Sunday, 3 November 2019
बोलना चाँदी, ख़ामोशी सोना
लेकिन मेरे न दिखने की चाहत की तरह एक न दिखने वाली एहसासों की
दुनिया आज शाम को
सुन कर आ रही हूँ. और उसे सुनकर मुझे बहुत अच्छा महसूस हो रहा है. इतना अच्छा आज बहुत दिनों बाद लग रहा है. लग
रहा है मन में मोगरा महक रहा है. हमारे
पास बैठने तक की जगह नहीं थी लेकिन बातें करने को बहुत कुछ था. वह बहुत दूर से मिलने आई थीं. जब उन्हों ने
मुझे गले लगाया तो लगा कि रेगिस्तान
में ऐसे ही पेड़ उगते होंगे अपनी सुन्दरता के साथ. कभी कभी अपने आपको इंसान समझना अच्छा लगता है. जब लोग
आपसे मिलते हैं और बेहद रूमानी और रूहानी
बातें करते हैं. सोचिये यह कितना शानदार है कि लोग बहुत दूर से आपसे मिलने और बात करने आ रहे हैं. जाते वक़्त
उन्हों ने फिर गले लगाया और मेरे गाल
चूम लिए. इतना प्यार पाकर मैं मर सकती हूँ...ख़ुशी से!
Friday, 1 November 2019
चित्रलिपि
उस दिन 1... अक्टूबर था. जब दोनों साथ बैठे थे. इतना सुकून इसी शहर की जगह पर मिल सकता है. जगह बेहद ज़रूरी पृष्ठभूमि होती है. हालाँकि जगह की जानकारी न होने के न चलते दोनों में एक मज़ाकिया गड़बड़ी हुई. पर यह उतना बुरा नहीं था. कुछ था जो दोनों के बीच था. वो हर कहीं और हर किसी के बीच नहीं होता. वह जो उन दोनों के बीच था वह हर जगह होना चाहिए ताकि लोग अच्छे और मासूम बने रहें. लोगों के मासूम बने रहने से ही यह जगह चल पा रही है वरना कैसे इतना बड़ा कारोबार चल सकता था! यह सोचना भी कितना मुश्किल है.
मुख़्तसर मुलाक़ात थी. ज़िन्दगी में रिश्तों की बनावट का सारा कारोबार ही इन मुख़्तसर मुलाक़ातों को मारकर खड़ा किया गया है. ज़रूरी है किसी रिश्तों की जाँच और गिनती की जाए? उसके बगैर क्या इंसान नहीं रहते होंगे? ऐसा तो नहीं है कि पृथ्वी की शुरुआत से ही रिश्तों की पोटली बाँध दी गई होगी! नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. ऐसा हुआ भी नहीं. कोशिश करनी होगी कि इन रिश्तों ने कब से जन्म लिया होगा, जानने की. आजकल के छोटे छोटे परिवार भी बेहद खुश हैं. अब यह हैरानी भी है कि वे खुश हैं. अगर हैं भी तो, उन्हें होने दीजिये. लेकिन आप का क्या? क्या आप किसी को इसलिए पसंद करते हैं कि उससे आगे आने वाले दिनों में रिश्ता गांठना है? अगर इस हसरत के साथ किसी से मिलते हैं तो आप सरासर स्वार्थी हैं. आगे की योजना के बारे में सोचकर वर्तमान को जीना शायद ज़िन्दगी की बेहतरीन पलानिंग हो सकती है पर यह एक धोखा है उस पल के साथ जब आप उसे बिता रहे थे या गुज़ार रहे थे या फिर जी रहे थे. आप क्या कर रहे थे? आपने यह नहीं सोचा. आप मिले और घर लौट आये. शायद आपने उसे दिखाकर पीछे मुड़कर नहीं देखा पर आपने देखा था, यही तो वो बात थी उस मुलाक़ात और उस पल की.
दिल्ली के प्रदूषण से बच गए तो दस साल बाद आप ख़ुद से यह सवाल पूछेंगे कि जब 'उससे' मुलाक़ात कर रहे थे तब आपके भीतर किस किस तरह की घटनाएं बुलबुलों की तरह बन कर जल्दी ख़त्म हो रही थीं? उससे मिलना किस तरह अलग था? उस वक़्त, वक़्त का मिजाज़ क्या था? उस वक़्त, बैकग्राउंड में क्या चल रहा था? हवा में किस तरह की मिठास थी? थी भी या नहीं? कौन सी आवाजें उस फ्रेम में शामिल थीं जहाँ आप दोनों बैठे थे? आपके बीच से ऐसा क्या गुज़र रहा था जो आप दोनों ने उसे अपनी बातों में शामिल नहीं किया? क्या कुछ खामोश था? किस पर ज़्यादा बात हुई? क्या बाक़ी रहा? क्या दोनों के बीच ऐसा था जो भीतर समा गया? कुछ ऐसा क्या था जो पल को ख़ास बना रहा था? ...आप ये सब सवाल कभी तो सोचेंगे जब अकेले बैठे होंगे. तब आप पाएंगे कि आप उस समय जिए भी या बस वक़्त से गुज़र कर यहाँ तक आ गए हैं.
मिलने के लिए नहीं मिलो. मिलो तो जीने के लिए मिलो. जब मिलो तो यह जानने की कोशिश करो कि कैसे रेमेदियोस हवा में उड़ते हुए आसमान में गुम हो गई? क्या मार्केज़ उसे 'एकांत के सौ वर्ष' से वापस लाए? क्या वे भूल गए उसे वापस लाना है या फिर उसे आसमान में ही किसी से मिलने के लिए एक मुलाक़ात मिल गई थी? आज भी यह बेहद रूमानी लगता है कि वह चादर बिछाती बिछाती अचानक उड़ गई. क्या बिना 'ज़ोरबा द ग्रीक' के हमें समझ नहीं आएगा कि ज़िन्दगी में सब कुछ जीने के लिए ही होता है? एलेक्सिस ज़ोरबा ही बताएगा कि हम जीने के लिए आये हैं? गलतियों, पापों के साथ भी रहने के बावजूद हम जीने के लिए ही आए हैं. इसलिए किसी 'प्रेमम मुलाक़ात' को भरपूर जीना आना चाहिए. आपको नहीं आया तब अंत में इस दुनिया के सबसे दयनीय और कमजोर इंसान होंगे जो जिंदगी के बेहतरीन लम्हो से ख़ाली रह गया.
