मैं जब घर वापस आ रही थी तब मन में एक जुनून मुझे संक्रमित कर चुका था। मैं फ्लॉप फिल्म के हिट गाने जैसा महसूस का रही थी। कल दूसरी बार सिनेमा हॉल में फिल्म देखी। हम तीन दोस्त थे। हम फ़िल्म देखने के पहले खुश थे और फ़िल्म देखने के बाद ज़्यादा खुश थे। हम खुशमिजाज़ी हैं। इसलिए हज़ार बार झगड़ा होने के बाद भी कोई गिला-शिकवा नहीं करता। ख़ैर, पोस्ट दोस्ती के बारे में नहीं है। आपके भी ऐसे दोस्त होंगे ही।
आमिर खान की फिल्में देखने के बाद आप कुछ न कुछ कहने की अवस्था में आ ही जाते हो। इसलिए मैं भी कह ही रही हूँ कि फ़िल्म मुझे बेहद अच्छी लगी। हाँ, नारीवादियों को मुझपर गुस्सा आ सकता है। वे कहेंगे और कहेंगी कि-'तुम जैसे लोगों ने ही एक औरत को उसके अहसासों और तमन्नाओं को समझने में भूल की है। तुम जैसे ही औरतवाद को सपोर्ट नहीं करते...।' वैसे एक बात बोलूँ मुझे इसकी परवाह भी नहीं कि मुझे अब कोई गाली दे या धोखेबाज़ कहे। कह लो यार! मैंने आपके मुंह पर टेप नहीं लगाई। पर मुझे भी तो अपनी कह लेने दो।
सिनेमा हॉल में लगभग 12:45 पर प्रवेश शुरू हो गया था। मुझे लगा था कि बैठते ही फ़िल्म शुरू हो जाएगी। पर ऐसा हुआ नहीं दिल दिमाग को भाले की तरह चीरती हुई आवाज़ में कई फिल्मी और व्यावसायिक विज्ञापन दिखाये गए जिस पर कि मेरा मुंह तो नहीं, पर मन जरूर सूज गया था। भला फ़िल्म देखने के पैसे दे रही हूँ और ये घटिया विज्ञापन दिखा रहे हैं जिनमें मेरी तो कोई रुचि फिलहाल बिलकुल नहीं थी। मुझे कसम से वहाँ बैठे बैठे मन में एक चिट्ठी संबन्धित मिनिस्टरी (मंत्रालय) को लिखने का जुझारू खयाल आ गया था। यह क्या बात है कि आप लोग फ़िल्म के पैसों में अपनी कमाई कर रहे हो। ठीक है दिखाओ पर जो मुनाफ़ा आप कमा रहे हो उसे केशलेस ट्रान्सफर से मेरे अकाउंट में भी डालो। मैं पक्का एक लिखूँगी चिट्ठी। रुक जाइए कुछ दिन।
पोस्ट इस चिट्ठी पत्री पर भी नहीं है। मेरे दिमाग में एक ही समय में ढेरों खयाल आते और जाते हैं। उन्हें लिखने की सोची है। इसलिए पोस्ट का शीर्षक मैंने अभी भी नहीं सोचा है। फ़िल्म के पहले विज्ञापन पर गुस्सा आया। पर जैसे गुस्सा आया वैसे चला भी गया। फिर, उसके बाद राष्ट्रगान बजा। बजा और मैं किसी नक़ल करती हुई प्राणी की तरह खड़ी हो गई। उस वक़्त मेरे मन में यह खयाल आया कि जो मैं न खड़ी होऊं तब शायद पीछे से कोई मुझे धक्का देते हुए देशद्रोही कहेगा। मैं धक्के के कारण गिर जाऊँगी। मेरे चेहरे पर काफी चोट आ जाएगी। कोई मुझे उठाएगा नहीं। हाँ, मेरे दोस्त उठाएंगे पर लोग उन पर भी हल्ला बोल देंगे। उनको भी मेरी वजह से काफी चोट आ जाएगी। लोग इतने पर भी नहीं रुकेंगे। वे लोग भारत माता के नाम पर 'भारत माता की अंश' का खून भी बहा देंगे। इसी बीच राष्ट्रगान बजा। मैं खड़ी हो गई। ओह, मैंने भी गाया। मुझे अच्छा लगा। 52 सेकंड गाया। एक एक लाईन गाई। मुझे अच्छा लगा। मेरे दोस्तों को भी अच्छा लगा। बाक़ी लोगों का नहीं मालूम। उन्हें भी अच्छा लगा होगा। ऐसी मेरी उम्मीद है। कोई देशद्रोही मुझे नहीं दिखा। मैं भी नहीं हूँ। यह बात स्पष्ट है।
