Monday, 28 August 2017

बोन्साई

बाबे की बीस बरस की क़ैद पर बहुत ही खुशी दिखाई पड़ रही है। होनी भी चाहिए। पर एक जिम्मेदार जनता के रूप में हम फ़ेल ही हुए जिन्हों ने एक बहुत बड़ा सामाजिक दबाव भी पैदा नहीं किया। अचानक 25 अगस्त को दो भीड़ दिखती है। एक वो जो टीवी के अंदर थे और दूसरी जो टीवी के ठीक सामने बैठे थे। इस दूसरी भीड़ में भी शामिल हूँ। और हममें से बहुत लोग दूसरी वाली भीड़ का हिस्सा थे। हम नागरिक के तौर पर फेल ही तो हैं! हम बहुत यह सोचकर अपने घर के पर्दे गिरा देते हैं कि हमें दूसरों से क्या मतलब, हम क्यों दूसरों के पचड़ों में पड़ने जाएँ, अरे चुप रहो, न बोलो, इन अमीरों से कौन पंगा ले, अरे हमारे बीवी बच्चे हैं, घर के किसी बंदे को कुछ कर दिया तो? कितने ही बहाने हैं हमारे पास जो इन बहानों की सूची को बड़ा कर जाते हैं। जैसे जैसे यह सूची बढ़ती जाती है हमारी इंसानियत उतनी ही कमजोर, डरपोक और खुदगर्ज़ होने लगती है। 
इस बात के लिए किन कारकों को जिम्मेदार ठहराया जाए? बहुत से हैं। सभी के अपने अपने हैं। हमारे समाज और हमारी पढ़ाई लिखाई हमें एक तरह का खुदगर्ज़ इंसान बना रही है जो डॉक्टर और इंजीनियर तो बनना चाहते हैं पर एक अच्छा इंसान नहीं। हमें यह समझ भी मिल पा रही कि किसी को दर्द हो तो कैसे उस दर्द को अपने अंदर होते महसूस किया जाये। हम चलते फिरते वे प्राणी बन रहे हैं जिन्हें खूबसूरत दुनिया और ज़िंदगी के धोखेबाज़ सपने दिखाये जा रहे हैं। हम भी बिना सोचे समझे उन उल्लू के पट्ठे वाले सपने यह सोचकर मान रहे हैं कि वे ही सबसे बड़ी हासिल करने वाली चीज है। पर वास्तव में यह सच बिलकुल नहीं है। एक टका भी सच नहीं है। 

अच्छा शहर वह नहीं होता जहां इलाज़ के लिए बड़े बड़े अस्पताल हों। वह भी नहीं होते जहां ऊंची इमारतें हों, वह भी नहीं होता जहां बोंसाई कला वाले पेड़ कैंचियों से काट कर सजाये गए हों, वह भी नहीं होता जहां कमरों की चारदीवारी में दम तोड़ता माँ बाप का बुढ़ापा हो, वह भी नहीं होता जहां बेंतहा और जरूरत से अधिक उपभोग हो, वह भी नहीं जहां एक तरह ऊंची इमारत हो वह भी चार लोगों के लिए और दूसरी तरह एक कमरे में आठ जन ज़िंदगी काट रहे हों। आप इसमें और भी जोड़ सकते हैं। ज़रा रुक कर सोचिए कि अगर हम अपना हर पल खुश होकर बिताएँ तो अस्पताल की भला क्या जरूरत है? यहीं इस जगह सभी पेंच को समझना होगा। हम वह ज़िंदगी नहीं जी रहे जो हम जीना चाहते हैं। हम वह जिंदगी जी रहे हैं जो ऊंचा समाज अपने को ऊंचा बनाए रखने की खातिर हमें जीने को बाधित कर रहा है। इसलिए हम स्कूल में से निकल कर भी महान बेवकूफ की कतार में हैं। इसलिए हम लायक़ ही नहीं हैं। 
जब मेट्रो में सफर करती हूँ तब एक बेवकूफ पौध को खूब फलता और फूलता हुआ पाती हूँ जो दुख, दर्द, संघर्ष के पड़ाव या अंतराल से महरूम है। निहायती बे-अहसास के जो आईने में देखने में ही अपने जिंदगी के बहुत सारे पल खत्म कर देते हैं। जो फोन की चैट में ही कितने लफ़्ज़ों को मार देते हैं, बिना खिड़की से बाहर देखे कि हमारा अपना शहर कितना ऊबड़-खाबड़ हो रहा है। हर रोज़। कितनी गरीब तैर रही है। वे नहीं सोचते कि जमुना का रंग इतना काला क्यों हो रहा है? क्यों झुग्गियों की संख्या इतनी रफ्तार से बढ़ रही है? क्यों अपना यह दिल्ली शहर मेट्रो के चक्कर में जमीन में खोखला होता जा रहा है? क्यों सड़कों पर इतने जाम लगने लगे हैं? क्यों हम जनता राजनीतिक दलों के हिस्सेदारी में बंट गई है? क्यों एम्स के बाहर लोग खुले और गंदगी में अपनों का इलाज़ करवा रहे हैं? कितनी ही तो चीजें हैं जिनपर सवाल किया जा सकता है। पर हमें यह तैयारी ही नहीं दी जा रही कि हम उन पर सोच भी सकें।
फिर भी, भारत जैसे देश में न्याय जहां कैंसर से पीड़ित मरीज के अंतिम दिनों से गुजरने के समान है, वहीं रसूख वाले बलात्कारी को सजा होना कोई मामूली बात नहीं है। 25 अगस्त को पंचकुला में हुए हड़कंप में प्रशासन ने इतनी लापरवाही बरती कि वहाँ 30 से अधिक लोगों की मौत हो गई। बात यह नहीं कि वे गलत आदमी का साथ दे रहे थे, बात महत्वपूर्ण यह है कि वे मारे गए। उन्हें इस गुंडे की असली हरकतों को समझने का वह समय नहीं मिला जो मिलना चाहिए था।
समाज और राजनीति को यह सोचने का समय नहीं कि ऐसा गुंडा इतना बड़ा आदमखोर कैसे बन गया। कैसे वह आम लोगों की सोच का इतने नाटकीय मोड़ पर ले आया कि खुलेआम रंगरलियाँ करते हुए भी अपने तथाकथित भक्तों का देवता बना रहा। इसे समझने के लिए निश्चित ही एक अच्छे खासे शोध की जरूरत है। इसके इतिहास में झाँकने की जरूरत है। उन मनो-वैज्ञानिक तथ्यों की पड़ताल की जरूरत है जो अब जरूरी हो गई है। 