मुलाक़ात में दो लोग
मुलाक़ात में संख्या महत्त्व नहीं रखती. इसमें ज़रूरी है कि मिलन हो और उसका एहसास भी. दो लोगों के बीच भी यह हो सकती है और कई लोगों के साथ भी. हाँ, ख़ुद के साथ भी यह होती है. अगर आप ये सारी मुलाकातें कैसे करनी होती है, जानते हैं तब आप बेहतर ज़िन्दगी की तरफ़ बढ़ रहे हैं. इतना तो आप मान लीजिये. इसमें शब्द रहते हैं पर ख़ामोशी भी एक संवाद का तरीका हो सकती है. इसके लिए अभी किसी फ़िल्म का दृश्य याद आ रहा है जहाँ दो पुराने प्रेमी झगड़े के बाद अलग हो जाते हैं. कुछ उम्र बीत जाती है. फिर अचानक एक रोज़ मुलाक़ात होती है. अपने अपने परिवारों के बारे में एक दूसरे के में बताते हैं. प्रेमिका दो जाम बनाती है. पलंग पर न बैठकर वह अपना जाम लेते हुए ज़मीन पर बैठ जाती है. प्रेमी अपना जाम उठाकर उसके ठीक बगल में. दोनों खामोश होकर कहीं सामने देख रहे हैं और मन में कुछ हलचल हो रही है. थोड़ी देर बाद प्रेमिका का सिर आँखों में कुछ बूँदें लिए प्रेमी के कंधे पर होता है. प्रेमी भी अपना सिर उसके सिर से टिका देता है. फ़िल्म यहीं समाप्त हो जाती है.* इसलिए ज़रूरी नहीं कि शब्दों की ज़रूरत पड़े हर मुलाक़ात में. ख़ामोशी में भी एहसास बह जाते हैं.
वक़्त/टाइम
हम सभी लोग जो इस जमीं पर हैं शायद अच्छे वाले श्राप से शापित हैं कि इस टाइम से बाहर नहीं हो सकते. चाहे जमीं के खोह में घुस जाएं या फिर वायुमंडल में चले जाएं, वक़्त आपके साथ या यूँ कहूँ आपकी त्वचा के साथ चिपका हुआ है. वो हमेशा बना रहता है. लेकिन कहीं कहीं यह अपना एहसास या कंट्रोल छोड़ देता है. वह तब होता है जब हम एहसासों की गहराई में होते हैं. जब वह पल बेहद गहरे पैशन के साथ हमारे साथ घटना शुरू होते हैं, आहिस्ता- आहिस्ता. यह जबरदस्त होता है. जीना समझ आ जाता है. आप दोनों बैठे हैं और आप दोनों के हाथों में घड़ी होते हुए भी आप लोगों को वक़्त कुछ कह नहीं पाता कि आप दोनों के दरम्यां वह भी है. उसका भी ख़याल रखो. अगर वक़्त के बगैर जीना है तो पैशन के साथ रहो. मिलो. जब आप ये लम्हात गुज़ारते हैं तब ही सच्ची और ताज़ी यादों को बनाना और सहेजना संभव होता है. वरना तो वक़्त आपको और हमको राख में तब्दील करने के लिए है. वही नहीं मरेगा और हम...जीने के लिए आया ही कौन है? इसलिए मिलो तो सब भूलकर उसके साथ मिलो. उसे पता भी नहीं चलने दो कि जब आप मिलने के लिए घर से निकल रहे थे तब आपने वक़्त को घर पर छोड़ना मुनासिब समझा था.
एहसास
इस पर तो क्या ही लिखूं! इस पर नहीं लिखा जाता. यही हमको लिख देते हैं. जो मन में पिघलने के लिए ही बन जाते हैं. न इनसे हारा जा सकता है और न ही इन्हें हराया जा सकता है. न इसे जीत पाते हैं (बुद्ध ने किया है) न इनसे लड़ पाते हैं. ये जटिल हैं. बहुत सारे धागों की तरह एक दूसरे में गुंथे हुए. इनसे उलझने की कभी कोशिश नहीं की जाती पर हैरत है पूरी ज़िन्दगी इसी में बसर कर देते हैं. यही कहा जा सकता है जब वह बगल में बैठती/बैठता है तब पूरी दुनिया थम जाती है. और कुछ नहीं लिखा जाना चाहिए...
*इस दृश्य के लिए फ़िल्म 'Breaking Up (1997)' देखिए.
