Thursday, 29 December 2016

दंगल का मंगल

मैं जब घर वापस आ रही थी तब मन में एक जुनून मुझे संक्रमित कर चुका था। मैं फ्लॉप फिल्म के हिट गाने जैसा महसूस का रही थी। कल दूसरी बार सिनेमा हॉल में फिल्म देखी। हम तीन दोस्त थे। हम फ़िल्म देखने के पहले खुश थे और फ़िल्म देखने के बाद ज़्यादा खुश थे। हम खुशमिजाज़ी हैं। इसलिए हज़ार बार झगड़ा होने के बाद भी कोई गिला-शिकवा नहीं करता। ख़ैर, पोस्ट दोस्ती के बारे में नहीं है। आपके भी ऐसे दोस्त होंगे ही।

आमिर खान की फिल्में देखने के बाद आप कुछ न कुछ कहने की अवस्था में आ ही जाते हो। इसलिए मैं भी कह ही रही हूँ कि फ़िल्म मुझे बेहद अच्छी लगी। हाँ, नारीवादियों को मुझपर गुस्सा आ सकता है। वे कहेंगे और कहेंगी कि-'तुम जैसे लोगों ने ही एक औरत को उसके अहसासों और तमन्नाओं को समझने में भूल की है। तुम जैसे ही औरतवाद को सपोर्ट नहीं करते...।' वैसे एक बात बोलूँ मुझे इसकी परवाह भी नहीं कि मुझे अब कोई गाली दे या धोखेबाज़ कहे। कह लो यार! मैंने आपके मुंह पर टेप नहीं लगाई। पर मुझे भी तो अपनी कह लेने दो।

सिनेमा हॉल में लगभग 12:45 पर प्रवेश शुरू हो गया था। मुझे लगा था कि बैठते ही फ़िल्म शुरू हो जाएगी। पर ऐसा हुआ नहीं दिल दिमाग को भाले की तरह चीरती हुई आवाज़ में कई फिल्मी और व्यावसायिक विज्ञापन दिखाये गए जिस पर कि मेरा मुंह तो नहीं, पर मन जरूर सूज गया था। भला फ़िल्म देखने के पैसे दे रही हूँ और ये घटिया विज्ञापन दिखा रहे हैं जिनमें मेरी तो कोई रुचि फिलहाल बिलकुल नहीं थी। मुझे कसम से वहाँ बैठे बैठे मन में एक चिट्ठी संबन्धित मिनिस्टरी (मंत्रालय) को लिखने का जुझारू खयाल आ गया था। यह क्या बात है कि आप लोग फ़िल्म के पैसों में अपनी कमाई कर रहे हो। ठीक है दिखाओ पर जो मुनाफ़ा आप कमा रहे हो उसे केशलेस ट्रान्सफर से मेरे अकाउंट में भी डालो। मैं पक्का एक लिखूँगी चिट्ठी। रुक जाइए कुछ दिन।




पोस्ट इस चिट्ठी पत्री पर भी नहीं है। मेरे दिमाग में एक ही समय में ढेरों खयाल आते और जाते हैं। उन्हें लिखने की सोची है। इसलिए पोस्ट का शीर्षक मैंने अभी भी नहीं सोचा है। फ़िल्म के पहले विज्ञापन पर गुस्सा आया। पर जैसे गुस्सा आया वैसे चला भी गया। फिर, उसके बाद राष्ट्रगान बजा। बजा और मैं किसी नक़ल करती हुई प्राणी की तरह खड़ी हो गई। उस वक़्त मेरे मन में यह खयाल आया कि जो मैं न खड़ी होऊं तब शायद पीछे से कोई मुझे धक्का देते हुए देशद्रोही कहेगा। मैं धक्के के कारण गिर जाऊँगी। मेरे चेहरे पर काफी चोट आ जाएगी। कोई मुझे उठाएगा नहीं। हाँ, मेरे दोस्त उठाएंगे पर लोग उन पर भी हल्ला बोल देंगे। उनको भी मेरी वजह से काफी चोट आ जाएगी। लोग इतने पर भी नहीं रुकेंगे। वे लोग भारत माता के नाम पर 'भारत माता की अंश' का खून भी बहा देंगे। इसी बीच राष्ट्रगान बजा। मैं खड़ी हो गई। ओह, मैंने भी गाया। मुझे अच्छा लगा। 52 सेकंड गाया। एक एक लाईन गाई। मुझे अच्छा लगा। मेरे दोस्तों को भी अच्छा लगा। बाक़ी लोगों का नहीं मालूम। उन्हें भी अच्छा लगा होगा। ऐसी मेरी उम्मीद है। कोई देशद्रोही मुझे नहीं दिखा। मैं भी नहीं हूँ। यह बात स्पष्ट है।

अब फ़िल्म शुरू हुई तो मेरा ध्यान फ़िल्म पर टिकने लगा। वाज़िब था कि इतनी बड़ी स्क्रीन से और आवाज़ों के काफ़िले से मैं बच नहीं सकती थी। मैं कई दृश्यों पर बेलगाम हंसी। ऐसा आप भी हँसे होंगे। जैसे महावीर फोगट सर के जब हर नुश्खे आजमाने पर भी लड़की ही हुई। मैं हंसी क्योंकि दृश्यों का फिल्मांकन हंसने वाला था। लेकिन तभी दिमाग वर्जीनिया वुल्फ की लिखी किताब 'अपना कमरा' में ले जाकर पटक आया। मैंने यह किताब एक या दो दिन पहले ही पढ़ी थी। इसलिए मुझे उसकी कुछ बातें रह रह कर याद आ रही थीं। मैंने मन में कहा- 'मैं यहाँ फ़िल्म देखकर अपना मनोरंजन करने आई हूँ न कि नारीवाद-नारीवाद खेलने। यह ठीक बात नहीं हर बात और विषय का अपना वक़्त होता है।' मन ने कहा- 'तुम इस चकाचौंध में पागल हो गई हो। सोचो किसी के निजी जीवन और पीड़ा पर हंस रही हो। सोचो कि लड़की होने का दुख हंसी में उड़ाया जा रहा है। कितना कमतर समझती है यह दुनिया लड़कियों को'। मैंने कहा- 'यह फिल्न है। इसमें वही तो दिखाया जा रहा है जो वास्तव में हुआ है। ऐसा होता है जब लड़के के आस में लड़की पैदा हो जाती हैं। यह लिंग का मसला भारत में बड़ा है। 1000 पर बहुत कम लड़कियां हैं मुल्क में। ...अब तुम दूर हटो और मुझे फ़िल्म देखने दो। बाद में बकवास कर लेंगे।' मन डर गया या घबरा गया। मुझे नहीं पता पर उसने फौरी तौर पर मुझे फ़िल्म के साथ छोड़ दिया।


मैंने मज़े से फिल्म देखी। अच्छी फ़िल्म है। आसपास के सेट औरताना बॉक्स से बाहर झाँकने की कोशिश हमेशा दमदार लगती है। वही इस फ़िल्म में दिखा भी। फ़िल्म का पहला आधा हिस्सा दिलचस्प है। दूसरा हिस्सा बेटी और पिता के दरम्यान सम्बन्धों को अच्छी तरह से उजागर करता है। फ़िल्म में तीन बातों को मज़बूती से समझा जा सकता है। पहला उस सोशल दीवार को तोड़ा गया है जो समाज के दकियानूस अंबुजा सीमेंट वाले तौर तरीक़ों से बनी है। कई दृश्य इसकी तसदीक़ भी करते हैं। दूसरा हिस्सा कुछ पाने के लिए संघर्ष से जुड़ा है, फिर चाहे वह पिता का संघर्ष हो या बेटी का। तीसरी बात सम्बन्धों में महीन बदलावों के रूप में समझा जा सकता है। एक पिता का जब एक गुरू के रूप में अवतार होता है तब वह दूसरे चरित्र में होता है पर जब पिता, पिता बनता है तब वह अलग नज़र आता है जहां वह बेटियों के लिए हर तरह का जुगाड़ करते हुए समाज की परवाह नहीं करता। फ़िल्म के किरदरों की ख़ालिस हरियाणवी मासूम ज़ुबान फ़िल्म के हर दृश्य को रोचक तो बनती है साथ ही बैक्ग्राउण्ड में बजने वाला गाना फ़िल्म में बजने के बावजूद आपके अंदर प्रवेश कर जाता है। फ़िल्म के अंत में आप भी दंगल-दंगल गाने और करने के मूड में आ जाते हो। सिनेमा का जादू वाकई ग़ज़ब होता है।  



महावीर फोगट की तस्वीर नारीवादियों में एक बहस का मुद्दा बनी हुई है। कुछ दिनों पहले कहीं फ़िल्म की समीक्षा पढ़ी थी। समीक्षा में भी यही बात उस लेखिका ने ज़ोर दे देकर लिखी थी कि अपने सपने के लिए पिता ने अपनी बेटियों के बचपन को कुश्ती के कठिन अभ्यास में झोंक दिया। देश के लिए मेडल की चाहत ने उन्हें अपनी बेटियों को एक अलग रास्ते पर दौड़ा दिया। इस फ़िल्म से मुझे कराटे किड फ़िल्म सीरीज़ की फ़िल्में याद आ गई थीं। आप क्योंकर महावीर फोगत अंकल को पिता-पिता कहकर संबोधित कर रहे हैं और कर रही हैं। मुझे लगता है कि वह फ़िल्म में पिता कम, गुरू ज़्यादा हैं। मुझे कराटे किड फ़िल्म के गुरूओं से कोई गिला शिकवा नहीं। याद कीजिये 'मिस्टर मियागी' या 'मिस्टर हान' को। कितने कठिन मास्टर थे वे लोग फिल्म में। अनुशासन कभी सस्ता नहीं होता। आप इस बात पर भले ही मुझसे बहस कर सकते हैं तो कीजिये। लेकिन मेहनत में झोंकना ही पड़ता है ख़ुद को। अब हर चीज़ को देखते समय ज़बरन नारीवादी विचारधारा का चश्मा लगाना पड़ेगा, ऐसा मुझे ठीक जान नहीं पड़ता।

सिनेमा हॉल में बैठे बैठे मैं कुछ देर के लिए वापस अपनी माध्यमिक कक्षाओं की पढ़ाई के दिनों में पहुँच गई। फ़िल्म से मैंने कहा, तुम रूको मैं बस अभी आई। मुझे यादों में कुछ काम है। ...सर्दी के दिनों में हमारे छमाही पेपर हुआ करते थे। मैं हमेशा से सर्दियों की शिकार रही हूँ। बीमारी और ठिठुरन मुझे हमेशा घेरे रहती। ऐसे में पेपर का जुल्म कोई अच्छी बात मुझे तो नहीं लगती थी। वो भी एक नहीं 6-7 पेपर लिखना आसान मुझे कभी नहीं मालूम पड़ा। स्कूली ज़िंदगी मुझे कभी भी हसीन नहीं लगी। हर बार घर और स्कूल को मुझसे पहले नंबर पर आने की विकट आशा रहती थी। एक नंबर भी कम हुआ नहीं कि खामोश, पर गुस्से वाली नज़रें पीछा करने लगती थीं। टीचर का कहना होता था कि तुम पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे रहो हो। ऐसे काम नहीं चलेगा। पिता इसके उलट कुछ कहते नहीं थे। वे सिर्फ़ करते थे। जब उन्हें मालूम चलता कि पेपर हैं तब 3 या 4 बजे से ख़ुद ही अलार्म का रूप अख़्तियार कर लेते और तब तक प्यार से उठाते जब तक मैं गुस्से में उठकर बैठ न जाती। उन्हें इस बात से कभी कोई फ़र्क नहीं पढ़ा कि बेटी कमजोर है। उसकी भी एक क्षमता है। ... मुझे याद नहीं कि कब उन्होने किसी पेपर के लिए न उठाया हो। सर्दियों में सब सो रहे रहे होते और मैं उठकर पन्ने पलट रही होती थी। ऐसे में मुझे पीछे से शॉल भी वही उढ़ाते थे। माँ को इससे कुफ्त ही हुई हमेशा। उनका खयाल था कि पास ही हो जाना काफी है। ठीक रहेगी तब ही हमें अच्छा लगेगा। सबसे छोटी है सो नरमी बरतनी जरूरी है।

कॉलेज में भी यही हाल रहा। आज भी लगभग यही हाल है। पर आज मुझे यह सब बुरा सा नहीं लगता। अच्छा लगता है कि मैंने अपने समय में अव्वल दर्जे की परफ़ोर्मेंस दी है। इसके अलावा बेहतर इंसान बनने की कोशिश भी कर रही हूँ। (शायद एक दिन कुछ अच्छी बन पाऊँ) हालांकि मैं आज भी एक ख़ास तरह की फ्लॉप लड़की ही हूँ। अभी तक एक नौकरी भी हासिल नहीं कर पाई हूँ। पापा के बाल अब सफ़ेद हो चुके हैं। वे काम पर भी नहीं जाते। उन्हें आज भी मुझसे ढेरों उम्मीद है। उनका खयाल है कि उनके जीते जी मैं कहीं स्थापित हो जाऊं। उन्हें यही बात मन में रहती कि एक छोटी ही सही पर सरकारी नौकरी मेरी बेटी को मिल जाये। इसमें अब मैं नारीवाद का पुट तो नहीं खोजूंगी। यह मेरी नाचीज़ समझ ही ठहरी। आप खोजिए। 

फ़िल्म देखने के बाद मुझमें तुरंत एक आत्मिश्वास जागा और आनन-फानन में अपने औरताना बॉक्स को खोजने लगी। पूरे 325 रूपये की टिकट ली थी तब कुछ तो फ़िल्म से लेकर ही आऊँगी न! जिनको दिन रात मरने के ख़याल आते हैं उनको तो यह फ़िल्म ज़रूर देख लेनी चाहिए। मुझे पूरा यकीन है कि उनमें भी एक जज़्बा आएगा कि कोशिश करते रहिये आख़री पल तक। हो सकता है कि आपको भी गीता कुमारी फोगट की तरह लास्ट सेकंड में 5 अंक मिल जाएँ और आप गोल्ड मेडल जीत जाएँ।  

दंगल में एक समाज है और उसमें एक परिवार जो समाज का हिस्सा है। वहाँ साहित्य नाम की कोई गंभीर और पवित्र वस्तु नहीं है और न ही कोई विचार। वहाँ ठंडा तो कभी गरम जीवन है। कभी भी कुछ मिल जाने वाला अटपटा जीवन। जो लोग नारीवादी के झण्डा लेकर यह कह रहे हैं कि यह पितृसत्ता का ही एक चेहरा है जहां एक पिता शक्ति में है और लड़कियों को कठपुतली बना रहा है तो वे वास्तव में जीवन को नहीं जानते। बहनों आप वो दृश्य भी तो देखो जहां लड़कियों कि कम उम्र की दोस्त की शादी हो रही है और दुखी है। वह यह कहती है कि कम से कम तुम लोगों के पिता तो तुम्हें शादी से परे कुछ और बनाने का सोच रहे हैं। उसके बाद से वे दोनों लड़कियां कुश्ती सीखने-लड़ने का ख़ुद से मन बना लेती हैं। अब जरा दिमाग लगाईए कि यदि लड़कियों का स्वतन्त्रता आंदोलन सफल हो जाता तब वे किस स्वरूप में होतीं। तब निश्चित रूप से उनका रूप अलग होता। वह रूप कम से कम मुझे तो स्वीकार्य नहीं होता। न मैं फ़िल्म देखने जाती।