अब फ़िल्म शुरू हुई तो मेरा ध्यान फ़िल्म पर टिकने लगा। वाज़िब था कि इतनी बड़ी स्क्रीन से और आवाज़ों के काफ़िले से मैं बच नहीं सकती थी। मैं कई दृश्यों पर बेलगाम हंसी। ऐसा आप भी हँसे होंगे। जैसे महावीर फोगट सर के जब हर नुश्खे आजमाने पर भी लड़की ही हुई। मैं हंसी क्योंकि दृश्यों का फिल्मांकन हंसने वाला था। लेकिन तभी दिमाग वर्जीनिया वुल्फ की लिखी किताब 'अपना कमरा' में ले जाकर पटक आया। मैंने यह किताब एक या दो दिन पहले ही पढ़ी थी। इसलिए मुझे उसकी कुछ बातें रह रह कर याद आ रही थीं। मैंने मन में कहा- 'मैं यहाँ फ़िल्म देखकर अपना मनोरंजन करने आई हूँ न कि नारीवाद-नारीवाद खेलने। यह ठीक बात नहीं हर बात और विषय का अपना वक़्त होता है।' मन ने कहा- 'तुम इस चकाचौंध में पागल हो गई हो। सोचो किसी के निजी जीवन और पीड़ा पर हंस रही हो। सोचो कि लड़की होने का दुख हंसी में उड़ाया जा रहा है। कितना कमतर समझती है यह दुनिया लड़कियों को'। मैंने कहा- 'यह फिल्न है। इसमें वही तो दिखाया जा रहा है जो वास्तव में हुआ है। ऐसा होता है जब लड़के के आस में लड़की पैदा हो जाती हैं। यह लिंग का मसला भारत में बड़ा है। 1000 पर बहुत कम लड़कियां हैं मुल्क में। ...अब तुम दूर हटो और मुझे फ़िल्म देखने दो। बाद में बकवास कर लेंगे।' मन डर गया या घबरा गया। मुझे नहीं पता पर उसने फौरी तौर पर मुझे फ़िल्म के साथ छोड़ दिया।
मैंने मज़े से फिल्म देखी। अच्छी फ़िल्म है। आसपास के सेट औरताना बॉक्स से बाहर झाँकने की कोशिश हमेशा दमदार लगती है। वही इस फ़िल्म में दिखा भी। फ़िल्म का पहला आधा हिस्सा दिलचस्प है। दूसरा हिस्सा बेटी और पिता के दरम्यान सम्बन्धों को अच्छी तरह से उजागर करता है। फ़िल्म में तीन बातों को मज़बूती से समझा जा सकता है। पहला उस सोशल दीवार को तोड़ा गया है जो समाज के दकियानूस अंबुजा सीमेंट वाले तौर तरीक़ों से बनी है। कई दृश्य इसकी तसदीक़ भी करते हैं। दूसरा हिस्सा कुछ पाने के लिए संघर्ष से जुड़ा है, फिर चाहे वह पिता का संघर्ष हो या बेटी का। तीसरी बात सम्बन्धों में महीन बदलावों के रूप में समझा जा सकता है। एक पिता का जब एक गुरू के रूप में अवतार होता है तब वह दूसरे चरित्र में होता है पर जब पिता, पिता बनता है तब वह अलग नज़र आता है जहां वह बेटियों के लिए हर तरह का जुगाड़ करते हुए समाज की परवाह नहीं करता। फ़िल्म के किरदरों की ख़ालिस हरियाणवी मासूम ज़ुबान फ़िल्म के हर दृश्य को रोचक तो बनती है साथ ही बैक्ग्राउण्ड में बजने वाला गाना फ़िल्म में बजने के बावजूद आपके अंदर प्रवेश कर जाता है। फ़िल्म के अंत में आप भी दंगल-दंगल गाने और करने के मूड में आ जाते हो। सिनेमा का जादू वाकई ग़ज़ब होता है।