सज़ा के फैसले से राहत तो है न! कोई अब भी है जो बिका नहीं है। या फिर उसमें कुछ इंसान बने रहने की पहली शर्त है मौजूद है। 10 ही सही पर सड़े और मरे तो अच्छा है। उन दो लड़कियों को सलाम जो पंद्रह बरस प्रत्येक सुनवाई पर न जाने कौन सा धीर धर बसों से सफर कर मिटती बढ़ती धुंधली उम्मीद को साथ लेकर आती थीं। और आती रहीं, आती रहीं और आती रहीं। उन वकीलों को, जो 15 साल तक अपनी जिरह को रसूख के घेरे में करते रहे, करते रहे और करते रहे। उस पत्रकार और उसके बेटे को सलाम जो अखबार के नाम को नाम समझ कर नहीं जिये बल्कि 'पूरी सच्चाई' से जिये। उस मरहूम पत्रकार को सलाम जो 'पूरा सच' कागज़ों पर नहीं बल्कि वास्तव में मरने के बाद भी अपने इंसाफ को छिन लेने की ज़िद्द करते रहे, करते रहे और करते रहे। उस सीबीआई के उन अफसरों को जो एक फौलादी घेरे को बनाते रहे कि आप बढ़िए। इंसाफ अभी शायद बूढ़ा नहीं हुआ है। इस उम्मीद में वे चलते रहे रहे। उस जज को भी सलाम जो पार्टीबाज़ी से प्रभावित हुए बिना हजारों की भीड़ के बाहर खड़े होने के बाद भी इंसाफ को कलम को थामे रखा। सभी को सलाम! भारत अभी ज़िंदा ही है तो सिर्फ इन लोगो की वजह से!
इस पूरी घटना में भीड़ के उन सभी चेहरों को समझने का एक प्रयास करना जरूरी है, जो उभर कर स्पष्ट दिखते हैं। क्या लोगों को भीड़ में तब्दील कर देना बोन्साई कला है? क्या जरूरतों के मुताबिक इस भीड़ को जब चाहे स्टेडियम में दर्शक या फिर किल्लर में तब्दील कर दिया जा रहा है जो लोगों की जान भी लेने से नहीं हिचकिचा रही? या फिर कुछ और तरीकों से इसे समझना होगा, तो वे क्या होंगे? भीड़ क्यों एक भेड़ों के समूह के समान हो गई है जो या तो एक बाबा के पीछे लगी हुई है या... जो मतलबी राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक बनकर रह गई है? क्या उस भीड़ का अपना विवेक नहीं है? यदि है तो वह क्या है और यदि नहीं है तो क्यों नहीं है? ...निर्भया हादसे में घरों से निकली भीड़ क्या रैली कहकर सही ठहराई जा सकती है? क्या यही भीड़ का आदर्श पैमाना है? क्या अन्ना हज़ारे आंदोलन में भाग लेने वाले लोग भीड़ की ही अच्छी वाली शक्ल है या फिर कुछ और? क्या चपरासी और बाबू की नौकरी के लिए आवेदन देने वाले लोग बेरोजगार वाली भीड़ है? अगर हाँ तो क्यों बन रही है यह भीड़? अगर नहीं तो, क्यों नहीं है? पर इन सवालों के बाद भी एक भीड़ है जो मुझे 'बोदर' करती है। टीवी के सामने बैठी बनावटी और झूठी खुदगर्ज़ भीड़ सबसे खतरनाक और निष्क्रिय है। यह कुछ करती नहीं है बल्कि दूर बैठकर तमाशा देखती है। जब यह खुद शिकार होती है तब इन्हें समाज और उसके मूल्यों का खयाल सबसे अधिक आता है।

इस भीड़ पर ही एक अगली पोस्ट लिखने की जरूरत महसूस हो रही है। आगे की पोस्टों में इसे लेकर कुछ लिखने का प्रयास रहेगा।
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फोटो गूगल से साभार




Monday, 21 August 2017

फ़र्माइशी प्रेम पत्र (कल्पना)

जाने कहाँ से वह जगह अपनी खूबसूरती के साथ इस सुनसान जगह में उभर आई थी, अचानक। ऐसी भी जगह होती है कोई यक़ीन नहीं कर सकता था। कभी देखी-सुनी नहीं थी। आज तक कोई दादी और नानी की कहानी भी उस जगह का वर्णन नहीं पाई थी। किसी लेखक के जेहन में भी वह जगह, अपनी जगह नहीं बना पाई थी। किसी जवान होती लड़की या जवान लड़के के दिल में भी वह जगह अभी तक नहीं आई थी। न जाने वह जगह किन हाथों की रचना थी? इस सवाल का जवाब कोई नहीं जानता सिवाय उन फूलों और जानवरों के जो वहाँ के नागरिक थे। बहुत ही कम संख्या में वहाँ इंसान भी थे जो दिल की तरंगों से बात कर लिया करते थे। 

दूर से देखने पर वह धरती के ठीक ऊपर जमा हुए नीले पानी के रंग से सराबोर दिखाई पड़ती थी। वहाँ के पत्थर भी माँ की तरह हाथ पसार कर अपना प्यार लुटाते थे। फूलों ने कुछ इस तरह से अपनी रंगत विकसित की थी कि वे रंग धरती पर उगने वाले रंगों से अलग नशीले और सम्मोहित करने वाले थे। ज़मीन पर उगी मुलायम घास मानो जादुई कालीन हो। एक जगह रहने की बजाय चोकोर टुकड़ों में यहाँ वहाँ तितलियों के लिए बिछ जाया करती थी। उस जगह पर किसी का भी कब्ज़ा नहीं था। उसकी घेराबंदी 12 घटों तक रहने वाले इंद्रधनुष से की गई थी। उसे वैसे किसी तरह का नुकसान नहीं था फिर भी डर था कि धरती के अलग अलग धर्म के लोग व विचारधारा वाले लोग जबरन न घुस आयें इसलिए इस तरह की घेरा बंदी दिन के बारह घंटे इंद्रधनुष के माध्यम से की गई थी।