हम अपनी ज़िंदगी में कितने फ्लॉप और हिट हैं यह ख़ुद देखते हैं और लोगों की नज़रों से भी समझते हैं। लोग किसी व्यक्ति के 'एक्शन' से उसे जानते हैं। यह कई तरीकों में से एक बढ़िया तरीका है किसी व्यक्तित्व और वस्तु को जानने का। गीता, बबीता और महावीर फोगट कुछ ऐसे ही व्यक्तित्व हैं जिन्हें उनके 'एक्शन' से आज मैं और आप जान रहे हैं। शून्य व्यक्तित्व से 10 नंबरी व्यक्तित्त्व में बदलने की बीच की प्रक्रिया ही मुझे दंगल का केन्द्रीय विचार लगा। इसमें अब यदि नारीवादी या पितृसत्ता का छोंक कोई लगाता है तब हो सकता है कि यह किसी भी वस्तु या फ़िल्म से जुडने का उसका अपना माध्यम है। इसमें कोई बुराई भी नहीं। मैं विचारधारा को न तो सोख सकती हूँ न उसे लिबास की तरह पहन नहीं सकती हूँ। मैं अपने जीवन से ही इस तरह की बातों और कहानियों को बेहतर समझने का आधार बनाती हूँ।
 

Sunday, 25 December 2016

डिजिटल बनने और न बनने के बीच का स्पेस

 ...मेरा मन किया कि अपना काला छोटा असुस स्मार्ट फोन उसके थाली जैसे चेहरे पर दे मारूँ। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। मैं स्वभाव से हिंसक नहीं हूँ। बहुत शांत रहने की आदत है। लेकिन अपनी बीमारी के साथ में लगभग 4 घंटे से ज़्यादा पंक्ति में खड़ी थी और थक चुकी थी। जब उसने लैक्चर देना शुरू किया तब मुझमें गुस्सा यकायक भर आया। उसने बस यही कहा था कि आपके पास तो स्मार्ट फोन है और प्ले स्टोर से जाकर यह एप डाऊनलॉड कर लीजिये।... फिर अप्लाई पासबुक के ऑप्शन पर जाकर क्लिक कर दीजिये। बहुत आसान है। मैंने मरते हुए आम आदमी का चेहरा चुराते हुए कहा- 'सर, मुझे यह सब नहीं आता। इतना नहीं जानती इस फोन के बारे में। क्या मैं एक अप्लीकेशन लिख दूँ?' उसने भयानक बाबू साहब बनते हुए कहा- 'च्च, आप लोग भी पढ़ लिख कर जाने क्या करेंगे। जब आप इस स्मार्ट फोन का इस्तेमाल कर ही रही हैं तब जरूरी चीज़ें भी तो सीखिये। ...ख़ैर अभी आप पर्ची से निकाल लीजिये रुपये।'

मुझे यह बहुत अटपटा लगा। सिर्फ़ इसलिए कि मैं हाथ में एक स्मार्ट फोन रखती हूँ, फेसबुक इस्तेमाल करती हूँ, जी-मेल से ईमेल करती हूँ... इसी वजह से मुझे अपने 'अ' से 'ज्ञ' तक के काम फोन से करने होंगे, वे भी जबरन। जो मैं नहीं करना चाहूं तब क्या होगा? मुझे निकाल देंगे?...क्या मैं अभी बैल-गाड़ी हांक रही हूँ या फिर उस पर बैठकर अपनी धीमी चाल से चल रही हूँ? जो मैं जमाने के साथ न चलना चाहूं तब क्या है मेरा चेहरा 'स्टेट' के लिए?...कुछ इन्हीं सवालों की लिस्ट दिमाग में काफी दिनों से चल रही है।



इन सब के साथ मैं वापस घर आई और सिरदर्द की एक दवा लेकर कुछ देर सो गई। फिर भी मुझे संतोष था कि मैंने जैसे-तैसे अपने रुपये हासिल कर लिए थे। पिछले कुछ दिनों से एक किताब के पन्ने पलट रही थी। सो मुझे चार्ली चैप्लिन की एक फिल्म का पता चला। फुर्सत निकाल कर मैंने वह फिल्म देख ली। फिल्म का नाम 'मॉडर्न टाइम्स' है। फिर से कहूँगी फिल्म बहुत बेहतरीन है।

आप मेरी बातों पर न जाएँ। ख़ुद इस फिल्म को पहले देखें। यदि अच्छी लगी तब अच्छी बात है। अगर नहीं लगी तो इसमें मैं क्या कर सकती हूँ। फिल्म की भव्यता वक़्त के साथ हमारे परिचय में आई बड़ी बड़ी मशीनों से है। ऐसा बताया जाता है कि चार्ली सर को किसी रिपोर्टर ने किसी कंपनी के बारे में बताया कि वहाँ काम इतने घातक तरीके से किया जाता है कि वहाँ के काम करने वाले लोगों के दिमागी संतुलन पर ख़ासा असर पड़ता है। इसी बात से उनके दिमाग में इस फिल्म का आइडिया आया। लेकिन आपको पता ही होगा कि कोई भी उत्पाद या स्वरूप यकायक नहीं उभर कर आता। उसके पीछे लंबी और चौड़ी वजहें होती हैं। चार्ली चैप्लिन ने गांधीजी के इंग्लैंड दौरे पर मुलाक़ात की थी और उनसे मशीनों को नापसंद करने की वजह पूछी थी। जो जवाब उन्हें गांधीजी से मिला था उसने भी इस फिल्म में एक अहम योगदान दिया। कहना न होगा कि फिल्म उन विचारों से प्रभावित हुई होगी।

जाना-पहचाना किरदार 'ट्रैम्प' किसी फ़ैक्टरी में काम करता है जहां उसका काम स्क्रू टाइट करना है। उसमें ग़ज़ब की फुर्ती है। वह अपने काम को एक रफ़्तार के साथ अंजाम देता है। जरा सा सांस लेने जाता है तब उसके मालिक की नज़र उस पर पड़ती है और उसे वह डांट-डपट कर वापस काम पर भगा देता है। कंपनी में तभी कुछ व्यक्ति आते हैं जिन्होंने ऐसी मशीन तैयार की है जो व्यक्ति को खाना खिला सकती है। गौर करने वाली बात यह है कि यहाँ एक आदमी कोई इंसान न होकर काम करने वाला एक वर्कर है। उससे जितना ज़्यादा काम लिया जा सकता है उतना फ़ायदा कमाया जा सकता है। वर्कर को अपना हाथ पाँव हिलाने की भी जरूरत नहीं। मशीन उसके मुँह में ही खाना ठूस देगी। ऐसे में कामगार का समय और भी काम में लगाया जा सकता है।



मुझे इस दृश्य और इस बात से अचानक एक लड़की याद आ गई जो मुझे नेहरू प्लेस के बस स्टॉपेज़ पर मिली थी। बात दो साल पुरानी है। बस न आने की वजह से वह मुझसे भी अधिक गुस्से में थी। बहुत देर तक इंतज़ार के बाद हम दोनों ने पैदल ही घर आने का फैसला किया। मुझे सुकून था कि इस अंधेरे में मेरे साथ कोई है। उसे था या नहीं, मैं नहीं जानती। उसने बातों-बातों में मुझे बताया कि वह नेहरू प्लेस मेट्रो स्टेशन के नीचे बने ढेर सारी कंपनियों की दुकानों में से किसी एक में काम करती है। सुबह 10 बजे से शाम 6 बजे तक वह खड़ी ही रहती है। मैंने कहा- 'लंच का समय तो होगा ही आप लोगों के पास।' उसने मायूसी से कहा- 'कहाँ टाइम देते हैं! सीने पर सवार रहते हैं। यहाँ तक की टॉयलेट जाने के टाइम का हिसाब किताब भी रखते हैं …कमीने!...सैलरी भी ख़ास नहीं देते। न करो तो इस दिल्ली में क्या खाओगे और कहाँ रहोगे…!' जब उसने बेधड़क मुझसे ऐसा कहा तब न जाने क्यों मेरे मुँह में कड़वापन घुल गया। आज भी रंगारंग मॉल्स में जाने से मुझे परहेज़-सा रहता है। जब कभी चली भी जाती हूँ तब नौजवान लड़के लड़कियों देखकर अच्छा नहीं लगता। सभी जी हुज़ूरी में मशरूफ़ होते हैं। बदन को थका देने वाली मेहनत की एवज़ में उनको कुछ भी नहीं मिलता।

फिल्म में आगे.., अत्यधिक काम करने की वजह और मशीन द्वारा नट-बॉल्ट ट्रैम्प को खिला दिए जाने के कारण वह मानसिक संतुलन खो देता है। उसे अस्पताल में दाखिल करवाया जाता है। इतना ही नहीं उसे अपनी नौकरी से भी हाथ धोना पड़ता है। अस्पताल में ठीक होकर आने के बाद वह कई काम करता है। कहीं चौकीदारी तो कहीं किसी रेस्त्रां में खाना परोसने का काम भी। इसी बीच एक लड़की से भी प्यार होता है। फिल्म के अंत में दोनों किरदार एक साथ ज़िंदगी से जूझने के फैसले के साथ खड़े दिखाई देते हैं। यहाँ मैं एक बात और रखना चाहूंगी। फिल्म की नायिका के बारे में। उसके पिता बेरोज़गार हैं। घर में कुछ नहीं है खाने के लिए। इसलिए वह केले चुराकर अपनी बहनों और पिता को देती है। इसी बीच किसी अफरा-तफरी में पिता को गोली लग जाती है। वे मर जाते हैं। बहनों को बालघर भेज दिया जाता है। नायिका आज़ादी चुनती है और बालघर जाने की बजाय भाग जाती है। वह तेज़ और चतुर है। वह इन हालातों में भी सपने देखना नहीं छोड़ती। वह जुझारू है। वह अपने दम पर लकड़ी का घर बनाती है। वह अपने प्रेमी पर आश्रित नहीं। वह रेस्त्रां में नाचती है और अपना जीवन जीती है। वह अपने प्रेमी का साथ देती है चाहे फैसला कैसा भी हो। इस मायने में मुझे नायिका का चरित्र बेहद अच्छा लगा। हालांकि वह भी मशीनों की छाया में बेरोज़गारी का एक जीता जागता सबूत है। मानवीयता का तत्व दोनों ही चरित्रों में है। यह इस फिल्म की एक और विशेषता है।



हालांकि मशीनों का विरोध इस फिल्म में नहीं दिखता बल्कि मशीनों के आ जाने से उनके क्या प्रभाव किसी समाज, परिवार और एक व्यक्ति पर पड़ता है, उसको बखूबी दिखाया गया है। एक व्यक्ति जहां पागल हो रहा है तो वहीं दूसरी तरफ परिवार टूट रहे हैं। वे बिखर रहे हैं। समाज में असहजता है। असंतुलन है। लोगों के पास काम नहीं है। स्टेट अपने पुलिसिया रूप में और भी प्रखर होकर आता है जहां उसका काम हड़ताल कर रहे लोगों को जेल में डालने का एक्शन है। वह सुरक्षा जैसे तत्व के लिबास में नहीं है।  

अब इस फिल्म की एक समझ के साथ आप खुद सोचिए कि हमें क्यों, कब, कहाँ और कितनी मात्रा में मशीनों की ज़रूरत है? ठीक है बहुत हद तक मशीनों ने करिश्में कर के दिखाए हैं। ज़िंदगी और उसकी रोज़मर्रा को आसान और जीने लायक़ बनाया है। लेकिन किसी भी सिक्के के दो पहलू होते हैं। अच्छा तो कुछ भी नहीं होता। देखिए न मेरे हाथ में कलम नहीं है। उसकी जगह मेरी ऊंगलियाँ लैपटाप के कुंजीपटल पटल पर थिरक कर जुमलेदार भाषण दे रही हैं। मशीनें जो करती हैं वह लगभग अदृश्य ही मालूम देता है मुझे। मशीनों ने जहां मनोरंजन के साधनों के रूप में अभूतपूर्व प्रगति की है तो वहीं उसका खामियाज़ा यह भी देखा जा सकता है कि उसने मनुष्य को 'कविता की रचना' से बहुत दूर कर दिया है। पहले के समय की अगर कुछ कहानियाँ सुने अथवा पढ़ें तब पाएंगे कि समूहों के बीच का रिश्ता गर्माहट वाला होता था। एक और महत्वपूर्ण बात जो हम भूलते जा रहे हैं वह 'स्पर्श' है। अब ज़रा ठहर कर सोचिए इन तत्वों के बारे में। यकीन मानिए हम कंगाली की कगार पर हैं।

गौर से देखने पर आपको और मुझको एक ऐसे मकड़ी के जाले जैसी दृश्य प्रणाली दिखेगी जो अब मनुष्य की पहुँच से भी कहीं दूर जा चुकी है। इस प्रणाली में ऐसे रेशे हैं जो एक दूसरे में गुंथे हुए हैं। हाँ, आप इसे जटिल कह सकते हैं। लेकिन यह गुंथन इतनी सरल और स्वाभाविक भी है कि आपकी सोच में आए भी नहीं। उदाहरण के लिए जिस माईक के आगे खड़े होकर लीडरान भाषण देते हैं वहाँ मशीन का सबसे सरलतम इस्तेमाल देखा जा सकता है जो बहुत प्रभावी होता है। भाषण एक तरफ़ा संवाद है या एक निबंध। यह निबंध मनमोहक भी है। यहाँ सुनने वाले के पास अपनी बात रखने का हक़ नहीं है। सोचिए यदि 8 नवंबर को सुनने वालों के पास भी 'रिप्लाय' का विकल्प होता तो 'डमोक्रेसी' का सबसे बड़ा घोटाला नहीं होता। मशीन एक फासला तैयार करने का काम बहुत ही शातिर तरीके से करती हैं। इस बात को भी मत भूलिएगा कि मशीन और विचारधारा का एक मज़बूत याराना है। ज़रूरतों के अलावा विचारधाराओं ने ही मशीनों को बहुत हद तक एक ख़ास मुक़ाम पर पहुंचा दिया है।



आप पहचानिए कि जो हम सभी पर डिजिटल बनने का जबरन दबाव डाला जा रहा है। वास्तव में आपसे इंसान बने रहने के हक़ को छिनने की शुरुआत है। आप सोचिए मत। लोगों से मिलिए मत। घर बैठकर ख़रीदारी कीजिए। जांचिए मत, बस एक कार्ड के आसपास सिमट कर रह जाइए। याद कीजिये सभ्यताओं के पड़ाव। सभ्यताओं में विकास डेबिट या क्रेडिट कार्ड से नहीं जांचा जाता। बल्कि समाज और उसकी गुणवत्ता की नाप यह रही कि आप प्रकृति के साथ कितने महीन तरीके से जुड़े रहे और कितने हद तक मानवता की डोर से बंधे रहे। समाजों ने कितने बेहतर तरीके से संसाधनों का बंटवारा किया। औरतों को उनके अधिकारों के साथ कैसे रहने दिया गया। शक्ति का विकेन्द्रीकरण कितना किया गया... यही कुछ आधार हैं जिससे किसी सभ्यता के विकास को समझा जा सकता है। मशीनों में जीवन की आसानी खोजना एक बेईमानी है। कम से कम मैं तो ऐसा ही मानती हूँ। आप क्या सोचते और मानते हैं, आप ही अपने तई तय करें।   




Wednesday, 21 December 2016

द सिटी लाइट्स मुहब्बत...प्यार ऐसा भी होता है

चार्ली की फिल्में तमाम दुखों के बाद भी जीने की एक वजह के साथ हमारे सामने उपस्थित होती हैं. उनके यहाँ जीवन के कटु सत्य हैं उसके बाद भी जीवन में हास्य और प्रेम के सहारे बने रहने का भाव सुंदरतम है.  

