बात तब की है जब घरों में ब्लैक-एन-व्हाइट टीवी होना भी बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। मनोंरंजन के साधनों में रेडियो की एक ख़ास जगह हुआ करती थी। घर में थे एक शख़्स जिन्हें की टीवी देखने का शौक तो नहीं था पर रेडियो सुनने का उत्तम चस्का जरूर था। उम्र यही कोई 48 या 50 रही होगी। पिता जी दिल्ली में 80 के दशक के अंतिम सालों में आए और आते ही थोड़ी खोजाई के बाद एक कंपनी में काम पर लग गए थे। उनकी उस समय तनख्वाह 175 रुपये तय हुई। ओवरटाइम मिला कर 200 से 300 तक मिल जाया करते थे।
उस वक़्त तक शहर में ठिकाने की जद्दोजहद जारी रही। कुछ ही समय में कंपनी के पास ही एक कमरा किराए पर मिल गया। धीरे धीरे पिताजी ने खुद से पकाकर खाने के लिए कुछ बर्तनों और स्टोव का इंतजाम किया। बाद में बाकी सामानों का। पिता जी को फिल्मों का बहुत शौक तो नहीं था पर हाँ खबरों को जानने को दिलचस्पी लगातार रहती थी। सो कुछ ही महीनों की बचत से चाँदनी चौक से 125 रुपये की क़ीमत का एक पीला मर्फी रेडियो ले आए। काम से लौट आने के बाद वह इसे मद्धम आवाज़ में चलाकर अपने को अपडेट कर लेते थे।
कुछ ही बरसों में कलकत्ता में रहने वाले बड़े पापा दिल्ली पिताजी के पास आए और यहाँ की आबोहवा के शिकार हो गए। अब दिल्ली सपरिवार के रहने की जगह बन गई। बड़े पापा को अचानक एक बीमारी ने आ घेरा सो वह ज़्यादातर अपना समय घर में ही बिताने लगे। इसलिए पिताजी ने अपना प्रिय रेडियो बड़े पापा को ध्यान बांटने के लिए तोहफे-शक्ल में पेश कर दिया। पहले-पहल तो उन्हें रेडियो अपने एकांत का ज़ोरदार उल्लंघन लगा पर जब उसे एक बार चालू किया तो कुछ नहीं बोले और हमेशा के लिए उसे अपने पास रख लिया।
बड़े पापा को देखो तो लगता था कोई सूफी दरवेश हैं। ज़्यादा बोलते नहीं थे। कभी उन्हें किसी बात पर बहस करते हुए नहीं देखा। जो रुपया कमाया उसे घर के लोगों पर ही भरपूर खर्च किया। इसलिए जब वह बीमार पड़े तब उनके चेहरे पर किसी भी तरह की कोई चिंता दिखाई नहीं दी। उनकी मृत्यु भी बड़ी शांति से दस्तक दे गई थी। किसी तरह का शोर उनके अंदर महसूस नहीं किया गया। उन्हों ने अपने लिए एक अलग कमरे की मांग की सो उन्हें हरे पर्दे वाला कमरा दिया गया जो छत पर अपने आप में अकेला रहता था। अब उस कमरे के साथी बड़े पापा बन गए।
उनके इंतकाल से पहले के दिन हमेशा की तरह साधारण ही बिता करते थे। उनके रूटीन में अक्सर कुछ किताबें शामिल हुआ करती थीं पर थोड़े वक़्त में ही उन्हों ने किताबों से रिटायरमेंट ले ली और रेडियो से लगाव बढ़ा लिया। गीत, नाटक, खबरें और हर तरह के कार्यक्रम वे रेडियो पर सुनते थे। रेडियो का रंग पीला था और उसके खटके या बटन बड़े बड़े, गोल व काले रंग में थे। उसके दाहिने तरफ एक एंटीना था जिसे अगर उठा दिया जाता तो चैनल जल्दी पकड़ आते थे। उसमें नीले रंग वाले बड़े बड़े निप्पो कंपनी के सेल डाले जाते थे। इतना ही नहीं उसमें एक हेंगर भी था जिसे पकड़ कर उसे आसानी से कहीं भी लाया ले जाया सकता था। रेडियो वह खास खास समय पर सुनते थे जैसे सुबह 11 बजे से 12 बजे तक। इसके बाद 3 से 4 बजे तक और रात के 9 से दस बजे तक। रेडियो की वॉल्यूम बहुत तेज़ तो नहीं होती थी पर उसकी आवाज़ नीचे के कमरों तक आ जाती थी। हल्की मद्धम।
