बाबे की बीस बरस की क़ैद पर बहुत ही खुशी दिखाई पड़ रही है। होनी भी चाहिए। पर एक जिम्मेदार जनता के रूप में हम फ़ेल ही हुए जिन्हों ने एक बहुत बड़ा सामाजिक दबाव भी पैदा नहीं किया। अचानक 25 अगस्त को दो भीड़ दिखती है। एक वो जो टीवी के अंदर थे और दूसरी जो टीवी के ठीक सामने बैठे थे। इस दूसरी भीड़ में भी शामिल हूँ। और हममें से बहुत लोग दूसरी वाली भीड़ का हिस्सा थे। हम नागरिक के तौर पर फेल ही तो हैं! हम बहुत यह सोचकर अपने घर के पर्दे गिरा देते हैं कि हमें दूसरों से क्या मतलब, हम क्यों दूसरों के पचड़ों में पड़ने जाएँ, अरे चुप रहो, न बोलो, इन अमीरों से कौन पंगा ले, अरे हमारे बीवी बच्चे हैं, घर के किसी बंदे को कुछ कर दिया तो? कितने ही बहाने हैं हमारे पास जो इन बहानों की सूची को बड़ा कर जाते हैं। जैसे जैसे यह सूची बढ़ती जाती है हमारी इंसानियत उतनी ही कमजोर, डरपोक और खुदगर्ज़ होने लगती है।
इस बात के लिए किन कारकों को जिम्मेदार ठहराया जाए? बहुत से हैं। सभी के अपने अपने हैं। हमारे समाज और हमारी पढ़ाई लिखाई हमें एक तरह का खुदगर्ज़ इंसान बना रही है जो डॉक्टर और इंजीनियर तो बनना चाहते हैं पर एक अच्छा इंसान नहीं। हमें यह समझ भी मिल पा रही कि किसी को दर्द हो तो कैसे उस दर्द को अपने अंदर होते महसूस किया जाये। हम चलते फिरते वे प्राणी बन रहे हैं जिन्हें खूबसूरत दुनिया और ज़िंदगी के धोखेबाज़ सपने दिखाये जा रहे हैं। हम भी बिना सोचे समझे उन उल्लू के पट्ठे वाले सपने यह सोचकर मान रहे हैं कि वे ही सबसे बड़ी हासिल करने वाली चीज है। पर वास्तव में यह सच बिलकुल नहीं है। एक टका भी सच नहीं है।
अच्छा शहर वह नहीं होता जहां इलाज़ के लिए बड़े बड़े अस्पताल हों। वह भी नहीं होते जहां ऊंची इमारतें हों, वह भी नहीं होता जहां बोंसाई कला वाले पेड़ कैंचियों से काट कर सजाये गए हों, वह भी नहीं होता जहां कमरों की चारदीवारी में दम तोड़ता माँ बाप का बुढ़ापा हो, वह भी नहीं होता जहां बेंतहा और जरूरत से अधिक उपभोग हो, वह भी नहीं जहां एक तरह ऊंची इमारत हो वह भी चार लोगों के लिए और दूसरी तरह एक कमरे में आठ जन ज़िंदगी काट रहे हों। आप इसमें और भी जोड़ सकते हैं। ज़रा रुक कर सोचिए कि अगर हम अपना हर पल खुश होकर बिताएँ तो अस्पताल की भला क्या जरूरत है? यहीं इस जगह सभी पेंच को समझना होगा। हम वह ज़िंदगी नहीं जी रहे जो हम जीना चाहते हैं। हम वह जिंदगी जी रहे हैं जो ऊंचा समाज अपने को ऊंचा बनाए रखने की खातिर हमें जीने को बाधित कर रहा है। इसलिए हम स्कूल में से निकल कर भी महान बेवकूफ की कतार में हैं। इसलिए हम लायक़ ही नहीं हैं।
जब मेट्रो में सफर करती हूँ तब एक बेवकूफ पौध को खूब फलता और फूलता हुआ पाती हूँ जो दुख, दर्द, संघर्ष के पड़ाव या अंतराल से महरूम है। निहायती बे-अहसास के जो आईने में देखने में ही अपने जिंदगी के बहुत सारे पल खत्म कर देते हैं। जो फोन की चैट में ही कितने लफ़्ज़ों को मार देते हैं, बिना खिड़की से बाहर देखे कि हमारा अपना शहर कितना ऊबड़-खाबड़ हो रहा है। हर रोज़। कितनी गरीब तैर रही है। वे नहीं सोचते कि जमुना का रंग इतना काला क्यों हो रहा है? क्यों झुग्गियों की संख्या इतनी रफ्तार से बढ़ रही है? क्यों अपना यह दिल्ली शहर मेट्रो के चक्कर में जमीन में खोखला होता जा रहा है? क्यों सड़कों पर इतने जाम लगने लगे हैं? क्यों हम जनता राजनीतिक दलों के हिस्सेदारी में बंट गई है? क्यों एम्स के बाहर लोग खुले और गंदगी में अपनों का इलाज़ करवा रहे हैं? कितनी ही तो चीजें हैं जिनपर सवाल किया जा सकता है। पर हमें यह तैयारी ही नहीं दी जा रही कि हम उन पर सोच भी सकें।