                                         दुनिया की पहली बोलती फिल्म 'द जैज़ सिंगर' का पोस्टर 

फिल्में जब बनना शुरू हुई होंगी तो उनका जादू सिर चढ़कर बोला होगा. ऐसे में जब चैप्लिन ने पर्दे पर ख़ुद को पेश किया तो वह अद्भुत मिलन गज़ब हुआ होगा. 

                                         पहली हिन्दी सवाक् फिल्म 'आलमआरा' का पोस्टर
                                              
मैंने मन से चार्ली चैप्लिन की मशहूर फिल्म 'सिटी लाइट्स' देख ली। गज़ब फिल्म है। हर किसी को एक बार ज़रूर देखनी चाहिए। देखकर ठंडा ठंडा-कूल कूल लगा। फिल्म के अंत के दृश्य में आंखों में भी पानी भी आ गया। जब फिल्म के बारे में और जानकारी इकट्ठा की तब पाया कि आंखों में पानी महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के भी आया था। वे भी इसी अंत के दृश्य में अपनी आंखों का पानी पोंछ रहे थे। ऐसा करते हुए उन्हें खुद चार्ली चैप्लिन ने देखा था।

सिटी लाइट्स को बेमिसाल फिल्मों की सूची में भी जगह दी गई है। इस फिल्म ने उस समय कमाई भी बहुत ज़्यादा की थी। 'द जैज़ सिंगर' पहली अंग्रेज़ी बोलती हुई फिल्म थी। हमारे यहाँ यानि हिन्दी में यही जगह 1931 में आई फिल्म 'आलम आरा' को प्राप्त है। दोनों फिल्मों के बारे में आगे कभी जानकारी दूँगी। फ़िलहाल अभी विषय कुछ और है। ऐसा मैंने पढ़ा है कि सिटी लाइट्स' का 'सेंट्रल आइडिया' चेतना का अस्थाई होना है। आप फिल्म देखिये। ऐसा हो सकता है। आप भी सहमत होंगे। पर मुझे इस फिल्म के उस अंत के दृश्य ने ही चैन नहीं लेने दिया जिसमें मुहब्बत का चेहरा मौजूद था। मुझे सच में नहीं मालूम कि आखिर प्यार, इश्क़, प्रेम, लव, मुहब्बत किसे कहते हैं! मेरे लिए अजनबी शब्द हैं क्योंकि मैंने इनके अंदर मौजूद अहसास को नहीं जीया। पर जब इस फिल्म को देखा तो मूक अभिनय से ही जान लिया कि प्यार क्या होता है!


                                                    ट्रैम्प की लड़की से पहली मुलाक़ात का दृश्य

जब चार्ली चैप्लिन यह फिल्म  बना रहे थे तब सवाक् (वाणी सहित) फिल्में बनने का दौर शुरू हो गया था और निर्वाक् यानि मूक फिल्मों की तरफ लोगों का रूझान कम होना शुरू हो गया था। इसलिए चार्ली चैप्लिन के लिए यह एक चुनौती थी कि मूक फिल्में आखिरकार क्यों अलग और उम्दा होती है, साबित किया जाये। उन्होंने इसे बनाने और लिखने में लगभग ढाई बरस का समय लिया था। इसी फिल्म में पहली बार उन्होंने ध्वनि का इस्तेमाल भी किया था। यह फिल्म सन् 1931 में आई थी। जब अमरीका में महामंदी ने दस्तक भी दे दी थी। इसी हालात में ट्रैम्प आता है और छा जाता है। फिल्म का एक एक दृश्य करोड़ का है। इससे से भी अनमोल चार्ली चैप्लिन के चेहरे के भाव।

फिल्म की कहानी में आवारा ट्रैम्प और न देख पाने वाली एक फूल बेचने वाली लड़की की कहानी है। एक और अमीर चरित्र है जिसके पास पैसा, घर और नौकर चाकर सब कुछ हैं। जब यह अमीर आदमी नशे में डूबा हुआ आत्महत्या करने जा रहा होता है तब ट्रैम्प उसे बचाता है। इस काम से खुश होकर एक आवारा को अमीर व्यक्ति दोस्त बनाकर अपने घर लेकर जाता है और उसकी खूब सेवा करता है। पर जैसे ही उसे होश आता है वह अपने नौकरों से उसे धक्केमार कर बाहर फिकवाने से भी परहेज़ नहीं करता। यही सिलसिला चलता है फिल्म में। ट्रैम्प की मुलाक़ात उस न देख सकने वाली लड़की से होती है और वह उसे धीरे धीरे पसंद करने लगता है। लड़की को यह ग़लतफ़हमी होती है कि ट्रैम्प अमीर है। वह अपने दोस्त से मिले पैसों से लड़की की मदद करता है। इतने में पुलिस ट्रैम्प को लूटमार का आरोपी समझकर जेल में बंद कर देती है। दूसरी तरफ लड़की ने ट्रैम्प के रुपयों की मदद से आँखें ठीक करवा कर एक फूल की बड़ी दुकान खोल ली है। कई सालों बाद जब ट्रैम्प जेल से बाहर आता है तब उसकी दशा पहले से भी अधिक खराब है। लड़की उसे जब फूल देती है तब उसका हाथ पकड़ लेती है। छूने के अहसास से वह उसे पहचान लेती है। फिल्म इसी दृश्य पर खत्म होती है।


                                                    सिटी लाइट्स फिल्म का अंत का दृश्य

इस फिल्म में लड़की भूमिका बेहद मज़बूत है। उसकी आँखें नहीं है फिर भी वह फूल बेचती है। वह किसी पर आश्रित नहीं है। उसे ज़रूर यह ग़लतफ़हमी है कि ट्रैम्प अमीर है पर अंत में वह उसे छूकर पहचान लेती है और साबित करती है कि प्यार में स्तर मायने नहीं रखता। दोनों किरदारों की तरफ से प्रेम के महान होने का बहाव दिखता है। बिना रंग और चमक दमक की ऐसी मुहब्बत मैंने पहले नहीं देखी और न समझी थी। चार्ली चैप्लिन का मानना था कि मूक सिनेमा अपने आप में एक मुकम्मल सिनेमा है। यहाँ भाषा की दीवार नहीं है। कोई भी, कैसा भी औरत, आदमी, बच्चे, युवा आदि इनसे से जुड़ सकते हैं। शायद यही वजह है कि फिल्म चित्रित इस प्रेम को मैं समझ पाई हूँ। दुनिया की महान भावना शब्दरहित होती है। मुझे यह अब पता चल चुका है। ठीक ऐसे ही अपनी हिन्दी मूक फिल्में भी ऐसी होंगी। मुझे इस बात से इंकार नहीं पर बदकिस्मती से कूल 1288 मूक फिल्मों में से केवल चार फिल्मों के हो फूटेज़्स हमारे पास मौजूद हैं।


आगे जब कभी फिर वापस आऊँगी तब ढेर सारी जानकारी लेकर आने की कोशिश करूंगी। फ़िलहाल तो ग़र मेरी यह पोस्ट पढ़कर आपको भी 'सिटी लाइट्स' देखने की इच्छा उभर आई है तब ज़रूर देखिये और बाँटिए कि फिल्म आपको कैसी लगी। किस बात ने आपको छूआ। यदि आप किसी की मुहब्बत में गिरफ़्तार हैं तब तो यह फिल्म आपको बताएगी कि आप कितने खुशकिस्मत हैं। प्यार के एक अलग रंग से मुलाक़ात करने का मन है तो यह फिल्म आपके लिए ही है।  



Tuesday, 13 December 2016

इनार

 मुझे सर्दियों में भी मीठी प्यास लगती है। जब गले के नीचे पानी जाता है तब कितना सुकून सा मिलता है। पानी से पुराना यारा मानव सभ्यता का है। इसमें किसी को कोई भी शक़ नहीं है। जल ही जीवन है, पंक्ति स्कूल ने ऐसे दिमाग में सटाई (चिपकाई) है कि अभी तक आदर्श पंक्तियों में वही पहली बनी हुई है। इसके बाद एक नन्ही कविता भी याद है। सुनाऊँ?...मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है, हाथ लगाओ डर जाएगी, बाहर निकालो मर जाएगी...इस डर से मैंने जब से होश संभाला है मछली खाई ही नहीं। इतनी भयंकर छाप है। मानते हो न स्कूल में कुछ तो पढ़ाई की है मैंने!

'इनार' शब्द सुना होगा आपने। पानी के पुराने स्रोतों में से एक महत्वपूर्ण स्रोत यह भी रहा है। आज महरौली स्थित राजों की बावली या बावड़ी की कुछ तस्वीरें देख कर रही थी तब दिमाग में कुछ चित्र खुद ब खुद खिंचने लगे। इसलिए एक पोस्ट लिखने का खयाल आ गया। गाँव में आज भी कुएं को इनार कहकर पुकारा जाता है। पर हैंडपंप के चलन में आ जाने से अब कुएं, कहानियों का या कही-सुनी का हिस्सा बन रहे हैं।

                                                           न तेरा न मेरा -हम सबका


एक समय था जब इनका बहुत रुआब हुआ करता था। (आज भी होगा-जरूर) ये किसी भी ग्राम की लाइफलाईन होते थे। उत्तर प्रदेश के किसी गाँव में एक दफ़ा जाना हुआ था। तब वहाँ के लोगों ने मुझे कुएं-खुदाई की अद्भुत प्रक्रिया बताई थी। एक बुजुर्ग महिला थीं। वह काफी उम्दा स्टॉरी-टेलर थीं। उनके मुंह से सुनकर मजा आया। उन्होंने बताया कि जब वे बेहद छोटी थीं तब उन्हें कुछ कुओं की खुदाई की याद है। उनके मुताबिक इनार खोदने में किसी भी तरह की व्यापार की बू नहीं थी। कोई नफा या नुक्सान की चिंता नहीं थी। सबसे बड़ी बात कि कुओं की खुदाई में गाँव के सभी लोग शामिल होते थे। ऐसा तो मुमकिन नहीं होता था कि एक या दो रोज़ में कुआ खुद कर तैयार हो जाये। यह मेहनत का काम था।

जहां कुंआ खोदना होता था उस ज़मीन को पहले तय किया जाता था। यदि किसी का निजी कुंआ होता था तो उसी व्यक्ति के नाम से ही कुएं को पहचान दी जाती थी। लेकिन जब कुंआ पूरे समुदाय के लिए खोदने की बात होती तब इस मामले में ज़मीन को ऐसे तय किया जाता कि उसमें किसी एक का हक़ न हो। इसके अलावा कुएँ के लिए अपनी ज़मीन देना भी एक महान कार्य समझा जाता था।

कुएं की खुदाई के लिए गाँव के सभी पुरूष लोग अपना श्रम देते थे। मुझे उन्होने बताया कि हर घर की बारी आती थी। मान लीजिये एक दिन एक परिवार के एक सदस्य की बारी आती तो दूसरे दिन दूसरे परिवार के सदस्य की। इस तरह के श्रम के लिए कोई मजदूरी नहीं थी। क्योंकि फल तो कुएं का पानी था। एक बात इसमें साफ थी कि इस काम में पूरी कम्यूनिटी का मिला-जुला श्रम लगता था। इसलिए एक सामुदायिक भावना दिखाई देती थी। जब तक काम चलता उसके आसपास ही बच्चों का बड़ा जमावड़ा लगा रहता। वे भी कुछ छोटे-मोटे काम में हाथ बंटा देते जो बाल श्रम नहीं था।



कुएं की अंतिम दिनों की खुदाई में कई बातों का खास खयाल रखा जाता था। वह यह कि उसकी तलहटी पर लकड़ी के चाक की सेटिंग करने के लिए और उसकी अंदरूनी मजबूती को बनाने के लिए हुनरमंद लोगों को ही भेजा जाता। यह हर किसी की बात नहीं थी। किसी को गहराई में जाने से डर लगता तो उसे नहीं जाने दिया जाता। बच्चों को थोड़ा दूर रखते बाद के दिनों में कि कोई घटना न हो। इसके अलावा इस बात पर ध्यान लगाया जाता कि उसके तल से जुड़े काम में वे लोग रहें जो पानी में थोड़ा अधिक देर तक सांस ले सके। मिट्टी फेंकने के काम को 'मानव जंजीर' बना कर पूरा किया जाता।

जब कुएं का काम लगभग खत्म हो जाता या वह पूरा तैयार हो जाता तब पूरे गाँव के घरों में से दालें, चावल, आटा और तमाम तरह की सब्जियों को इकट्ठा कर कुएं के पास पकाया जाता और भोज चलता। इस काम में महिलाओं की भागीदारी की जरूरत नहीं थी सिवाय भोज खाने के। एक तर्क उन्होने यह भी दिया कि महिलाओं के पास तो वैसे ही बहुत सा घरेलू काम होता था सो यहाँ पुरूष ही खुद से मिलकर भोज तैयार करते थे। पूजा पाठ में किसी भी पंडित की भी जरूरत नहीं होती थी। ईश्वर के नाम का टीका लगाया और भोज बिठा दिया।

लेकिन अब कुएं का चलन हट रहा है। कई जगह पूरी तरह से जा चुका है। उसके पीछे की अपनी वजहें भी हैं। मेरी दिलचस्पी उसमें नहीं थी। सो मैंने कहा मेरे लिए यही काफी है। मेरे लिए इस तरह की कथाएँ एक अद्भुत चित्रकथा हैं। रोचक इसलिए कि जिस कम्यूनिटी की आज बात की जाती है समुदाय का 'सेल्फ एक्शन' गायब है। पहली बात तो आज समुदाय विकास के काम के लिए कॉलेजों तक में एक अलग से पाठ्यक्रम चल रहे हैं। शायद ये सब कार्यक्रम किसी समुदाय की सेहत के लिए अच्छे होंगे। ऐसा हो सकता है। लेकिन इन्हें देखने पर लगता है कि समुदाय की खुद की कोई क्षमता नहीं, कोई दिमाग नहीं, कोई सहयोग नहीं। एक ऐसे समुदाय का चित्र दिखता है जो अपनी हर बात के लिए सरकार की तरफ देख रहा है। समुदाय की इस तरह की शक्ल और दशा के लिए निश्चित रूप से कुछ कारक हैं। पकड़ के जांच करनी चाहिए।



फिलहाल ब्लेम-गेम  नहीं करना। 'इनार' से जुड़ी बहुत सी बातें हैं जो गाँव और क़स्बों में मिल जाती हैं। नायक और नायिका फ्री इन कहानियों में तिलिस्म का भी कोई काम नहीं। एक सिम्पल कथा है। सुनेंगे तो आसपास और बेहतर मन में उतरता जाएगा। आज जहां कुएं होंगे वहाँ जरूर दूसरी क़िस्म की कहानियाँ चल रही होंगी। आप खोज चुके हैं तो अच्छा है। नहीं खोज पाये हैं तब तो पक्का आपको भी कहानी खोजी बनना चाहिए। डिस्कवरी चैनल वाले हमारे माल-मटीरियल से खेल जाते हैं और हम दर्शक बनकर देखते रहते हैं। अब कहीं जाना हुआ तो ज़्यादा क़िस्से बटोरकर लाऊँगी।   


कुएं से जुड़ा एक तजुर्बा मेरी दादी बताया करती थीं। यक़ीन मानिए उसमें पनघट की गोरी टाइप का कोई भी फेंसीपन नहीं था। बताती थीं-

"सर्दी में कुएं से पानी लाना मेरे लिए बहुत मुश्किल कामों में से एक था। सुबह सुबह गाँव की पतोह उठे तो कोई कमबख़्त देख न ले। कोई टोक न दें। इसलिए अंधेरे में ही जाती थी। एक रोज़ नींद में ही भोरे भोरे मटकिया उठा कर चल दी। टॉर्च भी साथ ही रख ली। जब वहाँ पहुंची तो न जाने पैर से क्या सरकता हुआ गुज़र गया। मुझे लगा कोई खर-पतवार होगा। लेकिन थोड़ी देर बाद फिर कुछ लगा। टॉर्च से देखा तो काला कलमुंहा साँप था। मटकी वहीं झटकी और भाग आई। फिर तो कान पकड़ लिए। हमने कहा हम नहीं जाएंगे। नल लगवाओ आँगन में।"

हम तो खूब हँसते थे इस किस्से पर। अब पास में किस्सा ही है बस! 

