मुझे सर्दियों में भी मीठी प्यास लगती है। जब गले के नीचे पानी जाता है तब कितना सुकून सा मिलता है। पानी से पुराना यारा मानव सभ्यता का है। इसमें किसी को कोई भी शक़ नहीं है। जल ही जीवन है, पंक्ति स्कूल ने ऐसे दिमाग में सटाई (चिपकाई) है कि अभी तक आदर्श पंक्तियों में वही पहली बनी हुई है। इसके बाद एक नन्ही कविता भी याद है। सुनाऊँ?...मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है, हाथ लगाओ डर जाएगी, बाहर निकालो मर जाएगी...इस डर से मैंने जब से होश संभाला है मछली खाई ही नहीं। इतनी भयंकर छाप है। मानते हो न स्कूल में कुछ तो पढ़ाई की है मैंने!
'इनार' शब्द सुना होगा आपने। पानी के पुराने स्रोतों में से एक महत्वपूर्ण स्रोत यह भी रहा है। आज महरौली स्थित राजों की बावली या बावड़ी की कुछ तस्वीरें देख कर रही थी तब दिमाग में कुछ चित्र खुद ब खुद खिंचने लगे। इसलिए एक पोस्ट लिखने का खयाल आ गया। गाँव में आज भी कुएं को इनार कहकर पुकारा जाता है। पर हैंडपंप के चलन में आ जाने से अब कुएं, कहानियों का या कही-सुनी का हिस्सा बन रहे हैं।
न तेरा न मेरा -हम सबका
एक समय था जब इनका बहुत रुआब हुआ करता था। (आज भी होगा-जरूर) ये किसी भी ग्राम की लाइफलाईन होते थे। उत्तर प्रदेश के किसी गाँव में एक दफ़ा जाना हुआ था। तब वहाँ के लोगों ने मुझे कुएं-खुदाई की अद्भुत प्रक्रिया बताई थी। एक बुजुर्ग महिला थीं। वह काफी उम्दा स्टॉरी-टेलर थीं। उनके मुंह से सुनकर मजा आया। उन्होंने बताया कि जब वे बेहद छोटी थीं तब उन्हें कुछ कुओं की खुदाई की याद है। उनके मुताबिक इनार खोदने में किसी भी तरह की व्यापार की बू नहीं थी। कोई नफा या नुक्सान की चिंता नहीं थी। सबसे बड़ी बात कि कुओं की खुदाई में गाँव के सभी लोग शामिल होते थे। ऐसा तो मुमकिन नहीं होता था कि एक या दो रोज़ में कुआ खुद कर तैयार हो जाये। यह मेहनत का काम था।
जहां कुंआ खोदना होता था उस ज़मीन को पहले तय किया जाता था। यदि किसी का निजी कुंआ होता था तो उसी व्यक्ति के नाम से ही कुएं को पहचान दी जाती थी। लेकिन जब कुंआ पूरे समुदाय के लिए खोदने की बात होती तब इस मामले में ज़मीन को ऐसे तय किया जाता कि उसमें किसी एक का हक़ न हो। इसके अलावा कुएँ के लिए अपनी ज़मीन देना भी एक महान कार्य समझा जाता था।
कुएं की खुदाई के लिए गाँव के सभी पुरूष लोग अपना श्रम देते थे। मुझे उन्होने बताया कि हर घर की बारी आती थी। मान लीजिये एक दिन एक परिवार के एक सदस्य की बारी आती तो दूसरे दिन दूसरे परिवार के सदस्य की। इस तरह के श्रम के लिए कोई मजदूरी नहीं थी। क्योंकि फल तो कुएं का पानी था। एक बात इसमें साफ थी कि इस काम में पूरी कम्यूनिटी का मिला-जुला श्रम लगता था। इसलिए एक सामुदायिक भावना दिखाई देती थी। जब तक काम चलता उसके आसपास ही बच्चों का बड़ा जमावड़ा लगा रहता। वे भी कुछ छोटे-मोटे काम में हाथ बंटा देते जो बाल श्रम नहीं था।
