Wednesday, 7 December 2016

पैराशूट

आजकल टीवी पर आने वाला एक विज्ञापन मेरा ध्यान खींच लेता है। बहुत अच्छा है। आप लोगों ने भी देखा होगा और ध्यान भी दिया होगा। विज्ञापन का नाम 'अगर परवाह है, तो दुबारा पुछो' है। यह सच है। आज कल की ज़िंदगी की शैली उतनी सरल नहीं है और हर खोपड़ी के भेजे में एक तूफान सा ही गुज़र रहा है। मैंने स्कूल के बच्चों तक में तनाव जैसी बीमारी देखी है। लेकिन इसमें कोई हैरानी नहीं कि बच्चों में भी तनाव के लक्षण दिख रहे हैं। हम सब खुद इस तरह की ज़िंदगी के पाठ्यक्रम के जिम्मेदार हैं। अगर कोई कहता है कि उसके पास कोई टेंशन नहीं तो यह सौ प्रतिशत सच है कि वह झूठ बोल रही या बोल रहा है। ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई इस तनाव से बच सका हो।

जब मैं छोटी थी तब पढ़ाई की बहुत चिंता हो जाती थी। पेपर गलत हो गया तो, अच्छे नंबर नहीं आए तो, फ़ेल हो गई तो... और भी बहुत कुछ। मुझे बहुत टेंशन।...उफ़्फ़! उस समय एक अजीब घटना घटा करती थी। हमारे इलाक़े में बहुत से पैराशूट उड़ते हुए गुजरते थे। न जाने कहाँ से आते और कहाँ चले जाते। उनमें कोई बैठा हुआ नज़र नहीं आता था। मैं खुद एक लाल पैराशूट की गवाह भी रही हूँ। तब आँखें खराब नहीं थीं सो बहुत गहराई से पैराशूट को देखा था। मेरे लिए उसे देखना अद्भुत अनुभव था। हमारे पड़ोस में एक खुशी की लहर उठ जाती थी। जो घर में होता उसको आवाज़ लगा-लगाकर बुलाया जाता कि आसमान में फिर एक गुबारा आया है, इससे पहले चला जाये देख लो!



ऐसी ही एक शाम जब मैं अपने पेपर की तैयारी में मर रही थी तब लाल रंग का बड़ा पैराशूट आया। बस फिर क्या था! सभी की आवाजों में मेरा घरेलू नाम था। पर मैं हिली नहीं। वही डर था कि टाइम नहीं है। इतने में माँ आईं और विद्यारानी को झटकते हुए बोलीं- 'देख बाहर क्या हो रहा है! नहीं गई तो सब छूट जाएगा।'  मैंने वह मौका गंवा दिया। उसके बाद से शायद कोई पैराशूट नहीं आया। हाँ, पर सड़े और बेहूदा एग्ज़ाम्स हर बार आए। हर बार अच्छे नंबर ही आए, लेकिन कुछ फायदा कभी नहीं मिला। पास, फ़ेल या टॉप आना बहुत झूठा मज़ाक है जो सेहत के लिए अच्छा नहीं। इल्म ही सब कुछ है।

इस ऊपर की घटना के बाद मुझे एक सपना आया। पैराशूट का रोमांच इतना अधिक मुझमें बस गया कि दिमाग में खयाल आए। वही सपना भी बन गया। पैराशूट में एक बार बैठने की तमन्ना। आपको याद होगा एक हिन्दी की रूमानी फिल्म है-'रूल्स-प्यार का सुपरहिट फॉर्मूला' जिसमें एक पैराशूट का अंत में दृश्य है। ऐसे ही फिल्म 'द ममी' में भी अजीबो-गरीब पैराशूट का फिल्मांकन है। आप भी सोचिए और भी कहीं आपने देखे होंगे। जैसे ही दिमाग में मैं उड़ने के खयाल लाती हूँ वैसे ही एक हल्कापन महसूस होता है। बिल्कुल ताज़ा हो जाती हूँ। ऐसा लगता है कि आसमान में उड़ना एक बेहतरीन काम है। ऊपर से दुनिया का नज़ारा देखना हसीन होता होगा। ऐसे में कोई महान तनाव भी मेरे आसपास नहीं आता। जो भी नकारात्मकता होती है काफूर हो जाती है। इस बड़े गुब्बारे की दिमाग में छवि आने मात्र से ही मुझे सबकुछ अच्छा दिखने लगता है। मेरे लिए पैराशूट एक हसीन प्रतीक में तब्दील हो चुका है।



(नोट-हवाई जहाज से नीचे देखना उतना बेहतरीन अनुभव नहीं लगता मुझे)
  
आज जब बड़े हुए हैं तो दूसरी तरह की चिंताएँ रहती हैं। तनाव और चिंता में मुझे बहुत फ़र्क नहीं समझ आता। अपने लोगों में या बाहर के लोगों में तनाव की एक समान कृपा है। जब कई लोग कहते हैं कि वे चिंता नहीं लेते तब मुझे वे अजूबे से कम नहीं लगते। सही बात है इस बड़ी सी दुनिया में हम सिकुड़े हुए लोगों में से यदि कोई चिंता नहीं करता तो हैरत हो ही जाती है। एक समय ऐसा भी आया था कि मुझे बेहद तनाव था। तब इत्तिफाक़ से मुझे एक सूफी मिले जिन्होंने बहुत हद तक तनाव से बाहर निकाला और दुनिया को देखने का नज़रिया दिया।