Sunday, 22 September 2019
ख़ालीपन की चाहत
मेरे जैसे मामूली लोगों के पास अगर कहीं ख़ालीपन नहीं रहता तो वह जगह मेंरा दिमाग है. इतना शोर सा मचा हुआ है. कहीं और कभी भी राहत नहीं है. तीन चार दिन से फ्रेशर पार्टी में योगदान के लिए 1000 रुपए की मांग हो रही थी. हालाँकि यही किसी की सहायता के लिए होता तो शायद ही मैं एक बार सोचती. मैं पार्टी में नहीं जाती. न ही मेरे माँ पापा को यह सब करना आता है. वे मामूली सी जिंदगी जीते हैं. और उन्हीं का अक्स मुझमें चुपचाप आ गया है. हैरानी इस बात की है कि यह आदत और चाहत मुझमें क्यों नहीं? मेरी चाहत में एक या दो लोगों के साथ हल्की और आहिस्ता की जाने वाली बातें ही शामिल है. बाहर का शोर मुझे बेचैन कर देता है. इसलिए मुस्कराहट से बात ज़्यादा करती हूँ. फिर भी मुझे 1000 रुपए नहीं देने का दुःख है. एक तो मेरे पास हैं भी नहीं. जिन्हों ने मुझसे लिए हैं वे ख़ुद दे नहीं रहे. पैसा काफी कुछ है. लेकिन अगर आप इन मामलों में हिचकते हैं तो लोग आपको बेवकूफ बना सकते हैं. कल ही मैंने अपनी दोस्त से सड़क पर चलते हुए कहा- पैसा कुछ नहीं है. क्योंकि इसे नेचर ने नहीं बनाया...तब मेरी दोस्त ने मेरी बातों में पंक्ति जोड़ते हुए कहा- "hmm...Nature had made human only!" (प्रकृति ने तो बस इन्सान बनाया था!) अब ऐसी दोस्त को छोड़कर पार्टी में तो नहीं जा सकती न! खैर, जो लोग जाते हैं उनसे मुझे कुछ लेना देना नहीं. लोगों के निजी मामलों में हमें कोई हक ही नहीं है कुछ कहने का. यह उनकी अपनी ज़िन्दगी है. सब आज़ाद है अपने मुताबिक़ जीने के लिए.
दूसरी ज़रूरी बात जो आज ही हुई.
आज जब घर लौट रही थी तब बस में दो आदमी से चढ़े. रविवार था इसलिए हम 4 से 5 महिलाएं थीं और पुरुष भी लगभग इसी तरह कम संख्या में थे.दोनों में से एक आदमी मादर...नाम से बार-बार गालियों के शब्द बोले जा रहा था. तब खून खौल गया... माँ को लगता है कि अगर मैं इसी तरह घर से बाहर लड़ाई करुँगी तो मेरे साथ कुछ ग़लत हो जाएगा. "कसम है ज्योति जो तुम बाहर किसी को कुछ बोल या उलझ कर आई..." मानती नहीं यह सब. लेकिन माँ को तो मानती हूँ. कितना सब शोर सुनकर मेरे दिमाग में पच जाता है. यह बेरहमी है. शहर में अपने मुताबिक माहौल नहीं मिल पाता लेकिन क्या यह भी नहीं हो सकता कि कुछ लोग या बहुत से लोग तहज़ीब सीख लें? अगली बार जब वे भारत माता की जय करें तो उससे पहले अपने जेहन और अल्फ़ाज़ चेक करें.
मेरे कुछ परिचय के लोग बोलते हैं कि तुम ज़रूरत से ज़्यादा संवेदनशील हो जाती हो. लोगों का तो यही काम है. हर किसी से झगड़ा नहीं किया जा सकता. शुरू में मुझे बेहद कुफ्त होती थी. लेकिन लोगों ने मुझे ऐसी थैरेपी दी कि अब मैं चुप हूँ. मुझे डरा दिया गया है. मेरे पास हिम्मत नहीं बची. इसे मारने का काम ख़ुद मैंने और मेरे आसपास 'अच्छे' लोगों ने किया है. लोगों के पचड़ों में 'ज्योति' तुम क्या करोगी बोलकर? छोडो भी जाने दो...होता है..! लेकिन दम घुटता है यह सब देखकर. किसी दिन तेज़ चिल्लाऊंगी...बहुत तेज! किसी दिन ऐसी राक्षसनी बनूँगी जो बेहद खूंखार होगी. जिसके नाख़ून होंगे और जो ऐसे लोगों का मुंह नोच लेगी जो 6 महीने के बच्ची के साथ गलत करते हैं. क्योंकि मेरे देश की सरकार, विद्यालय, शिक्षा और शिक्षक फ़ेल हो गए हैं एक अच्छा इन्सान बनाने में...मैं ग़लत हूँ. हो सकता है. आप ही सही हैं. ...यहाँ सबकुछ हो सकता है. सबकुछ, जो सोचा भी नहीं गया वह भी...
अभी जब इसवक़्त जबये सब बकवास लिख रही हूँ, इसी पल कहीं कोई मारी जा रही है...कोई मारा जा रहा...सड़क पर कुछ लोग सो रहे हैं. उनके बच्चे सुबह का इंतज़ार करेंगे कि कब दिन हो और रेड लाइट्स काम करें. गाड़ियाँ रुकें...रेड लाइट्स न होती तो क्या होता? सोच रही हूँ...ओह! मुझे बेइंतहा ख़ाली हो जाने की चाहत..!
चलिए अब बेटियों का दिन मनाया जाए!
दूसरी ज़रूरी बात जो आज ही हुई.
आज जब घर लौट रही थी तब बस में दो आदमी से चढ़े. रविवार था इसलिए हम 4 से 5 महिलाएं थीं और पुरुष भी लगभग इसी तरह कम संख्या में थे.दोनों में से एक आदमी मादर...नाम से बार-बार गालियों के शब्द बोले जा रहा था. तब खून खौल गया... माँ को लगता है कि अगर मैं इसी तरह घर से बाहर लड़ाई करुँगी तो मेरे साथ कुछ ग़लत हो जाएगा. "कसम है ज्योति जो तुम बाहर किसी को कुछ बोल या उलझ कर आई..." मानती नहीं यह सब. लेकिन माँ को तो मानती हूँ. कितना सब शोर सुनकर मेरे दिमाग में पच जाता है. यह बेरहमी है. शहर में अपने मुताबिक माहौल नहीं मिल पाता लेकिन क्या यह भी नहीं हो सकता कि कुछ लोग या बहुत से लोग तहज़ीब सीख लें? अगली बार जब वे भारत माता की जय करें तो उससे पहले अपने जेहन और अल्फ़ाज़ चेक करें.
