Saturday, 4 April 2020

कबूतर

आज एक फल खाने को मिला. काफी दिनों बाद. पुलिस की फेरी इतनी बढ़ गई है कि पिता सोच-समझकर ही बाहर निकलते हैं. सब्जी वाले तो गलियों में फेरे लगा लेते हैं लेकिन फल वाले नहीं आते. मुझे आजकल फलों के ख़्वाब आने लगे हैं. मैंने बातों बातों में यह कहा कि आज कितने रोज़ हुए एक भी फल नहीं मिला तब पिता जाने कहाँ से खोजकर लाए. बेतरह मीठे थे. ज़िन्दगी में अगर फल न हों, तो बहुत फ़र्क पड़ना शुरू हो जाता है. हर फल पसंद है. सभी का स्वाद कितना अलग है. आज जब संतरा खाने को मिला तब उसका स्वाद इतना मीठा लगा कि उसे बहुत से स्वादों के बीच बाँट सकती थी. लॉकडाउन ने यह ख़ासियत और भी निखार दी है. हर खाने में एक स्वाद जो पहले से था वो पता चलने लगा है. पसंदीदा जैसा कुछ नहीं था और है. जो मिलता है वो खा लेती हूँ. नाज़ नखरे नहीं दिखाती. अच्छा लगा तब और खा लिया नहीं लगा तब कम खाया. यही हिसाब है खाने-पीने में. 

लॉकडाउन बड़ी बात और घटना है. ज़िन्दगी जैसे थम गई है. बदन के हर हिस्से में बेगुनाह(बेपनाह नहीं लिखा) दर्द रहता है. खाने पीने की दिक्कत नहीं होती लेकिन फिर भी बहुत कुछ है जो ठीक नहीं है. गर्दन के पीछे एक अजीब क़िस्म का दर्द उठता है. जैसे किसी ने मुंडी को रस्सी से बांधकर देर तक किसी बाज़ार में बिकने को टांग दिया हो. लेकिन ग्राहक हैं कि आते नहीं. सिर आँखों में एक ही दृश्य को हज़ार बार देखने की दुविधा बन गई है. हालाँकि मेरा सिर और आँखें इस बात की मुझसे शिकायत नहीं करते. मेरी ज़िंदगी बहुतों की तुलना में अच्छी है और मैं यह अच्छी तरह से जानती हूँ. फिर बहुत कुछ आँखों से नहीं देखा जा सकता. लेकिन महसूस होता है. कोरोना भी आँखों से नहीं दिख रहा है लेकिन हज़ारों लोगों की जान जाने का कारण बन चुका है. लाखों लोग इसकी जद में हैं. वो ठीक हो जाएं ऐसा चाहती हूँ. मैं भी कुछ अजीब की जद में हूँ. किसी को दिखेगा नहीं.



माँ और मेरी, शाम में कुछ जुड़ गया है. यह सुकून भरा है. हम शाम का वक़्त छत पर गुज़ारते हैं. बैठे-बैठे सिर उठाकर आसमान देखते हैं. आसमान बेहद साफ़ रहता है. बाक़ी चिड़िया का नहीं पता लेकिन मैं लेटे-लेटे कबूतरों की उड़ान देखती हूँ. बहुत अच्छा लगता है. बहुत! मेरी माँ भी यही देखकर ख़ुश होती रहती हैं. हालाँकि इस दौरान हम बेहद कम बात करते हैं. क्योंकि हम दोनों का ध्यान आसमान और कबूतरों पर रहता है. घर के बगल वाले घर की दीवारें नंगी हैं और उनमें कहीं कहीं ईट न होने से मुक्कमल जगह बनी हुई है. इनकी संख्या लगभग पाँच या छ है. जब शाम उतरने लगती है तब इनमें कबूतर आ कर ठहर जाते हैं. शाम को वे कुछ इस तरह उनमें समा जाते हैं जैसे वे सब उनका घर हो. ये दृश्य इतना अच्छा लगता है कि उसे शब्दों में जाहिर नहीं किया जा सकता.दोनों माँ और बेटी चुपचाप उनको देखते हैं. ऐसा हम कई दिनों से कर रहे हैं. हमने एक बात और नोटिस की है कि जो घर जिसका है उसमें कोई और कबूतर दखल नहीं करता. ऐसा हम इसलिए कह सकते हैं क्योंकि हम बहुत दिनों से उन्हें ऑब्ज़र्व कर रहे हैं. 

कबूतर तो कबूतर होते हैं. जाने किसने उसके मुँह यानी चोंच में एक तिनका फँसा कर उसे शांति का प्रतीक बना दिया है. अम्मी तो कहती हैं कि सारी पाखी एक जैसी ही हैं.सबको उड़ना ही है.उनकी खूबसूरती कह लो या नियति उड़ान ही है. फिर ये कौन सा आदमी सिर्फ सफ़ेद कबूतर को खोजकर लाया और उसे शांति के पैकेट में तब्दील कर दिया. आज नहीं, फिर किसी दिन खोजूंगी इनके बारे में.  

लेकिन आज शाम जब इन कबूतरों को देख कर अपने अपने हिस्से का सुकून पी रहे थे तब ही पता चला कि गली में अपने ही कमरे में रहने वाले एक भईया का इंतकाल हो गया. वो हमेशा से अकेले नहीं थे. उनके कई भाई बहन थे. बाद के सालों में वह अकेले रहना ज़्यादा पसंद करते थे. जाने कमरे में रह, वे क्या करते थे! जब तक रहे कोई उनसे मिलने नहीं आता था और न ही वो कहीं जाते थे. किसी ने कभी उनकी कोई सुध नहीं ली. काम छूट जाने से कई बार वे भूखे ही रह जाते थे. मुझे उनके बारे में ज़्यादा नहीं मालूम. मेरा बाहर की दुनिया से बेहद कम ताल्लुक है. पिछले कुछ सालों से घर में पड़े रहने की इतनी गंदी आदत हो गई है कि मुझे कभी कभी लगता है कि मेरा घर अन्तरिक्ष में किसी चीज़ से बंधा अकेला झूम रहा है. मैं ही हूँ और कोई कहीं नहीं है.

आज जब वे मर गए तो अचानक इतने लोग इकठ्ठा हुए जितने पहले कभी नहीं. भूखे रह कर मर गए भईया. जिंदा थे तब कोई मिलने तक नहीं आया. जब मर गए तो सब नामाकुल इकट्ठे हो गए. मायूसी जता रहे थे. मेरा मन हुआ कि सबके बीच जाकर चिल्ला चिल्लाकर भगा दूँ. इतना चिल्लाऊं कि वे लोग भाग कर कहीं छुप जाएँ. भईया को कोई समझ नहीं पाया या वे किसी को समझना नहीं चाहते थे, इस बात का मुझे पता नहीं. बस यह पता है कि वे इस असामान्य माहौल में सामान्य सी मौत मर गए. पिता शाम को उनका ज़िक्र कर रहे थे. मुझसे सुना नहीं गया. मैं जल्दी से छत पर अँधेरे में उन कबूतरों को देखने चली गई. मुझे लगा कि अगर एक शब्द और सुना तो चक्कर खाकर गिर ही पडूँगी. ऊपर गई तो वे सब अपने अपने घरों में गुटुर गुटुर कर रहे थे. सुनकर वहीं धम से बैठ गई या गिर पड़ी, पता नहीं चला! 


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