फिर भी, भारत जैसे देश में न्याय जहां कैंसर से पीड़ित मरीज के अंतिम दिनों से गुजरने के समान है, वहीं रसूख वाले बलात्कारी को सजा होना कोई मामूली बात नहीं है। 25 अगस्त को पंचकुला में हुए हड़कंप में प्रशासन ने इतनी लापरवाही बरती कि वहाँ 30 से अधिक लोगों की मौत हो गई। बात यह नहीं कि वे गलत आदमी का साथ दे रहे थे, बात महत्वपूर्ण यह है कि वे मारे गए। उन्हें इस गुंडे की असली हरकतों को समझने का वह समय नहीं मिला जो मिलना चाहिए था।
समाज और राजनीति को यह सोचने का समय नहीं कि ऐसा गुंडा इतना बड़ा आदमखोर कैसे बन गया। कैसे वह आम लोगों की सोच का इतने नाटकीय मोड़ पर ले आया कि खुलेआम रंगरलियाँ करते हुए भी अपने तथाकथित भक्तों का देवता बना रहा। इसे समझने के लिए निश्चित ही एक अच्छे खासे शोध की जरूरत है। इसके इतिहास में झाँकने की जरूरत है। उन मनो-वैज्ञानिक तथ्यों की पड़ताल की जरूरत है जो अब जरूरी हो गई है।
सज़ा के फैसले से राहत तो है न! कोई अब भी है जो बिका नहीं है। या फिर उसमें कुछ इंसान बने रहने की पहली शर्त है मौजूद है। 10 ही सही पर सड़े और मरे तो अच्छा है। उन दो लड़कियों को सलाम जो पंद्रह बरस प्रत्येक सुनवाई पर न जाने कौन सा धीर धर बसों से सफर कर मिटती बढ़ती धुंधली उम्मीद को साथ लेकर आती थीं। और आती रहीं, आती रहीं और आती रहीं। उन वकीलों को, जो 15 साल तक अपनी जिरह को रसूख के घेरे में करते रहे, करते रहे और करते रहे। उस पत्रकार और उसके बेटे को सलाम जो अखबार के नाम को नाम समझ कर नहीं जिये बल्कि 'पूरी सच्चाई' से जिये। उस मरहूम पत्रकार को सलाम जो 'पूरा सच' कागज़ों पर नहीं बल्कि वास्तव में मरने के बाद भी अपने इंसाफ को छिन लेने की ज़िद्द करते रहे, करते रहे और करते रहे। उस सीबीआई के उन अफसरों को जो एक फौलादी घेरे को बनाते रहे कि आप बढ़िए। इंसाफ अभी शायद बूढ़ा नहीं हुआ है। इस उम्मीद में वे चलते रहे रहे। उस जज को भी सलाम जो पार्टीबाज़ी से प्रभावित हुए बिना हजारों की भीड़ के बाहर खड़े होने के बाद भी इंसाफ को कलम को थामे रखा। सभी को सलाम! भारत अभी ज़िंदा ही है तो सिर्फ इन लोगो की वजह से!
इस पूरी घटना में भीड़ के उन सभी चेहरों को समझने का एक प्रयास करना जरूरी है, जो उभर कर स्पष्ट दिखते हैं। क्या लोगों को भीड़ में तब्दील कर देना बोन्साई कला है? क्या जरूरतों के मुताबिक इस भीड़ को जब चाहे स्टेडियम में दर्शक या फिर किल्लर में तब्दील कर दिया जा रहा है जो लोगों की जान भी लेने से नहीं हिचकिचा रही? या फिर कुछ और तरीकों से इसे समझना होगा, तो वे क्या होंगे? भीड़ क्यों एक भेड़ों के समूह के समान हो गई है जो या तो एक बाबा के पीछे लगी हुई है या... जो मतलबी राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक बनकर रह गई है? क्या उस भीड़ का अपना विवेक नहीं है? यदि है तो वह क्या है और यदि नहीं है तो क्यों नहीं है? ...निर्भया हादसे में घरों से निकली भीड़ क्या रैली कहकर सही ठहराई जा सकती है? क्या यही भीड़ का आदर्श पैमाना है? क्या अन्ना हज़ारे आंदोलन में भाग लेने वाले लोग भीड़ की ही अच्छी वाली शक्ल है या फिर कुछ और? क्या चपरासी और बाबू की नौकरी के लिए आवेदन देने वाले लोग बेरोजगार वाली भीड़ है? अगर हाँ तो क्यों बन रही है यह भीड़? अगर नहीं तो, क्यों नहीं है? पर इन सवालों के बाद भी एक भीड़ है जो मुझे 'बोदर' करती है। टीवी के सामने बैठी बनावटी और झूठी खुदगर्ज़ भीड़ सबसे खतरनाक और निष्क्रिय है। यह कुछ करती नहीं है बल्कि दूर बैठकर तमाशा देखती है। जब यह खुद शिकार होती है तब इन्हें समाज और उसके मूल्यों का खयाल सबसे अधिक आता है।
इस भीड़ पर ही एक अगली पोस्ट लिखने की जरूरत महसूस हो रही है। आगे की पोस्टों में इसे लेकर कुछ लिखने का प्रयास रहेगा।
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फोटो गूगल से साभार