                                                               By- Richard Burlet 

बाक़ी बारह घटों की रखवाली एक सफेद झबरीली कुतिया के हवाले की गई थी जो बहुत ही मुस्तैद थी। वह अपने बारह घंटों को गुर्रा गुर्रा कर बिताया करती। पर इसका यह मतलब कतई नहीं था कि वह खूंखार थी। वह तो महज एक झबरीली कुतिया थी जो धरती से कुछ उठी हुई उस खूबसूरत जगह पर बारह घटों के लिए पहरा देती थी। उसका वह पवित्र श्रम था। बदले में वह सब के प्रेम का वह हिस्सा ले लेती थी जो सिर्फ उसके लिए ही था। मनुष्य से पहले जानवरों के अधिकारों की बात की जाती थी। वहाँ कई अजीब-ओ-गरीब जानवर थे जो बात भी कर लिया करते थे। हैरत इस बात कि थी कि इस बात पर किसी को हैरत नहीं थी। 

बहुत कम संख्या में रहने वाले लोग छोटे छोटे मुहल्ले में बंटे हुए थे पर वे तरंगों की बातचीत के चलते आपस में जुड़े हुए भी थे। सभी की अपनी अपनी दिनचर्या तय थी और यह पूरी तरह से लोगों पर निर्भर था कि वह उसे कैसा बनाना चाहते हैं। इस बात के पीछे कोई मनाही न थी। सभी अपना जीवन चलाने के लिए आज़ाद थे। वे जो चाहे जैसा काम कर सकते थे। अगर किसी को घास की उड़ने वाली चटाई बनाकर बाज़ार में बेचने का दिल है तो वह जरूरत के मुताबिक़ बेच सकती और सकता था। ठीक इसी तरह का क़ायदा अन्य लोगों व कार्यों पर भी लागू था। 

शहर के बीच के गोल वाले हिस्से में एक मिनी बाज़ार लगा करता था। उस बाज़ार में तमाम तरह की दुकानें थीं। छोटी टॉफी से लेकर शहद या जादू की पतली वाली छड़ियाँ तक वहाँ मिल जाया करती थीं। लेसदार कपड़ों के अलावा हर वह कपड़े जो वहाँ बिक सकते थे, दुकानों पर सजे रहते थे। बाज़ार की अपनी कुछ मामूली शर्तें थीं कि सभी अपनी दुकान का नाम हाथ से खूबसूरत अक्षर से लिखकर ही लगाएंगे। इस काम में नेफर बहुत अच्छी थी जो अपने पिता के साथ प्रेम पत्र लिखने का काम करती थी। दिन में चार पत्र ही दोनों पिता बेटी के लिए काफी थे। उनसे उनकी जिंदगी और उसके जरूरत के ख़र्च आराम से निकल जाया करते थे। वहाँ जमाखोरी जैसे रिवाज़ अभी तक नहीं उभरे थे। या फिर उन्हें इसकी जरूरत नहीं थी। 

नेफर ने अपने घर में तमाम तरह की प्रेम कहानियों, कविताओं, नाटकों, उपन्यासों, फ़िल्मों की एक अच्छी ख़ासी ब्राउन लाइब्रेरी बना ली थी। ब्राउन इसलिए क्योंकि वह मिट्टी रंग से पुती हुई जगह थी। और तो और किताबों के ऊपर के कवर भी मिट्टी रंग के ही थे। वह इस किताबघर से हर संभव मदद लेती थी जो उसे प्रेम पत्रों को लिखने के लिए अक्सर पड़ा करती थी। पर प्रेम पत्र का अंतिम ख़ाका उसके पिता की अनुभवी नज़रों से होकर ही गुज़रता था। उन्हों ने बेहद कम उम्र से इस काम में क़दम रख लिया था जब नेफर का जन्म भी नहीं हुआ था। यह बात अलग है कि इस जगह में कोई नहीं जानता था कि उनकी वास्तविक उम्र आख़िर थी क्या। नेफर को भी अपनी उम्र का कोई खास अंदाज़ा नहीं था। चार प्रेम पत्रों को लिख लेने के बाद वह अपना बहुत सा समय अपने दोस्तों के साथ गुजारती थी। उसके दोस्त भी कुछ इसी तरह के काम में लगे हुए थे। 

वह शहर अजीब होते हुए भी अजीब नहीं था उसकी यही खासियत थी। शाम के समय धरती से देखने पर लगता जैसे किसी ने नीली रंग की पनियल बॉल आसमान से सफ़ेद धागे में लटका दी है। पर सुबह होते ही वह हरी घासदार गोल जगह में तब्दील हो जाती। सबसे बेहतर वह दिन में लगती जब इंद्रधनुष के रंग चारों ओर फैले दिखते और लगता कि जमीन से कुछ ऊपर प्रकृति कुछ रंगीन कपड़े पहन कर नाच रही है। उस जगह के भीतर एक अलग ही तरह का जीवन चल रहा था जो बहुत रोचक और दिलचस्प था। जहां प्रेम पत्र लिखने की गुलाबी दुकान थी।  

...जारी है। 
   





Sunday, 13 August 2017

सुनो बच्चों!

भक्ति के कितने रूप हैं! भक्तों और भक्ति का जमाना है। चमत्कार को नमस्कार कीजिये। चित्रगुप्त साक्षात यू पी के स्वास्थ्य मंत्री से मिले और मौत के महीने का नाम प्रकट किया। ऑक्सीज़न-फॉक्सीजन तो आपका और हमारा भ्रम है। यह नई खोज है या आविष्कार, जो भी है किताबों में दर्ज़ करने लायक है। समझ तो साहब बस यह नहीं आ रहा कि मौत का हैपी बड्डे मनाया जाये या फिर जन्म का!

पिछले दिनों 'द इजीप्शियन' पढ़ते हुए एक पंक्ति मुझे बहुत अच्छी लगी। उसमें लिखा था - 'मौत असाधारण बीमारी में दयालु मित्र की तरह जीवन को ले जाती है।' सच है। जिनको लाइलाज़ बीमारी होती है उन्हें ही इस बात का पता होता है। एक बार बहुत पहले किसी अखबार में एक विदेशी लड़की की एक अपील को भी पढ़ा था। उसे एक लाइलाज़ बीमारी थी। उसे बहुत दर्द होता था। जिस राज्य में वह रहती थी वहाँ खुद के लिए मौत मांगने का और उसकी इजाजत देने का संविधान में प्रावधान नहीं था। अतः वह अपने जगह को भी बदलने की इच्छा जता चुकी थी। भारत में गरीबों के लिए मौत अब शायद सबसे अच्छे मित्रों में शामिल कर दिया गया है। हैरत न कीजिये कि इसमें देशभक्त सरकार का ही हाथ है। जिन बच्चों को ऑक्सीज़न नहीं मिली, क्या वे भी इसी तरह मौत मांग रहे होंगे या तड़पने में मांगने का खयाल नहीं आया होगा? आखिर उनका गुनाह कोई छोटा नहीं था। गरीब जो पैदा हुए थे।