महावीर फोगट की तस्वीर नारीवादियों में एक बहस का मुद्दा बनी हुई है। कुछ दिनों पहले कहीं फ़िल्म की समीक्षा पढ़ी थी। समीक्षा में भी यही बात उस लेखिका ने ज़ोर दे देकर लिखी थी कि अपने सपने के लिए पिता ने अपनी बेटियों के बचपन को कुश्ती के कठिन अभ्यास में झोंक दिया। देश के लिए मेडल की चाहत ने उन्हें अपनी बेटियों को एक अलग रास्ते पर दौड़ा दिया। इस फ़िल्म से मुझे कराटे किड फ़िल्म सीरीज़ की फ़िल्में याद आ गई थीं। आप क्योंकर महावीर फोगत अंकल को पिता-पिता कहकर संबोधित कर रहे हैं और कर रही हैं। मुझे लगता है कि वह फ़िल्म में पिता कम, गुरू ज़्यादा हैं। मुझे कराटे किड फ़िल्म के गुरूओं से कोई गिला शिकवा नहीं। याद कीजिये 'मिस्टर मियागी' या 'मिस्टर हान' को। कितने कठिन मास्टर थे वे लोग फिल्म में। अनुशासन कभी सस्ता नहीं होता। आप इस बात पर भले ही मुझसे बहस कर सकते हैं तो कीजिये। लेकिन मेहनत में झोंकना ही पड़ता है ख़ुद को। अब हर चीज़ को देखते समय ज़बरन नारीवादी विचारधारा का चश्मा लगाना पड़ेगा, ऐसा मुझे ठीक जान नहीं पड़ता।
सिनेमा हॉल में बैठे बैठे मैं कुछ देर के लिए वापस अपनी माध्यमिक कक्षाओं की पढ़ाई के दिनों में पहुँच गई। फ़िल्म से मैंने कहा, तुम रूको मैं बस अभी आई। मुझे यादों में कुछ काम है। ...सर्दी के दिनों में हमारे छमाही पेपर हुआ करते थे। मैं हमेशा से सर्दियों की शिकार रही हूँ। बीमारी और ठिठुरन मुझे हमेशा घेरे रहती। ऐसे में पेपर का जुल्म कोई अच्छी बात मुझे तो नहीं लगती थी। वो भी एक नहीं 6-7 पेपर लिखना आसान मुझे कभी नहीं मालूम पड़ा। स्कूली ज़िंदगी मुझे कभी भी हसीन नहीं लगी। हर बार घर और स्कूल को मुझसे पहले नंबर पर आने की विकट आशा रहती थी। एक नंबर भी कम हुआ नहीं कि खामोश, पर गुस्से वाली नज़रें पीछा करने लगती थीं। टीचर का कहना होता था कि तुम पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे रहो हो। ऐसे काम नहीं चलेगा। पिता इसके उलट कुछ कहते नहीं थे। वे सिर्फ़ करते थे। जब उन्हें मालूम चलता कि पेपर हैं तब 3 या 4 बजे से ख़ुद ही अलार्म का रूप अख़्तियार कर लेते और तब तक प्यार से उठाते जब तक मैं गुस्से में उठकर बैठ न जाती। उन्हें इस बात से कभी कोई फ़र्क नहीं पढ़ा कि बेटी कमजोर है। उसकी भी एक क्षमता है। ... मुझे याद नहीं कि कब उन्होने किसी पेपर के लिए न उठाया हो। सर्दियों में सब सो रहे रहे होते और मैं उठकर पन्ने पलट रही होती थी। ऐसे में मुझे पीछे से शॉल भी वही उढ़ाते थे। माँ को इससे कुफ्त ही हुई हमेशा। उनका खयाल था कि पास ही हो जाना काफी है। ठीक रहेगी तब ही हमें अच्छा लगेगा। सबसे छोटी है सो नरमी बरतनी जरूरी है।