Monday, 12 December 2016

दिल पे मत ले यार

पता है, मुझे बहुत अजीब लग रहा है। कल FB पर किसी लड़के की एक पोस्ट पढ़ी। उसने बहुत उम्दा बात लिखी थी। काफी खोजबीन करके। पढ़कर। कश्मीर और देशभक्ति से जुड़ी हुई। मुझे पोस्ट बेहद अच्छी लगी पर मैंने 'like' नहीं की। कारण था। वजह यह थी कि उसमें एक बेहद भयानक गाली थी। हद है साहब, आप अपनी बातों पर वज़न तब तक नहीं रख पाते जब तक आप अपने 'मेल-मन' को तुष्ट करने के लिए औरत से जुड़ी तीखी गाली बोल या न लिख लें। फेसबुक का ज़माना है तो लिखने को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

गालियों से मुझे फिक्र नहीं लेकिन बहुत सी गालियों को सुनकर और पढ़कर फिक्र हो जाती है। 'मेल खून' तब तक महान नहीं हो पाता जब तक 6 या 7 गालियां औरतों और उनके अंगों से जोड़कर न थूक दे। मैंने हर व्यक्ति में इस आदत को करीब से देखा है। बाहर जाओ तब सफ़ेद कॉलर वाले जो नफ़ासत की पढ़ाई कर चुके होते हैं वे भी बेहद लिजलिजी मानसिकता रखते हैं और वक़्त वक़्त पर गाली देकर हल्के हो ही जाते हैं। एक पल यह समझे बिना कि वे भी आखिरकार किसी न किसी तरह किसी स्त्री चरित्र से जुड़े हुए हैं। क्या वे यह भूल सकते हैं कि वे कहाँ से पैदाइश लेते हैं?

                                                    जिराडो सेकोटो- अफ्रीकी कला

ऐसा नहीं है कि यह बुरी लत सिर्फ कुछ तरह के पुरूषों की जागीर है बल्कि हर किसी में क्रोध या उत्तेजना के क्षण में वे अपने कलर में आ जाते हैं। हर घर में यह बीमारी मौजूद है। मैं कई बार अपनों की भी खबर ले लेती हूँ। बल्कि मेरे लिए यह पैमाना मायने रखता है कि जिस माहौल में बातचीत हो रही है उसकी ज़ुबान कैसी है। एक स्वस्थ बातचीत में उन शब्दों को जगह मिलनी चाहिए जिनमें किसी को भी ठेस न पहुंचे। घर में हम बेहद अनौपचारिक रहते हैं। उनमें हल्की फुली बातें होती हैं। अक्सर मैंने  गौर किया है कि जैसे हम घर में पलते हैं, बड़े होते हैं, परवरिश होती है ठीक वैसे भी हमारे आपसी संवादों की भी परवरिश होती है। शब्दों में गरिमा रहती है और उससे से भी ज्यादा मुहब्बत, करूणा और थोड़ा बहुत गुस्सा पाया जाता है। वह माहौल ऐसा है जहां पर एक बातचीत स्थापित करने लायक स्तर बना रहता है। घरेलू बातचीत में कुछ आदर्श मानक तय किए जाते हैं और आशा की जाती है कि सब उस मानक का पालन करें।

लेकिन ऐसा भी होता है किसी परिवार में आपसी दिक्कतें हद तक बढ़ जाती हैं और रंजिशों के चलते संवादों में भी हिंसा आ जाती है। कई बार परिवारों में घरेलू हिंसा की मात्रा ज़्यादा होती है और बात गालियों से आगे बढ़कर हाथापाई तक पहुँच जाती है। उदाहरण के लिए शादी जैसे अवसरों पर झगड़े होना सुनाई पड़ ही जाता है। गौर करने वाली बात यह है कि मैं भाषाओं पर इल्ज़ाम नहीं लगा रही बल्कि भाषा के अंतर्गत रहने वाले उन शब्दों को ध्यान में लाने की कोशिश कर रही जिनसे किसी की भी गरिमा कम होती है या अथवा ठेस पहुँचती है। आप खुद अपने आसपास रहने वाले लोगों को अब्ज़र्व कर सकते हैं।



आप मुझसे सवाल कर सकते हैं कि क्या सिर्फ पुरुष ही गाली देते हैं, ऐसा तो कई औरतें भी करती हैं, उसका क्या? जी। बात बिलकुल ठीक है। मैंने भी कई महिलाओं को गालियों का इस्तेमाल करते हुए देखा और सुना है। लेकिन इस बात से यह साफ है कि गाली नई नई कोई कला नहीं है जो आज हमें आविष्कार में मिली है, बल्कि यह इंसानी बर्ताव का लंबे समय से हिस्सा रही है। आसपड़ोस में जब झगड़े होते हैं तब दोनों पक्षों में धमाकेदार गाली देने के दृश्य चलते हैं।

मेरे यहाँ एक महिला रहती है। उसके 4 छोटे छोटे बच्चे हैं। उसका पति दिन में काम पर ही होता है और देर रात तक आता है। कुछ वक़्त पहले उसकी ज़मीन पर कुछ लोग उससे बिना पूछे अपने वाहन खड़े करने लगे। जब उसने अपना ऐतराज दर्ज़ किया तब वे लोग उससे लड़ने के लिए हाजिर हो गए। इस बात पर उसने ऐसी ऐसी गालियां दीं जिसे सुनकर वे लोग भाग खड़े हुए। इसी तरह उसे अकेली औरत सोचकर जब कोई छेड़ता है तब वह अपने तरकश से बस गालियों के तीर ही निकालती है। यह उसके लिए बचाव करने और हमले के भी काम आती है। मैं फिर भी उसकी गालियों को जायज नहीं ठहरा रही। यदि किसी पुरुष पर नज़र डालें तब आप खुद गौर कीजिएगा कि वह कब इन शब्दों का इस्तेमाल करता है। कुछ लोग सभी तरह के मूड में तो नहीं लेकिन हंसी मज़ाक में भी गालियों का इस्तेमाल करते हैं जिसे दिल पर नहीं लिया जाता। 

पिछले साल 'काशी का अस्सी' फिल्म पर घोर विवाद हुआ और लोगों की भावनाएँ आहत हो गईं क्योंकि फिल्म के ट्रेलर में शिवजी के वेश में एक लड़का गाली देता हुआ दिखा। फिर क्या था, बवाल मचा। ऐसी भी खबरें हैं कि कई FIR दर्ज़ की गईं। इसमें दिलचस्प बात है कि यही FIR किसी भी औरत या औरतों के गुट द्वारा नहीं दायर की गईं। फिर भी आप इस बात पर तो सहमत होंगे कि ईश्वर भले इन शब्दों का इस्तेमाल न करते हों पर क्रोधित तो जरूर होते होंगे। 

गालियों के संदर्भ में एक बात और अजीब है पर उत्तर भारतीय लोग हैरान नहीं होते। (दक्षिण के लोगों का अंदाज़ नहीं) शादी-ब्याह, शगुन, आदि अवसरों पर औरतों द्वारा गाये जाने वाले गीतों में शब्द कम और गालियां अधिक होती हैं। मुझे एक बार ऐसी ही गालियां पड़ी थीं।  तब मेरा गुस्से के मारे दिमाग खराब था- 'यह क्या बकवास गा रही हैं आप लोग?' मुझे कहा गया- 'गाँव है। ऐसा ही होता है, ऐसे मौके पर।' लेकिन मेरा दिमाग जैसे कहीं उड़कर बिखर गया था। मैंने इतनी गालियां पहली दफा सुनी या फिर कहूँ मेरा गालियों से एंकाउंटर किया गया। मुझे शादी पर आने का खूब पछतावा हुआ और उसके बाद से मैं किसी भी शादी में शरीक होने से कतराने लगी। लोगों ने मुझे बताया कि यह परंपरा है और इस तरह के गीत वर पक्ष अथवा दुल्हन पक्ष के लोगों को मज़ाक में गाते हुए दिये जाते हैं। ध्यान से सुनो तो इनमें ताना, बेटी के घर छोड़ कर चले जाने का दुख, घरेलू स्थिति भी दिखाई देगी। ख़ैर मेरे पास अभी इस बात में अपनी बात मिलाने की बुद्धि नहीं आई। है।

गालियों के शब्दों या गुच्छों पर ध्यान दें तब मालूम देगा कि पहली नज़र में ये किसी औरत, रिश्ते, और उसके अंगों की तरफ संकेत करती हैं पर इसका दूसरा पहलू सामने वाले को अपनी क्षमता भर ठेस पहुंचाना या फिर बेजोड़ तरीके से शब्दों से वार करना जिसके चलते सुनने वाले को ठेस लगे है। वह बौखला जाये। वह दुखी से ज्यादा हर्ट हो। यहाँ बात उस तरीके के झगड़े या बहस की कर रही हूँ जहां बहुत गंभीरता होती है और नौबत मार-कुटाई तक आ जाती है।



एक मासूम तर्क यह भी है कि हमारी उस क्षमता का विकसित न हो पाना जिसमें हम यह जानते हों कि अपने को कब कब कैसे कैसे अभियाक्त करना चाहिए। मुझे इस बात में वज़न लगता है। वास्तव में हम कितना विकसित हो पाये हैं या फिर हो पाते हैं। हमारे एक्शन को हम खुद नहीं समझ पाते। हमारी दिनचर्या भी तो पालतू है जिसे हमने बड़ी मेहनत से पाला है। क्षमता को मैं किसी भी कला रूप से जोड़ना चाहूंगी। हम कला से कितने परिचित हो पाये हैं यह भी मायने रखता है। इसमें कार्पेंटरी से लेकर चित्रकारी तक शामिल है। हो सकता है मैं बिलकुल गलत हूँ, पर मैंने देखा है जो लोग किसी भी तरह की कलात्मकता से जुडते हैं उनके पास गालियां जैसे स्पेस खाली रहता है।

गालियों की बात चली है तब मुझे रवीश कुमार का चौड़ा चेहरा, जस्टिस काटजू की तोते वाली नाक और दिलीप सी मण्डल की आत्मविश्वास से भरी तीन छवियाँ तुरंत याद आ जाती हैं। मैंने कई बार रवीश कुमार को Prime Time पर तिलमिलाए हुए दिमाग के साथ देखा है। काटजू अलहदा हैं वे FB पर ब्लॉक कर देते हैं और दिलीप मण्डल FB पर एक बार पोस्ट कर देने के बाद दुबारा उस तरफ देखते तक नहीं। पर यकीन मानिए, उन्हें गाली देने वालों का पूरा समुदाय है जो काफिले की तरह उनकी पोस्ट पर आता है और गालियां बकते हुए गुज़रता है। मैंने एक बार उनकी किसी पोस्ट के कमेंट्स पढ़ें तब मन खून की उल्टी करने को हुआ जा रहा था। कई बार उनकी पोस्ट किसी नेता या पार्टी विशेष की आलोचना भी नहीं होती पर फिर भी लोग उनको झोला भर-भर गाली देत हैं। लगता है कि गाली देने वालों के दिमाग की सेटिंग की गई हो कि जैसे ही मण्डल जी पोस्ट डालें आप टूट पड़ो। कभी मिल पाई तो उनसे उस संजीवनी का पूछूंगी कि कहाँ से वह उगाते हैं और लाते हैं। बेहद भयानक गालियों के बाद भी लिखना उनका जारी है। मुझे नहीं लगता कि उनकी पोस्ट्स खराब होती हैं। आलोचना वह अच्छी करते हैं।

मण्डल जी के संदर्भ में यह बात भी है कि उन्हें गाली देने वाले लोग अधिकतर जातिवादी होते हैं। मसलन जिन्हें मनु स्मृति पर कट्टर विश्वास है। मुझे याद है मण्डल जी ने एक पोस्ट अंबेडकर जी से जुड़ी हुई डाली थी। उस पोस्ट पर अंबेडकर के खिलाफ बेहद आपत्तिजनक कमेंट्स थे। इसी में एक लहर देशभक्ति का चूना लगाने वालों की भी बहुत है। देशभक्ति और देशद्रोही के बीच के फर्क को वे लोग गालियों से साफ बांटते हैं। लेकिन मुद्दा वही है कि ये आधुनिक गालियां देने वाले सीधे सीधे भारत माँ से भी खुद को जोड़ते हैं और और दूसरों की माँ और बहन को शब्दों में बेज्जत कर देते हैं।        

अब बात आई गालियों के संदर्भ में लिंग पर हमले की। औरतों को गाली देना जिनमें उनके चरित्र को जोड़ा जाता है वे शब्द नुकीले तीर के समान होते हैं। मुझे एक पोस्ट और याद आ रही है जो निर्भया के माता-पिता द्वारा पीएम मोदी जी से गुनहगारों को फांसी देने की मांग को लेकर थी। जिस घटना से देश हिल गया और शर्मसार हुआ था, मालूम चला कि उस लड़की के लिए कोई हमदर्दी नहीं थी। लोगों ने उस पोस्ट के नीचे खोज खोज कर दिल दहला देने वाली गालियां उसके पिता को दी थीं। और तो और बहुत से अपशब्द निर्भया के लिए भी थे। तब मुझे यह यकीन हुआ कि हमारे समाज में एक धड़ा निश्चित ही मानसिक विकलांग है। यह धड़ा ठीक से सोच भी नहीं पाता। तीसरे लिंग को नहीं भूल सकती। जब दिल्ली शहर कि सड़कों की लाल बत्तियों पर बस रूकती है तब इस थर्ड जेंडर के लोग बसों में कुछ मांगने के लिए घुस आते हैं। ऐसा ही एक दिन था, दो लोग आए। पूरी बस में मांगा। जो मिला लेकर चले गए। उनके जाने के बाद बस में मौजूद पुरूषों ने जी भर भर कर गालियां दीं, बिना यह देखे कि बस में बहुत सी मुसाफिर महिलाएं हैं। हाँ, उनमें कुछ ऐसे भी लोग थे जो खूब रस ले रहे थे।