रेडियो हमारे भी रूटीन का दिलचस्प हिस्सा था। इसलिए हमें भी उसकी आदत हो गई थी। कुछ कार्यक्रम हमें भी अच्छे लगते थे। लगता था कानों का अभ्यास हो रहा हो। रेडियो जब चलता था तब सभी लोग खामोश होकर सुनते थे। इसलिए बातों की बहुत ज़रूरत नहीं पड़ती थी। सभी इशारे से अपनी जरूरत की बात सम्पन्न कर लेते थे। ऐसा लगता था कि सच में दीवारों के भी कान होते हैं। वह भी मानो साथ साथ रेडियो सुन रही हों। बड़े पापा को इस बात की बखूबी खबर रहती थी वह ही नहीं सभी रेडियो सुन रहे हैं इसलिए वह मुस्कुरा दिया करते थे।
उनकी मृत्यु सुबह सूरज उग आने के बाद हुई। उनके बाद उनके कमरे में एक भी तब्दीली नहीं की गई। जो चीज जहां रहती थी आज भी वह चीज वैसे ही रहती है। उनके बाद भी ऐसा लगता था कि वह रेडियो सुन रहे हैं। एक खालीपन सा ज़रूर आ गया था। कोई रेडियो भी नहीं सुनता था। सुनने का रस खत्म हो गया था। आज जब अपने आसपास में शोर को शोर मचाते हुए देखती हूँ तब खुद-ब-खुद उन दिनों के बारे में सोचने बैठ जाती हूँ। एक सुकून मिलता है। ऐसे ही थोड़ी न लोग यादों को सीने से चिपकाकर रखते हैं।
लगभग 2 या 3 महीने बाद अचानक रात 9 बजे मुझे रेडियो चलने की आवाज़ ऊपर के कमरे से आई। मैं भागी हुई ऊपर के कमरे में दाखिल हुई। लेकिन कमाल था कि कुछ भी हलचल नहीं थी। पर ऐसा अहसास आया कि कोई अभी अभी यहाँ आया था। पापा मेरे पीछे पीछे भागे हुए आए और बोले- 'क्या हुआ?' मैंने कहा- 'कुछ नहीं। ऐसा लगा रेडियो बज रहा था!'
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किसी से बातचीत पर आधारित
(आज के FM रेडियो की बात नहीं की जा रही। )
उस वक़्त तक शहर में ठिकाने की जद्दोजहद जारी रही। कुछ ही समय में कंपनी के पास ही एक कमरा किराए पर मिल गया। धीरे धीरे पिताजी ने खुद से पकाकर खाने के लिए कुछ बर्तनों और स्टोव का इंतजाम किया। बाद में बाकी सामानों का। पिता जी को फिल्मों का बहुत शौक तो नहीं था पर हाँ खबरों को जानने को दिलचस्पी लगातार रहती थी। सो कुछ ही महीनों की बचत से चाँदनी चौक से 125 रुपये की क़ीमत का एक पीला मर्फी रेडियो ले आए। काम से लौट आने के बाद वह इसे मद्धम आवाज़ में चलाकर अपने को अपडेट कर लेते थे।
कुछ ही बरसों में कलकत्ता में रहने वाले बड़े पापा दिल्ली पिताजी के पास आए और यहाँ की आबोहवा के शिकार हो गए। अब दिल्ली सपरिवार के रहने की जगह बन गई। बड़े पापा को अचानक एक बीमारी ने आ घेरा सो वह ज़्यादातर अपना समय घर में ही बिताने लगे। इसलिए पिताजी ने अपना प्रिय रेडियो बड़े पापा को ध्यान बांटने के लिए तोहफे-शक्ल में पेश कर दिया। पहले-पहल तो उन्हें रेडियो अपने एकांत का ज़ोरदार उल्लंघन लगा पर जब उसे एक बार चालू किया तो कुछ नहीं बोले और हमेशा के लिए उसे अपने पास रख लिया।
