लोग लिख रहे हैं और लगातार अच्छा और बुरा लिख रहे हैं. लिखने और न लिखने के बीच जो स्पेस है वहाँ बहुत कुछ अभी भी बचा हुआ है. घर में एक छोटी बच्ची आती है. उसी ने मुझे इस स्पेस के बारे में एहसास दिलाया. उसके पिता एक दिन मुझसे परेशानी में बोले- "इस लड़की का कुछ समझ नहीं आ रहा. क्या होगा इसका? ये कहती है कि मुझे बड़ी नहीं होना है. और तो और कहती है कि मुझे कुछ भी नहीं बनना है..! बताओ भला ऐसा कौन कहता है?"
मैंने उन्हें मुबारकबाद दी. कहा- "आपको ख़ुश होना चाहिए कि महज पांच साला उम्र में ये कितनी बड़ी बातें कह देती है. आप ख़ुशनसीब पिता हैं!"
वो खिन्न में बोले- "अब तुम भी! इसे दुनिया की चीजों में दिलचस्पी नहीं है, ये बच्ची है! ऐसे कैसे?" मैं चुप रही और चाहते हुए भी कुछ नहीं कहा. क्योंकि मैं जो भी जवाब देती वे उसे मानते नहीं. उन्होंने पहले से ही कुछ तय किया हुआ है.
उस बच्ची को जब देखती हूँ तब ऐसा लगता है उसके अंदर हर पल एक जादू पनप रहा है. कितना सौम्य है! वह बिलकुल आम बच्चों की तरह है पर फिर भी अलग. उसका अधिक सम्मोह किसी भी चीज़ से नहीं है. अगर वह खेलती है तब तन्मय होकर खेलती है. लेकिन जब दिल उचटता है तब देखती भी नहीं. उससे कुछ पूछो तो कहती है- "मुझे क्या पता! तुम्हें ख़ुद मालूम होगा! मुझसे क्यों पूछ रही हो?"
हाँ, यकीन कीजिए! वह ऐसे ही जवाब देती है. कई मिनट तक तो मैं अचरज में बैठी रह जाती हूँ और तब उसके पिता मुझे निहार कर कहते हैं- "देखो इसे!" मैं तब भी कोई जवाब नहीं देती. वह झूठ नहीं कहती है. वह सच ही बोलती है. हम जिन जवाबों को जानने और खोजने में अपनी ज़िंदगी बिता देते हैं वे जवाब अक्सर हमारे पास ही होते हैं. हम माने या न माने. भटक रहे हैं. चाहते हैं कि कोई योगी हमारे ख़ुद के हाथ की रेखा पढ़कर हमारी ज़िंदगी और उसके पड़ावों की जानकारी हमें दे. कुछ अच्छा घट जाए. वह मिल जाए जिसे हम चाहते हैं. फिर मामला घटनाओं, वस्तुओं या फिर लोगों से जुड़ा हो.
उसे देखती हूँ तब ग़म नहीं सालते हैं. उसे दो या तीन साल की उम्र में रिकेट्स हुआ था.उस दौरान भी वह रोती नहीं थी. उसके पिता ने कई बार अस्पताल के चक्कर लगाए और चिंता में रहे. पिता जब माँ बन जाते हैं तब वह और भी महान हो जाते हैं. वह रो भी जाते थे. तब हम यही कहते थे कि तुम कैसे कमज़ोर हुए जाते हो! अपनी बेटी को देखो! वह तो रोती भी नहीं. वह सच में अजीब बच्ची है. वह तब ही रोती है जब उसके पिता उसे डांट देते हैं या पार्क जाने के लिए, वह भी अपने पिता के साथ. वरना वह शायद ही किसी बात से दुखी होकर रोती हो! मैंने नहीं देखा, उसे कभी उन चीज़ों को लेकर रोते हुए जिन्हें लेकर आम बच्चे आंसुओं की धारा बहा देते हैं.
उसे देखती हूँ तब अपने ऊपर दया सी आ जाती है. कितनी कमजोर हूँ. और वह इस उम्र में भी कितनी मज़बूत. शरीर के दुःख के बावजूद वह जीने का चुनाव करती है. उसकी आँखें इन बातों को साफ़ बताती हैं. वह पढ़कर अपनी चीज़ों को पूरा कर लेती है. वह जिस वक़्त जो करती है, उस वक़्त वही करती है. उसे देखकर यह नहीं लगता कि वह कोई दाव लगाकर जी रही है. हारने और जीत जाने का दाव. न उसमें कोई लालच है. उसके ठीक उलट मैं मुक्त नहीं हूँ. उसके पिता साधारण पिता ही हैं. उनको कई बार समझा देती हूँ. आपको चिंता नहीं करनी चाहिए. वह ठीक है साधारण है. वह इंसान है. मुझे नहीं मालूम वे मेरे इन जवाबों से कितना तुष्ट होते हैं!
मेरे लिए वह लड़की मीठी है. इतनी कड़वाहटों के बीच मैंने ऐसे व्यक्तित्व की खोज की है. हाल फ़िलहाल इससे बड़ी सफ़लता कुछ हो नहीं सकती!
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