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मैं इस पोस्ट को दो दिन से लिख रही हूँ और अभी भी पूरे पक्ष नहीं रख पाई हूँ। कुछ लोगों से बातें कीं तो कुछ बिन्दु समझ पाई। उन्हें भी डाला है। शुक्रिया के साथ। अभी बहुत कुछ बाकी है जो कभी और जानकारी और अनुभवों से बटोर कर लिखूंगी। फिर भी मैं हमेशा उस स्पेस और अंतराल को बेहतर मानती हूँ जिनमें गालियां और हिंसक संवाद न हो। खासतौर पर महिलाओं और बच्चों के लिए ऐसे स्पेस की कामना करती हूँ जहां वे बेहतर सम्प्रेषण कर सकें। अगर किसी शब्द से किसी की भी गरिमा को ठेस पहुँचती हो, मैं वहाँ रहना ठीक नहीं समझती। खराब शब्द संवाद को नष्ट करते हैं या उनकी उम्र को कम करते हैं।

(दिमाग में बहुत से और खयाल दस्तक दे रहे हैं। एक मुकम्मल पोस्ट बाकी है अभी।)


Friday, 9 December 2016

काला

'सत्यम शिवम सुंदरम' फिल्म का कर्णप्रिय गीत याद है? ...'यशोमती मैया से बोले नन्द लाला राधा क्यों गोरी मैं क्यों काला...बोली मुसकाती मैया ललन को बताया...' मालूम होता है कि कृष्ण को भी अपने रंग से इंफीरियरटी  हो गई हो। अफसोस कि उनके समय में गोरा बनाने वाली क्रीम नहीं थी,  वरना उनको कोई तकलीफ नहीं होती।

हर दौर के अपने शब्द होते हैं। हमारे दौर के शब्दों को मैं 'काली' डायरी में लिखकर नोट कर रही हूँ। यह जरूरी है। मैं मरने के बाद अपना ब्लॉग और वो डायरी छोड़ कर जाना चाहती हूँ। संपत्ति, सोना और रुपया छोड़कर जाने की हैसियत नहीं है। शब्द, घटनायें, शख्सियतें और कहानियाँ तो अपनी छाप समय पर छोड़ कर जाती ही हैं पर मैं कुछ दिनों से लगातार एक रंग को सोच रही हूँ। जी हाँ, जानती हूँ आप कहेंगे भला रंग भी सोचने के टॉपिक होते हैं? क्यों नहीं ! मेरे लिए तो हो ही सकते हैं। 



नोटबंदी के साथ या उसके पीछे एक शब्द चिपका हुआ है जिसका निरंतर इस्तेमाल हो रहा है। मैंने भी खुद कई बार उस शब्द का प्रयोग किया। मुझे एक दिन खयाल आया कि उस रंग का इस्तेमाल अपनी प्रतिक्रिया दिखाने के लिए करना ठीक नहीं है। वह है 'काला धन' में चिपका हुआ शब्द 'काला'। हालांकि शुद्ध हिन्दी में काले रंग को 'श्याम' कहने की एक सांस्कृतिक परंपरा है जो सीधे कृष्ण से जुड़ती है। मुझे इसमें कोई बुराई नहीं दिखाई देती। रोज़मर्रा में श्याम कोई इस्तेमाल नहीं करता। सभी काला शब्द को इस्तेमाल करते हैं।

काले रंग को लेकर 'इर्द गिर्द' एक व्यवस्थित और जमी हुई सोच समझ आती है। व्यवहार में काले रंग के संदर्भ में सेट पैटर्न दिखाई दे जाएंगे। उदाहरण के लिए भारतीय (विशेष रूप से उत्तर) मानसिकता में लड़की का गोरा रंग अच्छा माना जाता है। ऐसा हजारों साल से है। आज के समय में यदि मुझपर यक़ीन न हो तो अखबारों में शादी-ब्याह के विज्ञापनों में लड़की के संदर्भ में 'गोरा रंग' की मांग पर नज़र डाल लें। दक्षिण भारत के बारे में मेरे पास अनुभव नहीं हैं। जो कभी मिला तो काला रंग पार्ट 2 से एक और ब्लॉग एंट्री करूंगी। लेकिन आजकल टीवी पर आने वाली दक्षिण भारत की फिल्मों में कुछ खास बात है जो आप लोगों ने भी गौर की होगी। फिल्म के नायक तो गहरे रंग में दिखाई दे जाते हैं पर नायिकाओं का रंग सफ़ेद ही दिखता है। जो मैं गलत हूँ तो 'बाहुबली' एक बार फिर से देख लें।



हिन्दी फिल्मों ने तो जमकर इस पैटर्न को आगे फैलाया ही नहीं बल्कि लक्ष्मण रेखा की तरह सेट कर डाला है। जो मुझ पर यक़ीन न हो तो विभिन्न नायिकाओं और नायकों को गोरा बनाने वाली क्रीम का विज्ञापन करते हुए देख लें। क्या आपको वो गाना याद नहीं- 'गोरे गोरे मुखड़े पर काला-काला चश्मा....याद आ गया न! ऐसे ही बहुत से बॉलीवुडिया गीत हैं जिनमें साफ तौर पर गोरे शब्द को लड़की से चिपका दिया गया। आजकल तो मानो एक अनिवार्यता बना दी गई है। जिस रफ्तार से 'फेयर एंड लवली' ब्रांड बिक रहा है उससे तो यही लगता है कि एक रोज़ सभी भारतीय सफ़ेद हो जाएंगे। मुझे छोड़कर और उन्हें भी जो इस ब्रांड का इस्तेमाल नहीं करते।   

ख़ैर, आगे अपनी बात जारी रखते हैं। जिसे हम काली कमाई कहकर पुकार रहे हैं और गला खराब कर रहे हैं वास्तव में वह कमाई तो है पर काली नहीं बल्कि अवैध या गैर कानूनी आय या फिर कमाई है। कई दफा आपने एक शब्दावली सुनी होगी- 'आय से अधिक संपत्ति।'  वास्तव में यही सही शब्दावली है। लेकिन हमने काले शब्द को जबरन इस्तेमाल करना शुरू कर दिया क्योंकि हमारे देश के पॉपुलर मंत्री इस शब्द का बिना सोचे समझे इस्तेमाल करते हैं। असल में उन लोगों द्वारा अवैधानिक आय कहकर पुकारा जाना चाहिए।  इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि हम कितनी अपनी भाषा बोलते हैं और कितनी दूसरों की नक़ल करते हैं। अपनी भाषा से मतलब अपनी मातृभाषा नहीं बल्कि वह भाषा जो हम खुद अपने कहने के लिए रचते हैं।

भाषा आज के दौर में परोसी जाती है। घर में दरवाजे के नीचे से सुबह सुबह 16 से 17 पन्नों वाला अखबार हो या फिर टीवी में चलते कार्यक्रम, दफ्तर की धूल खाती फाइले हों या फिर सब्जी तरकारी खरीदने तक की प्रक्रिया में एक ज़ुबान चुपके से बैठी होती है। कहीं फुर्सत नहीं है दिमाग को खुद की भाषा के वाक्य रचने की। जो ज़्यादा देखा वही कई बार जीभ से संचालित होने लगता है। बनाई जा रही व्यस्त दिनचर्या सोचने की प्रक्रिया को रोक रही है और हम दिन पर दिन नक़ली होते जा रहे हैं।



अब आते हैं काले रंग पर। सभी रंग को सोखने के बाद ही काला रंग पनपता है वह भी बिना रोशनी के। काला रंग विपरीत है सफ़ेद रंग का। ऐसा माना जाता है और स्कूलों में पढ़ाया भी यही जाता है। लेकिन आप सोचिए कि क्या यह सही है? मुझे नहीं लगता। वास्तव में यह रंग बाकी रंगों की तरह ही एक रंग है। बाज़ार और महान संस्कृति के पोषकों ने इसे एक हद तक नकारात्मक चोला पहनाया है। इसे अंधेरे से जोड़ा जाता है। अपशगुन का तमगा पहनाया जाता है। सामाजिक धब्बा कहा जाता है। इतना ही नहीं काली शक्ति जैसे शब्द से उन नकारात्मक रूहानी ताक़तों से जोड़ा जाता है जो हमारी दुनिया से परे हैं। अमावस की रात का ज़िक्र भी लगभग कुछ ऐसा ही है। रहस्य का रंग भी यही है। मैंने कई लोगों को देखा है कि वे पैरों में काला धागा बांधकर रखते हैं या फिर गले में काली माला पहनते हैं कि किसी की नज़र नहीं लगे। नज़र क्या है-काली और बचाव भी काले रंग के धागे से किया जा रहा है।

बहुत हद तक इस रंग के आसपास घूमती यह बिल्कुल नयी विचारधारा नहीं है। लंबे समय से इसकी बुनाई होती रही है। यही वजह कि अब हमारे दिमाग में काले रंग से जुड़ी छवियाँ अलग थलग हैं। धर्म से लिपे-पुते इस देश में हर रंग का अपना मजहब है। हिन्दू या मुस्लिम, सभी के अपने खास रंग हैं और उनका महत्व है। लेकिन ऊपरी नज़र डालने पर काला रंग फिर से बिना कुर्सी के रह जाता है। अब कुछ परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। इस रंग का अपना एक मुकाम विकसित हो चुका है। अपने पहनावे में लोग इस रंग को जगह तो ही रहे हैं साथ ही साथ इस रंग से जुड़े झूठी कहानियों से बाहर आ रहे हैं। संजय लीला भंसाली द्वारा बनाई गई फिल्म 'ब्लैक' इसका एक अच्छा उदाहरण है। काले रंग की परिभाषा वहाँ बेहतरीन ढंग से दिखाई देती है। एक ताक़त की तरह। ऐसे ही बहुत से उदाहरण होंगे आप लोगों के पास। आप उनके बारे में सोचिए। 

फिर भी राजनीतिक महान नोटबंदी की घटना ने फिर से इस रंग के आगे एक गतिरोधक बना दिया है। हर ज़ुबान पर काला धन या काली कमाई जैसा शब्द फेविकोल से चिपका दिया है। इसने अंबुजा सीमेंट सी मजबूती दिखाई दे रही है। पर आप तो समझदार हैं। वास्तव में यह रंग उतना अनलकी नहीं जितना सोचा जाता है।




Wednesday, 7 December 2016

पैराशूट

आजकल टीवी पर आने वाला एक विज्ञापन मेरा ध्यान खींच लेता है। बहुत अच्छा है। आप लोगों ने भी देखा होगा और ध्यान भी दिया होगा। विज्ञापन का नाम 'अगर परवाह है, तो दुबारा पुछो' है। यह सच है। आज कल की ज़िंदगी की शैली उतनी सरल नहीं है और हर खोपड़ी के भेजे में एक तूफान सा ही गुज़र रहा है। मैंने स्कूल के बच्चों तक में तनाव जैसी बीमारी देखी है। लेकिन इसमें कोई हैरानी नहीं कि बच्चों में भी तनाव के लक्षण दिख रहे हैं। हम सब खुद इस तरह की ज़िंदगी के पाठ्यक्रम के जिम्मेदार हैं। अगर कोई कहता है कि उसके पास कोई टेंशन नहीं तो यह सौ प्रतिशत सच है कि वह झूठ बोल रही या बोल रहा है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई इस तनाव से बच सका हो।

जब मैं छोटी थी तब पढ़ाई की बहुत चिंता हो जाती थी। पेपर गलत हो गया तो, अच्छे नंबर नहीं आए तो, फ़ेल हो गई तो... और भी बहुत कुछ। मुझे बहुत टेंशन।...उफ़्फ़! उस समय एक अजीब घटना घटा करती थी। हमारे इलाक़े में बहुत से पैराशूट उड़ते हुए गुजरते थे। न जाने कहाँ से आते और कहाँ चले जाते। उनमें कोई बैठा हुआ नज़र नहीं आता था। मैं खुद एक लाल पैराशूट की गवाह भी रही हूँ। तब आँखें खराब नहीं थीं सो बहुत गहराई से पैराशूट को देखा था। मेरे लिए उसे देखना अद्भुत अनुभव था। हमारे पड़ोस में एक खुशी की लहर उठ जाती थी। जो घर में होता उसको आवाज़ लगा-लगाकर बुलाया जाता कि आसमान में फिर एक गुबारा आया है, इससे पहले चला जाये देख लो!



ऐसी ही एक शाम जब मैं अपने पेपर की तैयारी में मर रही थी तब लाल रंग का बड़ा पैराशूट आया। बस फिर क्या था! सभी की आवाजों में मेरा घरेलू नाम था। पर मैं हिली नहीं। वही डर था कि टाइम नहीं है। इतने में माँ आईं और विद्यारानी को झटकते हुए बोलीं- 'देख बाहर क्या हो रहा है! नहीं गई तो सब छूट जाएगा।'  मैंने वह मौका गंवा दिया। उसके बाद से शायद कोई पैराशूट नहीं आया। हाँ, पर सड़े और बेहूदा एग्ज़ाम्स हर बार आए। हर बार अच्छे नंबर ही आए, लेकिन कुछ फायदा कभी नहीं मिला। पास, फ़ेल या टॉप आना बहुत झूठा मज़ाक है जो सेहत के लिए अच्छा नहीं। इल्म ही सब कुछ है।

इस ऊपर की घटना के बाद मुझे एक सपना आया। पैराशूट का रोमांच इतना अधिक मुझमें बस गया कि दिमाग में खयाल आए। वही सपना भी बन गया। पैराशूट में एक बार बैठने की तमन्ना। आपको याद होगा एक हिन्दी की रूमानी फिल्म है-'रूल्स-प्यार का सुपरहिट फॉर्मूला' जिसमें एक पैराशूट का अंत में दृश्य है। ऐसे ही फिल्म 'द ममी' में भी अजीबो-गरीब पैराशूट का फिल्मांकन है। आप भी सोचिए और भी कहीं आपने देखे होंगे। जैसे ही दिमाग में मैं उड़ने के खयाल लाती हूँ वैसे ही एक हल्कापन महसूस होता है। बिल्कुल ताज़ा हो जाती हूँ। ऐसा लगता है कि आसमान में उड़ना एक बेहतरीन काम है। ऊपर से दुनिया का नज़ारा देखना हसीन होता होगा। ऐसे में कोई महान तनाव भी मेरे आसपास नहीं आता। जो भी नकारात्मकता होती है काफूर हो जाती है। इस बड़े गुब्बारे की दिमाग में छवि आने मात्र से ही मुझे सबकुछ अच्छा दिखने लगता है। मेरे लिए पैराशूट एक हसीन प्रतीक में तब्दील हो चुका है।



(नोट-हवाई जहाज से नीचे देखना उतना बेहतरीन अनुभव नहीं लगता मुझे)
  
आज जब बड़े हुए हैं तो दूसरी तरह की चिंताएँ रहती हैं। तनाव और चिंता में मुझे बहुत फ़र्क नहीं समझ आता। अपने लोगों में या बाहर के लोगों में तनाव की एक समान कृपा है। जब कई लोग कहते हैं कि वे चिंता नहीं लेते तब मुझे वे अजूबे से कम नहीं लगते। सही बात है इस बड़ी सी दुनिया में हम सिकुड़े हुए लोगों में से यदि कोई चिंता नहीं करता तो हैरत हो ही जाती है। एक समय ऐसा भी आया था कि मुझे बेहद तनाव था। तब इत्तिफाक़ से मुझे एक सूफी मिले जिन्होंने बहुत हद तक तनाव से बाहर निकाला और दुनिया को देखने का नज़रिया दिया।