मुझे इस बात पर शिद्दत से यकीन है कि अपने चारों तरफ कुछ बेहतरीन और सुलझे हुए लोगों के साथ को रखना चाहिए जो आपके बोलने के अंदाज़ से ही पकड़ लें कि आप ठीक नहीं हो। जानती हूँ यह कला तो सिर्फ माँ को आती है। लेकिन हो सकता है कुछ और लोगों को भी आती हो। कई बार कुछ तकलीफ़ें इतनी बड़ी होती हैं कि सारा का सारा 'आपा' हाय तौबा में बदल जाता है। ऐसा किसी के साथ भी हो सकता है। कोई बुजुर्ग या फिर नौजवान के साथ भी। इसलिए कम से कम अपने आसपास को संवाद कर के आप हल्का कर सकते हैं। यकीन मानिए आपके कुछ नरम शब्द दूसरों को दवाई से ज़्यादा फायदा पहुंचा सकते हैं।

                                                     बॉब ओर्सीलो का खींचा हुआ फोटो
                                      
लेकिन एक दशा ऐसी भी आ सकती है जब आपके आसपास कोई भी न हो। फिर अपने भयंकर तनाव से निपटने के लिए क्या किया जाये, यह सवाल उभर कर आता है। आजकल के चलते फिरते विज्ञान और तकनीक के जमाने में मनोचिकित्सक की मांग बहुत बढ़ गई है। इस तरह के डॉक्टर का सहारा लिया जा सकता है। लेकिन फिर भी अपने अंदर की गुफा में एक रोशनी तो हमेशा होती ही है। क्या आपको नहीं लगता? मैंने हमेशा इसे महसूस किया है। पढ़े लिखे और दिमागदार लोग इसे 'Intuition' कहकर पुकारते हैं। संत महात्मा इसे 'अंतर्बोध' कहते हैं। एक बात बोलूँ? यह आवाज़ हम सभी में है। बचपन में मुझे यही बार बार कहा जाता था -'खुद से पुछो!' उस समय मैं बहुत कन्फ्युज रहती थी कि यह सब क्या बकवास है। पर अब लगता है कि अपने अंदर ही कोई रहता है।

वो दिन गुज़र गए जब यह सब संतों की तपस्या जैसी बात कही जाती थी। वास्तव में मुझे ऐसा लगता है कि हम सभी को वह सकती दी गई जो हमारे अंदर है। कल जयललिता जी का इंटरव्यू देख रही थी। मुझे लगता है सभी को देखना चाहिए। उनकी ज़िंदगी में भी भयानक उतार चढ़ाव आए पर वे आत्महत्या करने नहीं गईं। बल्कि खुद को उससे से भी मजबूत और बेहतर बनाया। सोचिए जिस औरत की बेइज्जती की गई, उसने रोने का विकल्प न अपनाकर अपने काम और दिमाग से एक मजबूती हासिल की। मुझे देखकर अच्छा लगा।

सड़क पर गड्डे आने का कारण हमेशा नगरपालिका का निक्कमापन नहीं होता। कई बार होता यह कि बारिश या अधिक वाहनों की आवाजाही से कुछ गड्डे उभर आते हैं। यह स्वाभाविक है। ठीक इसी तरह हमारा रोज़मर्रा हमेशा सुचारु नहीं चल सकता। कुछ न कुछ ऐसा घटित होगा ही जो तंग कर जाएगा। यह हिस्सा है जीवन का। इसलिए चिंताएँ, अप्रिय घटनाएँ या नकारात्मकताएँ जरूर आएंगी। इन्हें पूरी तरह रोका तो नहीं जा सकता लेकिन अपने एक्शन को समझदारी से अंजाम देने के चलते कम किया जा सकता है। तनाव एक सच्चाई है जिसे मैं पूरी तरह स्वीकार करती हूँ और जूझती भी हूँ।  

तनाव को तोड़ा जा सकता है। इसके कई जरिये हैं, जैसे किताबें। जी हाँ। किताबें वे जरिया हैं जिनसे आप दूसरों की जिंदगी के अनुभव से रूबरू हो सकते हैं। एक किताब के सहारे इतिहास से लेकर भूगोल तक की सैर कर सकते हैं। मुझे बहुत ज़्यादा किताब पढ़ना पसंद नहीं है। बहुत लोगों को नहीं होगा। लेकिन कभी कभी तो इनसे दोस्ती की ही जा सकती है। इसके अलावा जगह में बदलाव भी तनाव के बम को मिनटों में फोड़ देता है। घूमने निकल जाइए। भारत में 29 राज्य हैं। अपना देश क्या कम सुंदर है। एक बार कुछ जगहों का अनुभव लेंगे तब आपको लगेगा कि आप खामखां की बातों में उलझे थे। यकीन मानिए आप भी एक बढ़िया 'स्टोरी टेलर' बन सकते हैं। जो घूमेगा वही तो रचेगा।

एक बात जो मेरे पास रहने वाली एक शख़्स हमेशा कहती हैं- 'आपकी ज़िंदगी से बड़ा कोई नहीं और कुछ भी नहीं!' सच में मुझे इस बात में बेहद दम लगता है। जब नज़रें मिली हैं तो अपने आसपास का दीदार करो। बाकी अपने अंदर झांकना आपका काम है। मैं जो बाँट सकती हूँ वह बता रही हूँ। कभी कभी टीचर बनने में क्या बुराई है! थोड़ा बहुत तो 'टीचराना' बना ही जा सकता है।


मैं तो चली पैराशूट के ख्वाब देखने!  

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