Monday, 2 September 2019

कुछ भी तो नहीं हुआ है, फिर तुम क्यों...








               


रोज़ बहुत कोशिश करती हूँ कि मन से अपने करियर के लिए पढाई करूँ पर हो नहीं पाता. आप यह कैसे कर सकते हैं जब देश के हिस्से के लाखों लोगों के बारे में कुछ पता नहीं चल पा रहा है? यह एक दिन के लिए नहीं है. ऐसा कई दिनों से हो रहा है. गोलियों में जीते वे लोग कैसे जी रहे हैं, जी भी रहे हैं या मर गए हैं, पता नहीं? आप कैसे किसी किताब के पन्ने अपने सड़ियल और ठोकर खाते करियर के लिए पलट सकते हैं जब देश के किसी राज्य में तीन साल की बच्ची को पुलिस द्वारा पटक कर मार दिए जाने की ख़बर अन्दर से नोच कर निकल गई हो? लगता है जैसे ज़िस्म के कई ज़रूरी हिस्सों को तगड़ा बिजली का झटका लगा हो. आप कैसे उस नौकरी की बात सोच सकते हैं जो आप को मिलेगी ही नहीं? क्योंकि कई और भी हैं जिनको नहीं मिल रही. जिनको मिली थी, सुना है उनकी भी जा रही है. आप कैसे उस देश में हँसने की बात सोच पा रहे हैं जहाँ, अस्पताल के दरवाजे पर बच्चों का जन्म हो रहा है? आप कैसे उस झक्की नौकरी का सोच सकते हैं जहाँ, रात के समय भरोसे में डूबी लड़की तमाम दुर्घटनाओं के बाद भी यकीं कर के ओला या उबर कर लेती है? पर उसके साथ वही होता है जिसके बारे में आपको और मुझको अच्छी तरह पता है. यह पता होना हमारी बेबसी है. हमारी शर्मंदिगी है. हमारी जिंदा रहते हुए मौत है. मैं बराबर परेशान रहती हूँ क्योंकि इन लोगों ने मुझे कश्मीर के बारे में स्कूल की किताबों में पढ़ाया है. मैं उन लोगों का सोचती हूँ तो जी बाहर आ जाता है. मैं सामान्य जीवन भी नहीं जी पा रही. मैं मर रही हूँ. अगर कोई ख़ुदा है, तो कहो कि वह क़यामत का दिन भूल गया है शायद! मुझे बेसब्री से क़यामत का इंतज़ार है.

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