...मेरा मन किया कि अपना काला छोटा असुस स्मार्ट फोन उसके थाली जैसे चेहरे पर दे मारूँ। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। मैं स्वभाव से हिंसक नहीं हूँ। बहुत शांत रहने की आदत है। लेकिन अपनी बीमारी के साथ में लगभग 4 घंटे से ज़्यादा पंक्ति में खड़ी थी और थक चुकी थी। जब उसने लैक्चर देना शुरू किया तब मुझमें गुस्सा यकायक भर आया। उसने बस यही कहा था कि आपके पास तो स्मार्ट फोन है और प्ले स्टोर से जाकर यह एप डाऊनलॉड कर लीजिये।... फिर अप्लाई पासबुक के ऑप्शन पर जाकर क्लिक कर दीजिये। बहुत आसान है। मैंने मरते हुए आम आदमी का चेहरा चुराते हुए कहा- 'सर, मुझे यह सब नहीं आता। इतना नहीं जानती इस फोन के बारे में। क्या मैं एक अप्लीकेशन लिख दूँ?' उसने भयानक बाबू साहब बनते हुए कहा- 'च्च, आप लोग भी पढ़ लिख कर जाने क्या करेंगे। जब आप इस स्मार्ट फोन का इस्तेमाल कर ही रही हैं तब जरूरी चीज़ें भी तो सीखिये। ...ख़ैर अभी आप पर्ची से निकाल लीजिये रुपये।'
मुझे यह बहुत अटपटा लगा। सिर्फ़ इसलिए कि मैं हाथ में एक स्मार्ट फोन रखती हूँ, फेसबुक इस्तेमाल करती हूँ, जी-मेल से ईमेल करती हूँ... इसी वजह से मुझे अपने 'अ' से 'ज्ञ' तक के काम फोन से करने होंगे, वे भी जबरन। जो मैं नहीं करना चाहूं तब क्या होगा? मुझे निकाल देंगे?...क्या मैं अभी बैल-गाड़ी हांक रही हूँ या फिर उस पर बैठकर अपनी धीमी चाल से चल रही हूँ? जो मैं जमाने के साथ न चलना चाहूं तब क्या है मेरा चेहरा 'स्टेट' के लिए?...कुछ इन्हीं सवालों की लिस्ट दिमाग में काफी दिनों से चल रही है।
इन सब के साथ मैं वापस घर आई और सिरदर्द की एक दवा लेकर कुछ देर सो गई। फिर भी मुझे संतोष था कि मैंने जैसे-तैसे अपने रुपये हासिल कर लिए थे। पिछले कुछ दिनों से एक किताब के पन्ने पलट रही थी। सो मुझे चार्ली चैप्लिन की एक फिल्म का पता चला। फुर्सत निकाल कर मैंने वह फिल्म देख ली। फिल्म का नाम 'मॉडर्न टाइम्स' है। फिर से कहूँगी फिल्म बहुत बेहतरीन है।
आप मेरी बातों पर न जाएँ। ख़ुद इस फिल्म को पहले देखें। यदि अच्छी लगी तब अच्छी बात है। अगर नहीं लगी तो इसमें मैं क्या कर सकती हूँ। फिल्म की भव्यता वक़्त के साथ हमारे परिचय में आई बड़ी बड़ी मशीनों से है। ऐसा बताया जाता है कि चार्ली सर को किसी रिपोर्टर ने किसी कंपनी के बारे में बताया कि वहाँ काम इतने घातक तरीके से किया जाता है कि वहाँ के काम करने वाले लोगों के दिमागी संतुलन पर ख़ासा असर पड़ता है। इसी बात से उनके दिमाग में इस फिल्म का आइडिया आया। लेकिन आपको पता ही होगा कि कोई भी उत्पाद या स्वरूप यकायक नहीं उभर कर आता। उसके पीछे लंबी और चौड़ी वजहें होती हैं। चार्ली चैप्लिन ने गांधीजी के इंग्लैंड दौरे पर मुलाक़ात की थी और उनसे मशीनों को नापसंद करने की वजह पूछी थी। जो जवाब उन्हें गांधीजी से मिला था उसने भी इस फिल्म में एक अहम योगदान दिया। कहना न होगा कि फिल्म उन विचारों से प्रभावित हुई होगी।
