 April 2020

ब्लैक औरतें

आज लॉकडाउन का नहीं पता कौन सा दिन है! यहाँ सभी के साथ ऐसा ही हो रहा है. दिन भर एक बेचैनी हम लोगों का पीछा करती है. जब शाम ढलती है तब थोड़ा थोड़ा बेहतर महसूस होता है. अब इस थोड़े थोड़े में ही हम जी रहे हैं. अगर लोगों के पास फोन न हो तो वो पूरी तरह से पागल हों जाएँ. यहाँ ऐसे लोग नहीं जो पढ़ाई लिखाई की बातें सोचें या कुछ लिखें. ख़ुद मेरे घर में यह माहौल नहीं. यहाँ के लोग अक्सर दूकान से सौदा लाते हैं तो अपनी एक कॉपी पर लिखवा लेते हैं. इसके अलावा बेहद कम घरों में अख़बार आने की व्यवस्था है. वाजिब है कि पहले तो घर में रोटी ही आनी चाहिए. कितना अजीब है न इस विकसित ज़माने में रोटी और अख़बार एक साथ नहीं आ पा रहे. वैसे ठीक भी है. अख़बार का जहर आजकल बर्दाश्त नहीं होता न!

यहाँ बहुत से प्रवासी किराएदार हैं जो मजदूरी करते हैं या किसी फैक्ट्री में काम करते हैं. किसी का बहुत बड़ा काम नहीं है. लोगों की सरकारी नौकरी भी यहाँ नहीं है. इसलिए सबके रहन सहन में बहुत अधिक फ़र्क नहीं है. सबके यहाँ वही खाना बन रहा है जो किसी दूसरे के यहाँ बन रहा है. रोटी, सीज़न की सबसे सस्ती सब्ज़ियाँ, सीज़न के सबसे सस्ते फल और दूध, थोड़ा बहुत! कहने का मतलब यह नहीं है कि यहाँ अमीर लोगों की संख्या नहीं हैं, बल्कि है. काफ़ी लोग बहुत पैसे वाले हैं जो अपनी ख़ूबियों और सरकारी ख़ामियों से पैदा हुए हैं. यहाँ कुछ परिवारों ने पानी की बोरिंग करवा रखी है. उस पानी को बहुत महंगे दामों पर मिनटों के हिसाब से बेचा जाता है. पानी के काम में बहुत पैसा है. लोग पानी नहीं लेंगे तो मर जाएंगे. इसलिए यह धंधा जोरो पर है. इतनी पार्टी की सरकारें बदलीं लेकिन हर पार्टी इन बोरिंग वालों के प्रति वफादार निकली. आगे की ओर रोड के मुहाने की तरह जो बिल्डिंग हैं वो घर कम, बिल्डिंग ज़्यादा हैं. वहाँ बेहद अमीर लोग अपने छज्जों से सुबह सूरज देवता को नमस्कार करते हैं. पौधों को पानी डाला नहीं जाता बल्कि उनको गला दिया जाता है. यह सोचा जा सकता है कि चार लोगों में इतना बड़ी बिल्डिंग की ज़रुरत ही क्या है! ज़रुरत है. किरायेदारों को रखना भी अच्छा धंधा है. इन घरों में अमूमन ब्लैक प्रवासी लोग रहते हैं जो किसी भी क़ीमत पर कमरा ले लेते हैं.

अगर वो लेंगे नहीं तो जाएंगे कहाँ? वे लोग पता नहीं अपना खूबसूरत मुल्क छोड़कर यहाँ क्यों रहते हैं? यहाँ जब वो सुबह कहीं जाने के लिए कमरे का ताला लगा रहे होते हैं तब उनके जाने के बाद मकान मालिक का लड़का उनके काले रंग का मज़ाक बना रहा होता है. लेकिन यही रंग इन काले प्रवासियों की बीवियों की छातियों को देखकर उन्हें बुरा नहीं लगता. वे इस तरह से देखते हैं जैसे वे उसके साथ दिन में, ठीक उसी पल में सो रहे हैं. हाँ, यहाँ कई आँखों में आपको ऐसा ही लगेगा. यह गन्दगी इतनी बदबूदार है जितना कूड़ा कचरा नहीं होता. यह बहुत महकता है लेकिन दिन के सामान्य उजाले में यह किसी को नज़र नहीं आता. यहाँ की औरतें जो ख़ुद घरों में बच्चे पैदा कर चुकी हैं और रोज़ अत्याचार झेलती हैं, इन काले प्रवासियों की पत्नियों को देखकर मज़ाक उड़ाती हैं. मुँह पर साड़ी या दुपट्टे के पल्लू रखकर- हाय! तौबा तौबा...करती रहती हैं. पर एक बात आपको जाननी चाहिए. वो यह कि इन्हीं औरतों की बेटियाँ और बेटे जब स्कूल से छुट्टी होती है तब इस तरह के शब्दों में बात करते हैं कि दो मिनट को आप हैरान होते हैं कि ये लोग जो सभ्य बने फिरते हैं, जो काले प्रवासियों की पत्नियों, बहनों, और औरतों को देखकर उनका मज़ाक उड़ाते हैं या आहे भरते हैं, वे उन सब कामों में शाब्दिक या शारीरिक तौर पर शामिल हैं. शाम को, दोपहर को मैंने उस नौजवान भीड़ में यह सब सुना और देखा है जो लोग बाहरी तौर पर गन्दा और बुरा मानते हैं. लेकिन मुझे तसल्ली इस बात की है कि ये स्कूल के लोग इन काली प्रवासी औरतों का थोड़ा कम मज़ाक उड़ाते हैं. लेकिन यकीन मानिए, मज़ाक उड़ाते तो वे भी हैं. 