मेरे कुछ परिचय के लोग बोलते हैं कि तुम ज़रूरत से ज़्यादा संवेदनशील हो जाती हो. लोगों का तो यही काम है. हर किसी से झगड़ा नहीं किया जा सकता. शुरू में मुझे बेहद कुफ्त होती थी. लेकिन लोगों ने मुझे ऐसी थैरेपी दी कि अब मैं चुप हूँ. मुझे डरा दिया गया है. मेरे पास हिम्मत नहीं बची. इसे मारने का काम ख़ुद मैंने और मेरे आसपास 'अच्छे' लोगों ने किया है. लोगों के पचड़ों में 'ज्योति' तुम क्या करोगी बोलकर? छोडो भी जाने दो...होता है..! लेकिन दम घुटता है यह सब देखकर. किसी दिन तेज़ चिल्लाऊंगी...बहुत तेज! किसी दिन ऐसी राक्षसनी बनूँगी जो बेहद खूंखार होगी. जिसके नाख़ून होंगे और जो ऐसे लोगों का मुंह नोच लेगी जो 6 महीने के बच्ची के साथ गलत करते हैं. क्योंकि मेरे देश की सरकार, विद्यालय, शिक्षा और शिक्षक फ़ेल हो गए हैं एक अच्छा इन्सान बनाने में...मैं ग़लत हूँ. हो सकता है. आप ही सही हैं. ...यहाँ सबकुछ हो सकता है. सबकुछ, जो सोचा भी नहीं गया वह भी...
अभी जब इसवक़्त जबये सब बकवास लिख रही हूँ, इसी पल कहीं कोई मारी जा रही है...कोई मारा जा रहा...सड़क पर कुछ लोग सो रहे हैं. उनके बच्चे सुबह का इंतज़ार करेंगे कि कब दिन हो और रेड लाइट्स काम करें. गाड़ियाँ रुकें...रेड लाइट्स न होती तो क्या होता? सोच रही हूँ...ओह! मुझे बेइंतहा ख़ाली हो जाने की चाहत..!
चलिए अब बेटियों का दिन मनाया जाए!
Tuesday, 17 September 2019
मुट्ठी में दुःख लेकर पैदा होने वाले लोग
मुझे दो अनुभव साझा करने हैं. दोनों इसी महीने की 9 और 16 सितंबर 2019 के हैं. मुझे नहीं पता कि आगे आने वाले लोग इस अनुभव के किस तरह देखेंगे? हो सकता है वे हैरान हों या हंसें भी. उनके हैरान और हँसने के लिए सही लिख रही हूँ.
दिल्ली विश्वविद्यालय के 77 कॉलेज हैं. इनमें से लगभग 20 से 25 कॉलेज में रविवार और शनिवार को लड़कियों की क्लास चलती हैं. ज़्यादा जानकारी आप इंटरनेट से ले सकते हैं. बढ़ती आबादी के हिसाब से सभी के लिए पर्याप्त कॉलेज की पढाई मुहैया कराई जा सके, पर सरकारों ने कभी ध्यान नहीं दिया. सरकार अगर धर्म और जहर की राजनीति से ऊपर उठती तो आम से लेकर ख़ास, सभी को बेहतर शिक्षा मिल सकती थी. पर आज़ाद भारत में ऐसा कभी नहीं हो पाया. इसलिए जो मुट्ठी भर कॉलेज हैं, वहां दाखिले के लिए मारामारी लगी रहती है. एक बच्चा कब कट-ऑफ़ के नंबर में तब्दील हो जाता है पता नहीं चल पाता. सरकार को एक ऐसी व्यवस्था तो करनी चाहिए जिसमें सभी पढ़ें और लिखें और अपनी पसंद का करियर चुने. लेकिन भारत में सरकारों की इच्छा एक छलावे से ज़्यादा कुछ नहीं. आज़ादी के सत्तर सालों बाद भी जाति पाँति बरक़रार है, वह भी अपने क्रूरतम रूप में. निकम्मी सरकारों में बैठे हुए लोगों ने अपना रुपया बनाया और कुछ नहीं किया.
इन परिस्थितियों के चलते बड़े पूंजीवादी घरानों को मजदूर तो चाहिए ही. उनकी अमीरी मजदूरों के खून और शोषण पर ही टिकी है. यह आज से नहीं बहुत पहले से है. वह जमाना गया जब टीवी की उबासी फिल्में मजदूर को फटे-पुराने कपड़े में दिखाती थी. अब स्थिति में बदलाव यह हुआ है कि मजदूर ज़्यादा न सोचें इसलिए उनके हाथों में सस्ते दामों पर मोबाइल फोन्स को पकड़ा दिया है और व्यस्त रखने के लिए सस्ते दामों पर इंटरनेट की सुविधा है. इसके अलावा रही सही कसर फेसबुक ने पूरी कर दी है. कई बार सोचती हूँ तब लगता है यह भी एक वजह है कि लोग पालतू बन चुके हैं. उनके खून में गुस्से की मात्रा धीरे धीरे कम कर दी गई है.