जाना-पहचाना किरदार 'ट्रैम्प' किसी फ़ैक्टरी में काम करता है जहां उसका काम स्क्रू टाइट करना है। उसमें ग़ज़ब की फुर्ती है। वह अपने काम को एक रफ़्तार के साथ अंजाम देता है। जरा सा सांस लेने जाता है तब उसके मालिक की नज़र उस पर पड़ती है और उसे वह डांट-डपट कर वापस काम पर भगा देता है। कंपनी में तभी कुछ व्यक्ति आते हैं जिन्होंने ऐसी मशीन तैयार की है जो व्यक्ति को खाना खिला सकती है। गौर करने वाली बात यह है कि यहाँ एक आदमी कोई इंसान न होकर काम करने वाला एक वर्कर है। उससे जितना ज़्यादा काम लिया जा सकता है उतना फ़ायदा कमाया जा सकता है। वर्कर को अपना हाथ पाँव हिलाने की भी जरूरत नहीं। मशीन उसके मुँह में ही खाना ठूस देगी। ऐसे में कामगार का समय और भी काम में लगाया जा सकता है।
मुझे इस दृश्य और इस बात से अचानक एक लड़की याद आ गई जो मुझे नेहरू प्लेस के बस स्टॉपेज़ पर मिली थी। बात दो साल पुरानी है। बस न आने की वजह से वह मुझसे भी अधिक गुस्से में थी। बहुत देर तक इंतज़ार के बाद हम दोनों ने पैदल ही घर आने का फैसला किया। मुझे सुकून था कि इस अंधेरे में मेरे साथ कोई है। उसे था या नहीं, मैं नहीं जानती। उसने बातों-बातों में मुझे बताया कि वह नेहरू प्लेस मेट्रो स्टेशन के नीचे बने ढेर सारी कंपनियों की दुकानों में से किसी एक में काम करती है। सुबह 10 बजे से शाम 6 बजे तक वह खड़ी ही रहती है। मैंने कहा- 'लंच का समय तो होगा ही आप लोगों के पास।' उसने मायूसी से कहा- 'कहाँ टाइम देते हैं! सीने पर सवार रहते हैं। यहाँ तक की टॉयलेट जाने के टाइम का हिसाब किताब भी रखते हैं …कमीने!...सैलरी भी ख़ास नहीं देते। न करो तो इस दिल्ली में क्या खाओगे और कहाँ रहोगे…!' जब उसने बेधड़क मुझसे ऐसा कहा तब न जाने क्यों मेरे मुँह में कड़वापन घुल गया। आज भी रंगारंग मॉल्स में जाने से मुझे परहेज़-सा रहता है। जब कभी चली भी जाती हूँ तब नौजवान लड़के लड़कियों देखकर अच्छा नहीं लगता। सभी जी हुज़ूरी में मशरूफ़ होते हैं। बदन को थका देने वाली मेहनत की एवज़ में उनको कुछ भी नहीं मिलता।
फिल्म में आगे.., अत्यधिक काम करने की वजह और मशीन द्वारा नट-बॉल्ट ट्रैम्प को खिला दिए जाने के कारण वह मानसिक संतुलन खो देता है। उसे अस्पताल में दाखिल करवाया जाता है। इतना ही नहीं उसे अपनी नौकरी से भी हाथ धोना पड़ता है। अस्पताल में ठीक होकर आने के बाद वह कई काम करता है। कहीं चौकीदारी तो कहीं किसी रेस्त्रां में खाना परोसने का काम भी। इसी बीच एक लड़की से भी प्यार होता है। फिल्म के अंत में दोनों किरदार एक