सुनो बच्चों! तुम बहुत सही जगह से आज़ाद हुए। यहाँ लोग पहले हिन्दू और मुसलमान हैं। ठाकुर और अछूत हैं। अमीर और गरीब हैं। अगर कुछ बच गया तो इंसान हो पाते हैं। वरना यहाँ इंसानियत का कोई चांस नहीं। ये देश बस 'वंदे मातरम् से लेकर भारत माता की जय' तक सिमटता हुआ दिखता है आजकल। यहाँ गद्दारी इस बात से तय नहीं होती कि तुमने कितने घौटाले किए बल्कि इस बात से तय होती है कि तुम 'जन गण मन' पर खड़े नहीं हुए। हाँ, यकीन करो यही था वह देश जहां से तुम्हें मुक्ति मिल गई।

भारत में गरीबों का जीवन बहुत सस्ता है। बहुत सस्ता है यहाँ किसी गरीब बच्चे का जीवन। यहाँ लोग जो नेता भी हैं, अव्वल दर्जे के खूंखार हैं। जो देश अपनी आज़ादी के 70 बरसों का केक काटने जा रहा है, उसे उत्सव मनाने से पहले अपने गिरेबाँ में झांक कर देख लेना चाहिए। अभी की ट्रेंडिंग ख़बरों पर यकीन करें तब मरने वालों की संख्या 72 हो चली है। जरा सोचिए जहां 15 अगस्त से चंद रोज़ पहले ही इतनी मौतें हो चुकी हैं, वहाँ कैसे कोई देश 72 मौतों के बाद भी जश्न मना सकता है? मानवता क्या मंगल ग्रह का अलंकार है या पृथ्वी सिर्फ़ और सिर्फ़ हथियार को सहेज कर खरीदने वाले देशों का गुट बन कर रह गई है। 

प्रदेश स्वास्थ्य मंत्री ने मरने का एक महीना निश्चित कर दिया है। आप किस महीने में जन्म लेंगे इससे ज़्यादा महत्व अब इस बात को दिया जा रहा है कि आप मरेंगे किस महीने में। आसमान के चित्रगुप्त ने सीधे इनसे संपर्क साधा और इन्हें वह आसमानी खुफिया रहस्य बताया कि मौतें अगस्त में ही हुआ करती हैं। मंत्री जी इतने डाटा बख्तर बंद थे, कि डाटा बताते समय उनकी आँख में पानी भी नहीं उतरा। ऐसा आदमी मैंने टीवी पर पहली बार देखा।

हम एक देश के रूप में असफल हैं। हम एक लोकतन्त्र के रूप में भी असफल हैं। हम एक स्वस्थ मीडिया के दायरे में भी रहने में असफल हैं। हम हर जगह तो फेल ही हैं।

तो सफलताएं क्या हैं फिर?

विदेशी यात्राएं ही यहाँ सफलता है। एक देश से दूसरे देश जाना सफलता है। लड़की का पीछा करता हुआ 'विकास' सफलता है। कब्रिस्तान और श्मशान घाट यहाँ सफल हैं। बलात्कार यहाँ सफलता है। हिन्दू और मुसलमान सफलता है। बेरोजगारी सफलता है। अमीर और गरीब की खाई गहरी है, यह सफलता है। बैंकों का दिवालिया सफलता है। विजयमाल्या जैसा आदमी भारत की नई सफलताओं में से एक है।    

कौन कहता है कि विकास नहीं हो रहा। साहब बहुत विकास हो रहा है जो आपको दिख भी रहा है। उदाहरण देखिये न! आप बहुत मासूम जनता हैं। आपको तो कुछ ख़बर ही नहीं। 


Saturday, 12 August 2017

गोरखपुर मर्डर केस

बहुतों को नहीं मालूम कि अस्पताल में मरीज़ के साथ रात बिताना दोनों के लिए कितना परेशानी भरा होता है। मरीज़ जिसका ताज़ा ताज़ा ऑपरेशन हुआ है, उसे कुछ पता ही नहीं होता कि आईसीयू या OT ( ऑपरेशन थिएटर) के बाहर सबसे क़रीबी रिश्ते वाले व्यक्ति का क्या हाल हो रहा है। वह सुइयों और दवाइयों के नशे में बिस्तर पर बेहोशी कि हालत में पड़ा रहता है। हाँ, उसे इस बात का भान तो रहता है कि बाहर उसकी बेटी या बच्चे रो रहे हैं। अगर बच्चा दाखिल हो तो बाहर खड़े लोग इस खौफ़ में रहते हैं कि कोई डॉक्टर निकल कर यह न कह दे कि माफ कीजिये, हम बचा नहीं सके। कई बार अस्पताल वाले यह भी कह देते हैं कि हम कुछ नहीं कर सकते। इसे दूसरे अस्पताल में ले जाओ।
दूसरे अस्पताल ले जाने के लिए तो एम्ब्युलेन्स की जरूरत होती है। बहुत झंझट देते हैं ये सब लोग। लेकिन जब रास्ते पर आते हैं चलाने के मामले में तब ये दुनिया के सबसे बड़े श्रद्धेय बन जाते हैं। तब आपको सड़कों पर खड़ी लाल बत्तियों पर गुस्सा आता है। ट्रेफिक पर गुस्सा आता है। गाड़ीवालों पर गुस्सा आता है। आपके मन में डर होता है कि कहीं रास्ते में कुछ हो न जाये।

बहुतों को यह भी नहीं मालूम होगा कि अस्पताल में रात का पता नहीं चलता। हाँ समय के घंटों का अहसास तो रहता है कि इतने बजे तक सर्जरी होगी। हे ईश्वर सब ठीक हो। कुछ हो न जाये। सबसे क़रीबी रिश्तेदार को न भूख लगती है न प्यास। वह बैठती तक नहीं। डॉक्टर बाहर निकल कर कोई दवा मंगाये तो भागी हुई केमिस्ट पर ऐसी पहुँचती है जैसे धावा बोल दिया हो।
बहुतों ने अपने बच्चे का मरना भी नहीं देखा होगा। बहुत धक्का लगता है। ऐसा लगता है धरती फटे और समा जाएँ। ऐसे लगता है जैसे किसी ने अचानक से जान खींच ली हो। बच्चे के मरे शरीर को देखकर ही दम निकल जाता है। आप गिर जाते हो। आपको लगता है जीना बेकार है। आप भगवान से कहते हो। बार बार कहते हो-'मुझे भी उठा ले। मैं जीना नहीं चाहती।'