यह दोहरापन यहाँ के लोगों में ख़ूब मिल जाएगा. यहाँ नयी नयी शादी होकर आई दुल्हन को तबियत ख़राब होने पर बाइक पर बैठकर उसका पति, मालिक, बोस, जी, सुनो...आदि आदि उसे घूंघट में लपेटकर ले जाता है. लेकिन दिलचस्प यह भी है कि जब वह अपनी बीवी को डॉक्टर के पास इलाज कराने ले जा रहा है तब अगर उसे रास्ते में काले प्रवासियों में से कोई महिला दिखती है तब वह उसकी छाती देख लेता है. वह इतनी देर देखता कि आगे से आने वाली बाइक से उसका एक्सीडेंट हो सकता है. लेकिन इस काली प्रवासी महिला को कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि उसे अब रोज़ इस तरह के हादसों की आदत हो गई है. यह न दिखने वाली हिंसा है. उसके साथ शुरू शरू में बहुत हिंसा हुई और अब उसने इसका प्रतिकार थोड़ा बंद कर दिया है. लेकिन अगर किसी ने उसके शरीर को छुआ तो हो सकता है वह वार कर दे. 

लेकिन इस बाइक के पीछे बैठी औरत जो घूंघट में है, जो औरत कम, पाली हुई बकरी ज़्यादा है, जिसका रंग गोरा है, जो शायद उतनी भी पढ़ी लिखी नहीं है, जो थकी हुई या बंधी-फंसी हुई है, वह चुपचाप पीछे बैठी है. जब उसके पति की बाइक काली प्रवासी महिला की छाती देखने के चक्कर में लड़खड़ाई तो इस पाली हुई बकरी का ध्यान हड़बड़ा गया. वह भी लड़खड़ा गई और उसने झटके से अपने पति के कन्धों को कसकर पकड़ लिया. उसका ध्यान सामने वाले यानी बाइक वाले पर गया. वह शायद कुछ नहीं बोली होगी. क्योंकि उसकी तो तबियत ख़राब है. उसका रंग गोरा है इसलिए अमीर बाप के बेटे से जिसके पास एक बाइक पहले से थी, ब्याह दी गई. पाली हुई बकरी के बाप ने अपने नए नए दामाद को रॉयल एनफील्ड बाइक तोहफे में दी जिसे आज भी लोग दहेज़ कहते हैं. लोगों को का क्या, वे तो कुछ भी कहते हैं. लेकिन देखिए, लड़की के पिता जो उसका बाप भी है, ने उसे कुछ भी नहीं दिया सिवा कुछ गहनों के. वे चाहते तो उसके नाम एफडी कर सकते थे. लेकिन लड़की के पिता ने पहली बात तो बैंक में एफडी करना नहीं सीखा. लेकिन अगर कुछ ने सीखा भी तो वो बकरी उर्फ़ लड़की के नाम से इसलिए रखा ताकि जब उसकी शादी हो तो उसकी शादी में जाने पहचाने लोगों को खाना खिलाया जा सके, टेंट लगवाया जा सके, सजावट की जा सके ताकि लोग यह न कह दें कि इन्हों ने लड़की की शादी में कम ख़र्चा किया. उन एफडी के रुपयों से बहुत कुछ हुआ जो उस लड़की के नाम से थे पर उस लड़की उर्फ़ बकरी के नाम से नहीं हुआ. 

हाँ तो यही बकरी उर्फ़ लड़की उर्फ़ पत्नी अब बाइक के पीछे बैठी है और इलाज करवाने जा रही है. जब वह घर लौटेगी तब उसे घर के काम भी तो करने हैं. ऐसे कैसे बैठ सकती है? लेकिन कुछ बकरियां उर्फ़ बहुएं ठीक हैं, क्योंकि उन्हें काम करने वाली औरत की मदद मिली हुई है और ये मालकिन बकरियां इन काम करने वाली असली औरतों पर बेहद ख़तरनाक नज़र बनाए हुए रखती हैं ताकि वे घर के सामान या उनके पति की चोरी न कर बैठे. कहीं सुस्ता न ले. काम के रुपए भी तो वसूलने हैं. अगर नहीं वसूले तो कितना नुकसान हो सकता है. 

तो ये पाली हुई बकरी गर्भवती है. उसका इसी उम्र में बच्चा होगा. कुछ महीनो बाद प्रसव हुआ और बच्चा हो गया. बच्चे की तबियत ख़राब है. वह बच्चे को बाइक पर लेकर बैठी है. मैनेज कर के. उसका पति फिर लड़खड़ा गया और वह औरत उर्फ़ बकरी गिर गई. इस बार ज़ोर से किसी कार से टक्कर हुई. अगर वह छातियों के बजाय सामने देखकर आराम से बाइक चलाता तो ऐसा नहीं होता. लेकिन अब ऐसा हो गया. कुछ भी नहीं बदला जा सकता. कुछ भी नहीं. जच्चा और बच्चा दोनों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत हो गई. लड़की के पिता जिन्होंने लड़की के लिए नहीं बल्कि उसकी शादी के लिए एफडी की थी आए, और ख़ूब रोने लगे. दहाड़कर. बोलने लगे डॉक्टर सही समय पर देख लेता तो मेरी बच्ची मरती नहीं. बच जाती. मैंने उन्हें रोते हुए देखकर ख़ामोशी से कहा अगर शादी के लिए रखी एफडी से उसे ही डॉक्टर बना दिया होता तो वह ख़ुद बाइक से गिर रही बकरियों की मौतों को रोक देती. वो कितनी बकरियों उर्फ़ लड़कियों को बचाती. मुझे तो अफ़सोस है. मैं कर भी क्या सकती हूँ. लोग कह रहे थे गाड़ी वाले की गलती से हुआ. पति या मालिक चुप था. लेकिन सच कहूँ, ये सब उन काले प्रवासियों की औरतों जो बड़ी बड़ी छाती वालियां हैं, उनके कारण हुआ.     

ओह! बताना भूल गई. अख़बार में ख़बर छपी है कि आजकल लॉकडाउन में घरेलू हिंसा बहुत बढ़ गई है. बाक़ी भी ख़बरें हैं. पढ़ते हैं फिर बात करते हैं. 

