Monday, 5 December 2016

ज़िग ज़ैग टाइप- समीकरण

आजकल लहर समंदर में नहीं उठा करतीं। अब मीडिया लहरों का नया अड्डा है। पिछले कई घंटों से तमिलनाडु- मुख्यमंत्री की खबर ही नॉन-स्टॉप दिखाई और बताई जा रही है। अपोलो अस्पताल के आगे रोते और बेतहाशा बेहोश हो रहे लोगों की तस्वीरें ही दिखाई जा रही हैं। कभी कार्यालय के झंडे की तस्वीर पर फोकस हो रहा है तो कभी अस्पताल के बाहर बड़े नेताओं की बड़ी कारों पर।

उत्तर भारतीय होने के नाते दक्षिण जाने की तमन्ना तो हमेशा से मन में गुल खिलाती है। लेकिन दो मौक़े ही हाथ आए और वे भी काम के सिलसिले में। इसलिए कभी खुद की नज़र से घूमने या देखना का मौका मुहैया नहीं हुआ है। आगे कभी हुआ तो जरूर जाऊँगी। मेरे कुछ दोस्त दक्षिण भारत के हैं। जब उनसे मिलना जुलना होता है तब उनमें कुछ खास बातें दिखती हैं। वे लोग बहुत स्वाभाविक हैं। गर्मजोशी से मिलते हैं। सिम्पल रहते हैं। उनके व्यक्तित्व में बहुत सारी लेयर्स नहीं हैं। बहुत जानकार होते हैं। दकियानूस भी बेहद कम। शांत रहते हैं। सुनते हैं। पढ़ाई लिखाई का स्तर भी बहुत अच्छा होता है। इसलिए जब उनसे मिलना होता है तब बहुत सोचना नहीं पड़ता। झिझक कम रहती है। 

लेकिन इसके ठीक उलट सेट मैक्स, ज़ी सिनेमा, यू टीवी एक्शन आदि चैनलों पर साउथ की फिल्में बस मारकाट से लबालब भरी हुई दिखाई जा रही हैं। इतना ही नहीं 'बाहुबली' फिल्म में मुख्य नायिका का किरदार भी मुझे बेहद कमजोर लगा था। जब तक हीरो से प्यार नहीं हुआ तब तक नायिका के चरित्र में एक मजबूती थी। जैसे ही प्यार हुआ उसका चरित्र भी कमजोर करके पेश किया गया क्योंकि फिल्म हीरो के लिए यानि बाहुबली के लिए ही बनाई गई थी। इस सब के बावजूद कुछ फिल्में बेहद प्रभावित भी करने वाली होती हैं। मैं खुद 'अपरिचित' फिल्म को कई दफा देख चुकी हूँ। 

आज वही दक्षिण भारत अपने एक नेता की वजह से सुर्खियों में आ गया है। मुझे बताया जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का बहुत अधिक जन मन पर प्रभाव था। जब मैं आम लोगों से मिलती जुलती हूँ तब लोग बातचीत में 'इनिरा जी' कहकर आज भी पुकारते हैं। मेरी माँ को उन्हें बेहद नजदीक से देखने का मौका मिला था। खुद माँ का कहना है कि एक खास तरह की ऊर्जा महसूस हुई और नेता होने के चलते उस समय उनके स्वभाव में बहुत कोमलता दिखी। खैर जब उन्हें मारा गया तब देश में हाहाकार मचा जिसकी आग आज भी शांत नहीं हुई है। आज के समय में जयललिता बीमार हैं और बहुत हद तक दीवानगी लोगों में उनको लेकर दिख रही है। वे अम्मा नाम से वहाँ पुकारी जाती हैं। 

जब मैं अपने ग्रेजुएशन में थी तब भारतीय राजनीति की विशेषताओं में 'व्यक्तिगत पूजा' करके एक बिन्दु पढ़ाया गया था। वही यहाँ दिख भी रहा है। किसी एक व्यक्ति का समूचे वर्तमान और इतिहास में हावी होना मुझे शुरू से अटपटा लगता है। ...मुझे अच्छा नहीं लगता। ऐसा बताया जा रहा है कि वह एक अच्छी नेत्री हैं और लोगों के लिए उन्हों ने बहुत काम किया है। लेकिन यह भी दिलचस्प है कि उनकी पार्टी में उनके पास ही शक्ति केन्द्रित थी और शायद यही वजह है कि आज कोई दूसरा जाना माना चेहरा न तो पार्टी में दिख रहा है और न ही राज्य में। जाति से ब्राह्मण और लगभग 6 भाषाएँ जानने वाली जयललिता  निश्चित रूप से बेहतरीन नेत्री होंगी। इसके बावजूद उनकी छवि बहुत साफ भी नहीं रही। एक शक्तिशाली महिला नेता होने के चलते उनका सम्मान होना भी चाहिए। बहुत से उतार चढ़ाव के बावजूद खूब पढ़ी-लिखीं जयललिता राज्य की कई बार मुख्यमंत्री अपने काम और प्रतिभा के बल पर ही बनीं। 