सस्ते मजदूरों की चाहत में सरकारiइस तरह के उपक्रम खोलती है कि सबको थोड़ी बहुत शिक्षा मिल जाए. इसलिए थोड़ी बहुत पढ़ाई और जानकारी के लिए यह रविवार सेंटर चलता है. हर रविवार दो क्लास मिलती है, पढ़ाने के लिए. उसी नौकरी का नियुक्तिपत्र लेने के लिए पहले 9 सितंबर को बिना इंतजाम के बुलाया गया और जब उस दिन बेरोजगारों की भीड़ बढ़ गई तब दिल्ली पुलिस को भी बुला लिया गया. ताज्जुब है दिल्ली पुलिस सुरक्षा के लिए पिस्टल नहीं लाती पर बेरोजगार पढ़े लिखे लोगों के लिए अपने साथ पिस्तौल लाई थी. भीड़ इतनी थी मेरे जैसे कमजोर लोगों को कोई मतलब वहां नहीं था. मैं घर लौटने लगी. तभी एक टीचर ने कहा- "मत जाइए. हो सकता है मिल जाए." मुझे नहीं रुकना चाहिए था लेकिन शायद वह अनुभव मेरी ज़िन्दगी में जुड़ना इसलिए मैं रूक गई. उसके बाद हम भीड़ में कुछ इस तरह फंस गए कि न तो वापस लौट सकते थे और न ही हमें बुलाया जा रहा था. हम ऐसे फंसे थे कि हमारा हाल बेहद बुरा था. लोगो के पास उस भयंकर गर्मी में पानी तक नहीं था. सब बूँद बूँद पानी के लिए तरस रहे थे. प्रशासन ने हमें पानी तक नहीं दिया. लोगों के दम घूँट रहे थे. इस बीच बदतमीजी भी काफी हुई. इन सब दम घोंटू परिस्थितियों के चलते थोड़ी ही देर में उस पतली सी गैलरी में फंसे हुए लोग बेहोश होकर गिरने लगे. ऐसा कई लोगों के साथ हुआ. साँस की बीमारी वाले लोगों को सबसे अधिक परेशानी हुई.
कई लड़के भी बेहोश हुए जिनको हम मानकर चलते हैं कि वे बेहद मजबूत होते हैं. वहां की स्थिति बेहद ख़राब थी. एक बात और हुई. मैं आगे ही खड़ी थी और मेरे बगल में एक लड़का, हेलमेट लेकर खड़ा था. जब भीड़ बेकाबू हुई तब हेलमेट वाले के पीछे खड़ा लड़का उसको उकसाने लगा कि हेलमेट सिक्यूरिटी गार्ड को मार दे. ऐसा उसने कई बार कहा. बल्कि उसके हेलमेट को उसने हाथ भी मारा पर उस लड़के ने ऐसा कुछ नहीं किया. तभी न जाने कैसे भीड़ में एक पतला सा लड़का तमाम महिला टीचरों को धक्का देकर आगे आ गया और अपने आगे वाले लड़के को खूब ज़ोर ज़ोर से धक्का देने लगा. उस के इस रवैया से सभी को बहुत परेशानी हुई. भीड़ का मनो-विज्ञान समझना बहुत ज़रूरी है. वास्तव में मेरा नुभव यह कहता है कि भीड़ जब भीड़ की शक्ल में आती है तब वह अपना व्यक्तिगत दिमाग तो खोती ही है साथ में प्रत्येक व्यक्ति के मूड में हर पल बहुत से उत्तेजित और कम उत्तेजित अप्लिफ्ट्स होते हैं. भीड़ के सामने खड़े व्यक्ति को नहीं पता कि मूड के इन बदलावों में भीड़ का अगला सक्रिय एक्शन या प्रतिक्रिया क्या होगी?
भीड़ में नाजायज तत्व अगर न मिलें तब तक भीड़ पूरी नहीं होती. भीड़ के आगे कोई सुलझा विचार भी अगर उकसावे के रूप में रखा जाए तब वह मंथन नहीं करती. उसके पास वह व्यक्तिगत आलोचना दृष्टि नहीं होती कि वह पल भर रूक कर यह सोचे कि हम सभी जो मिलकर करने जा रहे हैं, उसका नतीजा किसी की जान से हाथ धोना भी हो सकता है. लेकिन यह भी सिक्के का दूसरा पहलु है जो दिखाई नहीं देता. यह जानना ज़रूरी होगा. पुराने ज़माने की लड़ाइयों को एक बार सोचें. इतने सारे सैनिक यह जानते हुए भी कि वह युद्ध में जा रहे हैं और मारे जा सकते हैं, फिर जाते थे. इसके पीछे का मनो-विज्ञान राजा का विचार होता था. राजा कहता था कि यह जगह जीत लेंगे तब राज होगा. दिलचस्प यह है कि राज तो आख़िर में राजा का ही होता था किसी सैनिक का नहीं. यह बारीक़ बात जान लीजिए कि सैनिकों का एक न होना ही राजा के होने का मतलब है और था. सैनिकों ने कभी एक साथ बैठकर किसी भी सवाल पर बात नहीं की. उन्हों ने कभी भी सवाल पूछने की हिम्मत नहीं दिखाई. जो युद्ध नहीं लड़ना चाहते थे उनको भगोड़ा कहा गया. इसलिए नौकरी पाने की भीड़ जो एन सी डब्ल्यू इ बी (Non-Collegiate Women Education Board) के सामने खड़ी थी वास्तव में प्रशासन (राजा के नोबल कॉज़) के कारण खड़ी. वह यह जाँच कर रहा था कि इस भीड़ को उकसावे के लिए कितना टाइम लगता है? 9 सितंबर को यही हुआ. यह बेहद शर्मनाक और भयानक था. मैं इस दिन को कभी नहीं भूल सकती.
दूसरी भीड़ 16 तारीख सितम्बर को लगाई गई. यह भीड़ ज़्यादा सफिस्टकेटेड थी. मतलब किसी डॉक्टर की तरह कि क्या काटा जाए तो शरीर को मौत दी जा सकती है. यह ज़्यादा खतरनाक थी. हम सब सुबह देर सवेर आ गए थे और नाम लिखकर कूपन मिल गए थे. लेकिन वह किस्मती रहे जिनके नाम 93 तक थे. बाकी लोगों को भूख समेट निराशा मिली. यह भूख व्यक्ति से सब करवा सकती है. यही हुआ भी. भूखी भीड़ ने रात को डायरेक्टर का कमरा घेर लिया और दो दिन में अपना हक़ माँगा है. अब देखिए कि क्या होता है.