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फ़ोटो गूगल से
  

Tuesday, 21 April 2020

'सील्ड और लकी' के बीच में रहने वाले लोगों के लिए

वैसे तो क़िस्मत वाली बात नहीं करनी चाहिए. लेकिन अभी कहना ही पड़ेगा. अगर आपका एरिया सील्ड एरिया नहीं है तो आप बहुत क़िस्मत वाले हैं. जी हाँ, आपकी क़िस्मत शानदार है. आप सुरक्षित हवा में साँस ले रहे हैं. आपको खाने पीने का सामान मिल जा रहा है. आपको पीने के पानी की चिंता नहीं है तो आप बड़े भाग्य वाले हैं. अगर आपको नहाने धोने का पानी मिल जा रहा है तो आप क़िस्मत वाले हैं. अगर आप सारी दुनिया के दुःख भूलकर रामायण और महाभारत का मज़ा ले रहे हैं तो आप हीरा क़िस्मत के मालिक हैं. अगर आपके अपने सब ठीक हैं तो भी आप अच्छे सितारे वाले हैं. अगर आपके बच्चे अभी भी ख़ुश होकर आपके आगे खेल रहे हैं तो आप क़िस्मत वाले हैं.आप लकी हैं

ये क़िस्मत आपके लिए तभी तक है जब तक आप घर में हैं. घर से मत निकलिए. एक रोटी कम खा लीजिए लेकिन घर से बाहर मत निकलिए. हालात बेहद गंभीर हो चुके हैं. जो अनुभव कर रही हूँ वह आप लोगों के लिए लिख रही हूँ. हम सील्ड हो चुके हैं. पानी की आपूर्ति नहीं हो रही है. दुकानें बंद हैं. गलियों के मुहाने पर पुलिस बैठी हुई है गिद्ध की नज़र लिए हुए कि कोई अंदर से बाहर न आ जाए. पुलिस वालों में भी दहशत है. बहुत दहशत. वे दिन रात काम कर रहे हैं. वे हमारे यहाँ आये और टेस्ट के लिए ले जाए जा रहे लोगों की संख्या बता गए. वो ये भी बोले कि तुम सब मर सकते हो अगर घर में नहीं रहे. मुझे जिसने यह बात बताई वे बोले कि पुलिस वाला बेहद हताशा में था. शायद अंदर से डरा भी हुआ था. हमें नहीं पता कि ले जाए गए हमारे निकट पड़ोसियों को कहाँ ले जाया गया है. लेकिन जो संक्रमित लोगों की सूची आई है उनमें बच्चे भी शामिल हैं, हमें यह पता है. महज सात साल के बच्चे भी. कुछ दिनों से जो दहशत, डर और धक्का लगा वो इन्हीं बच्चों और बुज़ुर्ग लोगों के लिए लगा. बहुत मुश्किल है साँस लेना इस तरह. अंदर यह एहसास आ गया है कि आप चूहों की तरह हैं और आप चाहे संक्रमित हैं या नहीं लेकिन आपको पिंजरे में रखा गया है. आपकी जान का मूल्य सिर्फ आपको है. सरकार पर कुछ नहीं कहना चाहती. मुझे नहीं पता कि कहाँ क्या वे लोग कर रहे हैं? शायद बहुत ही कर रही है. यह पोस्ट सरकार पर है भी नहीं.


मुझे कई दिन लग गए इस पोस्ट को लिखने में. मैंने इस दौरान कई लोगों को रोकर परेशां भी किया. मैं निरंतर अपने लोगों से संवाद में हूँ. तब भी मानसिक स्तर हिला रहता है. अभी कुछ स्थिरता है तो आप लोगों के लिए यह पोस्ट लिख रही हूँ. आप लोग घर से बाहर मत निकलिए. आपको नहीं पता कि हम दुनिया से कटा हुआ महसूस कर रहे हैं. हमारे घरों के ऊपर जो आसमान है बस वही रह गया है जो हमें यह बताता है कि बाहर की दुनिया से आप आसमानी तौर पर जुड़े हुए हो. बस आसमान ही है जो हमारी ज़िन्दगी में बाहर की दुनिया को जोड़े हुए हैं. हम सभी लोग (जो आसपास के घर हैं) न तो हँसते हैं और न रोते हैं. बस एक जबरन ओढ़ी हुई चुप्पी और दहशत के साथ जी रहे हैं. जो लोग चिल्लाकर 'सी फ़ूड' खाने की सलाह दे रहे हैं, बेशक उनकी सलाह ठीक होगी पर हमारे यहाँ के लोग अपनी भूख को इसलिए जिंदा किये हुए हैं कि वे अगर इस आपदा में बच गए तो ठीक है वरना स्वाद के लिए कोई नहीं खा पा रहा. हम सील्ड एरिया के लोगों को किसी की हमदर्दी नहीं चाहिए. इतनी उम्र और दहशत देखकर हमने एक दूसरे को हमदर्दी देना सीख लिया है. बस हम यह बताना चाहते हैं कि आप लोग अपनी ख़ुशकिस्मती बरक़रार रखना चाहते हैं तो घर पर रहिये. अपने लोगों के लिए रहिये. समाज के बाकि लोगों के लिए रहिये.

एक बात और. न्यूज़ चैनल्स ने हमारी जगह की रिपोर्टिंग कि उसमें एक व्यक्ति को बार बार बोलते हुए कहा गया कि उसकी वजह से फ़ैल गया जबकि यह कहा जा सकता था कि अनजाने में उससे अन्य व्यक्ति संक्रमित हो गए. ये तोहमत सा फील दे रहा था. यहाँ किसी को ब्लेम मत कीजिए. मैंने नहीं किया. क्योंकि हम सब इस वायरस के शिकार हैं. वे ख़ुद सबसे पहले इसकी जद में आए और बाक़ी उनके संपर्क में होकर संक्रमित हो गए. मुझे नहीं लगता की दोष देखकर हम कुछ कर और कह पाएंगे. जो हो चुका है उससे मिटाया नहीं जा सकता. मेरा चाहना यह है कि वे सब ठीक होकर वापस अपने घरों में आ जाएं.संक्रमित लोगों को प्यार, हौसले औरसांत्वना की ज़रुरत है.