कॉलेज में भी यही हाल रहा। आज भी लगभग यही हाल है। पर आज मुझे यह सब बुरा सा नहीं लगता। अच्छा लगता है कि मैंने अपने समय में अव्वल दर्जे की परफ़ोर्मेंस दी है। इसके अलावा बेहतर इंसान बनने की कोशिश भी कर रही हूँ। (शायद एक दिन कुछ अच्छी बन पाऊँ) हालांकि मैं आज भी एक ख़ास तरह की फ्लॉप लड़की ही हूँ। अभी तक एक नौकरी भी हासिल नहीं कर पाई हूँ। पापा के बाल अब सफ़ेद हो चुके हैं। वे काम पर भी नहीं जाते। उन्हें आज भी मुझसे ढेरों उम्मीद है। उनका खयाल है कि उनके जीते जी मैं कहीं स्थापित हो जाऊं। उन्हें यही बात मन में रहती कि एक छोटी ही सही पर सरकारी नौकरी मेरी बेटी को मिल जाये। इसमें अब मैं नारीवाद का पुट तो नहीं खोजूंगी। यह मेरी नाचीज़ समझ ही ठहरी। आप खोजिए।
फ़िल्म देखने के बाद मुझमें तुरंत एक आत्मिश्वास जागा और आनन-फानन में अपने औरताना बॉक्स को खोजने लगी। पूरे 325 रूपये की टिकट ली थी तब कुछ तो फ़िल्म से लेकर ही आऊँगी न! जिनको दिन रात मरने के ख़याल आते हैं उनको तो यह फ़िल्म ज़रूर देख लेनी चाहिए। मुझे पूरा यकीन है कि उनमें भी एक जज़्बा आएगा कि कोशिश करते रहिये आख़री पल तक। हो सकता है कि आपको भी गीता कुमारी फोगट की तरह लास्ट सेकंड में 5 अंक मिल जाएँ और आप गोल्ड मेडल जीत जाएँ।
दंगल में एक समाज है और उसमें एक परिवार जो समाज का हिस्सा है। वहाँ साहित्य नाम की कोई गंभीर और पवित्र वस्तु नहीं है और न ही कोई विचार। वहाँ ठंडा तो कभी गरम जीवन है। कभी भी कुछ मिल जाने वाला अटपटा जीवन। जो लोग नारीवादी के झण्डा लेकर यह कह रहे हैं कि यह पितृसत्ता का ही एक चेहरा है जहां एक पिता शक्ति में है और लड़कियों को कठपुतली बना रहा है तो वे वास्तव में जीवन को नहीं जानते। बहनों आप वो दृश्य भी तो देखो जहां लड़कियों कि कम उम्र की दोस्त की शादी हो रही है और दुखी है। वह यह कहती है कि कम से कम तुम लोगों के पिता तो तुम्हें शादी से परे कुछ और बनाने का सोच रहे हैं। उसके बाद से वे दोनों लड़कियां कुश्ती सीखने-लड़ने का ख़ुद से मन बना लेती हैं। अब जरा दिमाग लगाईए कि यदि लड़कियों का स्वतन्त्रता आंदोलन सफल हो जाता तब वे किस स्वरूप में होतीं। तब निश्चित रूप से उनका रूप अलग होता। वह रूप कम से कम मुझे तो स्वीकार्य नहीं होता। न मैं फ़िल्म देखने जाती।
हम अपनी ज़िंदगी में कितने फ्लॉप और हिट हैं यह ख़ुद देखते हैं और लोगों की नज़रों से भी समझते हैं। लोग किसी व्यक्ति के 'एक्शन' से उसे जानते हैं। यह कई तरीकों में से एक बढ़िया तरीका है किसी व्यक्तित्व और वस्तु को जानने का। गीता, बबीता और महावीर फोगट कुछ ऐसे ही व्यक्तित्व हैं जिन्हें उनके 'एक्शन' से आज मैं और आप जान रहे हैं। शून्य व्यक्तित्व से 10 नंबरी व्यक्तित्त्व में बदलने की बीच की प्रक्रिया ही मुझे दंगल का केन्द्रीय विचार लगा। इसमें अब यदि नारीवादी या पितृसत्ता का छोंक कोई लगाता है तब हो सकता है कि यह किसी भी वस्तु या फ़िल्म से जुडने का उसका अपना माध्यम है। इसमें कोई बुराई भी नहीं। मैं विचारधारा को न तो सोख सकती हूँ न उसे लिबास की तरह पहन नहीं सकती हूँ। मैं अपने जीवन से ही इस तरह की बातों और कहानियों को बेहतर समझने का आधार बनाती हूँ।