कुएं की अंतिम दिनों की खुदाई में कई बातों का खास खयाल रखा जाता था। वह यह कि उसकी तलहटी पर लकड़ी के चाक की सेटिंग करने के लिए और उसकी अंदरूनी मजबूती को बनाने के लिए हुनरमंद लोगों को ही भेजा जाता। यह हर किसी की बात नहीं थी। किसी को गहराई में जाने से डर लगता तो उसे नहीं जाने दिया जाता। बच्चों को थोड़ा दूर रखते बाद के दिनों में कि कोई घटना न हो। इसके अलावा इस बात पर ध्यान लगाया जाता कि उसके तल से जुड़े काम में वे लोग रहें जो पानी में थोड़ा अधिक देर तक सांस ले सके। मिट्टी फेंकने के काम को 'मानव जंजीर' बना कर पूरा किया जाता।
जब कुएं का काम लगभग खत्म हो जाता या वह पूरा तैयार हो जाता तब पूरे गाँव के घरों में से दालें, चावल, आटा और तमाम तरह की सब्जियों को इकट्ठा कर कुएं के पास पकाया जाता और भोज चलता। इस काम में महिलाओं की भागीदारी की जरूरत नहीं थी सिवाय भोज खाने के। एक तर्क उन्होने यह भी दिया कि महिलाओं के पास तो वैसे ही बहुत सा घरेलू काम होता था सो यहाँ पुरूष ही खुद से मिलकर भोज तैयार करते थे। पूजा पाठ में किसी भी पंडित की भी जरूरत नहीं होती थी। ईश्वर के नाम का टीका लगाया और भोज बिठा दिया।
लेकिन अब कुएं का चलन हट रहा है। कई जगह पूरी तरह से जा चुका है। उसके पीछे की अपनी वजहें भी हैं। मेरी दिलचस्पी उसमें नहीं थी। सो मैंने कहा मेरे लिए यही काफी है। मेरे लिए इस तरह की कथाएँ एक अद्भुत चित्रकथा हैं। रोचक इसलिए कि जिस कम्यूनिटी की आज बात की जाती है समुदाय का 'सेल्फ एक्शन' गायब है। पहली बात तो आज समुदाय विकास के काम के लिए कॉलेजों तक में एक अलग से पाठ्यक्रम चल रहे हैं। शायद ये सब कार्यक्रम किसी समुदाय की सेहत के लिए अच्छे होंगे। ऐसा हो सकता है। लेकिन इन्हें देखने पर लगता है कि समुदाय की खुद की कोई क्षमता नहीं, कोई दिमाग नहीं, कोई सहयोग नहीं। एक ऐसे समुदाय का चित्र दिखता है जो अपनी हर बात के लिए सरकार की तरफ देख रहा है। समुदाय की इस तरह की शक्ल और दशा के लिए निश्चित रूप से कुछ कारक हैं। पकड़ के जांच करनी चाहिए।
फिलहाल ब्लेम-गेम नहीं करना। 'इनार' से जुड़ी बहुत सी बातें हैं जो गाँव और क़स्बों में मिल जाती हैं। नायक और नायिका फ्री इन कहानियों में तिलिस्म का भी कोई काम नहीं। एक सिम्पल कथा है। सुनेंगे तो आसपास और बेहतर मन में उतरता जाएगा। आज जहां कुएं होंगे वहाँ जरूर दूसरी क़िस्म की कहानियाँ चल रही होंगी। आप खोज चुके हैं तो अच्छा है। नहीं खोज पाये हैं तब तो पक्का आपको भी कहानी खोजी बनना चाहिए। डिस्कवरी चैनल वाले हमारे माल-मटीरियल से खेल जाते हैं और हम दर्शक बनकर देखते रहते हैं। अब कहीं जाना हुआ तो ज़्यादा क़िस्से बटोरकर लाऊँगी।
कुएं से जुड़ा एक तजुर्बा मेरी दादी बताया करती थीं। यक़ीन मानिए उसमें पनघट की गोरी टाइप का कोई भी फेंसीपन नहीं था। बताती थीं-
"सर्दी में कुएं से पानी लाना मेरे लिए बहुत मुश्किल कामों में से एक था। सुबह सुबह गाँव की पतोह उठे तो कोई कमबख़्त देख न ले। कोई टोक न दें। इसलिए अंधेरे में ही जाती थी। एक रोज़ नींद में ही भोरे भोरे मटकिया उठा कर चल दी। टॉर्च भी साथ ही रख ली। जब वहाँ पहुंची तो न जाने पैर से क्या सरकता हुआ गुज़र गया। मुझे लगा कोई खर-पतवार होगा। लेकिन थोड़ी देर बाद फिर कुछ लगा। टॉर्च से देखा तो काला कलमुंहा साँप था। मटकी वहीं झटकी और भाग आई। फिर तो कान पकड़ लिए। हमने कहा हम नहीं जाएंगे। नल लगवाओ आँगन में।"
हम तो खूब हँसते थे इस किस्से पर। अब पास में किस्सा ही है बस!