एक बार और कहूँगी, आप लोग घरों से बाहर मत निकलिए. हो सकता है कि आपके कारण आपको, आपके घर के लोगों और बाहर के लोगों को हमारी तरह हमारे ही एरिया में कैद कर दिया जाए. यह महसूस करना ही किसी व्यक्ति को मारने जैसा है कि वे जहाँ पैदा हुआ वह उसी जगह में कैद हो रहा है. मीठा बोलिए. कम बोल रहे हैं चलेगा. ग़ुस्सा न करें. रो लें. अपने दोस्तों रिश्तेदारों से बात कर लें. हर पल बेहतर जिएं. हमको नहीं पता कि हमारा क्या होगा? अगर हम बच भी गए तो शायद एक सदमा हमारे साथ उम्रभर रहेगा. अचानक से हम सील्ड, ब्लॉक्ड, बैरिकेड, पुलिस, निगरानी, संक्रमण, सेनिटाज़ेशन, रेड जोन, रिस्क ज़ोन, संक्रमित एरिया, हॉटस्पॉट जैसे शब्दों से पहचाने जाने लगे हैं. लेकिन हम इन शब्द शब्दावली के साथ भी एक धीमी सी ज़िंदगी जी रहे हैं. हम बहादुर हैं. हम साथ साथ हैं!  

Wednesday, 15 April 2020

सोशल-वोशल

जब सब कुछ धुंधला सा हो जाए तब क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, ये बाद की बातें हैं. सबसे पहले अपने दिल-दिमाग का ख़याल रखना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. इससे हम सब जूझ रहे हैं. हम बहुत खुशकिस्मत हैं कि हम इस बात को सोच रहे हैं. लेकिन याद रखिए कि कई परिवार और लोग ऐसे हैं जिनके पास भोजन की पर्याप्त व्यवस्था नहीं है. यह सोचकर ही बहुत ख़तरनाक लगता है कि हम इस दौर में ऐसे भूख के दृश्य देख रहे हैं. लोगों को सामूहिक तौर पर बेवकूफी करते हुए देख रहे हैं, यह सोचनीय विषय है. न सिर्फ यह इन लोगों के लिए ख़तरनाक है, बल्कि यह उन आम लोगों के लिए भी ख़तरनाक है जो मामूली सी ज़िंदगी को भी अपना तोहफा मानते हैं. 

यह बहुत बड़ी घटना हमारी आँखों के आगे घट रही हैं और हम सब इसके गवाह बन रहे हैं. यादाश्त का मसला बेहद संगीन होता है. लेकिन यह जानना जरुरी है कि आपको जो याद रहता है वह ही पूरा दृश्य नहीं होता. एक बहुत बड़े दृश्य में आपकी यादाश्त ज़रूरी हिस्सा होती है. हमारे इतिहास के साथ यही दिक्क़त भी है. और भी होंगी लेकिन इन तमाम दिक्कतों के साथ यह भी है कि आप इतिहास जानना बंद नहीं कर सकते. इसलिए आपको करना यह है कि अपने दृश्य को जितना अधिक सच से भर सकते हैं, भर दीजिए. मुझे लगता है सच से भर देना ही सब कुछ नहीं है. सच के साथ मानवता को ऊपर रखना होगा. kindness या फिर compassion को दिल और दिमाग में कूट कूटकर भर देना होगा. तब कहीं जाकर हमारा दृश्य पूरा होने की तरफ़ अग्रसर होगा. प्रेम और स्नेह भी मिला दीजिएगा तो तस्वीर के रंग बेहतर उभर आएंगे. 

लेकिन इसके एवज में अगर आप कुछ इच्छा रखते हैं तब मामला अलग हो सकता है. इस पोस्ट में इसी जूझने को लिखने की कोशिश करती हूँ. मुझे किसी ने कहा- "दिमाग बेहद ख़राब हो रहा है. क्या करें कुछ समझ नहीं आता!" मैंने कहा- "मैं आपको सुन रही हूँ इसका मतलब यह नहीं कि आप अपनी परेशानी को मुझे घड़ा समझकर उड़ेल देंगे! कुछ हद तक तो मुझे ऐतराज नहीं है लेकिन मुझे नहीं लगता कि मुझे आपके गम को अपना समझना चाहिए." उन्हें बुरा लगा और उन्हों ने फोन काट दिया. मेरी उम्र तक आते आते हम सबको खुश रखने वाला खयाल छोड़ने लग जाते हैं. यह बुरा नहीं है. ज़िन्दगी मुझे सिर्फ इसलिए तो नहीं मिली कि मेरे पास लोग आयें और अपना गम मेरे कन्धों पर चिपका कर चले जाएं. मुझे ऐसे लोगों से बहुत कुफ्त होती है जो एक परिपक्व उम्र में भी आकर अपने अच्छे दोस्तों का कंधा तलाशते हैं और जब उनका काम सध जाता है तब ख़ुशी के दिनों में नज़रन्दाज़ कर देते हैं. मैंने ऐसे लोगों से मुँह मोड़ना शुरू कर दिया है. मुझे लगता है मेरी ख़ुद की कहानी ही इतनी पेचीदा है कि मैं उनकी नहीं सुन सकती.

