'सत्यम शिवम सुंदरम' फिल्म का कर्णप्रिय गीत याद है? ...'यशोमती मैया से
बोले नन्द लाला राधा क्यों गोरी मैं क्यों काला...बोली मुसकाती मैया ललन को
बताया...' मालूम होता है कि कृष्ण को भी अपने रंग से इंफीरियरटी हो गई
हो। अफसोस कि उनके समय में गोरा बनाने वाली क्रीम नहीं थी, वरना उनको कोई
तकलीफ नहीं होती।
हर दौर के अपने शब्द होते हैं। हमारे दौर के शब्दों को मैं 'काली' डायरी में लिखकर नोट कर रही हूँ। यह जरूरी है। मैं मरने के बाद अपना ब्लॉग और वो डायरी छोड़ कर जाना चाहती हूँ। संपत्ति, सोना और रुपया छोड़कर जाने की हैसियत नहीं है। शब्द, घटनायें, शख्सियतें और कहानियाँ तो अपनी छाप समय पर छोड़ कर जाती ही हैं पर मैं कुछ दिनों से लगातार एक रंग को सोच रही हूँ। जी हाँ, जानती हूँ आप कहेंगे भला रंग भी सोचने के टॉपिक होते हैं? क्यों नहीं ! मेरे लिए तो हो ही सकते हैं।
नोटबंदी के साथ या उसके पीछे एक शब्द चिपका हुआ है जिसका निरंतर इस्तेमाल हो रहा है। मैंने भी खुद कई बार उस शब्द का प्रयोग किया। मुझे एक दिन खयाल आया कि उस रंग का इस्तेमाल अपनी प्रतिक्रिया दिखाने के लिए करना ठीक नहीं है। वह है 'काला धन' में चिपका हुआ शब्द 'काला'। हालांकि शुद्ध हिन्दी में काले रंग को 'श्याम' कहने की एक सांस्कृतिक परंपरा है जो सीधे कृष्ण से जुड़ती है। मुझे इसमें कोई बुराई नहीं दिखाई देती। रोज़मर्रा में श्याम कोई इस्तेमाल नहीं करता। सभी काला शब्द को इस्तेमाल करते हैं।
काले रंग को लेकर 'इर्द गिर्द' एक व्यवस्थित और जमी हुई सोच समझ आती है। व्यवहार में काले रंग के संदर्भ में सेट पैटर्न दिखाई दे जाएंगे। उदाहरण के लिए भारतीय (विशेष रूप से उत्तर) मानसिकता में लड़की का गोरा रंग अच्छा माना जाता है। ऐसा हजारों साल से है। आज के समय में यदि मुझपर यक़ीन न हो तो अखबारों में शादी-ब्याह के विज्ञापनों में लड़की के संदर्भ में 'गोरा रंग' की मांग पर नज़र डाल लें। दक्षिण भारत के बारे में मेरे पास अनुभव नहीं हैं। जो कभी मिला तो काला रंग पार्ट 2 से एक और ब्लॉग एंट्री करूंगी। लेकिन आजकल टीवी पर आने वाली दक्षिण भारत की फिल्मों में कुछ खास बात है जो आप लोगों ने भी गौर की होगी। फिल्म के नायक तो गहरे रंग में दिखाई दे जाते हैं पर नायिकाओं का रंग सफ़ेद ही दिखता है। जो मैं गलत हूँ तो 'बाहुबली' एक बार फिर से देख लें।
हिन्दी फिल्मों ने तो जमकर इस पैटर्न को आगे फैलाया ही नहीं बल्कि लक्ष्मण रेखा की तरह सेट कर डाला है। जो मुझ पर यक़ीन न हो तो विभिन्न नायिकाओं और नायकों को गोरा बनाने वाली क्रीम का विज्ञापन करते हुए देख लें। क्या आपको वो गाना याद नहीं- 'गोरे गोरे मुखड़े पर काला-काला चश्मा....याद आ गया न! ऐसे ही बहुत से बॉलीवुडिया गीत हैं जिनमें साफ तौर पर गोरे शब्द को लड़की से चिपका दिया गया। आजकल तो मानो एक अनिवार्यता बना दी गई है। जिस रफ्तार से 'फेयर एंड लवली' ब्रांड बिक रहा है उससे तो यही लगता है कि एक रोज़ सभी भारतीय सफ़ेद हो जाएंगे। मुझे छोड़कर और उन्हें भी जो इस ब्रांड का इस्तेमाल नहीं करते।