आमिर खान की फिल्में देखने के बाद आप कुछ न कुछ कहने की अवस्था में आ ही जाते हो। इसलिए मैं भी कह ही रही हूँ कि फ़िल्म मुझे बेहद अच्छी लगी। हाँ, नारीवादियों को मुझपर गुस्सा आ सकता है। वे कहेंगे और कहेंगी कि-'तुम जैसे लोगों ने ही एक औरत को उसके अहसासों और तमन्नाओं को समझने में भूल की है। तुम जैसे ही औरतवाद को सपोर्ट नहीं करते...।' वैसे एक बात बोलूँ मुझे इसकी परवाह भी नहीं कि मुझे अब कोई गाली दे या धोखेबाज़ कहे। कह लो यार! मैंने आपके मुंह पर टेप नहीं लगाई। पर मुझे भी तो अपनी कह लेने दो।
सिनेमा हॉल में लगभग 12:45 पर प्रवेश शुरू हो गया था। मुझे लगा था कि बैठते ही फ़िल्म शुरू हो जाएगी। पर ऐसा हुआ नहीं दिल दिमाग को भाले की तरह चीरती हुई आवाज़ में कई फिल्मी और व्यावसायिक विज्ञापन दिखाये गए जिस पर कि मेरा मुंह तो नहीं, पर मन जरूर सूज गया था। भला फ़िल्म देखने के पैसे दे रही हूँ और ये घटिया विज्ञापन दिखा रहे हैं जिनमें मेरी तो कोई रुचि फिलहाल बिलकुल नहीं थी। मुझे कसम से वहाँ बैठे बैठे मन में एक चिट्ठी संबन्धित मिनिस्टरी (मंत्रालय) को लिखने का जुझारू खयाल आ गया था। यह क्या बात है कि आप लोग फ़िल्म के पैसों में अपनी कमाई कर रहे हो। ठीक है दिखाओ पर जो मुनाफ़ा आप कमा रहे हो उसे केशलेस ट्रान्सफर से मेरे अकाउंट में भी डालो। मैं पक्का एक लिखूँगी चिट्ठी। रुक जाइए कुछ दिन।
पोस्ट इस चिट्ठी पत्री पर भी नहीं है। मेरे दिमाग में एक ही समय में ढेरों खयाल आते और जाते हैं। उन्हें लिखने की सोची है। इसलिए पोस्ट का शीर्षक मैंने अभी भी नहीं सोचा है। फ़िल्म के पहले विज्ञापन पर गुस्सा आया। पर जैसे गुस्सा आया वैसे चला भी गया। फिर, उसके बाद राष्ट्रगान बजा। बजा और मैं किसी नक़ल करती हुई प्राणी की तरह खड़ी हो गई। उस वक़्त मेरे मन में यह खयाल आया कि जो मैं न खड़ी होऊं तब शायद पीछे से कोई मुझे धक्का देते हुए देशद्रोही कहेगा। मैं धक्के के कारण गिर जाऊँगी। मेरे चेहरे पर काफी चोट आ जाएगी। कोई मुझे उठाएगा नहीं। हाँ, मेरे दोस्त उठाएंगे पर लोग उन पर भी हल्ला बोल देंगे। उनको भी मेरी वजह से काफी चोट आ जाएगी। लोग इतने पर भी नहीं रुकेंगे। वे लोग भारत माता के नाम पर 'भारत माता की अंश' का खून भी बहा देंगे। इसी बीच राष्ट्रगान बजा। मैं खड़ी हो गई। ओह, मैंने भी गाया। मुझे अच्छा लगा। 52 सेकंड गाया। एक एक लाईन गाई। मुझे अच्छा लगा। मेरे दोस्तों को भी अच्छा लगा। बाक़ी लोगों का नहीं मालूम। उन्हें भी अच्छा लगा होगा। ऐसी मेरी उम्मीद है। कोई देशद्रोही मुझे नहीं दिखा। मैं भी नहीं हूँ। यह बात स्पष्ट है।