एक रोज़ सुबह जब मैंने नेट ऑन किया तब व्हाट्सएप पर मैसेज की बाढ़ के बीच जो मैसेज मुझे चौंका गया वह एक ऐसे व्यक्ति का था जो बहुत दिनों से अपने ज़िंदगी के तरह तरह के जश्न में मशगुल थे. ऐसा उनके डीपी के बदलने से मालूम चलता था. मुझे उनकी ज़िंदगी की ख़ुशी देखकर सुखद एहसास होता था. मुझे यह लगता था कि मेरी न सही, लोगों की ज़िंदगी में जश्न तो है. यह क्या बुरा है! इस दौरान उन्होंने मुझे कभी भी याद नहीं किया. जिस रोज़ का ज़िक्र कर रही हूँ उस रोज़ उन्होंने मुझे अल सुबह याद कर लिया था. मैसेज वास्तव में बहुत दुखद था. मैसेज में मेरे नाम के बाद उनकी माँ के इंतकाल की ख़बर थी. आप सोचिए कि आप सुबह नींद और ख़्वाब की दुनिया से जागकर उठे हैं और आपको सुबह सुबह कोई अपनी ज़िंदगी का बड़ा दुःख साझा कर रहा है. आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी? मैं घबरा गई और मैंने घबराहट में नेट ऑफ़ कर फ़ोन रख दिया. मेरे चेहरे पर सन्नाटा सा छा गया था. फटाफट बिस्तर से उठकर अपनी माँ साहेब को खोजा कि वे हैं कहाँ? जब उन्हें देख लिया तब वे बोलीं- "क्या हुआ है? ये भी कोई वक़्त हैं उठने का?" मैंने अपना मासूम सा चेहरा बनाया और ब्रश करने चल दी. ब्रश करने के बाद बहुत बेहतरीन तरीके से हाथ पैर धोकर चाय बनाई और अपने दिल को सांत्वना देने लगी. मुझे क्योंकर किसी दूसरे के गम में शरीक हो जाना चाहिए, वह भी फ़ोन से?

 
मैंने लगभग 12 बजे उन्हें एक सांत्वना मैसेज भेजा. लेकिन चिंता ऐसी अंदर समा गई कि मुझे लगा फिलोसफी बाक़ी रह गई है इसलिए मौत और ज़िंदगी के बारे में जो भी पंक्तियाँ दिमाग में आईं, वह उन्हें लिखकर भेज दीं. बाद में उनका जवाब शुक्रिया के तौर पर आया. हालाँकि मुझे इस बात का ग़ुस्सा नहीं था लेकिन मुझे यह बहुत अजीब लगा कि लोग अपने दुःख लेकर मुझसे चर्चा क्यों करना चाहते हैं? यह तो सिर्फ एक नजीर है. ऐसे कई लोग हैं जिनको लगता है मेरे पास जादू की छड़ी है और मैं उनके गम कम कर सकती हूँ. लेकिन जब से मैंने रेंगता हुआ ही सही 'न' कहना शुरू किया है तब से मेरे दोस्त कम हो रहे हैं. यकीन मानिए आपके आसपास लोग जोंक की तरह भी हो सकते हैं. इसमें बहुत उर्ज़ा जाती है. लेकिन अगर एक बार आप नज़रन्दाज़ करना सीख जाएं तब आपके जीवन में सुकून बढ़ने लगेगा. मैं सीख रही हूँ. 

इस प्रक्रिया में मुझे कभी कभी अपने में स्वार्थी होने की भावना विकसित होती महसूस होती है. लेकिन इसमें की खामी नहीं, ऐसा मैं मान कर चल रही हूँ. जब आप अपने बचे हुए दोस्तों से यह सब साझा करते हैं तब वे आपको अजीब सी सुई चुभोते हैं. वे कहते हैं- "हम्म! बात तो ठीक है पर सोशल होना भी ज़रूरी है. लोगों से न घुले मिलें तो नुकसान होता है." ओह! यह सुनकर एक चिंता तुरंत घुसने लगती है. क्या मैं लोगों से कटकर ठीक कर रही हूँ? लगातार इस पर सोचने के बाद मुझे अपने कटने वाले स्वभाव में फिर से कोई खामी नजर नहीं आती. मैं उन लोगों से कट रही हूँ जो मुझे सिर्फ ख़ास वजहों और स्थलों पर याद करते हैं. मेरे दोस्तों की फेहरिश्त लम्बी नहीं है. इसलिए वे सब अगर कटते भी हैं तो मुझे उन पर सोचने की बजाय नए दोस्त बनाने के बारे में सोचना चाहिए. मरी हुई लकीर को पीटने से फायदा नहीं होता. नए लोगों से मिलने पर कुछ नया तो हासिल होगा. 

वास्तव में एक बात यह भी है कि कभी कभी जटिलता बहुत दुःख देती है. जो सभी में प्रिय है, वह बन जाना मंजूर नहीं. मुझे अपने आप का प्रिय बनने का मौका कम मिला है. इस एकांत में लोगों से बात करने की बजाय छत को घूरना बहुत बढ़िया लगता है. उन लेखकों को पढ़ना भी बहुत बढ़िया लगता है जो अपने शब्द आपसे बात करने में उड़ेल देते हैं. उनकी नितांत नयी कहानी, आपके लिए है न कि किसी और के लिए. उनके लिखे दुःख कितने सादे से होते हैं. कभी बहुत सींचे हुए से. अगर आप उनके हमदर्द बनते हो तो आपको सुकून मिलता है. आपको यह एहसास है कि आप किसी के दुःख में साझी हुए लेकिन, लेखक एक ऐसा व्यक्ति भी है जो अपनी ख़ुशी में भी आपको शामिल करता है. वो यह नहीं देखता कि आप कैसे कपड़े पहनकर उनके जन्मदिन की पार्टी में आए, आपकी त्वचा का रंग क्या है, आपका धर्म और आदत क्या है, आपका मजहब है भी या आप गैर मजहबी हैं. और तो और अगर उसकी किताब आप न भी पढ़ें तो आपके स्वाद की कद्र करता है न कि आपसे नाराज़गी रखता है. 