साथ ज़िंदगी से जूझने के फैसले के साथ खड़े दिखाई देते हैं। यहाँ मैं एक बात और रखना चाहूंगी। फिल्म की नायिका के बारे में। उसके पिता बेरोज़गार हैं। घर में कुछ नहीं है खाने के लिए। इसलिए वह केले चुराकर अपनी बहनों और पिता को देती है। इसी बीच किसी अफरा-तफरी में पिता को गोली लग जाती है। वे मर जाते हैं। बहनों को बालघर भेज दिया जाता है। नायिका आज़ादी चुनती है और बालघर जाने की बजाय भाग जाती है। वह तेज़ और चतुर है। वह इन हालातों में भी सपने देखना नहीं छोड़ती। वह जुझारू है। वह अपने दम पर लकड़ी का घर बनाती है। वह अपने प्रेमी पर आश्रित नहीं। वह रेस्त्रां में नाचती है और अपना जीवन जीती है। वह अपने प्रेमी का साथ देती है चाहे फैसला कैसा भी हो। इस मायने में मुझे नायिका का चरित्र बेहद अच्छा लगा। हालांकि वह भी मशीनों की छाया में बेरोज़गारी का एक जीता जागता सबूत है। मानवीयता का तत्व दोनों ही चरित्रों में है। यह इस फिल्म की एक और विशेषता है।
हालांकि मशीनों का विरोध इस फिल्म में नहीं दिखता बल्कि मशीनों के आ जाने से उनके क्या प्रभाव किसी समाज, परिवार और एक व्यक्ति पर पड़ता है, उसको बखूबी दिखाया गया है। एक व्यक्ति जहां पागल हो रहा है तो वहीं दूसरी तरफ परिवार टूट रहे हैं। वे बिखर रहे हैं। समाज में असहजता है। असंतुलन है। लोगों के पास काम नहीं है। स्टेट अपने पुलिसिया रूप में और भी प्रखर होकर आता है जहां उसका काम हड़ताल कर रहे लोगों को जेल में डालने का एक्शन है। वह सुरक्षा जैसे तत्व के लिबास में नहीं है।
अब इस फिल्म की एक समझ के साथ आप खुद सोचिए कि हमें क्यों, कब, कहाँ और कितनी मात्रा में मशीनों की ज़रूरत है? ठीक है बहुत हद तक मशीनों ने करिश्में कर के दिखाए हैं। ज़िंदगी और उसकी रोज़मर्रा को आसान और जीने लायक़ बनाया है। लेकिन किसी भी सिक्के के दो पहलू होते हैं। अच्छा तो कुछ भी नहीं होता। देखिए न मेरे हाथ में कलम नहीं है। उसकी जगह मेरी ऊंगलियाँ लैपटाप के कुंजीपटल पटल पर थिरक कर जुमलेदार भाषण दे रही हैं। मशीनें जो करती हैं वह लगभग अदृश्य ही मालूम देता है मुझे। मशीनों ने जहां मनोरंजन के साधनों के रूप में अभूतपूर्व प्रगति की है तो वहीं उसका खामियाज़ा यह भी देखा जा सकता है कि उसने मनुष्य को 'कविता की रचना' से बहुत दूर कर दिया है। पहले के समय की अगर कुछ कहानियाँ सुने अथवा पढ़ें तब पाएंगे कि समूहों के बीच का रिश्ता गर्माहट वाला होता था। एक और महत्वपूर्ण बात जो हम भूलते जा रहे हैं वह 'स्पर्श' है। अब ज़रा ठहर कर सोचिए इन तत्वों के बारे में। यकीन मानिए हम कंगाली की कगार पर हैं।