अब फ़िल्म शुरू हुई तो मेरा ध्यान फ़िल्म पर टिकने लगा। वाज़िब था कि इतनी बड़ी स्क्रीन से और आवाज़ों के काफ़िले से मैं बच नहीं सकती थी। मैं कई दृश्यों पर बेलगाम हंसी। ऐसा आप भी हँसे होंगे। जैसे महावीर फोगट सर के जब हर नुश्खे आजमाने पर भी लड़की ही हुई। मैं हंसी क्योंकि दृश्यों का फिल्मांकन हंसने वाला था। लेकिन तभी दिमाग वर्जीनिया वुल्फ की लिखी किताब 'अपना कमरा' में ले जाकर पटक आया। मैंने यह किताब एक या दो दिन पहले ही पढ़ी थी। इसलिए मुझे उसकी कुछ बातें रह रह कर याद आ रही थीं। मैंने मन में कहा- 'मैं यहाँ फ़िल्म देखकर अपना मनोरंजन करने आई हूँ न कि नारीवाद-नारीवाद खेलने। यह ठीक बात नहीं हर बात और विषय का अपना वक़्त होता है।' मन ने कहा- 'तुम इस चकाचौंध में पागल हो गई हो। सोचो किसी के निजी जीवन और पीड़ा पर हंस रही हो। सोचो कि लड़की होने का दुख हंसी में उड़ाया जा रहा है। कितना कमतर समझती है यह दुनिया लड़कियों को'। मैंने कहा- 'यह फिल्न है। इसमें वही तो दिखाया जा रहा है जो वास्तव में हुआ है। ऐसा होता है जब लड़के के आस में लड़की पैदा हो जाती हैं। यह लिंग का मसला भारत में बड़ा है। 1000 पर बहुत कम लड़कियां हैं मुल्क में। ...अब तुम दूर हटो और मुझे फ़िल्म देखने दो। बाद में बकवास कर लेंगे।' मन डर गया या घबरा गया। मुझे नहीं पता पर उसने फौरी तौर पर मुझे फ़िल्म के साथ छोड़ दिया।
मैंने मज़े से फिल्म देखी। अच्छी फ़िल्म है। आसपास के सेट औरताना बॉक्स से बाहर झाँकने की कोशिश हमेशा दमदार लगती है। वही इस फ़िल्म में दिखा भी। फ़िल्म का पहला आधा हिस्सा दिलचस्प है। दूसरा हिस्सा बेटी और पिता के दरम्यान सम्बन्धों को अच्छी तरह से उजागर करता है। फ़िल्म में तीन बातों को मज़बूती से समझा जा सकता है। पहला उस सोशल दीवार को तोड़ा गया है जो समाज के दकियानूस अंबुजा सीमेंट वाले तौर तरीक़ों से बनी है। कई दृश्य इसकी तसदीक़ भी करते हैं। दूसरा हिस्सा कुछ पाने के लिए संघर्ष से जुड़ा है, फिर चाहे वह पिता का संघर्ष हो या बेटी का। तीसरी बात सम्बन्धों में महीन बदलावों के रूप में समझा जा सकता है। एक पिता का जब एक गुरू के रूप में अवतार होता है तब वह दूसरे चरित्र में होता है पर जब पिता, पिता बनता है तब वह अलग नज़र आता है जहां वह बेटियों के लिए हर तरह का जुगाड़ करते हुए समाज की परवाह नहीं करता। फ़िल्म के किरदरों की ख़ालिस हरियाणवी मासूम ज़ुबान फ़िल्म के हर दृश्य को रोचक तो बनती है साथ ही बैक्ग्राउण्ड में बजने वाला गाना फ़िल्म में बजने के बावजूद आपके अंदर प्रवेश कर जाता है। फ़िल्म के अंत में आप भी दंगल-दंगल गाने और करने के मूड में आ जाते हो। सिनेमा का जादू वाकई ग़ज़ब होता है।