इसलिए अगर अब कोई मुझे कहेगा कि मैं सोशल नहीं हूँ, तब मैं कहूँगी- "मैं आपसे ज़्यादा सोशल हूँ!" लेकिन मेरी मदद और compassion वाली बात का क्या? हम्म! यह करना चाहिए. इसे सबसे पहले यह सोचना चाहिए कि आप अपने ही इंसान बने रहने में सहयोग कर रहे हैं. आप उन लोगों की मदद करें जिन्हें वास्तव में इसकी ज़रुरत है. जैसे हमारी स्टूडेंट्स बिरादरी. इस बिरादरी को अफवाह फैला कर टारगेट किया जा रहा है और एक पूरी पौध को जहर से सींचा जा रहा है. आपको अगर वे कभी चर्चा के लिए याद करें तब उनके आगे सही तथ्य रख दें. सही ग़लत किये बगैर. बाक़ी उन पर छोड़ दें कि उनका क्या सोचना है! इसके अलावा हमारे आसपास के लोग जिनसे हम रूबरू नहीं हैं. आप ख़ुद सोचिये, आप ख़ुद खाकर सो लिए और बगल में कोई भूख से बिलख रहा है तो सो पाएंगे? नहीं न! तो कीजिए उनकी मदद लेकिन ख़ुद को मत छोड़िये इन मामलों में भी. याद रखिए आपके सही होने का तराजू ख़ुद आपके पास भी है. ग़लत बाट मत रख लेना. वरना नींद नहीं आएगी.

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फोटो: गूगल से        


Thursday, 9 April 2020

मीठी

लोग लिख रहे हैं और लगातार अच्छा और बुरा लिख रहे हैं. लिखने और न लिखने के बीच जो स्पेस है वहाँ बहुत कुछ अभी भी बचा हुआ है. घर में एक छोटी बच्ची आती है. उसी ने मुझे इस स्पेस के बारे में एहसास दिलाया. उसके पिता एक दिन मुझसे परेशानी में बोले- "इस लड़की का कुछ समझ नहीं आ रहा. क्या होगा इसका? ये कहती है कि मुझे बड़ी नहीं होना है. और तो और कहती है कि मुझे कुछ भी नहीं बनना है..! बताओ भला ऐसा कौन कहता है?"

मैंने उन्हें मुबारकबाद दी. कहा- "आपको ख़ुश होना चाहिए कि महज पांच साला उम्र में ये कितनी बड़ी बातें कह देती है. आप ख़ुशनसीब पिता हैं!"

वो खिन्न में बोले- "अब तुम भी! इसे दुनिया की चीजों में दिलचस्पी नहीं है, ये बच्ची है! ऐसे कैसे?" मैं चुप रही और चाहते हुए भी कुछ नहीं कहा. क्योंकि मैं जो भी जवाब देती वे उसे मानते नहीं. उन्होंने पहले से ही कुछ तय किया हुआ है.

उस बच्ची को जब देखती हूँ तब ऐसा लगता है उसके अंदर हर पल एक जादू पनप रहा है. कितना सौम्य है! वह बिलकुल आम बच्चों की तरह है पर फिर भी अलग. उसका अधिक सम्मोह किसी भी चीज़ से नहीं है. अगर वह खेलती है तब तन्मय होकर खेलती है. लेकिन जब दिल उचटता है तब देखती भी नहीं. उससे कुछ पूछो तो कहती है- "मुझे क्या पता! तुम्हें ख़ुद मालूम होगा! मुझसे क्यों पूछ रही हो?"

 

हाँ, यकीन कीजिए! वह ऐसे ही जवाब देती है. कई मिनट तक तो मैं अचरज में बैठी रह जाती हूँ और तब उसके पिता मुझे निहार कर कहते हैं- "देखो इसे!" मैं तब भी कोई जवाब नहीं देती. वह झूठ नहीं कहती है. वह सच ही बोलती है. हम जिन जवाबों को जानने और खोजने में अपनी ज़िंदगी बिता देते हैं वे जवाब अक्सर हमारे पास ही होते हैं. हम माने या न माने. भटक रहे हैं. चाहते हैं कि कोई योगी हमारे ख़ुद के हाथ की रेखा पढ़कर हमारी ज़िंदगी और उसके पड़ावों की जानकारी हमें दे. कुछ अच्छा घट जाए. वह मिल जाए जिसे हम चाहते हैं. फिर मामला घटनाओं, वस्तुओं या फिर लोगों से जुड़ा हो. 

उसे देखती हूँ तब ग़म नहीं सालते हैं. उसे दो या तीन साल की उम्र में रिकेट्स हुआ था.उस दौरान भी वह रोती नहीं थी. उसके पिता ने कई बार अस्पताल के चक्कर लगाए और चिंता में रहे. पिता जब माँ बन जाते हैं तब वह और भी महान हो जाते हैं. वह रो भी जाते थे. तब हम यही कहते थे कि तुम कैसे कमज़ोर हुए जाते हो! अपनी बेटी को देखो! वह तो रोती भी नहीं. वह सच में अजीब बच्ची है. वह तब ही रोती है जब उसके पिता उसे डांट देते हैं या पार्क जाने के लिए, वह भी अपने पिता के साथ. वरना वह शायद ही किसी बात से दुखी होकर रोती हो! मैंने नहीं देखा, उसे कभी उन चीज़ों को लेकर रोते हुए जिन्हें लेकर आम बच्चे आंसुओं की धारा बहा देते हैं. 

उसे देखती हूँ तब अपने ऊपर दया सी आ जाती है. कितनी कमजोर हूँ. और वह इस उम्र में भी कितनी मज़बूत. शरीर के दुःख के बावजूद वह जीने का चुनाव करती है. उसकी आँखें इन बातों को साफ़ बताती हैं. वह पढ़कर अपनी चीज़ों को पूरा कर लेती है. वह जिस वक़्त जो करती है, उस वक़्त वही करती है. उसे देखकर यह नहीं लगता कि वह कोई दाव लगाकर जी रही है. हारने और जीत जाने का दाव. न उसमें कोई लालच है. उसके ठीक उलट मैं मुक्त नहीं हूँ. उसके पिता साधारण पिता ही हैं. उनको कई बार समझा देती हूँ. आपको चिंता नहीं करनी चाहिए. वह ठीक है साधारण है. वह इंसान है. मुझे नहीं मालूम वे मेरे इन जवाबों से कितना तुष्ट होते हैं!