बड़े पापा को देखो तो लगता था कोई सूफी दरवेश हैं। ज़्यादा बोलते नहीं थे। कभी उन्हें किसी बात पर बहस करते हुए नहीं देखा। जो रुपया कमाया उसे घर के लोगों पर ही भरपूर खर्च किया। इसलिए जब वह बीमार पड़े तब उनके चेहरे पर किसी भी तरह की कोई चिंता दिखाई नहीं दी। उनकी मृत्यु भी बड़ी शांति से दस्तक दे गई थी। किसी तरह का शोर उनके अंदर महसूस नहीं किया गया। उन्हों ने अपने लिए एक अलग कमरे की मांग की सो उन्हें हरे पर्दे वाला कमरा दिया गया जो छत पर अपने आप में अकेला रहता था। अब उस कमरे के साथी बड़े पापा बन गए।
उनके इंतकाल से पहले के दिन हमेशा की तरह साधारण ही बिता करते थे। उनके रूटीन में अक्सर कुछ किताबें शामिल हुआ करती थीं पर थोड़े वक़्त में ही उन्हों ने किताबों से रिटायरमेंट ले ली और रेडियो से लगाव बढ़ा लिया। गीत, नाटक, खबरें और हर तरह के कार्यक्रम वे रेडियो पर सुनते थे। रेडियो का रंग पीला था और उसके खटके या बटन बड़े बड़े, गोल व काले रंग में थे। उसके दाहिने तरफ एक एंटीना था जिसे अगर उठा दिया जाता तो चैनल जल्दी पकड़ आते थे। उसमें नीले रंग वाले बड़े बड़े निप्पो कंपनी के सेल डाले जाते थे। इतना ही नहीं उसमें एक हेंगर भी था जिसे पकड़ कर उसे आसानी से कहीं भी लाया ले जाया सकता था। रेडियो वह खास खास समय पर सुनते थे जैसे सुबह 11 बजे से 12 बजे तक। इसके बाद 3 से 4 बजे तक और रात के 9 से दस बजे तक। रेडियो की वॉल्यूम बहुत तेज़ तो नहीं होती थी पर उसकी आवाज़ नीचे के कमरों तक आ जाती थी। हल्की मद्धम।
रेडियो हमारे भी रूटीन का दिलचस्प हिस्सा था। इसलिए हमें भी उसकी आदत हो गई थी। कुछ कार्यक्रम हमें भी अच्छे लगते थे। लगता था कानों का अभ्यास हो रहा हो। रेडियो जब चलता था तब सभी लोग खामोश होकर सुनते थे। इसलिए बातों की बहुत ज़रूरत नहीं पड़ती थी। सभी इशारे से अपनी जरूरत की बात सम्पन्न कर लेते थे। ऐसा लगता था कि सच में दीवारों के भी कान होते हैं। वह भी मानो साथ साथ रेडियो सुन रही हों। बड़े पापा को इस बात की बखूबी खबर रहती थी वह ही नहीं सभी रेडियो सुन रहे हैं इसलिए वह मुस्कुरा दिया करते थे।
उनकी मृत्यु सुबह सूरज उग आने के बाद हुई। उनके बाद उनके कमरे में एक भी तब्दीली नहीं की गई। जो चीज जहां रहती थी आज भी वह चीज वैसे ही रहती है। उनके बाद भी ऐसा लगता था कि वह रेडियो सुन रहे हैं। एक खालीपन सा ज़रूर आ गया था। कोई रेडियो भी नहीं सुनता था। सुनने का रस खत्म हो गया था। आज जब अपने आसपास में शोर को शोर मचाते हुए देखती हूँ तब खुद-ब-खुद उन दिनों के बारे में सोचने बैठ जाती हूँ। एक सुकून मिलता है। ऐसे ही थोड़ी न लोग यादों को सीने से चिपकाकर रखते हैं।
लगभग 2 या 3 महीने बाद अचानक रात 9 बजे मुझे रेडियो चलने की आवाज़ ऊपर के कमरे से आई। मैं भागी हुई ऊपर के कमरे में दाखिल हुई। लेकिन कमाल था कि कुछ भी हलचल नहीं थी। पर ऐसा अहसास आया कि कोई अभी अभी यहाँ आया था। पापा मेरे पीछे पीछे भागे हुए आए और बोले- 'क्या हुआ?' मैंने कहा- 'कुछ नहीं। ऐसा लगा रेडियो बज रहा था!'
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किसी से बातचीत पर आधारित
(आज के FM रेडियो की बात नहीं की जा रही। )
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