'इनार' शब्द सुना होगा आपने। पानी के पुराने स्रोतों में से एक महत्वपूर्ण स्रोत यह भी रहा है। आज महरौली स्थित राजों की बावली या बावड़ी की कुछ तस्वीरें देख कर रही थी तब दिमाग में कुछ चित्र खुद ब खुद खिंचने लगे। इसलिए एक पोस्ट लिखने का खयाल आ गया। गाँव में आज भी कुएं को इनार कहकर पुकारा जाता है। पर हैंडपंप के चलन में आ जाने से अब कुएं, कहानियों का या कही-सुनी का हिस्सा बन रहे हैं।
न तेरा न मेरा -हम सबका
एक समय था जब इनका बहुत रुआब हुआ करता था। (आज भी होगा-जरूर) ये किसी भी ग्राम की लाइफलाईन होते थे। उत्तर प्रदेश के किसी गाँव में एक दफ़ा जाना हुआ था। तब वहाँ के लोगों ने मुझे कुएं-खुदाई की अद्भुत प्रक्रिया बताई थी। एक बुजुर्ग महिला थीं। वह काफी उम्दा स्टॉरी-टेलर थीं। उनके मुंह से सुनकर मजा आया। उन्होंने बताया कि जब वे बेहद छोटी थीं तब उन्हें कुछ कुओं की खुदाई की याद है। उनके मुताबिक इनार खोदने में किसी भी तरह की व्यापार की बू नहीं थी। कोई नफा या नुक्सान की चिंता नहीं थी। सबसे बड़ी बात कि कुओं की खुदाई में गाँव के सभी लोग शामिल होते थे। ऐसा तो मुमकिन नहीं होता था कि एक या दो रोज़ में कुआ खुद कर तैयार हो जाये। यह मेहनत का काम था।
जहां कुंआ खोदना होता था उस ज़मीन को पहले तय किया जाता था। यदि किसी का निजी कुंआ होता था तो उसी व्यक्ति के नाम से ही कुएं को पहचान दी जाती थी। लेकिन जब कुंआ पूरे समुदाय के लिए खोदने की बात होती तब इस मामले में ज़मीन को ऐसे तय किया जाता कि उसमें किसी एक का हक़ न हो। इसके अलावा कुएँ के लिए अपनी ज़मीन देना भी एक महान कार्य समझा जाता था।
कुएं की खुदाई के लिए गाँव के सभी पुरूष लोग अपना श्रम देते थे। मुझे उन्होने बताया कि हर घर की बारी आती थी। मान लीजिये एक दिन एक परिवार के एक सदस्य की बारी आती तो दूसरे दिन दूसरे परिवार के सदस्य की। इस तरह के श्रम के लिए कोई मजदूरी नहीं थी। क्योंकि फल तो कुएं का पानी था। एक बात इसमें साफ थी कि इस काम में पूरी कम्यूनिटी का मिला-जुला श्रम लगता था। इसलिए एक सामुदायिक भावना दिखाई देती थी। जब तक काम चलता उसके आसपास ही बच्चों का बड़ा जमावड़ा लगा रहता। वे भी कुछ छोटे-मोटे काम में हाथ बंटा देते जो बाल श्रम नहीं था।
कुएं की अंतिम दिनों की खुदाई में कई बातों का खास खयाल रखा जाता था। वह यह कि उसकी तलहटी पर लकड़ी के चाक की सेटिंग करने के लिए और उसकी अंदरूनी मजबूती को बनाने के लिए हुनरमंद लोगों को ही भेजा जाता। यह हर किसी की बात नहीं थी। किसी को गहराई में जाने से डर लगता तो उसे नहीं जाने दिया जाता। बच्चों को थोड़ा दूर रखते बाद के दिनों में कि कोई घटना न हो। इसके अलावा इस बात पर ध्यान लगाया जाता कि उसके तल से जुड़े काम में वे लोग रहें जो पानी में थोड़ा अधिक देर तक सांस ले सके। मिट्टी फेंकने के काम को 'मानव जंजीर' बना कर पूरा किया जाता।