लेकिन जब मैं अपना लैटर लेकर आ रही थी तब मैंने उम्मीद खो चुकी उस भीड़ के चेहरे को देखा जो सुबह बेहद चमकीली उम्मीद के साथ काम के लिए आई थी. ताकि रविवार को दो घंटे पढ़ाकर दो हज़ार रुपए कमा सके. मेरी ख़ुशी पल में बिखर गई. मुझे आत्म ग्लानी हुई और बेकार दुखी मन लिए घर को लौटी. यह लौटना बगैर ख़ुशी के था. ख़ुशी की उम्र कम होती है. हम मुट्ठी में दुःख लिए ही पैदा होने वाले लोग हैं.
Monday, 9 September 2019
खिड़कियाँ
तहे दिल से उस लेखिका से माफ़ी
मांगती हूँ. मैं उनका नाम भूल रही हूँ. मैं उस समय बहुत छोटी थी. लेखिका ने कहीं
किसी इंटरव्यू में यह बात कही थी कि जब वह लिखने बैठती हैं तब घर के खिड़की दरवाज़े खोलकर
लिखती हैं. ताकि बाहर के विचार अन्दर आ सकें और अन्दर के विचार बाहर.
खिड़कियाँ
क्यों होनी चाहिए घरों में
क्योंकि जो बहुत अरसे से क़ैद है और उसके भागने का रास्ता यही है
ताकि जो उड़ना चाहता है वह खिड़की से आसमान की थाह ले सके
ताकि
फेरी वालों की आवाज़ें घरों में बिना पूछे घुस सकें
ताकि
दो जोड़ी आँखें रसोई से बाहर देख सकें
ताकि
छौंक और छाती की तीखी और तल्ख़ मैली हवा बाहर जा सके
ताकि
आदान-प्रदान हो सके
ताकि
चार जोड़ी मोहब्बत वाली आँखें एक दूसरे को कुछ पलों के लिए ही सही पर देख सकें
ताकि
बारिश की बूँद अपना भी इस धरती पर एक घर तलाश सके
ताकि
बारिश के ही कुछ छींटें जो धरती पर इंक़लाब करने आए हैं वे ज़बरन घर में घुस कर ठंडक पहुंचा सकें
ताकि
किसान अपनी फ़सल के जन्म को पोषित होता हुआ देख सकें
ताकि
कोई चिड़िया आकर कोई बात कह सके
ताकि
गली की गूँज सुनी जा सके
ताकि
ऑक्सीजन पीया जा सके
ताकि...
Sunday, 8 September 2019
'अ' से मतलब अभी जागो
आसपास की दुनिया काफी बड़ी हो गई है. हाँ, मैं कोई गणितीय माप लेकर नहीं घूम रही, बस जो महसूस कर रही हूँ वह लिख रही हूँ. हम कई दुनियाओं में जीते हैं. जो दुनिया मुझे बेहद पसंद है वह मेरे अंदर की दुनिया है. कितना कुछ तिलिस्म छुपा कर हम जीते हैं. एक औरत के मन का तिलिस्म तो जानती हूँ पर किसी पुरुष के मन का तिलिस्म क्या होता है, अभी तक नहीं जानती. पिता के मन का तिलिस्म अक्सर चिंताओं में पाती हूँ. आज के समय में किसी बेटी का पिता होना नाज़ की बात तो है ही और बहादुरी की भी.
कई बार मैं अपनी बातों के पास पैदल चलकर आती हूँ. पैदल चलना मतलब उर्ज़ा लगाकर आना. जब भी कोई किताब पढ़ने के लिए खोलती हूँ और जब मुझे यह पता चलता है कि वह किसी औरत ने लिखी है तब महसूस करती हूँ कि मन में कुछ घुल रहा है. एक रिश्ता पनप जाता है. पुरुष लेखनी को पढ़ने की आदत स्कूल वालों ने डाल दी वरना मैंने कभी कहा ही नहीं था कि मुझे पुरुष की लेखनी पढ़नी है. कभी कभी सोचती हूँ कि अगर स्कूल के बारह सालों में पाठ्यक्रम का 50 प्रतिशत हिस्सा भी सिर्फ औरत के द्वारा लिखा हुआ पढ़ा होता तो मेरा दिमाग की मिट्टी का आज बना होता. कुछ तो फर्क होता उया नहीं? शायद होता!
बचपन में तो कहानीकारा माएं हुआ करती हैं. फिर आदमी कब शिक्षा में अपनी जुबान हमारे सामने पटक देता है? कब पुरुष हाथ में कलम थामकर हमारी जीभ और दिमाग में लिखने लगता है, मालूम ही नहीं चलता! यह सब बहुत धीमा होता है और पता भी नही चलता. ठीक इसके विपरीत अगर पुरुष बच्चों को महिलाओं के हाथो से लिखे लेख और क़िताबें पढाई जाती तब क्या वे आज की तरह ही इन्सान होते जो बात बात पर माँ-बहन के अंगों से जुड़ी गालियाँ देते हैं? ये सभी सवाल परेशान करने वाले नहीं हैं भी और नहीं भी.
आज विश्व साक्षरता दिवस है. मुझे बचपन की वे सभी किताबेंयाद आ रही हैं जिनमें अ से अनार से लेकरज्ञ तक के अक्षर लिखे होते थे.बढ़ती हुई क्लासों में कमला को घर चलने के लिए कहने वाला एक भाई होता था. शिक्षा मतलब लोगों के व्यवहार में अच्छे परिवर्तन लाने का साधन. लेकिन मैंने इन अच्छे परिवर्तनों कब लोगों के व्यवहार में देखा हो, याद ही नहीं आता. जितना पढ़ा लिखा, उतना घमंड. जितनी पढ़ी लिखी उतना घमंड. जितने पढ़े लिखे उतने ही फासले, ऊँचे और नीचे वाले. यह सच है. शब्द कमाल करते हैं. उनमें पूरी दुनिया बदल देने की ताक़त है. ठीक ऐसे ही गणित के नंबर के साथ भी है. सूत्रों में बंधे नंबर दुनिया के बारे में कितने राज खोल देते हैं. ठीक ऐसे ही पढाई लिखाई बहुत बड़ा फर्क ले आने में सक्षम है.