लोग कहते हैं आत्मा दिखती नहीं। लेकिन जिस बच्चे की आप चड्डी धोकर साफ करते हो, जिसमें अपनी जान फूँक देते हो। उसमें से आत्मा अचानक निकल जाती है। उस बच्चे से जो आपके शरीर का टुकड़ा होता है। बच्चे के शरीर में बस कंपन होती है। वही आत्मा निकलती है तब। मैंने बहुत करीब से अपने बच्चे को जाते हुए देखा है। बहुत तकलीफ होती है जो बताई ही नहीं जा सकती।

योगी-मोदी जी आपको कैसे बताया जाये कि आपका अपना बच्चा मर रहा होता है आपकी आँखों के सामने तब आप दुनिया के सबसे बेबस माँ बाप होते हैं। बच्चे का इलाज़ करता हुआ डॉक्टर भी उसकी जान जाने के बाद दुख से आँखें बंद कर लेता है। आप जाइये न कभी बच्चों के अस्पताल। बच्चों के माँ बाप से मिलिये। देखिये वहाँ का हाल। आप कभी मन की बात नहीं कर पाएंगे।

आपमें नैतिकता है तो इस्तीफ़ा दे दीजिये।

Friday, 4 August 2017

बेतरतीब


कोशिश की जाएगी 'उसे' शब्दों में उतारने की। यह दिलचस्प होगा कि वह शब्दों में कैसा दिखता है। प्यारा या फिर कठोर। आदमी या आदमियत। मासूम या खतरनाक। आज़ाद या फिर एक क़ैदी। नाम वाला या गुमनाम। अजनबी या फिर जाना पहचाना। अजीब या सामान्य रंगीन या फीका  ...वह शब्द दर शब्द खुलता है। खुद कहता है अपनी कहानी। न यहाँ राजा होता है न रानी। हम इत्मीनान से एक कहानी की तलाश करते हुए यहाँ भटकते हैं। कभी लगता है सही ठिकाने पर पहुंचे हैं। कभी भ्रम में ही रहते हैं। कभी हो सकता है गुम भी हो जाएँ। ठिकाने पर पहुंचाना ही तो सबकुछ नहीं होता। दस्तक पर दरवाजा खुलता है या नहीं यह तय करता है आगे के पलों को। दरवाजा खुला तो कहानी आगे बढ़ेगी। नहीं खुला तो वाजिब है कि खुद को नई दस्तक के लिए तैयार करना होगा। लेखन इस सब को समटेता है। वह भी रोता है और हँसता है।



एक पैराग्राफ़ लिखने की भी तो दस्तक होती है। कुछ जो दिखता है या फिर सूझता है। ऐसे ही नहीं छोड़ता। एक रिश्ता बनाता है। बुनना शुरू हो जाता है। शब्द खुद से जेहन में उतरते हैं। जब तक न लिख दो अंदर हीअंदर उछलते हैं। फिर भी लिखना उतना पका हुआ नहीं हो पाता। उसे साधना पड़ता है। उसको आवाज़ देनी पड़ती है। उसमें ऑक्सीज़न फूंकनी पड़ती है। उगते हुए सूरज का भी महत्व होता है, डूबते हुए का भी। जो बादल में ढका हुआ हो तो वह भी मंजूर है। यहाँ रावण की भी जगह है और राम को भी उतना ही स्पेस मिलता है। यह लेखन है। यहाँ समानता ही रहेगी। यहाँ लिखना खून में समाया हुआ धर्म होगा या फिर पाप, कोई फर्क नहीं पड़ता। लिखना चलता रहता है। इसे उम्र की जरूरत नहीं इसे कलम चाहिए कलाम कहने के लिए। जीवन है तो कहानियाँ पनपती रहेंगी। इसलिए लिखना चलेगा, निरंतर। लिखने के लिए पागल हो जाना इश्क़ के पागलपन से बेहतर है। खुदा अपना इश्क़ रखे और मुझे लिखने का हुनर बख़्श दे। आमीन!  


Wednesday, 2 August 2017

हर बार इश्क़ का रंग पक्का नहीं होता (भाग-2)

परिस्थितियों का जमा और घटा यह था कि यह नौजवान जोड़ा कुछ परेशान-सा बैठा हुआ था। दोनों की सांसें मानो कहीं से जान बचाकर भाग रही हों तेज़ी से अंदर-बाहर निकल रही थीं। चेहरे और बगल से पसीना बह रहा था और उनकी बदहवाशी को बयां कर था। इतना तय था कि वे दोनों डरे हुए थे और बुरी तरह परेशान थे। 

पर लोग तो परेशान ही रहते हैं। इसलिए मैंने अधिक ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा। लेटे लेटे शाम की बातें याद करने लगी।

रेल के हिचकोलों में रात गहरा रही थी। आधा रास्ता माँ के प्रवचन सुन के कट गया। थोड़ी देर बाद अचानक गाड़ी को सिग्नल न मिलने के कारण वह कुछ समय तक एक स्टेशन पर रुक गई। जगह काफी सुहानी थी और माँ के लिए सुनसान। 

 

अप्रैल का महीना उतरने लगा था। दिन गरमाने लगे थे। मौसम की बेईमानी धीरे-धीरे समझ आने लगी थी। दिन की गुनगुनी धूप रात के लिए कुछ मसमसाहट और चिपचिपाहट उधार छोड़ रही थी। पसीना बदन पर सुखकर कुनकुनाने लगा था और महक बोनस के साथ बाहर निकलने लगी थी। कुल मिलाकर कहा जा सकता था कि गर्मी का मौसम दस्तक दे चुका था।

इसी माहौल में छुट्टियों की महक के लिए अपने साज़ो-सामान के साथ माँ पीहर और मैं अपने ननिहाल के लिए निकल चुके थे। माँ ने ज़िद्द कर के मुझे सलवार क़मीज़ में कस दिया था। उनका कहना था कि सफ़र दूर का है और ज़माना बहुत खराब है। पर असल बात तो यह थी कि मेरे शरीर ने उम्र के परे जाकर बाहर झांकना शुरू कर दिया था। मैं अब चहकती हुई नहीं बल्कि छलकती हुई मालूम नज़र आती थी। मैं उम्र से ज्यादा बड़ी हो रही थी।  