मेरे लिए वह लड़की मीठी है. इतनी कड़वाहटों के बीच मैंने ऐसे व्यक्तित्व की खोज की है. हाल फ़िलहाल इससे बड़ी सफ़लता कुछ हो नहीं सकती!


Saturday, 4 April 2020

कबूतर

आज एक फल खाने को मिला. काफी दिनों बाद. पुलिस की फेरी इतनी बढ़ गई है कि पिता सोच-समझकर ही बाहर निकलते हैं. सब्जी वाले तो गलियों में फेरे लगा लेते हैं लेकिन फल वाले नहीं आते. मुझे आजकल फलों के ख़्वाब आने लगे हैं. मैंने बातों बातों में यह कहा कि आज कितने रोज़ हुए एक भी फल नहीं मिला तब पिता जाने कहाँ से खोजकर लाए. बेतरह मीठे थे. ज़िन्दगी में अगर फल न हों, तो बहुत फ़र्क पड़ना शुरू हो जाता है. हर फल पसंद है. सभी का स्वाद कितना अलग है. आज जब संतरा खाने को मिला तब उसका स्वाद इतना मीठा लगा कि उसे बहुत से स्वादों के बीच बाँट सकती थी. लॉकडाउन ने यह ख़ासियत और भी निखार दी है. हर खाने में एक स्वाद जो पहले से था वो पता चलने लगा है. पसंदीदा जैसा कुछ नहीं था और है. जो मिलता है वो खा लेती हूँ. नाज़ नखरे नहीं दिखाती. अच्छा लगा तब और खा लिया नहीं लगा तब कम खाया. यही हिसाब है खाने-पीने में. 

लॉकडाउन बड़ी बात और घटना है. ज़िन्दगी जैसे थम गई है. बदन के हर हिस्से में बेगुनाह(बेपनाह नहीं लिखा) दर्द रहता है. खाने पीने की दिक्कत नहीं होती लेकिन फिर भी बहुत कुछ है जो ठीक नहीं है. गर्दन के पीछे एक अजीब क़िस्म का दर्द उठता है. जैसे किसी ने मुंडी को रस्सी से बांधकर देर तक किसी बाज़ार में बिकने को टांग दिया हो. लेकिन ग्राहक हैं कि आते नहीं. सिर आँखों में एक ही दृश्य को हज़ार बार देखने की दुविधा बन गई है. हालाँकि मेरा सिर और आँखें इस बात की मुझसे शिकायत नहीं करते. मेरी ज़िंदगी बहुतों की तुलना में अच्छी है और मैं यह अच्छी तरह से जानती हूँ. फिर बहुत कुछ आँखों से नहीं देखा जा सकता. लेकिन महसूस होता है. कोरोना भी आँखों से नहीं दिख रहा है लेकिन हज़ारों लोगों की जान जाने का कारण बन चुका है. लाखों लोग इसकी जद में हैं. वो ठीक हो जाएं ऐसा चाहती हूँ. मैं भी कुछ अजीब की जद में हूँ. किसी को दिखेगा नहीं.



माँ और मेरी, शाम में कुछ जुड़ गया है. यह सुकून भरा है. हम शाम का वक़्त छत पर गुज़ारते हैं. बैठे-बैठे सिर उठाकर आसमान देखते हैं. आसमान बेहद साफ़ रहता है. बाक़ी चिड़िया का नहीं पता लेकिन मैं लेटे-लेटे कबूतरों की उड़ान देखती हूँ. बहुत अच्छा लगता है. बहुत! मेरी माँ भी यही देखकर ख़ुश होती रहती हैं. हालाँकि इस दौरान हम बेहद कम बात करते हैं. क्योंकि हम दोनों का ध्यान आसमान और कबूतरों पर रहता है. घर के बगल वाले घर की दीवारें नंगी हैं और उनमें कहीं कहीं ईट न होने से मुक्कमल जगह बनी हुई है. इनकी संख्या लगभग पाँच या छ है. जब शाम उतरने लगती है तब इनमें कबूतर आ कर ठहर जाते हैं. शाम को वे कुछ इस तरह उनमें समा जाते हैं जैसे वे सब उनका घर हो. ये दृश्य इतना अच्छा लगता है कि उसे शब्दों में जाहिर नहीं किया जा सकता.दोनों माँ और बेटी चुपचाप उनको देखते हैं. ऐसा हम कई दिनों से कर रहे हैं. हमने एक बात और नोटिस की है कि जो घर जिसका है उसमें कोई और कबूतर दखल नहीं करता. ऐसा हम इसलिए कह सकते हैं क्योंकि हम बहुत दिनों से उन्हें ऑब्ज़र्व कर रहे हैं. 

कबूतर तो कबूतर होते हैं. जाने किसने उसके मुँह यानी चोंच में एक तिनका फँसा कर उसे शांति का प्रतीक बना दिया है. अम्मी तो कहती हैं कि सारी पाखी एक जैसी ही हैं.सबको उड़ना ही है.उनकी खूबसूरती कह लो या नियति उड़ान ही है. फिर ये कौन सा आदमी सिर्फ सफ़ेद कबूतर को खोजकर लाया और उसे शांति के पैकेट में तब्दील कर दिया. आज नहीं, फिर किसी दिन खोजूंगी इनके बारे में.  

लेकिन आज शाम जब इन कबूतरों को देख कर अपने अपने हिस्से का सुकून पी रहे थे तब ही पता चला कि गली में अपने ही कमरे में रहने वाले एक भईया का इंतकाल हो गया. वो हमेशा से अकेले नहीं थे. उनके कई भाई बहन थे. बाद के सालों में वह अकेले रहना ज़्यादा पसंद करते थे. जाने कमरे में रह, वे क्या करते थे! जब तक रहे कोई उनसे मिलने नहीं आता था और न ही वो कहीं जाते थे. किसी ने कभी उनकी कोई सुध नहीं ली. काम छूट जाने से कई बार वे भूखे ही रह जाते थे. मुझे उनके बारे में ज़्यादा नहीं मालूम. मेरा बाहर की दुनिया से बेहद कम ताल्लुक है. पिछले कुछ सालों से घर में पड़े रहने की इतनी गंदी आदत हो गई है कि मुझे कभी कभी लगता है कि मेरा घर अन्तरिक्ष में किसी चीज़ से बंधा अकेला झूम रहा है. मैं ही हूँ और कोई कहीं नहीं है.