मुझे इस बात पर शिद्दत से यकीन है कि अपने चारों तरफ कुछ बेहतरीन और सुलझे हुए लोगों के साथ को रखना चाहिए जो आपके बोलने के अंदाज़ से ही पकड़ लें कि आप ठीक नहीं हो। जानती हूँ यह कला तो सिर्फ माँ को आती है। लेकिन हो सकता है कुछ और लोगों को भी आती हो। कई बार कुछ तकलीफ़ें इतनी बड़ी होती हैं कि सारा का सारा 'आपा' हाय तौबा में बदल जाता है। ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है। कोई बुजुर्ग या फिर नौजवान के साथ भी। इसलिए कम से कम अपने आसपास को संवाद कर के आप हल्का कर सकते हैं। यकीन मानिए आपके कुछ नरम शब्द दूसरों को दवाई से ज़्यादा फायदा पहुंचा सकते हैं।

                                                     बॉब ओर्सीलो का खींचा हुआ फोटो
                                      
लेकिन एक दशा ऐसी भी आ सकती है जब आपके आसपास कोई भी न हो। फिर अपने भयंकर तनाव से निपटने के लिए क्या किया जाये, यह सवाल उभर कर आता है। आजकल के चलते फिरते विज्ञान और तकनीक के जमाने में मनोचिकित्सक की मांग बहुत बढ़ गई है। इस तरह के डॉक्टर का सहारा लिया जा सकता है। लेकिन फिर भी अपने अंदर की गुफा में एक रोशनी तो हमेशा होती ही है। क्या आपको नहीं लगता? मैंने हमेशा इसे महसूस किया है। पढ़े लिखे और दिमागदार लोग इसे 'Intuition' कहकर पुकारते हैं। संत महात्मा इसे 'अंतर्बोध' कहते हैं। एक बात बोलूँ? यह आवाज़ हम सभी में है। बचपन में मुझे यही बार बार कहा जाता था -'खुद से पुछो!' उस समय मैं बहुत कन्फ्युज रहती थी कि यह सब क्या बकवास है। पर अब लगता है कि अपने अंदर ही कोई रहता है।

वो दिन गुज़र गए जब यह सब संतों की तपस्या जैसी बात कही जाती थी। वास्तव में मुझे ऐसा लगता है कि हम सभी को वह सकती दी गई जो हमारे अंदर है। कल जयललिता जी का इंटरव्यू देख रही थी। मुझे लगता है सभी को देखना चाहिए। उनकी ज़िंदगी में भी भयानक उतार चढ़ाव आए पर वे आत्महत्या करने नहीं गईं। बल्कि खुद को उससे से भी मजबूत और बेहतर बनाया। सोचिए जिस औरत की बेइज्जती की गई, उसने रोने का विकल्प न अपनाकर अपने काम और दिमाग से एक मजबूती हासिल की। मुझे देखकर अच्छा लगा।

सड़क पर गड्डे आने का कारण हमेशा नगरपालिका का निक्कमापन नहीं होता। कई बार होता यह कि बारिश या अधिक वाहनों की आवाजाही से कुछ गड्डे उभर आते हैं। यह स्वाभाविक है। ठीक इसी तरह हमारा रोज़मर्रा हमेशा सुचारु नहीं चल सकता। कुछ न कुछ ऐसा घटित होगा ही जो तंग कर जाएगा। यह हिस्सा है जीवन का। इसलिए चिंताएँ, अप्रिय घटनाएँ या नकारात्मकताएँ जरूर आएंगी। इन्हें पूरी तरह रोका तो नहीं जा सकता लेकिन अपने एक्शन को समझदारी से अंजाम देने के चलते कम किया जा सकता है। तनाव एक सच्चाई है जिसे मैं पूरी तरह स्वीकार करती हूँ और जूझती भी हूँ।  

तनाव को तोड़ा जा सकता है। इसके कई जरिये हैं, जैसे किताबें। जी हाँ। किताबें वे जरिया हैं जिनसे आप दूसरों की जिंदगी के अनुभव से रूबरू हो सकते हैं। एक किताब के सहारे इतिहास से लेकर भूगोल तक की सैर कर सकते हैं। मुझे बहुत ज़्यादा किताब पढ़ना पसंद नहीं है। बहुत लोगों को नहीं होगा। लेकिन कभी कभी तो इनसे दोस्ती की ही जा सकती है। इसके अलावा जगह में बदलाव भी तनाव के बम को मिनटों में फोड़ देता है। घूमने निकल जाइए। भारत में 29 राज्य हैं। अपना देश क्या कम सुंदर है। एक बार कुछ जगहों का अनुभव लेंगे तब आपको लगेगा कि आप खामखां की बातों में उलझे थे। यकीन मानिए आप भी एक बढ़िया 'स्टोरी टेलर' बन सकते हैं। जो घूमेगा वही तो रचेगा।

एक बात जो मेरे पास रहने वाली एक शख़्स हमेशा कहती हैं- 'आपकी ज़िंदगी से बड़ा कोई नहीं और कुछ भी नहीं!' सच में मुझे इस बात में बेहद दम लगता है। जब नज़रें मिली हैं तो अपने आसपास का दीदार करो। बाकी अपने अंदर झांकना आपका काम है। मैं जो बाँट सकती हूँ वह बता रही हूँ। कभी कभी टीचर बनने में क्या बुराई है! थोड़ा बहुत तो 'टीचराना' बना ही जा सकता है।


मैं तो चली पैराशूट के ख्वाब देखने!  

Monday, 5 December 2016

ज़िग ज़ैग टाइप- समीकरण

आजकल लहर समंदर में नहीं उठा करतीं। अब मीडिया लहरों का नया अड्डा है। पिछले कई घंटों से तमिलनाडु- मुख्यमंत्री की खबर ही नॉन-स्टॉप दिखाई और बताई जा रही है। अपोलो अस्पताल के आगे रोते और बेतहाशा बेहोश हो रहे लोगों की तस्वीरें ही दिखाई जा रही हैं। कभी कार्यालय के झंडे की तस्वीर पर फोकस हो रहा है तो कभी अस्पताल के बाहर बड़े नेताओं की बड़ी कारों पर।

उत्तर भारतीय होने के नाते दक्षिण जाने की तमन्ना तो हमेशा से मन में गुल खिलाती है। लेकिन दो मौक़े ही हाथ आए और वे भी काम के सिलसिले में। इसलिए कभी खुद की नज़र से घूमने या देखना का मौका मुहैया नहीं हुआ है। आगे कभी हुआ तो जरूर जाऊँगी। मेरे कुछ दोस्त दक्षिण भारत के हैं। जब उनसे मिलना जुलना होता है तब उनमें कुछ खास बातें दिखती हैं। वे लोग बहुत स्वाभाविक हैं। गर्मजोशी से मिलते हैं। सिम्पल रहते हैं। उनके व्यक्तित्व में बहुत सारी लेयर्स नहीं हैं। बहुत जानकार होते हैं। दकियानूस भी बेहद कम। शांत रहते हैं। सुनते हैं। पढ़ाई लिखाई का स्तर भी बहुत अच्छा होता है। इसलिए जब उनसे मिलना होता है तब बहुत सोचना नहीं पड़ता। झिझक कम रहती है। 

लेकिन इसके ठीक उलट सेट मैक्स, ज़ी सिनेमा, यू टीवी एक्शन आदि चैनलों पर साउथ की फिल्में बस मारकाट से लबालब भरी हुई दिखाई जा रही हैं। इतना ही नहीं 'बाहुबली' फिल्म में मुख्य नायिका का किरदार भी मुझे बेहद कमजोर लगा था। जब तक हीरो से प्यार नहीं हुआ तब तक नायिका के चरित्र में एक मजबूती थी। जैसे ही प्यार हुआ उसका चरित्र भी कमजोर करके पेश किया गया क्योंकि फिल्म हीरो के लिए यानि बाहुबली के लिए ही बनाई गई थी। इस सब के बावजूद कुछ फिल्में बेहद प्रभावित भी करने वाली होती हैं। मैं खुद 'अपरिचित' फिल्म को कई दफा देख चुकी हूँ। 

आज वही दक्षिण भारत अपने एक नेता की वजह से सुर्खियों में आ गया है। मुझे बताया जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का बहुत अधिक जन मन पर प्रभाव था। जब मैं आम लोगों से मिलती जुलती हूँ तब लोग बातचीत में 'इनिरा जी' कहकर आज भी पुकारते हैं। मेरी माँ को उन्हें बेहद नजदीक से देखने का मौका मिला था। खुद माँ का कहना है कि एक खास तरह की ऊर्जा महसूस हुई और नेता होने के चलते उस समय उनके स्वभाव में बहुत कोमलता दिखी। खैर जब उन्हें मारा गया तब देश में हाहाकार मचा जिसकी आग आज भी शांत नहीं हुई है। आज के समय में जयललिता बीमार हैं और बहुत हद तक दीवानगी लोगों में उनको लेकर दिख रही है। वे अम्मा नाम से वहाँ पुकारी जाती हैं। 

जब मैं अपने ग्रेजुएशन में थी तब भारतीय राजनीति की विशेषताओं में 'व्यक्तिगत पूजा' करके एक बिन्दु पढ़ाया गया था। वही यहाँ दिख भी रहा है। किसी एक व्यक्ति का समूचे वर्तमान और इतिहास में हावी होना मुझे शुरू से अटपटा लगता है। ...मुझे अच्छा नहीं लगता। ऐसा बताया जा रहा है कि वह एक अच्छी नेत्री हैं और लोगों के लिए उन्हों ने बहुत काम किया है। लेकिन यह भी दिलचस्प है कि उनकी पार्टी में उनके पास ही शक्ति केन्द्रित थी और शायद यही वजह है कि आज कोई दूसरा जाना माना चेहरा न तो पार्टी में दिख रहा है और न ही राज्य में। जाति से ब्राह्मण और लगभग 6 भाषाएँ जानने वाली जयललिता  निश्चित रूप से बेहतरीन नेत्री होंगी। इसके बावजूद उनकी छवि बहुत साफ भी नहीं रही। एक शक्तिशाली महिला नेता होने के चलते उनका सम्मान होना भी चाहिए। बहुत से उतार चढ़ाव के बावजूद खूब पढ़ी-लिखीं जयललिता राज्य की कई बार मुख्यमंत्री अपने काम और प्रतिभा के बल पर ही बनीं। 



कुछ दिनों पहले तीन मूर्ति म्यूज़ियम गई थी। जब भी वहाँ जाती हूँ  तब मेरा मुंह 'हाआआ...' कर के खुल जाता है। भला दो या तीन लोगों के लिए इतना बड़ा घर क्यों? इतने बड़े घर में कोई गरीब क्यों नहीं रहता? या जब कभी झुग्गी झोपड़ियों के लोगों को सेटल करने का समय आता है तब यही सरकारें 22 गज़ या कई बार 12-13 गज़ में निपटा देते हैं। है न अजीब बात...खुद बीमार हों तो निजी व सुविधा वाले अस्पताल और गरीब हो तो सीधे मौत।  प्रधानसेवक होने के बाद भी घोर सुरक्षा में रहते हैं, उन्हीं लोगों से जिन्हों ने उनको अपना मत दिया है। 

असल में समानता संविधान के कुछ सूत्रों द्वारा दिखाया गया एक ख्वाब है। ज़मीन पर इसके ठीक उलट है। कहीं भी कुछ बराबर नहीं है। सपने कब सच हुआ करते हैं? इसलिए जब मैं लोगों को किसी एक व्यक्ति के लिए रोते बिलखते हुए देखती हूँ कुछ देर भावुक हो जाती हूँ पर बाद में भावुकता खत्म हो जाती है। अभी अभी टीवी देख रही थी तो लग रहा था कि मैं भी जयललिता के लिए रो ही दूँगी।

इन सब चरित्रों और अपने समय की महान घटनाओं (नोटबंदी) के चलते कुछ पहलुओं पर एक आम व्यक्ति की नज़र से सोचना अपने आप शुरू हो जाता है। कुछ भी नीतियाँ, आखिर लोकतन्त्र में बिना जनता की मर्ज़ी या जनमत संग्रह के क्यों लागू कर दी जाती हैं? जनता ने वोट जरूर डाला है पर सुशासन के लिए। सही संसाधनों के बँटवारे के लिए, लेकिन बात उलट जाती है। लोगों में निष्क्रिय विरोध भी नहीं दिखता। मुझे सबसे ज़्यादा हैरानी तब होती है जब आम लोग पार्टी विशेष प्रवक्ता की भूमिका में दिखने लगते हैं। जबकि (मुझे लगता है कि) जनता का काम बहुत बड़ा है और वह यह कि उत्तरदायी व्यक्ति के उत्तरदायित्व को समझे और सवाल जवाब किए जाएँ। सत्ता दल से हमेशा उतना फासला जरूर रखना चाहिए जितने में उनके कामों की समीक्षा हो।

कभी कभी लगता है कि जानबूझकर जनता में रीढ़ की हड्डी को जन्म लेने नहीं दिया जाता। पूरी उम्र केंचुआ मिट्टी में छटपटाने में निकाल देता है और पढ़ाया यह जाता है कि देखों केंचुए मिट्टी की उपजाऊ क्षमता बढ़ाते हैं। वास्तव में यही एक नज़र है जो हर किसी में विकसित होनी चाहिए। वरना तो वक़्त समीकरण हल करवाने में निकलवा दिया जाएगा। हाथ में 'x' और 'y' की वैल्यू निकाल के घूमते रहिए। यही सरकार एक ढंग की नौकरी तक नहीं देगी। इसलिए जरूरी यही है अब खुद से एक समीकरण बनाया जाए। 

वास्तव में हमारे आसपास ज़िग ज़ैग टाइप के लोग और परिस्थितियाँ मौजूद होती हैं। किसी भी संस्था और व्यवस्था की संरचना दिखती भले ही औपचारिक हो पर ऐसा होता नहीं। उन्हीं में से कुछ गुटखाखोर होंगे तो कुछ बीड़ीदार। हाँ कुछ औरतें भी इसमें हिस्सा होती हैं। व्यवस्था का कोई जेंडर नहीं होता। उसकी खास निशानियाँ होती हैं और वह अपने संरचना के अनुसार स्वभाव हासिल करती है। इसलिए सिर्फ दल और नेता को आदर्श मानना या प्रेम करना अच्छी बात हो सकती है लेकिन बहुत अच्छी बात नहीं होनी चाहिए।  

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मेरे खुद के विचार हैं। जरूरी नहीं कि आप सहमत हों। 

(अम्मा के लिए प्रार्थना। जल्दी स्वस्थ हों।)


 