गौर से देखने पर आपको और मुझको एक ऐसे मकड़ी के जाले जैसी दृश्य प्रणाली दिखेगी जो अब मनुष्य की पहुँच से भी कहीं दूर जा चुकी है। इस प्रणाली में ऐसे रेशे हैं जो एक दूसरे में गुंथे हुए हैं। हाँ, आप इसे जटिल कह सकते हैं। लेकिन यह गुंथन इतनी सरल और स्वाभाविक भी है कि आपकी सोच में आए भी नहीं। उदाहरण के लिए जिस माईक के आगे खड़े होकर लीडरान भाषण देते हैं वहाँ मशीन का सबसे सरलतम इस्तेमाल देखा जा सकता है जो बहुत प्रभावी होता है। भाषण एक तरफ़ा संवाद है या एक निबंध। यह निबंध मनमोहक भी है। यहाँ सुनने वाले के पास अपनी बात रखने का हक़ नहीं है। सोचिए यदि 8 नवंबर को सुनने वालों के पास भी 'रिप्लाय' का विकल्प होता तो 'डमोक्रेसी' का सबसे बड़ा घोटाला नहीं होता। मशीन एक फासला तैयार करने का काम बहुत ही शातिर तरीके से करती हैं। इस बात को भी मत भूलिएगा कि मशीन और विचारधारा का एक मज़बूत याराना है। ज़रूरतों के अलावा विचारधाराओं ने ही मशीनों को बहुत हद तक एक ख़ास मुक़ाम पर पहुंचा दिया है।
आप पहचानिए कि जो हम सभी पर डिजिटल बनने का जबरन दबाव डाला जा रहा है। वास्तव में आपसे इंसान बने रहने के हक़ को छिनने की शुरुआत है। आप सोचिए मत। लोगों से मिलिए मत। घर बैठकर ख़रीदारी कीजिए। जांचिए मत, बस एक कार्ड के आसपास सिमट कर रह जाइए। याद कीजिये सभ्यताओं के पड़ाव। सभ्यताओं में विकास डेबिट या क्रेडिट कार्ड से नहीं जांचा जाता। बल्कि समाज और उसकी गुणवत्ता की नाप यह रही कि आप प्रकृति के साथ कितने महीन तरीके से जुड़े रहे और कितने हद तक मानवता की डोर से बंधे रहे। समाजों ने कितने बेहतर तरीके से संसाधनों का बंटवारा किया। औरतों को उनके अधिकारों के साथ कैसे रहने दिया गया। शक्ति का विकेन्द्रीकरण कितना किया गया... यही कुछ आधार हैं जिससे किसी सभ्यता के विकास को समझा जा सकता है। मशीनों में जीवन की आसानी खोजना एक बेईमानी है। कम से कम मैं तो ऐसा ही मानती हूँ। आप क्या सोचते और मानते हैं, आप ही अपने तई तय करें।
मुझे यह बहुत अटपटा लगा। सिर्फ़ इसलिए कि मैं हाथ में एक स्मार्ट फोन रखती हूँ, फेसबुक इस्तेमाल करती हूँ, जी-मेल से ईमेल करती हूँ... इसी वजह से मुझे अपने 'अ' से 'ज्ञ' तक के काम फोन से करने होंगे, वे भी जबरन। जो मैं नहीं करना चाहूं तब क्या होगा? मुझे निकाल देंगे?...क्या मैं अभी बैल-गाड़ी हांक रही हूँ या फिर उस पर बैठकर अपनी धीमी चाल से चल रही हूँ? जो मैं जमाने के साथ न चलना चाहूं तब क्या है मेरा चेहरा 'स्टेट' के लिए?...कुछ इन्हीं सवालों की लिस्ट दिमाग में काफी दिनों से चल रही है।
इन सब के साथ मैं वापस घर आई और सिरदर्द की एक दवा लेकर कुछ देर सो गई। फिर भी मुझे संतोष था कि मैंने जैसे-तैसे अपने रुपये हासिल कर लिए थे। पिछले कुछ दिनों से एक किताब के पन्ने पलट रही थी। सो मुझे चार्ली चैप्लिन की एक फिल्म का पता चला। फुर्सत निकाल कर मैंने वह फिल्म देख ली। फिल्म का नाम 'मॉडर्न टाइम्स' है। फिर से कहूँगी फिल्म बहुत बेहतरीन है।