महावीर फोगट की तस्वीर नारीवादियों में एक बहस का मुद्दा बनी हुई है। कुछ दिनों पहले कहीं फ़िल्म की समीक्षा पढ़ी थी। समीक्षा में भी यही बात उस लेखिका ने ज़ोर दे देकर लिखी थी कि अपने सपने के लिए पिता ने अपनी बेटियों के बचपन को कुश्ती के कठिन अभ्यास में झोंक दिया। देश के लिए मेडल की चाहत ने उन्हें अपनी बेटियों को एक अलग रास्ते पर दौड़ा दिया। इस फ़िल्म से मुझे कराटे किड फ़िल्म सीरीज़ की फ़िल्में याद आ गई थीं। आप क्योंकर महावीर फोगत अंकल को पिता-पिता कहकर संबोधित कर रहे हैं और कर रही हैं। मुझे लगता है कि वह फ़िल्म में पिता कम, गुरू ज़्यादा हैं। मुझे कराटे किड फ़िल्म के गुरूओं से कोई गिला शिकवा नहीं। याद कीजिये 'मिस्टर मियागी' या 'मिस्टर हान' को। कितने कठिन मास्टर थे वे लोग फिल्म में। अनुशासन कभी सस्ता नहीं होता। आप इस बात पर भले ही मुझसे बहस कर सकते हैं तो कीजिये। लेकिन मेहनत में झोंकना ही पड़ता है ख़ुद को। अब हर चीज़ को देखते समय ज़बरन नारीवादी विचारधारा का चश्मा लगाना पड़ेगा, ऐसा मुझे ठीक जान नहीं पड़ता।
सिनेमा हॉल में बैठे बैठे मैं कुछ देर के लिए वापस अपनी माध्यमिक कक्षाओं की पढ़ाई के दिनों में पहुँच गई। फ़िल्म से मैंने कहा, तुम रूको मैं बस अभी आई। मुझे यादों में कुछ काम है। ...सर्दी के दिनों में हमारे छमाही पेपर हुआ करते थे। मैं हमेशा से सर्दियों की शिकार रही हूँ। बीमारी और ठिठुरन मुझे हमेशा घेरे रहती। ऐसे में पेपर का जुल्म कोई अच्छी बात मुझे तो नहीं लगती थी। वो भी एक नहीं 6-7 पेपर लिखना आसान मुझे कभी नहीं मालूम पड़ा। स्कूली ज़िंदगी मुझे कभी भी हसीन नहीं लगी। हर बार घर और स्कूल को मुझसे पहले नंबर पर आने की विकट आशा रहती थी। एक नंबर भी कम हुआ नहीं कि खामोश, पर गुस्से वाली नज़रें पीछा करने लगती थीं। टीचर का कहना होता था कि तुम पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे रहो हो। ऐसे काम नहीं चलेगा। पिता इसके उलट कुछ कहते नहीं थे। वे सिर्फ़ करते थे। जब उन्हें मालूम चलता कि पेपर हैं तब 3 या 4 बजे से ख़ुद ही अलार्म का रूप अख़्तियार कर लेते और तब तक प्यार से उठाते जब तक मैं गुस्से में उठकर बैठ न जाती। उन्हें इस बात से कभी कोई फ़र्क नहीं पढ़ा कि बेटी कमजोर है। उसकी भी एक क्षमता है। ... मुझे याद नहीं कि कब उन्होने किसी पेपर के लिए न उठाया हो। सर्दियों में सब सो रहे रहे होते और मैं उठकर पन्ने पलट रही होती थी। ऐसे में मुझे पीछे से शॉल भी वही उढ़ाते थे। माँ को इससे कुफ्त ही हुई हमेशा। उनका खयाल था कि पास ही हो जाना काफी है। ठीक रहेगी तब ही हमें अच्छा लगेगा। सबसे छोटी है सो नरमी बरतनी जरूरी है।