Sunday, 4 December 2016

रेडियो- सुनने का अभ्यास

बात तब की है जब घरों में ब्लैक-एन-व्हाइट टीवी होना भी बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। मनोंरंजन के साधनों में रेडियो की एक ख़ास जगह हुआ करती थी। घर में थे एक शख़्स जिन्हें की टीवी देखने का शौक तो नहीं था पर रेडियो सुनने का उत्तम चस्का जरूर था। उम्र यही कोई 48 या 50 रही होगी। पिता जी दिल्ली में 80 के दशक के अंतिम सालों में आए और आते ही थोड़ी खोजाई के बाद एक कंपनी में काम पर लग गए थे। उनकी उस समय तनख्वाह 175 रुपये तय हुई। ओवरटाइम मिला कर 200 से 300 तक मिल जाया करते थे।

उस वक़्त तक शहर में ठिकाने की जद्दोजहद जारी रही। कुछ ही समय में कंपनी के पास ही एक कमरा किराए पर मिल गया। धीरे धीरे पिताजी ने खुद से पकाकर खाने के लिए कुछ बर्तनों और स्टोव का इंतजाम किया। बाद में बाकी सामानों का। पिता जी को फिल्मों का बहुत शौक तो नहीं था पर हाँ खबरों को जानने को दिलचस्पी लगातार रहती थी। सो कुछ ही महीनों की बचत से चाँदनी चौक से 125 रुपये की क़ीमत का एक पीला मर्फी रेडियो ले आए। काम से लौट आने के बाद वह इसे मद्धम आवाज़ में चलाकर अपने को अपडेट कर लेते थे।



कुछ ही बरसों में कलकत्ता में रहने वाले बड़े पापा दिल्ली पिताजी के पास आए और यहाँ की आबोहवा के शिकार हो गए। अब दिल्ली सपरिवार के रहने की जगह बन गई। बड़े पापा को अचानक एक बीमारी ने आ घेरा सो वह ज़्यादातर अपना समय घर में ही बिताने लगे। इसलिए पिताजी ने अपना प्रिय रेडियो बड़े पापा को ध्यान बांटने के लिए तोहफे-शक्ल में पेश कर दिया। पहले-पहल तो उन्हें रेडियो अपने एकांत का ज़ोरदार उल्लंघन लगा पर जब उसे एक बार चालू किया तो कुछ नहीं बोले और हमेशा के लिए उसे अपने पास रख लिया।

बड़े पापा को देखो तो लगता था कोई सूफी दरवेश हैं। ज़्यादा बोलते नहीं थे। कभी उन्हें किसी बात पर बहस करते हुए नहीं देखा। जो रुपया कमाया उसे घर के लोगों पर ही भरपूर खर्च किया। इसलिए जब वह बीमार पड़े तब उनके चेहरे पर किसी भी तरह की कोई चिंता दिखाई नहीं दी। उनकी मृत्यु भी बड़ी शांति से दस्तक दे गई थी। किसी तरह का शोर उनके अंदर महसूस नहीं किया गया। उन्हों ने अपने लिए एक अलग कमरे की मांग की सो उन्हें हरे पर्दे वाला कमरा दिया गया जो छत पर अपने आप में अकेला रहता था। अब उस कमरे के साथी बड़े पापा बन गए।

उनके इंतकाल से पहले के दिन हमेशा की तरह साधारण ही बिता करते थे। उनके रूटीन में अक्सर कुछ किताबें शामिल हुआ करती थीं पर थोड़े वक़्त में ही उन्हों ने किताबों से रिटायरमेंट ले ली और रेडियो से लगाव बढ़ा लिया। गीत, नाटक, खबरें और हर तरह के कार्यक्रम वे रेडियो पर सुनते थे। रेडियो का रंग पीला था और उसके खटके या बटन बड़े बड़े, गोल व काले रंग में थे। उसके दाहिने तरफ एक एंटीना था जिसे अगर उठा दिया जाता तो चैनल जल्दी पकड़ आते थे। उसमें नीले रंग वाले बड़े बड़े निप्पो कंपनी के सेल डाले जाते थे। इतना ही नहीं उसमें एक हेंगर भी था जिसे पकड़ कर उसे आसानी से कहीं भी लाया ले जाया सकता था। रेडियो वह खास खास समय पर सुनते थे जैसे सुबह 11 बजे से 12 बजे तक। इसके बाद 3 से 4 बजे तक और रात के 9 से दस बजे तक। रेडियो की वॉल्यूम बहुत तेज़ तो नहीं होती थी पर उसकी आवाज़ नीचे के कमरों तक आ जाती थी। हल्की मद्धम।



रेडियो हमारे भी रूटीन का दिलचस्प हिस्सा था। इसलिए हमें भी उसकी आदत हो गई थी। कुछ कार्यक्रम हमें भी अच्छे लगते थे। लगता था कानों का अभ्यास हो रहा हो। रेडियो जब चलता था तब सभी लोग खामोश होकर सुनते थे। इसलिए बातों की बहुत ज़रूरत नहीं पड़ती थी। सभी इशारे से अपनी जरूरत की बात सम्पन्न कर लेते थे। ऐसा लगता था कि सच में दीवारों के भी कान होते हैं। वह भी मानो साथ साथ रेडियो सुन रही हों। बड़े पापा को इस बात की बखूबी खबर रहती थी वह ही नहीं सभी रेडियो सुन रहे हैं इसलिए वह मुस्कुरा दिया करते थे।


उनकी मृत्यु सुबह सूरज उग आने के बाद हुई। उनके बाद उनके कमरे में एक भी तब्दीली नहीं की गई। जो चीज जहां रहती थी आज भी वह चीज वैसे ही रहती है। उनके बाद भी ऐसा लगता था कि वह रेडियो सुन रहे हैं। एक खालीपन सा ज़रूर आ गया था। कोई रेडियो भी नहीं सुनता था। सुनने का रस खत्म हो गया था। आज जब अपने आसपास में शोर को शोर मचाते हुए देखती हूँ तब खुद-ब-खुद उन दिनों के बारे में सोचने बैठ जाती हूँ। एक सुकून मिलता है। ऐसे ही थोड़ी न लोग यादों को सीने से चिपकाकर रखते हैं। 

लगभग 2 या 3 महीने बाद अचानक रात 9 बजे मुझे रेडियो चलने की आवाज़ ऊपर के कमरे से आई। मैं भागी हुई ऊपर के कमरे में दाखिल हुई। लेकिन कमाल था कि कुछ भी हलचल नहीं थी। पर ऐसा अहसास आया कि कोई अभी अभी यहाँ आया था। पापा मेरे पीछे पीछे भागे हुए आए और बोले- 'क्या हुआ?' मैंने कहा- 'कुछ नहीं। ऐसा लगा रेडियो बज रहा था!'


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किसी से बातचीत पर आधारित

(आज के FM रेडियो की बात नहीं की जा रही। )

Saturday, 3 December 2016

पाइथागोरस

जब मैं छठी कक्षा या उसके आसपास थी तब बड़े शौक से डिस्कवरी चैनल पर आने वाले दो कार्यक्रम देखा करती थी। नियमित और नियम के साथ। कार्यक्रम वाकई थे भी बहुत अच्छे। नाम था 'मेडिकल डिटेक्टिव' और 'एफ बी आई फाइल्स'। नाम से ही इनके बारे में पता चल रहा है। होता यह था कि किसी का क़त्ल हो जाता था और फिर सबूतों की मदद से खूनी का पता लगाया जाता था। इसमें मेडिकल साइन्स की मदद ली जाती थी। ऐसे ही दूसरा कार्यक्रम भी था। हादसे की जगह को अगर कोई चालाक खूनी दुरूस्त भी कर देता था तब भी डिटेक्टिव बाल तक से भी DNA का पता लगा लेते थे। अगर कुछ भी हाथ न लगे तब एक 'ल्युमिलोन' नामक रसायन का छिड़काव किया जाता था। मेरे लिए यह कमाल की खोज थी। यदि कहीं खून गिरा हो और उसे साफ कर दिया गया हो तब इसे छिड़क कर अंधेरा कर दिया जाता था। जहां जहां खून गिरा होता वह जगह हरे रंग की चमकने लगती थी। यह एक पक्का सबूत होता था क़ातिल के झूठ के खिलाफ। कार्यक्रम के अंत में कहा जाता था- 'क़ातिल कितना भी चालाक क्यों न हो वह कुछ न कुछ गलती कर ही देता है। इसे पकड़ने के लिए मेडिकल साइन्स एक शानदार उपकरण है। किसी को इंसाफ दिलाने में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।' वाह! क्या बात है! मुझे इस कार्यक्रम की लत ही (समझ लीजिये) थी। आराम से पढ़िये। इस कहानी की वजह है।

सरकारी स्कूल की उपज हूँ। पाठ्यक्रम इतने सपने दिखाने के लिए बने होते थे कि सच का मालूम ही नहीं चलता था। टीचर ने निबंध लिखने को दिया- 'आप बड़े होकर क्या बनना चाहते हो?' सच में इससे घटिया काम कुछ और हो ही नहीं सकता था। यह क्यों नहीं पढ़ाते की आप हो क्या? किसी बीज की रुपाई कैसे करते हैं? लकड़ी बक्सा कैसे बना सकते हैं, बीज हर चीज से क्यों क़ीमती होते हैं, अपने जीने खाने का सामान कैसे उगाया जाता है.., आदि आदि। मुझे आज तक पाइथागोरस प्रमेय का फायदा ही नहीं मिला। x और y का वैल्यू निकाल कर अभी तक समझ नहीं आया कि आखिर चक्कर क्या था! वो क्या है न, मैं आर्ट्स की फ़ेलो हूँ सो गणित में हाथ तंग ही है।



ख़ैर, मैंने साफ लिखा कि मुझे DNA स्पेशलिस्ट बनना है। मैम चार दिन बाद जब कॉपी चेक करने लगी तो हंस दीं। उनकी हंसी अच्छी नहीं लगी। मुझे मालूम चल गया था। मुझे अच्छा नहीं लगा। दसवीं कक्षा के बाद जब अगली पायदान पर गई तो पता चला कि स्कूल में साइन्स की शाखा नहीं है। मैंने वाणिज्य की पढ़ाई कर ली। कॉलेज में कला के विषयों में हाथ लगा लिया। जो भी पढ़ा मन से। आज मैं DNA विशेषज्ञ नहीं हूँ। लेकिन मैं ज़िंदा हूँ। अब उस सपने की जगह दूसरे सपने सेट कर लिए हैं। अगर वो भी नहीं हुए तो दूसरे सपनों का उत्पादन कर लूँगी। ज़िंदगी से बढ़कर कोई चीज नहीं है। हर रोज़ उठना और जीना, यही है सबसे बड़ा काम। इससे बड़ा कुछ भी नहीं।

कुछ दिनों पहले मेरी रोज़मर्रा से कुछ ऐसे लोग टकराए जो हारे हुए ही नहीं बल्कि मानो जी भी नहीं रहे थे। उन्हें इस बात की चिंता थी कि आखिर आगे क्या होगा, नौकरी मिलेगी या नहीं, इतनी पढ़ाई कर के कोई काम नहीं मिलेगा तो पढ़ना ही बेकार है, हमारे पास तो सिफ़ारिश ही नहीं है, हर जगह आपाधापी है, कुछ नहीं पाया तब...कुछ ऐसी ही वाजिब चिंताएँ मैंने अपने खुद के लोगों में महसूस की हैं। मुझमें भी कुछ हद तक हैं। मैं भी इनसे फारिग नहीं हूँ। यह कुछ न बनने या कुछ हासिल न हो पाने का अहसास डरपोक बना गया है। दिमाग में यह इतना हावी हो जाता है कि हम अपने आसपास के बाकी खुले हुए विकल्पों को पहचान ही नहीं पाते। वास्तव में होता तो बहुत कुछ है पर हमारे पास विकसित नज़र नहीं होती। इसमें गलती हमारी भी नहीं होती कई बार। स्कूल में ही लाईन लगवाकर एक दिमागी सेटिंग कर दी जाती है। एक ही दिशा। गौर कीजिये मुझे ऐसा लगता है। आपको नहीं लगता तो इसमें कोई गुस्से वाली बात भी नहीं। बहुत पहले एक निजी स्कूल का टीवी पर विज्ञापन आता था। उसमें कहते थे- (स्कूल) 'यहाँ स्टैंडर्ड बनाए जाते हैं!' हद है इंसान बना रहे हो या मशीन। इन कमबख्तों ने ही सबसे ज़्यादा फ़ेल किया है।



कुछ दिनों पहले एक शख़्स ने कहा कि लड़कों में करियर बनाने का दबाव ज़्यादा होता है। शायद ऐसा हो सकता है। क्योंकि यह बात साफ दिखती है कि लड़कों के लिए आर्थिक क्रियाओं में रहना अनिवार्य है। इसका यह मतलब कतई नहीं है कि औरतें या लड़कियां आर्थिक क्षेत्र में सक्रिय नहीं होतीं। उनका भी लंबा इतिहास रहा है। शहरों मैंने देखा है कि 12वीं पास करने वाली लड़कियां भी किसी न किसी तरह के काम की तलाश में जुट जाती हैं। बाकायदा उनका एक ऐसा सर्कल है जो एक दूसरे को लीड्स मुहैया करवाता है।

घर से आने जाने के रास्ते में मुझे एक लड़की मिलती है उसकी उम्र मुश्किल से 20 या 21 बरस की होगी। धीरे धीरे मेरी और उसकी एक अच्छी जन पहचान हो गई है। उससे बात कर के मालूम चला कि वह किसी तरह के बीमा करने के काम से पिछले 2 साल से जुड़ी है। उसकी तरक्की हो चुकी है। सैलरी का मैंने कभी किसी से नहीं पूछा। लेकिन उसके हाव भाव और उसकी समझदारी भरी बातें सुनकर मैं हैरान हो जाती हूँ। इतनी कम उम्र में इस तरह की समझदारी उसे घर से बाहर के माहौल और लोगों से मिली है। मैंने उससे पूछा, 'किताब पढ़ती हो?' वो अनमना चेहरा बनाते हुए बोली- 'मेरी बस की बात नहीं। ऐसे ही वक़्त नहीं मिलता।' इसके अलावा मैंने यह भी देखा है कि यदि बस में कोई बड़ा-बूढ़ा आ जाए या कोई ऐसा जिसे सीट की जरूरत हो, वह तुरंत उठ जाती है। कभी किसी बात से कोई शिकायत नहीं सुनने को मिली। उसकी एक दोस्त है। उसे भी मैंने लगभग इसी तरह की विशेषताओं में पाया है। जब मैं उन लोगों से उन दोनों की तुलना करती हूँ जो बहुत पढे लिखे हैं, जिनको हर तरह का किताबी कला ज्ञान है, जो उम्र में बड़े हैं, जो नफासत से पेश आते हैं, जो ढेरों लोगों में उठते बैठते हैं, जिन्हों ने देश ही नहीं दुनिया की भी सैर की है, जिन्हों ने किताबें लिखी हैं...तब ये लोग मुझे बेहद हल्के मालूम होते हैं।

