आज लॉकडाउन का नहीं पता कौन सा दिन है! यहाँ सभी के साथ ऐसा ही हो रहा है. दिन भर एक बेचैनी हम लोगों का पीछा करती है. जब शाम ढलती है तब थोड़ा थोड़ा बेहतर महसूस होता है. अब इस थोड़े थोड़े में ही हम जी रहे हैं. अगर लोगों के पास फोन न हो तो वो पूरी तरह से पागल हों जाएँ. यहाँ ऐसे लोग नहीं जो पढ़ाई लिखाई की बातें सोचें या कुछ लिखें. ख़ुद मेरे घर में यह माहौल नहीं. यहाँ के लोग अक्सर दूकान से सौदा लाते हैं तो अपनी एक कॉपी पर लिखवा लेते हैं. इसके अलावा बेहद कम घरों में अख़बार आने की व्यवस्था है. वाजिब है कि पहले तो घर में रोटी ही आनी चाहिए. कितना अजीब है न इस विकसित ज़माने में रोटी और अख़बार एक साथ नहीं आ पा रहे. वैसे ठीक भी है. अख़बार का जहर आजकल बर्दाश्त नहीं होता न!
यहाँ बहुत से प्रवासी किराएदार हैं जो मजदूरी करते हैं या किसी फैक्ट्री में काम करते हैं. किसी का बहुत बड़ा काम नहीं है. लोगों की सरकारी नौकरी भी यहाँ नहीं है. इसलिए सबके रहन सहन में बहुत अधिक फ़र्क नहीं है. सबके यहाँ वही खाना बन रहा है जो किसी दूसरे के यहाँ बन रहा है. रोटी, सीज़न की सबसे सस्ती सब्ज़ियाँ, सीज़न के सबसे सस्ते फल और दूध, थोड़ा बहुत! कहने का मतलब यह नहीं है कि यहाँ अमीर लोगों की संख्या नहीं हैं, बल्कि है. काफ़ी लोग बहुत पैसे वाले हैं जो अपनी ख़ूबियों और सरकारी ख़ामियों से पैदा हुए हैं. यहाँ कुछ परिवारों ने पानी की बोरिंग करवा रखी है. उस पानी को बहुत महंगे दामों पर मिनटों के हिसाब से बेचा जाता है. पानी के काम में बहुत पैसा है. लोग पानी नहीं लेंगे तो मर जाएंगे. इसलिए यह धंधा जोरो पर है. इतनी पार्टी की सरकारें बदलीं लेकिन हर पार्टी इन बोरिंग वालों के प्रति वफादार निकली. आगे की ओर रोड के मुहाने की तरह जो बिल्डिंग हैं वो घर कम, बिल्डिंग ज़्यादा हैं. वहाँ बेहद अमीर लोग अपने छज्जों से सुबह सूरज देवता को नमस्कार करते हैं. पौधों को पानी डाला नहीं जाता बल्कि उनको गला दिया जाता है. यह सोचा जा सकता है कि चार लोगों में इतना बड़ी बिल्डिंग की ज़रुरत ही क्या है! ज़रुरत है. किरायेदारों को रखना भी अच्छा धंधा है. इन घरों में अमूमन ब्लैक प्रवासी लोग रहते हैं जो किसी भी क़ीमत पर कमरा ले लेते हैं.