जब कुएं का काम लगभग खत्म हो जाता या वह पूरा तैयार हो जाता तब पूरे गाँव के घरों में से दालें, चावल, आटा और तमाम तरह की सब्जियों को इकट्ठा कर कुएं के पास पकाया जाता और भोज चलता। इस काम में महिलाओं की भागीदारी की जरूरत नहीं थी सिवाय भोज खाने के। एक तर्क उन्होने यह भी दिया कि महिलाओं के पास तो वैसे ही बहुत सा घरेलू काम होता था सो यहाँ पुरूष ही खुद से मिलकर भोज तैयार करते थे। पूजा पाठ में किसी भी पंडित की भी जरूरत नहीं होती थी। ईश्वर के नाम का टीका लगाया और भोज बिठा दिया।
लेकिन अब कुएं का चलन हट रहा है। कई जगह पूरी तरह से जा चुका है। उसके पीछे की अपनी वजहें भी हैं। मेरी दिलचस्पी उसमें नहीं थी। सो मैंने कहा मेरे लिए यही काफी है। मेरे लिए इस तरह की कथाएँ एक अद्भुत चित्रकथा हैं। रोचक इसलिए कि जिस कम्यूनिटी की आज बात की जाती है समुदाय का 'सेल्फ एक्शन' गायब है। पहली बात तो आज समुदाय विकास के काम के लिए कॉलेजों तक में एक अलग से पाठ्यक्रम चल रहे हैं। शायद ये सब कार्यक्रम किसी समुदाय की सेहत के लिए अच्छे होंगे। ऐसा हो सकता है। लेकिन इन्हें देखने पर लगता है कि समुदाय की खुद की कोई क्षमता नहीं, कोई दिमाग नहीं, कोई सहयोग नहीं। एक ऐसे समुदाय का चित्र दिखता है जो अपनी हर बात के लिए सरकार की तरफ देख रहा है। समुदाय की इस तरह की शक्ल और दशा के लिए निश्चित रूप से कुछ कारक हैं। पकड़ के जांच करनी चाहिए।
फिलहाल ब्लेम-गेम नहीं करना। 'इनार' से जुड़ी बहुत सी बातें हैं जो गाँव और क़स्बों में मिल जाती हैं। नायक और नायिका फ्री इन कहानियों में तिलिस्म का भी कोई काम नहीं। एक सिम्पल कथा है। सुनेंगे तो आसपास और बेहतर मन में उतरता जाएगा। आज जहां कुएं होंगे वहाँ जरूर दूसरी क़िस्म की कहानियाँ चल रही होंगी। आप खोज चुके हैं तो अच्छा है। नहीं खोज पाये हैं तब तो पक्का आपको भी कहानी खोजी बनना चाहिए। डिस्कवरी चैनल वाले हमारे माल-मटीरियल से खेल जाते हैं और हम दर्शक बनकर देखते रहते हैं। अब कहीं जाना हुआ तो ज़्यादा क़िस्से बटोरकर लाऊँगी।
कुएं से जुड़ा एक तजुर्बा मेरी दादी बताया करती थीं। यक़ीन मानिए उसमें पनघट की गोरी टाइप का कोई भी फेंसीपन नहीं था। बताती थीं-
"सर्दी में कुएं से पानी लाना मेरे लिए बहुत मुश्किल कामों में से एक था। सुबह सुबह गाँव की पतोह उठे तो कोई कमबख़्त देख न ले। कोई टोक न दें। इसलिए अंधेरे में ही जाती थी। एक रोज़ नींद में ही भोरे भोरे मटकिया उठा कर चल दी। टॉर्च भी साथ ही रख ली। जब वहाँ पहुंची तो न जाने पैर से क्या सरकता हुआ गुज़र गया। मुझे लगा कोई खर-पतवार होगा। लेकिन थोड़ी देर बाद फिर कुछ लगा। टॉर्च से देखा तो काला कलमुंहा साँप था। मटकी वहीं झटकी और भाग आई। फिर तो कान पकड़ लिए। हमने कहा हम नहीं जाएंगे। नल लगवाओ आँगन में।"
हम तो खूब हँसते थे इस किस्से पर। अब पास में किस्सा ही है बस!
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