Friday, 2 December 2016

इलायची (कहानी)

मुझे खुशबू पसंद हैं। खास तौर से मोगरे के फूल में से आने वाली महक। मैं अपने आसपास रहने वाली लगभग हर चीज की महक को अपने अंदर ले सकती हूँ। एक सामान्य दिन में बहुत सी चीजें शामिल होती हैं और कई छूट भी जाती हैं। सर्दी की सुबह की बात करें तो चाय में पड़ने वाली अदरक, इलायची जहां अपना ज़ायका बिखेरते हैं वहीं इन दोनों में से महक भी लाजवाब आती है।

कुछ समय से अब मैं ये सब ख़ुशबुओं को सहन नहीं कर पाती। मोगरे की भी नहीं। महकने वाली चीज़ों के पास से गुज़र भी जाऊं तो नर्वस सिस्टम के तार तार हिल जाते हैं। शहर में रहने का यह सबसे बड़ा ईनाम भी है। शहर में हर रोज़ कुछ तो मरता ही है। वो बात अलग है कि 'फॉग' से हम अपने आप को महका ज़रूर सकते हैं। पर आप क्या नहीं सोचते कि ये नक़ली खुशबुएँ आपके साथ बेईमानी करती हैं? न भी करती हों शायद आप 'एयर विक' लगाकर गाड़ी में आते जाते हों। यह भी अच्छी बात है। शायद आपको आदत है।

मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ रहे हैं। सर्दियों वाले। अब इलायची की महक भी बर्दाश्त नहीं होती। पहले तो इलायची को देख कर ही बहुत खुशी होती थी। हल्का हरा रंग और उसमें महकते काले दाने मानो एक नई दुनिया सी दिखलाते थे। मैं इन दानों को इलायची के बच्चे कहकर पुकारा करती थी। घर में इलायची का भरपूर इस्तेमाल होता था। न हो तो दादी पूरा घर सिर पर उठा लेती थीं। उनका खयाल था कि इन सब चीजों के असर पड़ते हैं। शरीर ठीक रहता है। सो मुझे भी यह बात खूब जम गई। बिना अदरक और इलायची के चाय नहीं पीती थी।

हमारा परिवार छोटा था। बड़ी बहन का नाम सतुआ था। दादी ने ही रखा था। सतुआ को अपना नाम बेहद 'ओल्ड फेशन्ड' लगता था। बाक़ी बची हम दोनों बहनों के नाम नए जमाने से मैच करते थे। हम तीनों पर एक जोड़ी बूढ़ी आँखें जब तब पीछा किया करती थीं। यह सब बहुत गुस्सा दिलाने वाला भी होता था। कुर्ता भी सिलवाया जाता तब कॉलर लगवा दी जाती और आगे से बंद गला। 'तहजीब बंद कपड़ों में होती है'- दादी का यही कहना था। कभी ऐसा लगता था कि हम तीनों की कन्डीशनिंग हो रही हो। ज़ुबान भी उतनी खोलने की इजाजत थी जितने की जरूरत होती। लड़कियां चुप रहते हुए ही अच्छी लगती है- यह पंक्ति हमेशा कान से टकराया करती थी । लेकिन दादी औरत होते हुए भी बहुत बोलती थीं। उनकी आवाज़ का वॉल्यूम भी सामान्य से अधिक रहता था। न मालूम कहाँ से वे सीखकर आई थीं।

सतुआ को इन सब से सबसे ज़्यादा चिढ़ थी। क्योंकि उसके कॉलेज का वक़्त भी दादी नोट किया करती थीं। एक मिनट इधर उधर हुआ तो घर में हाहाकार मच जाता था। सतुआ का हर खयाल बहुत ज़्यादा बड़ा होता था। बचे मैं और छाया, तो छाया का भी हाल सतुआ जैसा ही था। विद्रोही टाइप का। मेरा कुछ भी नहीं था। मैं बोलती ही नहीं थी। ...मुझे बोलना ही नहीं आता था। मुझे स्कूल जाना और घर में रहना आता था। मेरी इस तरह की आदत दादी को पसंद नहीं थी। मुझे कोई फर्क नहीं था। मुझे अपने घर में अपने ही लोग अजनबी लगते थे। आज भी ऐसा ही लगता है। हर रिश्ता है पर मन नहीं जुड़ता किसी से। जाने क्यों? पता नहीं। उनमें से एक महक आती है।