ख़ैर, आगे अपनी बात जारी रखते हैं। जिसे हम काली कमाई कहकर पुकार रहे हैं और गला खराब कर रहे हैं वास्तव में वह कमाई तो है पर काली नहीं बल्कि अवैध या गैर कानूनी आय या फिर कमाई है। कई दफा आपने एक शब्दावली सुनी होगी- 'आय से अधिक संपत्ति।' वास्तव में यही सही शब्दावली है। लेकिन हमने काले शब्द को जबरन इस्तेमाल करना शुरू कर दिया क्योंकि हमारे देश के पॉपुलर मंत्री इस शब्द का बिना सोचे समझे इस्तेमाल करते हैं। असल में उन लोगों द्वारा अवैधानिक आय कहकर पुकारा जाना चाहिए। इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि हम कितनी अपनी भाषा बोलते हैं और कितनी दूसरों की नक़ल करते हैं। अपनी भाषा से मतलब अपनी मातृभाषा नहीं बल्कि वह भाषा जो हम खुद अपने कहने के लिए रचते हैं।
भाषा आज के दौर में परोसी जाती है। घर में दरवाजे के नीचे से सुबह सुबह 16 से 17 पन्नों वाला अखबार हो या फिर टीवी में चलते कार्यक्रम, दफ्तर की धूल खाती फाइले हों या फिर सब्जी तरकारी खरीदने तक की प्रक्रिया में एक ज़ुबान चुपके से बैठी होती है। कहीं फुर्सत नहीं है दिमाग को खुद की भाषा के वाक्य रचने की। जो ज़्यादा देखा वही कई बार जीभ से संचालित होने लगता है। बनाई जा रही व्यस्त दिनचर्या सोचने की प्रक्रिया को रोक रही है और हम दिन पर दिन नक़ली होते जा रहे हैं।
अब आते हैं काले रंग पर। सभी रंग को सोखने के बाद ही काला रंग पनपता है वह भी बिना रोशनी के। काला रंग विपरीत है सफ़ेद रंग का। ऐसा माना जाता है और स्कूलों में पढ़ाया भी यही जाता है। लेकिन आप सोचिए कि क्या यह सही है? मुझे नहीं लगता। वास्तव में यह रंग बाकी रंगों की तरह ही एक रंग है। बाज़ार और महान संस्कृति के पोषकों ने इसे एक हद तक नकारात्मक चोला पहनाया है। इसे अंधेरे से जोड़ा जाता है। अपशगुन का तमगा पहनाया जाता है। सामाजिक धब्बा कहा जाता है। इतना ही नहीं काली शक्ति जैसे शब्द से उन नकारात्मक रूहानी ताक़तों से जोड़ा जाता है जो हमारी दुनिया से परे हैं। अमावस की रात का ज़िक्र भी लगभग कुछ ऐसा ही है। रहस्य का रंग भी यही है। मैंने कई लोगों को देखा है कि वे पैरों में काला धागा बांधकर रखते हैं या फिर गले में काली माला पहनते हैं कि किसी की नज़र नहीं लगे। नज़र क्या है-काली और बचाव भी काले रंग के धागे से किया जा रहा है।
बहुत हद तक इस रंग के आसपास घूमती यह बिल्कुल नयी विचारधारा नहीं है। लंबे समय से इसकी बुनाई होती रही है। यही वजह कि अब हमारे दिमाग में काले रंग से जुड़ी छवियाँ अलग थलग हैं। धर्म से लिपे-पुते इस देश में हर रंग का अपना मजहब है। हिन्दू या मुस्लिम, सभी के अपने खास रंग हैं और उनका महत्व है। लेकिन ऊपरी नज़र डालने पर काला रंग फिर से बिना कुर्सी के रह जाता है। अब कुछ परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। इस रंग का अपना एक मुकाम विकसित हो चुका है। अपने पहनावे में लोग इस रंग को जगह तो ही रहे हैं साथ ही साथ इस रंग से जुड़े झूठी कहानियों से बाहर आ रहे हैं। संजय लीला भंसाली द्वारा बनाई गई फिल्म 'ब्लैक' इसका एक अच्छा उदाहरण है। काले रंग की परिभाषा वहाँ बेहतरीन ढंग से दिखाई देती है। एक ताक़त की तरह। ऐसे ही बहुत से उदाहरण होंगे आप लोगों के पास। आप उनके बारे में सोचिए।
फिर भी राजनीतिक महान नोटबंदी की घटना ने फिर से इस रंग के आगे एक गतिरोधक बना दिया है। हर ज़ुबान पर काला धन या काली कमाई जैसा शब्द फेविकोल से चिपका दिया है। इसने अंबुजा सीमेंट सी मजबूती दिखाई दे रही है। पर आप तो समझदार हैं। वास्तव में यह रंग उतना अनलकी नहीं जितना सोचा जाता है।
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