आप मेरी बातों पर न जाएँ। ख़ुद इस फिल्म को पहले देखें। यदि अच्छी लगी तब अच्छी बात है। अगर नहीं लगी तो इसमें मैं क्या कर सकती हूँ। फिल्म की भव्यता वक़्त के साथ हमारे परिचय में आई बड़ी बड़ी मशीनों से है। ऐसा बताया जाता है कि चार्ली सर को किसी रिपोर्टर ने किसी कंपनी के बारे में बताया कि वहाँ काम इतने घातक तरीके से किया जाता है कि वहाँ के काम करने वाले लोगों के दिमागी संतुलन पर ख़ासा असर पड़ता है। इसी बात से उनके दिमाग में इस फिल्म का आइडिया आया। लेकिन आपको पता ही होगा कि कोई भी उत्पाद या स्वरूप यकायक नहीं उभर कर आता। उसके पीछे लंबी और चौड़ी वजहें होती हैं। चार्ली चैप्लिन ने गांधीजी के इंग्लैंड दौरे पर मुलाक़ात की थी और उनसे मशीनों को नापसंद करने की वजह पूछी थी। जो जवाब उन्हें गांधीजी से मिला था उसने भी इस फिल्म में एक अहम योगदान दिया। कहना न होगा कि फिल्म उन विचारों से प्रभावित हुई होगी।
जाना-पहचाना किरदार 'ट्रैम्प' किसी फ़ैक्टरी में काम करता है जहां उसका काम स्क्रू टाइट करना है। उसमें ग़ज़ब की फुर्ती है। वह अपने काम को एक रफ़्तार के साथ अंजाम देता है। जरा सा सांस लेने जाता है तब उसके मालिक की नज़र उस पर पड़ती है और उसे वह डांट-डपट कर वापस काम पर भगा देता है। कंपनी में तभी कुछ व्यक्ति आते हैं जिन्होंने ऐसी मशीन तैयार की है जो व्यक्ति को खाना खिला सकती है। गौर करने वाली बात यह है कि यहाँ एक आदमी कोई इंसान न होकर काम करने वाला एक वर्कर है। उससे जितना ज़्यादा काम लिया जा सकता है उतना फ़ायदा कमाया जा सकता है। वर्कर को अपना हाथ पाँव हिलाने की भी जरूरत नहीं। मशीन उसके मुँह में ही खाना ठूस देगी। ऐसे में कामगार का समय और भी काम में लगाया जा सकता है।
मुझे इस दृश्य और इस बात से अचानक एक लड़की याद आ गई जो मुझे नेहरू प्लेस के बस स्टॉपेज़ पर मिली थी। बात दो साल पुरानी है। बस न आने की वजह से वह मुझसे भी अधिक गुस्से में थी। बहुत देर तक इंतज़ार के बाद हम दोनों ने पैदल ही घर आने का फैसला किया। मुझे सुकून था कि इस अंधेरे में मेरे साथ कोई है। उसे था या नहीं, मैं नहीं जानती। उसने बातों-बातों में मुझे बताया कि वह नेहरू प्लेस मेट्रो स्टेशन के नीचे बने ढेर सारी कंपनियों की दुकानों में से किसी एक में काम करती है। सुबह 10 बजे से शाम 6 बजे तक वह खड़ी ही रहती है। मैंने कहा- 'लंच का समय तो होगा ही आप लोगों के पास।' उसने मायूसी से कहा- 'कहाँ टाइम देते हैं! सीने पर सवार रहते हैं। यहाँ तक की टॉयलेट जाने के टाइम का हिसाब किताब भी रखते हैं …कमीने!...सैलरी भी ख़ास नहीं देते। न करो तो इस दिल्ली में क्या खाओगे और कहाँ रहोगे…!' जब उसने बेधड़क मुझसे ऐसा कहा तब न जाने क्यों मेरे मुँह में कड़वापन घुल गया। आज भी रंगारंग मॉल्स में जाने से मुझे परहेज़-सा रहता है। जब कभी चली भी जाती हूँ तब नौजवान लड़के लड़कियों देखकर अच्छा नहीं लगता। सभी जी हुज़ूरी में मशरूफ़ होते हैं। बदन को थका देने वाली मेहनत की एवज़ में उनको कुछ भी नहीं मिलता।