मैंने भी उनका विरोध नहीं किया मन में खयाल आया ठीक ही कह रही हैं।

पापा फिर नहीं आ पाये। उनका काम इन दिनों ही बढ़ जाता है। पर माँ मुझे अपना ननिहाल दिखाना चाहती थीं। उनका कहना है कि इस समय सरकारी काम बढ़ जाते हैं। नहीं आए तो अच्छा ही है वरना रेल में भी अपनी राजनीति लेकर बैठ जाते। कम से कम इनकी बातों से मुक्ति तो मिलेगी! लेकिन माँ को नहीं पता था कि असल मुक्ति तो पापा को तोहफे में मिली थी।  

पापा ने हमें समय से कुछ पहले ही रेलवे स्टेशन पर पहुंचा दिया था और ढेर सारी हिदायतें देते हुए वो किसी न्यूज़ रीडर की तरह मुझे ज़माने भर की खबरें और उनके नतीजे बताते रहे थे। ये मत करना, बाहर मत जाना, ज़्यादा किसी से बात करने की जरूरत नहीं, माँ का ध्यान रखना, रात तक टी. वी. मत देखना(मामा के यहाँ), छुट्टियों का काम पूरा कर लेना... इतनी बातें! उनके कहने पर मन में उस समय बस यही बात फुदक रही थी कि गाड़ी कब चलेगी!

 

मैं अपनी सोलह बरस की उम्र के चश्मे से इस दुनिया को देख रही थी। ऊपर से इतनी सारी हिदायतों से उसमें दरार आ रही थी। मैं घर में भी अक्सर इसी तरह के साये में जीती हूँ। पर ननिहाल के नाम पर मन उछला था। स्टेशन की गहमा-गहमी कितनी अच्छी लग रही थी। कोई नन्ही चिड़िया जिसने अभी अभी अपने घोंसले की सीमा को पार कर दिया हो, जैसी रोमांचित थी मैं। आकाश के जैसे स्टेशन फैला हुआ था। यहाँ हर तरह की दुकान, हर तरह की आवाज़ और हर तरह के चेहरे थे। देखकर मन में खयाल आया, ‘इसे ही दुनिया कहते हैं। यही वो जगह और माहौल जिसे शहर कहा जाता है।

घर की चार दिवारों में सिमटे हुए घर में दुनिया सिर्फ़ घर का सामान और उसमें रह रहे कुछ लोग ही होते हैं। पर यहाँ तो मेरी आँखें चौंधियाँ गई थीं। मैं उस भीड़ को देख रही थी जिसका कोई चेहरा या सूरत नहीं थी। मैं उन आवाज़ों को सोख रही थी जिसे शहर शोर कहता है। मैं उस धूल और धुएँ को सूंघ रही थी जिसे प्रदूषण कहा जाता है।  

चाय की महक हो या अंडे के सिकने की गमक, नाक से लेकर कान तक को चालू रखने के लिए यहाँ सबकुछ था। माँ और पापा अपने घरेलू हिसाब को लेकर जद्दोजहद कर रहे थे। इतनी देर मैंने बाहर का मुआयना लेने की सोची। मुझे अपनी नज़रें सेंकनी थीं। बाद में मुझे इसका ब्यौरा अपने उसे भी तो बताना था। हाँ, मैं उससे कुछ दिन नहीं मिल पाऊँगी पर फोन नाम की चीज़ से उसे अपने संदेशे पहुंचाने का वादा कर के आई थी।  

मैंने पापा से घबराते हुए 'परमिशन' ली। उन्होंने कुछ पल सोचा कहा, “कहाँ जाओगी? रेलवे स्टेशन भी घूमने की जगह है!”

मैंने नज़रें ज़मीन में गढ़ाते हुए कहा, “मुझे चॉकलेट खाने का मन है।” इतना सुनकर उन्होंने मुझे रोका नहीं। बोले, “फटाफट लेकर आ जाओ।”

मैंने हाँ में सिर हिलाया।

मैंने एक दुकान का रुख किया। वहाँ मैंने सजी हुई चॉकलेट देखी तो जीभ में पानी न जाने कहाँ से उतर आया। मैंने दुकान की तरफ खुशी से क़दम बढ़ा दिये थे। तभी एक शोर मचा और माहौल में अफरा तफरी छा गई। अचानक मुझे पीछे से जबर्दस्त धक्का लगा और मैं मुंह के बल धड़ाम से गिरकर ज़मीन चाटने लगी।

“हाय राम!!...

बेइज्ज़ती हो गई। "किस कमीने ने मुझे गिरा डाला?...”

मैं घबराहट में अपनी धूल और खरोंचों के साथ इन अल्फ़ाज़ों को बोलते हुए उठने की कोशिश करने लगी। कुछ लोगों ने मुझे बांह पकड़ के सहारा भी दिया।

न जाने क्या हुआ था। मेरे गिरने के बाद न कोई शोर, न कोई शराबा। धड़-धड़ के साथ कुछ लोग भागे और क्यों भागे किसी को पता नहीं चला। मेरे साथ सब भौंचक्के बने देखते रहे। मैं बहुत घबरा गई। भीड़, जिसकी कोई शक्ल नहीं थी, आपस में बुदबुदाने लगी।

मैंने चॉकलेट का ख़्याल छोड़ा और वापसी का रुख किया।

अब तक माँ और पापा इस शोर से घबरा चुके थे।

मुझे देखते हुए ही माँ की आवाज़ तेज़ हो गई। पूछा, “क्या हुआ?”

मैंने उन्हें बिना देखे ही कहा, “पता नहीं पीछे से किसी ने धक्का दिया और मैं गिर गई।”

पापा बोले, “अब यहाँ कौन आतंकवादी आ गया!... कहीं भी चैन नहीं।”

मैंने इसी बीच पापा से पूछ लिया, “पापा आपको कैसे पता कि वे लोग आतंकवादी हैं?”

वो कुछ नहीं बोले और गुस्से से आँखें गरम करके वे बाहर की तरफ़ चल दिये।

मेरे मन में फिर से वही सवाल दुबारा आया, ‘रेल चल क्यों नहीं रही!