अगर वो लेंगे नहीं तो जाएंगे कहाँ? वे लोग पता नहीं अपना खूबसूरत मुल्क छोड़कर यहाँ क्यों रहते हैं? यहाँ जब वो सुबह कहीं जाने के लिए कमरे का ताला लगा रहे होते हैं तब उनके जाने के बाद मकान मालिक का लड़का उनके काले रंग का मज़ाक बना रहा होता है. लेकिन यही रंग इन काले प्रवासियों की बीवियों की छातियों को देखकर उन्हें बुरा नहीं लगता. वे इस तरह से देखते हैं जैसे वे उसके साथ दिन में, ठीक उसी पल में सो रहे हैं. हाँ, यहाँ कई आँखों में आपको ऐसा ही लगेगा. यह गन्दगी इतनी बदबूदार है जितना कूड़ा कचरा नहीं होता. यह बहुत महकता है लेकिन दिन के सामान्य उजाले में यह किसी को नज़र नहीं आता. यहाँ की औरतें जो ख़ुद घरों में बच्चे पैदा कर चुकी हैं और रोज़ अत्याचार झेलती हैं, इन काले प्रवासियों की पत्नियों को देखकर मज़ाक उड़ाती हैं. मुँह पर साड़ी या दुपट्टे के पल्लू रखकर- हाय! तौबा तौबा...करती रहती हैं. पर एक बात आपको जाननी चाहिए. वो यह कि इन्हीं औरतों की बेटियाँ और बेटे जब स्कूल से छुट्टी होती है तब इस तरह के शब्दों में बात करते हैं कि दो मिनट को आप हैरान होते हैं कि ये लोग जो सभ्य बने फिरते हैं, जो काले प्रवासियों की पत्नियों, बहनों, और औरतों को देखकर उनका मज़ाक उड़ाते हैं या आहे भरते हैं, वे उन सब कामों में शाब्दिक या शारीरिक तौर पर शामिल हैं. शाम को, दोपहर को मैंने उस नौजवान भीड़ में यह सब सुना और देखा है जो लोग बाहरी तौर पर गन्दा और बुरा मानते हैं. लेकिन मुझे तसल्ली इस बात की है कि ये स्कूल के लोग इन काली प्रवासी औरतों का थोड़ा कम मज़ाक उड़ाते हैं. लेकिन यकीन मानिए, मज़ाक उड़ाते तो वे भी हैं.
यह दोहरापन यहाँ के लोगों में ख़ूब मिल जाएगा. यहाँ नयी नयी शादी होकर आई दुल्हन को तबियत ख़राब होने पर बाइक पर बैठकर उसका पति, मालिक, बोस, जी, सुनो...आदि आदि उसे घूंघट में लपेटकर ले जाता है. लेकिन दिलचस्प यह भी है कि जब वह अपनी बीवी को डॉक्टर के पास इलाज कराने ले जा रहा है तब अगर उसे रास्ते में काले प्रवासियों में से कोई महिला दिखती है तब वह उसकी छाती देख लेता है. वह इतनी देर देखता कि आगे से आने वाली बाइक से उसका एक्सीडेंट हो सकता है. लेकिन इस काली प्रवासी महिला को कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि उसे अब रोज़ इस तरह के हादसों की आदत हो गई है. यह न दिखने वाली हिंसा है. उसके साथ शुरू शरू में बहुत हिंसा हुई और अब उसने इसका प्रतिकार थोड़ा बंद कर दिया है. लेकिन अगर किसी ने उसके शरीर को छुआ तो हो सकता है वह वार कर दे.
लेकिन इस बाइक के पीछे बैठी औरत जो घूंघट में है, जो औरत कम, पाली हुई बकरी ज़्यादा है, जिसका रंग गोरा है, जो शायद उतनी भी पढ़ी लिखी नहीं है, जो थकी हुई या बंधी-फंसी हुई है, वह चुपचाप पीछे बैठी है. जब उसके पति की बाइक काली प्रवासी महिला की छाती देखने के चक्कर में लड़खड़ाई तो इस पाली हुई बकरी का ध्यान हड़बड़ा गया. वह भी लड़खड़ा गई और उसने झटके से अपने पति के कन्धों को कसकर पकड़ लिया. उसका ध्यान सामने वाले यानी बाइक वाले पर गया. वह शायद कुछ नहीं बोली होगी. क्योंकि उसकी तो तबियत ख़राब है. उसका रंग गोरा है इसलिए अमीर बाप के बेटे से जिसके पास एक बाइक पहले से थी, ब्याह दी गई. पाली हुई बकरी के बाप ने अपने नए नए दामाद को रॉयल एनफील्ड बाइक तोहफे में दी जिसे आज भी लोग दहेज़ कहते हैं. लोगों को का क्या, वे तो कुछ भी कहते हैं. लेकिन देखिए, लड़की के पिता जो उसका बाप भी है, ने उसे कुछ भी नहीं दिया सिवा कुछ गहनों के. वे चाहते तो उसके नाम एफडी कर सकते थे. लेकिन लड़की के पिता ने पहली बात तो बैंक में एफडी करना नहीं सीखा. लेकिन अगर कुछ ने सीखा भी तो वो बकरी उर्फ़ लड़की के नाम से इसलिए रखा ताकि जब उसकी शादी हो तो उसकी शादी में जाने पहचाने लोगों को खाना खिलाया जा सके, टेंट लगवाया जा सके, सजावट की जा सके ताकि लोग यह न कह दें कि इन्हों ने लड़की की शादी में कम ख़र्चा किया. उन एफडी के रुपयों से बहुत कुछ हुआ जो उस लड़की के नाम से थे पर उस लड़की उर्फ़ बकरी के नाम से नहीं हुआ.