फिल्म में आगे.., अत्यधिक काम करने की वजह और मशीन द्वारा नट-बॉल्ट ट्रैम्प को खिला दिए जाने के कारण वह मानसिक संतुलन खो देता है। उसे अस्पताल में दाखिल करवाया जाता है। इतना ही नहीं उसे अपनी नौकरी से भी हाथ धोना पड़ता है। अस्पताल में ठीक होकर आने के बाद वह कई काम करता है। कहीं चौकीदारी तो कहीं किसी रेस्त्रां में खाना परोसने का काम भी। इसी बीच एक लड़की से भी प्यार होता है। फिल्म के अंत में दोनों किरदार एक साथ ज़िंदगी से जूझने के फैसले के साथ खड़े दिखाई देते हैं। यहाँ मैं एक बात और रखना चाहूंगी। फिल्म की नायिका के बारे में। उसके पिता बेरोज़गार हैं। घर में कुछ नहीं है खाने के लिए। इसलिए वह केले चुराकर अपनी बहनों और पिता को देती है। इसी बीच किसी अफरा-तफरी में पिता को गोली लग जाती है। वे मर जाते हैं। बहनों को बालघर भेज दिया जाता है। नायिका आज़ादी चुनती है और बालघर जाने की बजाय भाग जाती है। वह तेज़ और चतुर है। वह इन हालातों में भी सपने देखना नहीं छोड़ती। वह जुझारू है। वह अपने दम पर लकड़ी का घर बनाती है। वह अपने प्रेमी पर आश्रित नहीं। वह रेस्त्रां में नाचती है और अपना जीवन जीती है। वह अपने प्रेमी का साथ देती है चाहे फैसला कैसा भी हो। इस मायने में मुझे नायिका का चरित्र बेहद अच्छा लगा। हालांकि वह भी मशीनों की छाया में बेरोज़गारी का एक जीता जागता सबूत है। मानवीयता का तत्व दोनों ही चरित्रों में है। यह इस फिल्म की एक और विशेषता है।
हालांकि मशीनों का विरोध इस फिल्म में नहीं दिखता बल्कि मशीनों के आ जाने से उनके क्या प्रभाव किसी समाज, परिवार और एक व्यक्ति पर पड़ता है, उसको बखूबी दिखाया गया है। एक व्यक्ति जहां पागल हो रहा है तो वहीं दूसरी तरफ परिवार टूट रहे हैं। वे बिखर रहे हैं। समाज में असहजता है। असंतुलन है। लोगों के पास काम नहीं है। स्टेट अपने पुलिसिया रूप में और भी प्रखर होकर आता है जहां उसका काम हड़ताल कर रहे लोगों को जेल में डालने का एक्शन है। वह सुरक्षा जैसे तत्व के लिबास में नहीं है।