लगभग दस मिनट बाद पापा कुछ फल हाथ में लिए हुए लौटे। बोले, “कुछ लोग दो लोगों की तलाश में स्टेशन में घुस आए थे। कुल चार लोग हैं। कोई लड़का-लड़की भागे हैं। उन्हें वे लोग ढूंढ रहे हैं। अब उन्हें पुलिस ने पकड़ लिया है। घबराने की कोई ज़रूरत नहीं।”

जब माँ ने ये बातें सुनी तब फिर ज़माने की दुहाई दी। मेरे उभरते बदन को देखा और मुझे चुन्नी को ठीक से ओढ़ने की हिदायत दी। फिर थोड़ी देर बाद ख़ुद ही चुप हो गईं। मैंने झिझकती हुई नज़रों से सामने बैठे जोड़े को देखा और सोचा जाने यह क्या सोच रहे होंगे। लेकिन इस बार फिर वे घबराए हुए ही लगे।

मैं इसलिए सुकून से थी क्योंकि आख़िरकार रेल चले जा रही थी और माँ इसलिए बेचैन थी कि हो हल्ला हो गया था। उनकी जवान बेटी भी उनके साथ थी। ट्रेन में वक़्त गुज़ारने के लिए मैंने एक किताब जो इस उम्र की महक लिए हुए थी को, माँ की नज़रों से बचाकर अपने पास रख ली थी। मैंने अपनी क्लास की एक दोस्त से ज़िद्द करके उसे हासिल किया था। प्रेम कहानी वाली किताब। उस किताब के किरदार बस इंसान थे जिनका न तो कोई मज़हब था और न कोई ज़ात। पर वो गुनाहगार थे। सामाजिक गुनाहगार। वे प्रेमी थे।

ट्रेन में फीकी और डरी रंगत लिए बैठा नया कपल अपने में उलझा था। न तो वे दोनों कुछ खा रहे थे न कुछ पी रहे थे। मेरे मन में आया कि उनसे उनकी परेशानी का सबब पूछ लूँ। पर जब माँ का चेहरा देखा तो मेरी हिम्मत की धज्जियां उड़ गईं।

मैंने रात उनके बेइंतहा डरे-परेशान चेहरे को देख कर काटनी शुरू की। उन दोनों ने एक दूसरे के हाथों को कस कर पकड़ा हुआ था, बिलकुल मेरी किताब के प्रेम क़ैदियों की तरह। दोनों के चेहरे परेशान ज़रूर थे पर आँखों में कल के सपने भी मौजूद थे। उन्हें देखते-देखते लगभग तीन बजे मेरी आँख के पर्दे गिर गए। जब सुबह आँखों की दुकान खुली तो वो जोड़ा नदारद था।

बहरहाल स्टेशन पर मामाजी ने काफ़ी पहले आकर मोर्चा खोल दिया था। माँ को उन्होंने एक लंबा सा प्रणाम किया तो माँ गदगद हो उठीं। मैंने हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा अपनाई।

शाम को घर-बैठक जम गई थी। मुहल्ले के सब लोग माँ से मिलने आए थे। पूरा जमावड़ा लग चुका था। मुझे जबर्दस्ती बीच में बिठाकर रखा गया था। मेरे ज़िस्म का भराव उन लोगों की नज़रों तक पहुँच चुका था। सभी के पास मेरी शादी के लिए एक रिश्ता मौजूद था। मैं इस तरह के रिश्तों की महिमा सुन रही थी और साथ ही अपनी माँ के चेहरे की चमकीली चमक को भी देख के हैरान थी।

पर शुक्र है कि अंधेरा गहराया तो लोगों को अपने अपने घर जाने की याद आ गई। नहीं तो मेरी शादी की शहनाई ही बज जाती। आठ बजते-बजते घर पड़ोसियों से खाली हो गया। खाना खाकर मैंने सोने की इच्छा जताई तो मामाजी ने पढ़ाई का हालचाल जानने के लिए रोक लिया। मैं अभी उन्हें अपने पढ़ाई का हाल बताने ही जा रही थी कि साढ़े आठ बजे की समाचार की सुर्खियों में हम सब के कानों को अपनी ओर खींच लिया। “देश में फिर एक बार ऑनर कीलिंग का मामला सामने आया है। रेलवे स्टेशन पर एक जोड़े की सिर कटी लाशें मिलीं हैं और...।” मैंने आगे की ख़बर नहीं सुनी बस चुन्नी से अपनी छाती को ढका और सामने पड़े पानी के गिलास से एक घूंट अपने गले में उतार लिया।   

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Tuesday, 1 August 2017

महिला तस्करी और उसके सच

कई दफ़े हम टर्मिनोलॉजी का शिकार हो जाते हैं और लगभग सभी चीजों को उसके अंदर से ही गुज़ार कर देखना शुरू कर देते हैं। याद कीजिये उस लेंस को जो चीज़ों को बड़ा बनाकर हमें दिखाता है जिन्हें हम सूक्ष्म होने के कारण देख नहीं पाते। लेकिन यह भी याद रखने की जरूरत है कि प्रत्येक वस्तु की अपनी एक सीमा है। और उस सीमा के बाद चीजें वैसे ही हैं जैसे कि वह पहले से ही हैं। लेंस जहां जहां फिराया जाएगा केवल वहाँ वहाँ ही चीजें बड़ी होकर दिखाई देंगी। लेकिन उसके बाहर की सीमा में नहीं। हम आजकल इसी लेंस वाली नज़र का इस्तेमाल खूब करते हैं। जहां देखते हैं वहीं लेंस लगा लेते हैं। इसे नज़र का केन्द्रीयकरण क़रार दिया जा सकता है।  इसकी अपनी खूबियाँ और खामियाँ दोनों हैं।

ठीक इसी तरह बहुत सी और भी शब्द-शब्दावली है जो आजकल शक़ की निगाह से देखी जा रही है। चिंतन की विचारधारा से जुड़े हुए शब्द जो किसी एक जाति को चेहरा और प्रतिनिधित्व करने की क्षमता दे रहे हैं वे भी तो अब पवित्र नहीं माने जा रहे हैं। 'नारीवाद' एक ऐसा ही शब्द है। इस शब्द को सुनते ही कुछ लोग चिढ़ जाते हैं। बहुत बुरी तरह। पर यह एक जरूरी, जायज़ और दिलचस्प शब्दावली है। औरतों का इतिहास इतना अधिक क्रूर दिखाई देता है कि 'आधी आबादी' जैसा शब्द अगर इस्तेमाल हो जाता है तो इसमें क्या हर्ज़ा है? नारीवादी शब्द विचार, स्त्री विमर्श में तब्दील होता है तो इसके अपने ही गुण और मायने हैं। लेकिन जरूरत यह भी है कि लेंस के इर्द गिर्द हो रही घटनाओं की भी सुध ली जाये। 