हाँ तो यही बकरी उर्फ़ लड़की उर्फ़ पत्नी अब बाइक के पीछे बैठी है और इलाज करवाने जा रही है. जब वह घर लौटेगी तब उसे घर के काम भी तो करने हैं. ऐसे कैसे बैठ सकती है? लेकिन कुछ बकरियां उर्फ़ बहुएं ठीक हैं, क्योंकि उन्हें काम करने वाली औरत की मदद मिली हुई है और ये मालकिन बकरियां इन काम करने वाली असली औरतों पर बेहद ख़तरनाक नज़र बनाए हुए रखती हैं ताकि वे घर के सामान या उनके पति की चोरी न कर बैठे. कहीं सुस्ता न ले. काम के रुपए भी तो वसूलने हैं. अगर नहीं वसूले तो कितना नुकसान हो सकता है.
तो ये पाली हुई बकरी गर्भवती है. उसका इसी उम्र में बच्चा होगा. कुछ महीनो बाद प्रसव हुआ और बच्चा हो गया. बच्चे की तबियत ख़राब है. वह बच्चे को बाइक पर लेकर बैठी है. मैनेज कर के. उसका पति फिर लड़खड़ा गया और वह औरत उर्फ़ बकरी गिर गई. इस बार ज़ोर से किसी कार से टक्कर हुई. अगर वह छातियों के बजाय सामने देखकर आराम से बाइक चलाता तो ऐसा नहीं होता. लेकिन अब ऐसा हो गया. कुछ भी नहीं बदला जा सकता. कुछ भी नहीं. जच्चा और बच्चा दोनों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत हो गई. लड़की के पिता जिन्होंने लड़की के लिए नहीं बल्कि उसकी शादी के लिए एफडी की थी आए, और ख़ूब रोने लगे. दहाड़कर. बोलने लगे डॉक्टर सही समय पर देख लेता तो मेरी बच्ची मरती नहीं. बच जाती. मैंने उन्हें रोते हुए देखकर ख़ामोशी से कहा अगर शादी के लिए रखी एफडी से उसे ही डॉक्टर बना दिया होता तो वह ख़ुद बाइक से गिर रही बकरियों की मौतों को रोक देती. वो कितनी बकरियों उर्फ़ लड़कियों को बचाती. मुझे तो अफ़सोस है. मैं कर भी क्या सकती हूँ. लोग कह रहे थे गाड़ी वाले की गलती से हुआ. पति या मालिक चुप था. लेकिन सच कहूँ, ये सब उन काले प्रवासियों की औरतों जो बड़ी बड़ी छाती वालियां हैं, उनके कारण हुआ.
ओह! बताना भूल गई. अख़बार में ख़बर छपी है कि आजकल लॉकडाउन में घरेलू हिंसा बहुत बढ़ गई है. बाक़ी भी ख़बरें हैं. पढ़ते हैं फिर बात करते हैं.
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फ़ोटो गूगल से
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