कॉलेज में भी यही हाल रहा। आज भी लगभग यही हाल है। पर आज मुझे यह सब बुरा सा नहीं लगता। अच्छा लगता है कि मैंने अपने समय में अव्वल दर्जे की परफ़ोर्मेंस दी है। इसके अलावा बेहतर इंसान बनने की कोशिश भी कर रही हूँ। (शायद एक दिन कुछ अच्छी बन पाऊँ) हालांकि मैं आज भी एक ख़ास तरह की फ्लॉप लड़की ही हूँ। अभी तक एक नौकरी भी हासिल नहीं कर पाई हूँ। पापा के बाल अब सफ़ेद हो चुके हैं। वे काम पर भी नहीं जाते। उन्हें आज भी मुझसे ढेरों उम्मीद है। उनका खयाल है कि उनके जीते जी मैं कहीं स्थापित हो जाऊं। उन्हें यही बात मन में रहती कि एक छोटी ही सही पर सरकारी नौकरी मेरी बेटी को मिल जाये। इसमें अब मैं नारीवाद का पुट तो नहीं खोजूंगी। यह मेरी नाचीज़ समझ ही ठहरी। आप खोजिए।
फ़िल्म देखने के बाद मुझमें तुरंत एक आत्मिश्वास जागा और आनन-फानन में अपने औरताना बॉक्स को खोजने लगी। पूरे 325 रूपये की टिकट ली थी तब कुछ तो फ़िल्म से लेकर ही आऊँगी न! जिनको दिन रात मरने के ख़याल आते हैं उनको तो यह फ़िल्म ज़रूर देख लेनी चाहिए। मुझे पूरा यकीन है कि उनमें भी एक जज़्बा आएगा कि कोशिश करते रहिये आख़री पल तक। हो सकता है कि आपको भी गीता कुमारी फोगट की तरह लास्ट सेकंड में 5 अंक मिल जाएँ और आप गोल्ड मेडल जीत जाएँ।
दंगल में एक समाज है और उसमें एक परिवार जो समाज का हिस्सा है। वहाँ साहित्य नाम की कोई गंभीर और पवित्र वस्तु नहीं है और न ही कोई विचार। वहाँ ठंडा तो कभी गरम जीवन है। कभी भी कुछ मिल जाने वाला अटपटा जीवन। जो लोग नारीवादी के झण्डा लेकर यह कह रहे हैं कि यह पितृसत्ता का ही एक चेहरा है जहां एक पिता शक्ति में है और लड़कियों को कठपुतली बना रहा है तो वे वास्तव में जीवन को नहीं जानते। बहनों आप वो दृश्य भी तो देखो जहां लड़कियों कि कम उम्र की दोस्त की शादी हो रही है और दुखी है। वह यह कहती है कि कम से कम तुम लोगों के पिता तो तुम्हें शादी से परे कुछ और बनाने का सोच रहे हैं। उसके बाद से वे दोनों लड़कियां कुश्ती सीखने-लड़ने का ख़ुद से मन बना लेती हैं। अब जरा दिमाग लगाईए कि यदि लड़कियों का स्वतन्त्रता आंदोलन सफल हो जाता तब वे किस स्वरूप में होतीं। तब निश्चित रूप से उनका रूप अलग होता। वह रूप कम से कम मुझे तो स्वीकार्य नहीं होता। न मैं फ़िल्म देखने जाती।
हम अपनी ज़िंदगी में कितने फ्लॉप और हिट हैं यह ख़ुद देखते हैं और लोगों की नज़रों से भी समझते हैं। लोग किसी व्यक्ति के 'एक्शन' से उसे जानते हैं। यह कई तरीकों में से एक बढ़िया तरीका है किसी व्यक्तित्व और वस्तु को जानने का। गीता, बबीता और महावीर फोगट कुछ ऐसे ही व्यक्तित्व हैं जिन्हें उनके 'एक्शन' से आज मैं और आप जान रहे हैं। शून्य व्यक्तित्व से 10 नंबरी व्यक्तित्त्व में बदलने की बीच की प्रक्रिया ही मुझे दंगल का केन्द्रीय विचार लगा। इसमें अब यदि नारीवादी या पितृसत्ता का छोंक कोई लगाता है तब हो सकता है कि यह किसी भी वस्तु या फ़िल्म से जुडने का उसका अपना माध्यम है। इसमें कोई बुराई भी नहीं। मैं विचारधारा को न तो सोख सकती हूँ न उसे लिबास की तरह पहन नहीं सकती हूँ। मैं अपने जीवन से ही इस तरह की बातों और कहानियों को बेहतर समझने का आधार बनाती हूँ।