अब इस फिल्म की एक समझ के साथ आप खुद सोचिए कि हमें क्यों, कब, कहाँ और कितनी मात्रा में मशीनों की ज़रूरत है? ठीक है बहुत हद तक मशीनों ने करिश्में कर के दिखाए हैं। ज़िंदगी और उसकी रोज़मर्रा को आसान और जीने लायक़ बनाया है। लेकिन किसी भी सिक्के के दो पहलू होते हैं। अच्छा तो कुछ भी नहीं होता। देखिए न मेरे हाथ में कलम नहीं है। उसकी जगह मेरी ऊंगलियाँ लैपटाप के कुंजीपटल पटल पर थिरक कर जुमलेदार भाषण दे रही हैं। मशीनें जो करती हैं वह लगभग अदृश्य ही मालूम देता है मुझे। मशीनों ने जहां मनोरंजन के साधनों के रूप में अभूतपूर्व प्रगति की है तो वहीं उसका खामियाज़ा यह भी देखा जा सकता है कि उसने मनुष्य को 'कविता की रचना' से बहुत दूर कर दिया है। पहले के समय की अगर कुछ कहानियाँ सुने अथवा पढ़ें तब पाएंगे कि समूहों के बीच का रिश्ता गर्माहट वाला होता था। एक और महत्वपूर्ण बात जो हम भूलते जा रहे हैं वह 'स्पर्श' है। अब ज़रा ठहर कर सोचिए इन तत्वों के बारे में। यकीन मानिए हम कंगाली की कगार पर हैं।
गौर से देखने पर आपको और मुझको एक ऐसे मकड़ी के जाले जैसी दृश्य प्रणाली दिखेगी जो अब मनुष्य की पहुँच से भी कहीं दूर जा चुकी है। इस प्रणाली में ऐसे रेशे हैं जो एक दूसरे में गुंथे हुए हैं। हाँ, आप इसे जटिल कह सकते हैं। लेकिन यह गुंथन इतनी सरल और स्वाभाविक भी है कि आपकी सोच में आए भी नहीं। उदाहरण के लिए जिस माईक के आगे खड़े होकर लीडरान भाषण देते हैं वहाँ मशीन का सबसे सरलतम इस्तेमाल देखा जा सकता है जो बहुत प्रभावी होता है। भाषण एक तरफ़ा संवाद है या एक निबंध। यह निबंध मनमोहक भी है। यहाँ सुनने वाले के पास अपनी बात रखने का हक़ नहीं है। सोचिए यदि 8 नवंबर को सुनने वालों के पास भी 'रिप्लाय' का विकल्प होता तो 'डमोक्रेसी' का सबसे बड़ा घोटाला नहीं होता। मशीन एक फासला तैयार करने का काम बहुत ही शातिर तरीके से करती हैं। इस बात को भी मत भूलिएगा कि मशीन और विचारधारा का एक मज़बूत याराना है। ज़रूरतों के अलावा विचारधाराओं ने ही मशीनों को बहुत हद तक एक ख़ास मुक़ाम पर पहुंचा दिया है।
आप पहचानिए कि जो हम सभी पर डिजिटल बनने का जबरन दबाव डाला जा रहा है। वास्तव में आपसे इंसान बने रहने के हक़ को छिनने की शुरुआत है। आप सोचिए मत। लोगों से मिलिए मत। घर बैठकर ख़रीदारी कीजिए। जांचिए मत, बस एक कार्ड के आसपास सिमट कर रह जाइए। याद कीजिये सभ्यताओं के पड़ाव। सभ्यताओं में विकास डेबिट या क्रेडिट कार्ड से नहीं जांचा जाता। बल्कि समाज और उसकी गुणवत्ता की नाप यह रही कि आप प्रकृति के साथ कितने महीन तरीके से जुड़े रहे और कितने हद तक मानवता की डोर से बंधे रहे। समाजों ने कितने बेहतर तरीके से संसाधनों का बंटवारा किया। औरतों को उनके अधिकारों के साथ कैसे रहने दिया गया। शक्ति का विकेन्द्रीकरण कितना किया गया... यही कुछ आधार हैं जिससे किसी सभ्यता के विकास को समझा जा सकता है। मशीनों में जीवन की आसानी खोजना एक बेईमानी है। कम से कम मैं तो ऐसा ही मानती हूँ। आप क्या सोचते और मानते हैं, आप ही अपने तई तय करें।
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