                                                 (1)

इसी विमर्श से थोड़ा सा इधर उधर देखें तो कुछ बातें जो लेंस से बाहर हो रही हैं पता चलती हैं। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय महिला सम्मेलन महाराष्ट्र में सम्पन्न हुआ। इसमें 18 देशों के प्रतिनिधि मौजूद थे। इसका मूल विषय महिला तस्करी था। कार्यकर्ता सुनीता कृष्णन के मुताबिक़ तस्करी से केवल 7% ही लड़कियों को छुड़वाया जा रहा है जबकि 93% अभी भी उसी  दलदल में फंसी हैं। इसके पीछे की वजहें ज़्यादा गंभीर हैं। औरतों की तस्करी के गिरोह बेहद मज़बूत हैं। उन्हें सरकारी रसूखदार लोगों का संरक्षण प्राप्त है। साधारण पंक्ति में कहा जाये तब - 'सब मिले हुए हैं।' हमारा पूरा तंत्र जो हमारे कल्याण की बात कहता है वही इसका पोषण कर रहा है। वरना इस हमाम में कोई एक ही नंगा नहीं हो सकता। एक बस की बात नहीं है। 

इसके पीछे का एक और कारण यह भी है कि एक बार उन्हें तस्करी के गिरोह से निकाल लेने के बाद उनके घर वाले उन्हें नहीं अपनाते। उनके लिए वे लड़कियां या औरतें जो एक बार खरीद फ़रोख्त का शिकार हो जाती हैं वे मर चुकी होती हैं। यह सबसे दयनीय बात है। इंच भर की जगह कैसे किसी परिवार की इज्जत की नंबर प्लेट है, यह आज भी दकियानूस सोच है। इसलिए जब तस्लीमा नसरीन यह कहती हैं कि औरत का कोई देश नहीं तो वह पूरी तरह सच ही कह रही होती हैं। वास्तव में घर भी कब औरत का रहा है? वहाँ भी वह नौकरानी से भी बदतर हो जाती है, एक औरत! हाँ, यह बात अलग है कि उसे गृहलक्ष्मी, गृहशोभा, गृहणी, अन्नपूर्णा आदि आदि नाम से पुकारते हैं। जबकि इन शब्दों के पीछे लंबी चौड़ी वह फ़ेहरिश्त है जिसमें मुफ़्त का श्रम मौजूद है। इस श्रम का आज तक कोई बहीखाता किसी ने तैयार नहीं करवाया। आज भी यह जारी है। जब किसी लड़की को तस्करी से  बचाया जाता है तब वह कई बार घर में जाने से मना भी कर देती है। साफ वजह है कि उसे वह सम्मान वहाँ नहीं मिलता जिसकी वह हक़दार होती है। इसके साथ ही घर के लोगों का बर्ताव बहुत ही खराब हो जाता है। कई घर वाले तो मिलना भी पसंद नहीं करते।

                                                  (2)

अमृता प्रीतम का मशहूर उपन्यास 'पिंजर' बड़ी मार्मिकता से यह दृश्य आँखों के आगे रख देता है। पुरो को रशीद उठाकर ले गया। खानदानी रंजिश के चलते। वह उसे भाग जाने देता है। जब पुरो अपने घर के किवाड़ खटखटाती है तो उसे उसके ही बचपन के घर में नहीं घुसने दिया जाता। उसकी ही हम-नस्ल उसकी माँ जाने किन किन बातों का वास्ता देकर उसे घर के अंदर नहीं आने देती। आह! निकल जाती है एक। वैसी आह रोज़ निकला करती हैं जब तस्करी से छुड़ाई गई लड़की को घर में पनाह नहीं मिलती। 

इसके अलावा सरकारें भी अव्वल दर्ज़े की जिम्मेदार हैं। वह छुड़ाई गई लड़कियों के लिए कोई आर्थिक आधार विकसित नहीं कर पाती। जो मौजूद हैं वे भी टोकरी बीनने तक समेट दिये जाते हैं। उनके लिए नितांत सभी सुविधाओं का अभाव रहता है। वे इन हालातों में कई बार वापस उसी रास्ते का रुख कर लेती हैं। राजनीतिक इच्छा शक्ति का अभाव ही है कि महज़ 7 % ही लड़कियों को छुड़वाया जा पाता है। यह प्रतिशत बेहद कम है। एक बार फिर महिला आरक्षण बिल पर सोचने की जरूरत है और उसका जल्द से जल्द क्रियान्वयन करने की शीघ्र आवश्यकता है। राजनीति में उन सक्रिय और ज़मीन से जुड़ी औरतों की बेहद अनिवार्यता है जो जानती हैं कि महिलाओं से जुड़े मुद्दे कितने संवेदनशील होते हैं। उनके पीछे शोषण और हिंसा की लंबी सूची होती है। 

यह बहुत अफसोस की बात लगती है कि जो औरतें राजनीति में हैं भी तो वे पानी साफ करने वाली, हवा साफ करने वाली, फल और सब्ज़ी साफ करने वाली मशीनों के विज्ञापन देती हैं। यह बहुत निराशाजनक है। हवा स्सफ करने के लिए महोदया जी को खुद पेड़ लगाने चाहिए और अपने संसदीय क्षेत्र में भी लोगों को पेड़ लगाने में मदद करनी चाहिए। इसी तरह पानी और सब्ज़ी साफ करने का मसला हल किया जा सकता है। 

आप पैसा कमाना बंद करें और इन संवेदनशील मुद्दों को सुलझाइए। आपको इसलिए ही चुना गया है कि आप परेशानियों का स्वस्थ हल निकालें। सभी के लिए बेहतर स्पेस बनाएँ ताकि सब जी सकें सम्मान के साथ। बाकी धीरे धीरे और भी तबके और जाति की महिलाओं को राजनीति में आने के लिए प्रेरणा और मदद दें। स्थिति सुधरनी तो कम से कम शुरू हो ही जाएगी।

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1.यह चित्र सन् 2013 में जोएल ने ओहायो, अमरीका में Sex Trafficking Awareness Project के दौरान कुछ छात्रों के साथ मिलकर बनाया था। 

https://joelartista.com/ohio-sex-trafficking-awareness/

2. Anna Kuntsman’s Catherine the Great deals with human trafficking. | Photo: Tricky Women 2013

https://www.blogger.com/blogger.g?blogID=6111194188281992144#editor/target=post;postID=1434132795482902528



21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...