लेकिन आजकल की पढ़ाई-लिखाई आखिर है क्या? क्या है आज पढ़ने लिखने का मतलब? दिमाग पर ज़ोर डालिए तो कितनी निराशा सी मिलती है महसूस करने को. यह नहीं कह रही कि स्थिति बेहद ख़राब है पर कह यह भी तो नहीं रही कि स्थिति ख़राब नहीं है. शब्दों का फेर है. मुर्खता और हिंसा इतनी हावी है कि इसके रोज़ नए कीर्तिमान खड़े किए जा रहे हैं. सोचिए, जरा महसूस कीजिए की देश का इतना संपन्न कानून है फिर भी लोग लिंच कर के मार दिए जा रहे हैं. भीड़ इकठ्ठा होती है. उनके दिमाग में यह भर दिया जाता है कि आप मारने वाले की तरफ खड़े हैं और सामने जो व्यक्ति दिख रहा है उसे जान से मारना है क्योंकि वह दलित है या मुस्लिम है. कितना डरावना है यह सब. सोच कर रूह कांप जाती है. आप अपने आप को उस अकेले व्यक्ति के स्थान पर रखकर सोचिए, आप डर से सदमे में आ जाएंगे. यही बात मैं आपको बतलाना चाह रही हूँ कि हमने सोचना बंद कर दिया है. हमने दूसरों के दर्द और चोट को सहलाना और महसूस करना बंद कर दिया है. अगर कोई शिक्षा इन ख़ूबियों का क़त्ल करती है तो वह शिक्षा वास्तव में शिक्षा नहीं है.
कुछ लोगों का मकान इतना बड़ा है कि उसकी ऊंचाई देखने पर गरदन में मोच आ जाती है वहीं कुछ लोग ऐसे हैं जो सड़ते हुए नाले के करीब या फिर कूड़े के ढेरों पर रहते हैं. क्या यह शिक्षा का काम नहीं कि वह यह सब बताए कि असमानता कितनी भयानक चीज है और यह कितनी तेज़ी से बढ़ रही है. जिस देश में हजारों मंदिर है उसी देश में हमारे विचार और मतभेद एक मंदिर पर आकर पिछले कई सालों से दम तोड़ रहे हैं. क्या हम इस ज़मीन में एक मंदिर निर्माण के लिए ही पैदा हुए हैं? मुझे यह सवाल परेशान करता है. मैं यह सोचती हूँ कि हम यहाँ जीने और एक दूसरे के साथ कुछ समय बिताने आये हैं. अगर इससे बढ़कर आगे जाएं तब इस धरती को जानने के लिए अपनी है. अपनी हैरानी को एक जगह देने आये हैं. अगर कहीं दुःख दर्द है तो अपने आप को मारने के अलावा उनके दर्द को बांटने आये हैं.
शिक्षा की एक कमी के बारे में यह भी है कि हम अपने आसपास और उसके जीवन को बेहद क्रूरता से मार रहे हैं. किसी कुत्ते को तेज लात मारनी हो या फिर अपनी किसी नदी को गन्दा करना हो. हम हर काम में अव्वल हैं. यह इंसानों की भयानक क्रूरता है. बहुत ही बुरी तरह हम इन चीजो को नज़रन्दाज़ कर रहे हैं. कभी कभी लगता है करियर बनाने का क्या फायदा जब हम आने वाले कुछ ही सालों में इस पृथ्वी को नाश की कगार पर ले जा रहे हैं. कभी कभी ख़ुद ही कुछ न कर पाने का मलाल होता है इसलिए शब्दों से चिल्ला लेती हूँ.
बैठ कर सोचिए कि मैं और आप किस साक्षरता के शिकार हो रहे हैं? हमें किस तरह की साक्षरता की ज़रूरत है? जल्दी अपने मन को बदलिए. जल्दी. वक़्त बेहद कम है!
Thursday, 5 September 2019
अनूठा अनुभव
जो देखा उस पर यकीं नहीं हो रहा, अभी भी. बंद आँखों से जो देखा जाता है, उस पर यकीं न करने के एक हज़ार कारण हो सकते हैं. यह बात ठीक भी है. सपने सबसे ज़्यादा तरल और हवा में तैरने वाले होते हैं. बेहद महीन. लेकिन जो देखा, वह सपना नहीं था. जो देखा था वह चमत्कार भी नहीं था. जहाँ तक लगता है वह दिमाग की शानदार करामात या संरचनाएं थीं. क्या किसी का दिमाग इस तरह से नए नए पैटर्न तैयार कर सकता है? इसका जवाब हाँ है.
उस दिन इतना बुखार था. होश गायब था. जब तेज़ बुखार होता है तब व्यक्ति को अजीब और अटपटे ख़याल आने लगते हैं. इसमें कोई हैरत की बात नहीं. दर्द आपको बातूनी भी बना सकता है साथ ही साथ उसमें इतनी ताक़त होती है कि वह आपको किसी दूसरी दुनिया में आसानी से ले जाकर पटक सकता है. इसके लिए आपके परिवार के लोग भी एक महत्पूर्ण भूमिका निभाते हैं. जब हालत नाजुक होती है तब घर में माएं सबसे अधिक मोह और प्यार के साथ पेश आती हैं. उनके द्वारा आपके लिए दिए गए भाव कुछ ऐसा माहौल पैदा करते हैं जिससे आपका दिमाग दूसरी ही रचनाएं बनाने में तेज़ी से काम करता है.