कुछ दिनों पहले तीन मूर्ति म्यूज़ियम गई थी। जब भी वहाँ जाती हूँ  तब मेरा मुंह 'हाआआ...' कर के खुल जाता है। भला दो या तीन लोगों के लिए इतना बड़ा घर क्यों? इतने बड़े घर में कोई गरीब क्यों नहीं रहता? या जब कभी झुग्गी झोपड़ियों के लोगों को सेटल करने का समय आता है तब यही सरकारें 22 गज़ या कई बार 12-13 गज़ में निपटा देते हैं। है न अजीब बात...खुद बीमार हों तो निजी व सुविधा वाले अस्पताल और गरीब हो तो सीधे मौत।  प्रधानसेवक होने के बाद भी घोर सुरक्षा में रहते हैं, उन्हीं लोगों से जिन्हों ने उनको अपना मत दिया है। 

असल में समानता संविधान के कुछ सूत्रों द्वारा दिखाया गया एक ख्वाब है। ज़मीन पर इसके ठीक उलट है। कहीं भी कुछ बराबर नहीं है। सपने कब सच हुआ करते हैं? इसलिए जब मैं लोगों को किसी एक व्यक्ति के लिए रोते बिलखते हुए देखती हूँ कुछ देर भावुक हो जाती हूँ पर बाद में भावुकता खत्म हो जाती है। अभी अभी टीवी देख रही थी तो लग रहा था कि मैं भी जयललिता के लिए रो ही दूँगी।

इन सब चरित्रों और अपने समय की महान घटनाओं (नोटबंदी) के चलते कुछ पहलुओं पर एक आम व्यक्ति की नज़र से सोचना अपने आप शुरू हो जाता है। कुछ भी नीतियाँ, आखिर लोकतन्त्र में बिना जनता की मर्ज़ी या जनमत संग्रह के क्यों लागू कर दी जाती हैं? जनता ने वोट जरूर डाला है पर सुशासन के लिए। सही संसाधनों के बँटवारे के लिए, लेकिन बात उलट जाती है। लोगों में निष्क्रिय विरोध भी नहीं दिखता। मुझे सबसे ज़्यादा हैरानी तब होती है जब आम लोग पार्टी विशेष प्रवक्ता की भूमिका में दिखने लगते हैं। जबकि (मुझे लगता है कि) जनता का काम बहुत बड़ा है और वह यह कि उत्तरदायी व्यक्ति के उत्तरदायित्व को समझे और सवाल जवाब किए जाएँ। सत्ता दल से हमेशा उतना फासला जरूर रखना चाहिए जितने में उनके कामों की समीक्षा हो।

कभी कभी लगता है कि जानबूझकर जनता में रीढ़ की हड्डी को जन्म लेने नहीं दिया जाता। पूरी उम्र केंचुआ मिट्टी में छटपटाने में निकाल देता है और पढ़ाया यह जाता है कि देखों केंचुए मिट्टी की उपजाऊ क्षमता बढ़ाते हैं। वास्तव में यही एक नज़र है जो हर किसी में विकसित होनी चाहिए। वरना तो वक़्त समीकरण हल करवाने में निकलवा दिया जाएगा। हाथ में 'x' और 'y' की वैल्यू निकाल के घूमते रहिए। यही सरकार एक ढंग की नौकरी तक नहीं देगी। इसलिए जरूरी यही है अब खुद से एक समीकरण बनाया जाए। 

वास्तव में हमारे आसपास ज़िग ज़ैग टाइप के लोग और परिस्थितियाँ मौजूद होती हैं। किसी भी संस्था और व्यवस्था की संरचना दिखती भले ही औपचारिक हो पर ऐसा होता नहीं। उन्हीं में से कुछ गुटखाखोर होंगे तो कुछ बीड़ीदार। हाँ कुछ औरतें भी इसमें हिस्सा होती हैं। व्यवस्था का कोई जेंडर नहीं होता। उसकी खास निशानियाँ होती हैं और वह अपने संरचना के अनुसार स्वभाव हासिल करती है। इसलिए सिर्फ दल और नेता को आदर्श मानना या प्रेम करना अच्छी बात हो सकती है लेकिन बहुत अच्छी बात नहीं होनी चाहिए।  

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मेरे खुद के विचार हैं। जरूरी नहीं कि आप सहमत हों। 

(अम्मा के लिए प्रार्थना। जल्दी स्वस्थ हों।)


 

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