यकीन मानिए जितना मैं किताब से नहीं सीख पाई उतना इन दो कम उम्र लड़कियों से सीखती हूँ। दोनों शाम को काम से एक मुस्कुराहट के साथ लौटती हैं। दोनों मिलकर और पैसे मिलाकर मोमोज़ खाती हैं। कोई फिक्र नहीं। बस यही की कल काम पर जाना है। कुछ जरूरी काम निपटाने हैं। इसलिए अब मुझे अपने आप में रहने वाली बहुत सी शिकायतों से शिकायत नहीं होती। ठीक है न कुछ नहीं बन पाऊँगी। पर इतना है कि एक बेहतर उम्र जरूर जिऊंगी। खुद से अपेक्षा भी बहुत नहीं है। दो जोड़ी कपड़े और दो वक़्त का खाना मिल जाये तो यह भी बेस्ट बात है। मुझे गाड़ी नहीं चाहिए। घर की इच्छा है लेकिन जो न भी बना पाई तो यह कहकर अफसोस को ठंडा करूंगी कि शहर में महंगे घर मिलते हैं। अपने बस में नहीं खरीदना।  एक मंत्र यह भी कि जितना कम सामान उतनी कम फिक्र। यह सब छोटी छोटी बातें जिन पर गौर करना बेहद ज़रूरी है।

अब बात रिश्तों पर की जाये। यह सबसे नाजुक होते हैं। शर्तें बहुत हैं। वो कहते हैं न टर्म एंड कंडीशंस अप्लाई टाइप का कुछ। मैंने बहुत लोगों को कहते सुना है कि रिश्तों में शर्त नहीं होती। सब झूठ लगता है। होती है, होती है ...पचास बार कहूँगी होती है। चाहे दोस्ती हो या कोई और रिश्ता। हर चेहरा अपना काम निकलवाने के मकसद को हाथ में लेकर आपके सामने खड़ा है। (कुछ रिश्ते बाहर हैं इन सब से) यही वक़्त की दरकार है।



हमारी चाहत और जरूरत हमारे एक्शन को भयंकर तरीके से बदल देती है। जितनी बड़ी चाहत या उम्मीद उतनी बड़ी पहेली या दुविधा। फिर पूरा हुआ काम तो खुशी और नहीं हुआ तो डबल झटका। दिमाग में निराशा और चेहरे की रंगत उड़ जाएगी। मेरे से कई भयंकर काम हुए हैं शायद। मैंने तुरंत अहसास होते ही माफी भी मांग ली। इसके अलावा मैं जान नहीं दे सकती। ज़िंदगी से बढ़कर कुछ भी नहीं। जो आपके साथ रहना चाहेगा वह जरूर रहेगा चाहे आप कितनी ही गलतियाँ कर दें। लेकिन जो आपको अपनाता ही नहीं उसे आपका हर एक एक्शन खराब मालूम होगा। खुद निकाल दीजिये ऐसे लोगों को। जो नहीं निकाल सकते तो एक कम्फर्ट मोड बनाइये और सेफ रहिए। एक बात और कहीं तो बुरा भी बनिए। भगवान बनने की ज़िद्द अच्छी बात नहीं। 

मेरी किसी दोस्त ने वाट्स एप पर एक चित्र लगाया है जिसमें लिखा है- 'जैसे ही आप मरते हो, आपका खुद का नाम भी आपका सम्बोधन नहीं रह जाता। लोग आपको डेड बॉडी या लाश कहकर बुलाने लगते हैं। लोगों को आपको जल्द से जल्द दफ्न करने की या अंतिम संस्कार करने की पड़ी रहती है। इसलिए आप जियो। खूब जियो। हंसो इतना जब तक पेट दर्द न होने लगे। डांस बहुत बुरा करते हो फिर भी नाचो अगर मन है, फोटो खिंचवाते समय बेवकूफी वाले जेस्चर बनाओ, बच्चे की तरह रहो, याद रखो! मौत ज़िंदगी का सबसे बड़ा घाटा नहीं है। घाटा तो वह है जब आप जीते हुए अपने अंदर ही अंदर मरते हो।'

हैं न गज़ब की बात! बस यही चीज समझने की जरूरत है। हम दूसरे को खुश करने के लिए जब तक जिएंगे तब तक खुद नहीं जी पाएंगे। हमारी जिंदगी में जो भी हो रहा है उसे हम पूरी तरह से नियंत्रित नहीं कर सकते। इसलिए 'बीटल का मशहूर गीत सुनिए - 'let it be...' अच्छा लगेगा। जितना हो सके लोगों से अच्छे बुरे अनुभव बटोरिए। यही सब आगे बहुत काम आएगा। करियर भी आगे बन ही जाएगा। मेरी माँ कहती हैं, 'वो भी (डॉक्टरी) भला क्या पेशा है। हाड(हार्ड) दिल वाले करते हैं। खून-खांसी...राम राम!अच्छा है जो नहीं बनी। जो है वही अच्छी है। सब अच्छा है। क्या चाहिए!' यह बात सही है कि पढ़ाई लिखाई से हमें अपने करीयर को भी बनाना है लेकिन क्या सिर्फ वही है ज़िंदगी का एक पहलू? जवाब है जी नहीं। कतई नहीं। जीने के लिए कुछ बनने की जरूरत नहीं है। जो हो जैसे हो...उसी में कुछ घोल लो। अपना प्रयोग कर के अपना विलयन तैयार करो।

कुछ वक़्त से ऐसे लोगों से मिल रही हूँ जो किसी न किसी तरह की परेशानी में हैं। लेकिन जब बात कर के देखा तो वे परेशानियाँ उतनी बड़ी नहीं थीं, जितनी उनको माना गया था। मेरे साथ भी ऐसा ही है। मैं इन सब से इतर नहीं हूँ। लेकिन अभी सीख रही हूँ। यह सीखना बेहद रोमांचक है।

कुछ समय पहले दीदी ने एक औरत के बारे में मुझे बताया कि वह एक सुबह काम पर जाती है और देर रात तक आती है। फिर घर के काम निपटाना वो भी गाते हुए। 'चेहरा क्या देखते हो दिल में उतर कर देखो ना...दिल में उतर कर देखो ना...' दीदी को इसलिए वह खास लगी कि तमाम तरह की परेशानियों और बातों के बावजूद वह गीत गाती है। कुछ तो सीखना ही चाहिए।  

सोचिए पाइथागोरस प्रमेय जानकार भी जी ना पाये तो क्या जिये! इसलिए कुछ ऐसी प्रमेय तो खोजनी ही चाहिए। ...उफ़्फ़! अब गणित का दर्द लेकर मत बैठ जाना। मैं इस प्रमेय को 'पथ में मिलने वाले परम रस' मान कर सोचती थी। इसलिए अपनी शैली चिपका ली। आपकी शैली भी होगी। खोज निकालिए अपने अंदर के हुनर बाबा को..!



 

Friday, 2 December 2016

इलायची (कहानी)

मुझे खुशबू पसंद हैं। खास तौर से मोगरे के फूल में से आने वाली महक। मैं अपने आसपास रहने वाली लगभग हर चीज की महक को अपने अंदर ले सकती हूँ। एक सामान्य दिन में बहुत सी चीजें शामिल होती हैं और कई छूट भी जाती हैं। सर्दी की सुबह की बात करें तो चाय में पड़ने वाली अदरक, इलायची जहां अपना ज़ायका बिखेरते हैं वहीं इन दोनों में से महक भी लाजवाब आती है।

कुछ समय से अब मैं ये सब ख़ुशबुओं को सहन नहीं कर पाती। मोगरे की भी नहीं। महकने वाली चीज़ों के पास से गुज़र भी जाऊं तो नर्वस सिस्टम के तार तार हिल जाते हैं। शहर में रहने का यह सबसे बड़ा ईनाम भी है। शहर में हर रोज़ कुछ तो मरता ही है। वो बात अलग है कि 'फॉग' से हम अपने आप को महका ज़रूर सकते हैं। पर आप क्या नहीं सोचते कि ये नक़ली खुशबुएँ आपके साथ बेईमानी करती हैं? न भी करती हों शायद आप 'एयर विक' लगाकर गाड़ी में आते जाते हों। यह भी अच्छी बात है। शायद आपको आदत है।

मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ रहे हैं। सर्दियों वाले। अब इलायची की महक भी बर्दाश्त नहीं होती। पहले तो इलायची को देख कर ही बहुत खुशी होती थी। हल्का हरा रंग और उसमें महकते काले दाने मानो एक नई दुनिया सी दिखलाते थे। मैं इन दानों को इलायची के बच्चे कहकर पुकारा करती थी। घर में इलायची का भरपूर इस्तेमाल होता था। न हो तो दादी पूरा घर सिर पर उठा लेती थीं। उनका खयाल था कि इन सब चीजों के असर पड़ते हैं। शरीर ठीक रहता है। सो मुझे भी यह बात खूब जम गई। बिना अदरक और इलायची के चाय नहीं पीती थी।

हमारा परिवार छोटा था। बड़ी बहन का नाम सतुआ था। दादी ने ही रखा था। सतुआ को अपना नाम बेहद 'ओल्ड फेशन्ड' लगता था। बाक़ी बची हम दोनों बहनों के नाम नए जमाने से मैच करते थे। हम तीनों पर एक जोड़ी बूढ़ी आँखें जब तब पीछा किया करती थीं। यह सब बहुत गुस्सा दिलाने वाला भी होता था। कुर्ता भी सिलवाया जाता तब कॉलर लगवा दी जाती और आगे से बंद गला। 'तहजीब बंद कपड़ों में होती है'- दादी का यही कहना था। कभी ऐसा लगता था कि हम तीनों की कन्डीशनिंग हो रही हो। ज़ुबान भी उतनी खोलने की इजाजत थी जितने की जरूरत होती। लड़कियां चुप रहते हुए ही अच्छी लगती है- यह पंक्ति हमेशा कान से टकराया करती थी । लेकिन दादी औरत होते हुए भी बहुत बोलती थीं। उनकी आवाज़ का वॉल्यूम भी सामान्य से अधिक रहता था। न मालूम कहाँ से वे सीखकर आई थीं।

सतुआ को इन सब से सबसे ज़्यादा चिढ़ थी। क्योंकि उसके कॉलेज का वक़्त भी दादी नोट किया करती थीं। एक मिनट इधर उधर हुआ तो घर में हाहाकार मच जाता था। सतुआ का हर खयाल बहुत ज़्यादा बड़ा होता था। बचे मैं और छाया, तो छाया का भी हाल सतुआ जैसा ही था। विद्रोही टाइप का। मेरा कुछ भी नहीं था। मैं बोलती ही नहीं थी। ...मुझे बोलना ही नहीं आता था। मुझे स्कूल जाना और घर में रहना आता था। मेरी इस तरह की आदत दादी को पसंद नहीं थी। मुझे कोई फर्क नहीं था। मुझे अपने घर में अपने ही लोग अजनबी लगते थे। आज भी ऐसा ही लगता है। हर रिश्ता है पर मन नहीं जुड़ता किसी से। जाने क्यों? पता नहीं। उनमें से एक महक आती है।

खैर ...हमारे सामने वाले घर में एक औरत किराए पर रहने आई। उस घर के मकान मालिक दूसरी जगह रहते थे सो उस औरत ने वह पूरा घर ही किराए पर ले लिया। लंबा क़द था। रंग गेहुआँ था। काले बाल। एक दम सीधे। बड़ी बड़ी आँखों में मोटा काजल लगाती थी। नाक में मोती का लॉन्ग हुआ करता था। कट बाजू वाले सूट पहना करती थी। बिंदी लगाती थी लेकिन सिंदूर नहीं। इस बात पर गली में एकाद बहस भी हुई कि वह शादीशुदा है या नहीं। लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई उससे से सीधे पुछने की। मुझे वह बहुत अच्छी लगती थी। इतना ही नहीं सतुआ भी उससे प्रेरित हुई तो काजल लगाने लगी। इस पर दादी ने कहा कि बड़ी लड़की के लक्षण ठीक नहीं लग रहे, तब पापा ने कहा कि काजल लगाने में क्या गड़बड़ है। दादी चुप तो हो गईं पर हम तीनों पर निगरानी और बढ़ गई।

दादी का खयाल था कि हम उस नई 'बदचलन औरत' से ज़्यादा ही इंस्पायर्ड हो गए हैं। सब ऐसे ही चला रहा था। एक दिन घर में किसी के न रहने पर मुझे अखबार की जरूरत आन पड़ी। मैंने अपने घर के छज्जे से ही उनसे पूछा- 'आपके पास आज का अखबार होगा?' वह मुस्कुरा कर बोलीं- 'हाँ है। उसे लेने आपको मेरे घर में आना होगा।' अगले दस मिनट में मैं उनके में थी। घर में पीला रंग छाया हुआ था। सीढ़ियों की दिवारों पर सुंदर सुंदर पैंटिंग्स टंगी थीं। हर तरह की। जब उनके निजी कमरे में गई तब पहली बार आसमान को किसी कमरे में पाया। मैं वह कमरा कभी भूल नहीं सकती। मुझे आज भी उस कमरे की रोशनी का शीतल अहसास है। वहाँ खूबसूरत चित्र थे। मैं हैरान थी। मैंने पूछा- 'आप क्या करती हैं?' रसोई में जाते हुए वह बोलीं- 'दुनिया रंगती हूँ।...इलायची वाली चलेगी?' मैंने कहा- 'हाँ, बिलकुल। घर में यही बनती है।' इस दौरान वह मेरे बारे में और घर के बारे में पूछने लगीं। उनमें एक बात मैंने नोटिस की। वह हरी इलायची मुंह में रख कर बात कर रही थीं। उन्हों ने बताया कि उन्हें आदत है इस हरी इलायची की। घड़ी की सुइयों को देखा तो मुझे घर याद आया। रात को सतुआ और छाया को बताया तो उन दोनों में भी उस औरत से मिलने की ललक जग गई।



कुछ दिनों बाद एक दिन आया। जाने क्यों? सुबह सुबह भयानक शोर घर में दस्तक दे रहा था। कहीं बहुत झगड़ा हो रहा था। छज्जे से झाँका तो वही औरत बीच में बहुत गुस्से में खड़ी थी और आसपास बहुत लोग खड़े थे। इतने में उसके मकान मालिक भी आ गए। ...मैंने बहुत कोशिश की कि मुख्य मुद्दे को सुना और समझा जाये। पर पीछे से दादी ने एक तेज़ आवाज़ हम तीनों पर धमाके के साथ फेंक दी। हम डर गए। ...पापा ने जो खबर हमें दी वह यह थी कि गली के कुछ लोगों को उसके अकेले रहने से परेशानी थी। इसके अलावा उसके काम के बारे में किसी को मालूम नहीं था। सबका खयाल था कि वह कोई गलत काम में शामिल है। ऐसी औरत का गलत प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए उसे घर खाली करने को कहा गया है।...कुछ दिनों बाद एक बड़ा ट्रक आया जिसमें उनका सामान रखा गया। जाते जाते उन्हों ने हल्की गर्दन ऊंची की और मेरी तरफ देख कर मुस्कुरा दीं। वो चली गई। अंदर दादी ने हुकुम दिया कि चाय बनाओ, इलायची वाली। रसोई में मैं दो तीन इलायची कूटने लगी। एक बहुत तेज़ महक उठी और साँसों के सहारे मेरे दिमाग में घुस गई। जाने क्या हुआ कि मुझे उल्टी होने लगी। बहुत उल्टी हुई। इसके बाद मुझे याद नहीं कि क्या हुआ। मुझे जब होश आया तब सिर दर्द से फट रहा था। उसके बाद मैं इलायची और उसकी महक से दूर रहने लगी। दादी को लगा कि मुझ पर किसी हवा का साया है। सो एक ताबीज़ बनवाकर गले में डाल दिया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।

आज भी मैं इलायची की महक बर्दाश्त नहीं कर पाती।  



21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...