Friday, 4 August 2017

बेतरतीब


कोशिश की जाएगी 'उसे' शब्दों में उतारने की। यह दिलचस्प होगा कि वह शब्दों में कैसा दिखता है। प्यारा या फिर कठोर। आदमी या आदमियत। मासूम या खतरनाक। आज़ाद या फिर एक क़ैदी। नाम वाला या गुमनाम। अजनबी या फिर जाना पहचाना। अजीब या सामान्य रंगीन या फीका  ...वह शब्द दर शब्द खुलता है। खुद कहता है अपनी कहानी। न यहाँ राजा होता है न रानी। हम इत्मीनान से एक कहानी की तलाश करते हुए यहाँ भटकते हैं। कभी लगता है सही ठिकाने पर पहुंचे हैं। कभी भ्रम में ही रहते हैं। कभी हो सकता है गुम भी हो जाएँ। ठिकाने पर पहुंचाना ही तो सबकुछ नहीं होता। दस्तक पर दरवाजा खुलता है या नहीं यह तय करता है आगे के पलों को। दरवाजा खुला तो कहानी आगे बढ़ेगी। नहीं खुला तो वाजिब है कि खुद को नई दस्तक के लिए तैयार करना होगा। लेखन इस सब को समटेता है। वह भी रोता है और हँसता है।



एक पैराग्राफ़ लिखने की भी तो दस्तक होती है। कुछ जो दिखता है या फिर सूझता है। ऐसे ही नहीं छोड़ता। एक रिश्ता बनाता है। बुनना शुरू हो जाता है। शब्द खुद से जेहन में उतरते हैं। जब तक न लिख दो अंदर हीअंदर उछलते हैं। फिर भी लिखना उतना पका हुआ नहीं हो पाता। उसे साधना पड़ता है। उसको आवाज़ देनी पड़ती है। उसमें ऑक्सीज़न फूंकनी पड़ती है। उगते हुए सूरज का भी महत्व होता है, डूबते हुए का भी। जो बादल में ढका हुआ हो तो वह भी मंजूर है। यहाँ रावण की भी जगह है और राम को भी उतना ही स्पेस मिलता है। यह लेखन है। यहाँ समानता ही रहेगी। यहाँ लिखना खून में समाया हुआ धर्म होगा या फिर पाप, कोई फर्क नहीं पड़ता। लिखना चलता रहता है। इसे उम्र की जरूरत नहीं इसे कलम चाहिए कलाम कहने के लिए। जीवन है तो कहानियाँ पनपती रहेंगी। इसलिए लिखना चलेगा, निरंतर। लिखने के लिए पागल हो जाना इश्क़ के पागलपन से बेहतर है। खुदा अपना इश्क़ रखे और मुझे लिखने का हुनर बख़्श दे। आमीन!  


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