आज जब वे मर गए तो अचानक इतने लोग इकठ्ठा हुए जितने पहले कभी नहीं. भूखे रह कर मर गए भईया. जिंदा थे तब कोई मिलने तक नहीं आया. जब मर गए तो सब नामाकुल इकट्ठे हो गए. मायूसी जता रहे थे. मेरा मन हुआ कि सबके बीच जाकर चिल्ला चिल्लाकर भगा दूँ. इतना चिल्लाऊं कि वे लोग भाग कर कहीं छुप जाएँ. भईया को कोई समझ नहीं पाया या वे किसी को समझना नहीं चाहते थे, इस बात का मुझे पता नहीं. बस यह पता है कि वे इस असामान्य माहौल में सामान्य सी मौत मर गए. पिता शाम को उनका ज़िक्र कर रहे थे. मुझसे सुना नहीं गया. मैं जल्दी से छत पर अँधेरे में उन कबूतरों को देखने चली गई. मुझे लगा कि अगर एक शब्द और सुना तो चक्कर खाकर गिर ही पडूँगी. ऊपर गई तो वे सब अपने अपने घरों में गुटुर गुटुर कर रहे थे. सुनकर वहीं धम से बैठ गई या गिर पड़ी, पता नहीं चला! 


Wednesday, 1 April 2020

मेरा बैकग्राउंड

अगर मुझे अपने बैकग्राउंड के बारे में मालूम होता तो मैं यहाँ नहीं होती. यह बैकग्राउंड होता क्या है? 

फेसबुक पेज पर मैं मैसेज नहीं देखती और न ही जल्दी कभी जवाब देती हूँ. यहाँ बस कुछ बेहतर साझा करने की कोशिश है. शुरू में कुछ दोस्तों को मैसेज कर, लाइक के लिए कहा भी था लेकिन अब ऐसा नहीं करती. अगर ठीक लगता है तो जुड़ें वरना कोई बात नहीं. unlike कर दें या dislike जो भी है. मुझे ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता. कोरोना वायरस का वक़्त है. उसे देखते हुए आप जीवन के किस मोड़ पर खड़े हैं और बाक़ी किस मोड़ पर, उस बैकग्राउंड को समझें. सामूहिकता में कैसे कोरोना वायरस, सरकारी तंत्र, लापरवाही, नुकसान पहुँचा रहा है उसको जाने. महामारी क्यों प्राकृतिक कही जा रही है जबकि इसका पूरा ज़ोर इंसानों से जुड़ा हुआ है? 


आप सोचिये न, जो लोग मर रहे हैं वे क्या बैकग्राउंड साथ लेकर गए? कभी उनकी जगह ख़ुद को रखकर सोचिये कि मौत कितनी ताक़त के साथ आती है और मौत के जहाज पर न दिखने वाले वायरस के साथ उठाये ले जा रही है. उस बच्ची और उसके पीछे जो बच्ची ब्लर हो गई है, का सोचिये, जो सिर पर भारी बैग ढोकर घर जा रही है. घर कैसे जरुरी से लगने लगे हैं! आपको लगेगा कि घर एक छतरी में तब्दील हो रहा है. 

 दुनिया क्या पिघल रही है? यहाँ बर्फ नहीं पिघल रही. बल्कि मुझे लगता है लोग पिघल रहे हैं. ग़रीब, दलित, औरतें, मजदूर, बीमार, बुज़ुर्ग, सब पिघल कर लोहे की तरह पृथ्वी के केंद्र में जमा दिए जाएंगे. और रह जाएंगे वो लोग ऊपर, जिन्होंने वेंटिलेटर्स ख़रीद लिए हैं. जिन्होंने अनाज की काला बाज़ारी शुरू कर दी है. जिन्होंने बेहथियार डॉक्टरों को आगे कर दिया है, न दिखने वाले वायरस के साथ युद्ध में. आपको पता है, मर जाने के बाद किसी भी तरह का बैकग्राउंड नहीं बचता. हम कहानियों लायक बचेंगे भी या नहीं, मुझे इस बात भी शक है. जबकि कहानियाँ इंसान की सबसे तरल दोस्त होती आई हैं. ग़रीबों के हमदर्द के रूप में चाहे कोई आया हो या नहीं, ये गीत और कहानियाँ ही थीं, जिन्होंने हमें इतिहास और मिथक में गुमशुदा होने से बचा लिया. 

वैसे मैं अब अपने बैकग्राउंड को खोजकर लाऊंगी, ताकि आगे कहीं कोई उसके बारे में कोई क़िस्सा खिसका सके. कोई बता सके कि एक लड़की हुआ करती थी और...     

मुझे मैसेज भी कीजिए तो उसमें कोई रचनात्मक सवाल कीजिए. किसी किताब का ज़िक्र कीजिए. किसी पेंटिंग की बात कीजिए. किसी कौतुहल को खोज लाकर उसकी बात कीजिए. बीदोवन की पांचवीं और नौवीं सिम्फनी की बात कीजिए...उन आत्मकथाओं की बात कीजिए जो कभी लिखी ही नहीं गईं या जिन्हें लिखने से रोक दिया गया. उस आदमी की ख़ामोशी की बात कीजिए, जिनमें वह ख़ूब बातें किया करता है...अरे बहुत कुछ है...

मेरा कोई बैकग्राउंड अभी तक नहीं है. मिलते ही बता दूंगी. 

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Vincent van Gogh
The Parsonage Garden at Nuenen, 1884 (30.03.20, सोमवार को चोरी हो गई है, यह पेंटिंग)
 

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...