खैर ...हमारे सामने वाले घर में एक औरत किराए पर रहने आई। उस घर के मकान मालिक दूसरी जगह रहते थे सो उस औरत ने वह पूरा घर ही किराए पर ले लिया। लंबा क़द था। रंग गेहुआँ था। काले बाल। एक दम सीधे। बड़ी बड़ी आँखों में मोटा काजल लगाती थी। नाक में मोती का लॉन्ग हुआ करता था। कट बाजू वाले सूट पहना करती थी। बिंदी लगाती थी लेकिन सिंदूर नहीं। इस बात पर गली में एकाद बहस भी हुई कि वह शादीशुदा है या नहीं। लेकिन किसी की हिम्मत नहीं हुई उससे से सीधे पुछने की। मुझे वह बहुत अच्छी लगती थी। इतना ही नहीं सतुआ भी उससे प्रेरित हुई तो काजल लगाने लगी। इस पर दादी ने कहा कि बड़ी लड़की के लक्षण ठीक नहीं लग रहे, तब पापा ने कहा कि काजल लगाने में क्या गड़बड़ है। दादी चुप तो हो गईं पर हम तीनों पर निगरानी और बढ़ गई।

दादी का खयाल था कि हम उस नई 'बदचलन औरत' से ज़्यादा ही इंस्पायर्ड हो गए हैं। सब ऐसे ही चला रहा था। एक दिन घर में किसी के न रहने पर मुझे अखबार की जरूरत आन पड़ी। मैंने अपने घर के छज्जे से ही उनसे पूछा- 'आपके पास आज का अखबार होगा?' वह मुस्कुरा कर बोलीं- 'हाँ है। उसे लेने आपको मेरे घर में आना होगा।' अगले दस मिनट में मैं उनके में थी। घर में पीला रंग छाया हुआ था। सीढ़ियों की दिवारों पर सुंदर सुंदर पैंटिंग्स टंगी थीं। हर तरह की। जब उनके निजी कमरे में गई तब पहली बार आसमान को किसी कमरे में पाया। मैं वह कमरा कभी भूल नहीं सकती। मुझे आज भी उस कमरे की रोशनी का शीतल अहसास है। वहाँ खूबसूरत चित्र थे। मैं हैरान थी। मैंने पूछा- 'आप क्या करती हैं?' रसोई में जाते हुए वह बोलीं- 'दुनिया रंगती हूँ।...इलायची वाली चलेगी?' मैंने कहा- 'हाँ, बिलकुल। घर में यही बनती है।' इस दौरान वह मेरे बारे में और घर के बारे में पूछने लगीं। उनमें एक बात मैंने नोटिस की। वह हरी इलायची मुंह में रख कर बात कर रही थीं। उन्हों ने बताया कि उन्हें आदत है इस हरी इलायची की। घड़ी की सुइयों को देखा तो मुझे घर याद आया। रात को सतुआ और छाया को बताया तो उन दोनों में भी उस औरत से मिलने की ललक जग गई।



कुछ दिनों बाद एक दिन आया। जाने क्यों? सुबह सुबह भयानक शोर घर में दस्तक दे रहा था। कहीं बहुत झगड़ा हो रहा था। छज्जे से झाँका तो वही औरत बीच में बहुत गुस्से में खड़ी थी और आसपास बहुत लोग खड़े थे। इतने में उसके मकान मालिक भी आ गए। ...मैंने बहुत कोशिश की कि मुख्य मुद्दे को सुना और समझा जाये। पर पीछे से दादी ने एक तेज़ आवाज़ हम तीनों पर धमाके के साथ फेंक दी। हम डर गए। ...पापा ने जो खबर हमें दी वह यह थी कि गली के कुछ लोगों को उसके अकेले रहने से परेशानी थी। इसके अलावा उसके काम के बारे में किसी को मालूम नहीं था। सबका खयाल था कि वह कोई गलत काम में शामिल है। ऐसी औरत का गलत प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए उसे घर खाली करने को कहा गया है।...कुछ दिनों बाद एक बड़ा ट्रक आया जिसमें उनका सामान रखा गया। जाते जाते उन्हों ने हल्की गर्दन ऊंची की और मेरी तरफ देख कर मुस्कुरा दीं। वो चली गई। अंदर दादी ने हुकुम दिया कि चाय बनाओ, इलायची वाली। रसोई में मैं दो तीन इलायची कूटने लगी। एक बहुत तेज़ महक उठी और साँसों के सहारे मेरे दिमाग में घुस गई। जाने क्या हुआ कि मुझे उल्टी होने लगी। बहुत उल्टी हुई। इसके बाद मुझे याद नहीं कि क्या हुआ। मुझे जब होश आया तब सिर दर्द से फट रहा था। उसके बाद मैं इलायची और उसकी महक से दूर रहने लगी। दादी को लगा कि मुझ पर किसी हवा का साया है। सो एक ताबीज़ बनवाकर गले में डाल दिया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।

आज भी मैं इलायची की महक बर्दाश्त नहीं कर पाती।  



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