फिर भी कहूँगी कि यह छल है. जो लिखने जा रही हूँ उस पर पूरा यकीं न भी कीजिए पर उसे नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता. जो पैटर्न बंद आखों से दिखाई दिए वे बहुत हदतक दिमाग में कभी नहीं आये थे. ज़ोर डालकर याद करने पर भी कहूँगी कि अपनी छोटी सी ज़िन्दगी में वे पैटर्न कभी नहीं दिखे. उनके रंग बेहद संजीदा थे. या कहूँ कि वे अनूठे रंग थे. जो आकृतियाँ देखीं वे ऐसी थीं जो ज्यामिति की कुछ आकृतियों से मेल खाती थीं पर हुबहू नहीं. इन पैटर्न में गति इतनी थी कि इनको पकड़ पाना मेरे लिए न-मुमकिन था. कईयों को दर्ज़ करने की कोशिश की पर असफलता ही हाथ लगी.uउनके होने की पृष्ठभूमि भी न तो धरती थी और न ही आकाश. मुझे बिलकुल समझ नहीं आया कि यह तस्वीरें कहाँ की हैं, किससे मेल खा रही हैं और ये हैं क्या? बहुत तेज़ी से सब बदल रहा था. मैं सौ प्रतिशत होश में थी. बुखार और दर्द था पर मैंने कभी भी अपने आप को किसी दर्द का गुलाम नहीं बनने दिया है, अभी तक.
जब समानता शब्द के बारे में सोचा तब एक बेहद खुबसूरत तस्वीर सामने आई. पानी दिखा उस समय. इस एहसास को मैं ही महसूस कर सकती हूँ. पानी को अक्सर हम अपने एक ज़रूरी साधन के रूप में ही देखते आये हैं. लेकिन क्या वह महज साधन भर ही है? शायद नहीं. उसके अलावा वह क्या क्या है, सोचना अच्छा रहेगा. शोर में भी सोचने की प्रक्रिया को बनाये रखना, चुनौती है. हम कभी मुकम्मल नहीं बन सकते. हम वही बन सकते हैं जो हमें बनाया गया है. एक बात और जो इन छवियों को देखकर कह सकती हूँ और वह यह कि हम इस महान प्रकृति के सामने कुछ भी नहीं है. कुछ भी! मेरा यकीं कीजिए. जो प्रकृति का रंग रूप हम इन नंगी आँखों से देख रहे हैं वह कुछ भी नहीं है. असली रूप इतना महान है कि वह अपने आप को इस महान प्रकृति से जोड़कर ही देखा जा सकता है. ऐसा बहुत कुछ है जो इस प्रकृति में है और जिससे हम अनभिज्ञ हैं. यह अच्छा भी है. जो मैंने देखा वह शानदार अनुभव था. उसको सबसे पहले मैंने अपनी माँ से साझा किया था और वो हैरान होकर मेरे शरीर की गर्माहट देख रही थी. उसके बाद मेरे जन्म से पहले की कहानी बतानी शुरू की. खैर, माँ के पास हमेशा बहुत कहानियां अपने बच्चों के लिए होती हैं, सुना कीजिए उन्हें.
फ़िलहाल इस अनुभव के बाद मुझे कैसा लग रहा है, वह मैं साझा कर सकती हूँ. इस अनुभव के बाद मुझे बेहद कमजोरी और थकावट रहने लगी है. जिन चित्रों को देखा उसके लिए शायद ताक़त की जरुरत अधिक होती है. मेरे पास यह नहीं है. फिर मुझे यह सब दिखा उसके लिए इस महान प्रकृति की शुक्रगुजार हूँ. दूसरा अनुभव जो मैं कह सकती हूँ वह यह कि मन में एक आत्मीय आराम सा रहने लगा है. ऐसा लग रहा है जैसे रुई वाली बर्फ़ गिर रही है और 'राहत' पहुंचा रही है...काफी बदली हूँ पर उन बदलावों को शायद धीरे धीरे ही समझ पाऊं.
यह सब इसलिए लिख रही हूँ वो भी ब्लॉग पर क्योंकि हमारे यहाँ इस तरह की बातों को पागल की बातें क़रार दिया जाता है. जबकि यह पागलपन नहीं है. यह बिलकुल प्राकृतिक है. बहुत से लोगों को ऐसे अनुभव होते रहते हैं. उन्हें साझा नहीं करते. शर्म, डर और मजाक के चलते ऐसे अनुभव नहीं आ पाते. इन्हें लिखिए. ये आपके विवरण हैं. ये आप की दुनिया और ब्लॉग है. बाकी इसे किसी भी तरह के धर्म से जोड़ना पाप होगा. यह बिलकुल करने के पक्ष में मैं नहीं हूँ.
फोटो मैं स्टारी नाईट लगा रही हूँ जिसे विन्सेंट वॉन गॉग ने बनाया था. इस पेंटिंग में आपको ज़रूर कुछ ख़ास मिलेगा अगर इसे देर तक देखें. मैं समझती हूँ मेरे चित्र का कुछ हिस्सा इस पेंटिंग में आया है..!
Monday, 2 September 2019
कुछ भी तो नहीं हुआ है, फिर तुम क्यों...
रोज़ बहुत कोशिश करती हूँ कि मन से अपने करियर के लिए पढाई करूँ पर हो नहीं पाता. आप यह कैसे कर सकते हैं जब देश के हिस्से के लाखों लोगों के बारे में कुछ पता नहीं चल पा रहा है? यह एक दिन के लिए नहीं है. ऐसा कई दिनों से हो रहा है. गोलियों में जीते वे लोग कैसे जी रहे हैं, जी भी रहे हैं या मर गए हैं, पता नहीं? आप कैसे किसी किताब के पन्ने अपने सड़ियल और ठोकर खाते करियर के लिए पलट सकते हैं जब देश के किसी राज्य में तीन साल की बच्ची को पुलिस द्वारा पटक कर मार दिए जाने की ख़बर अन्दर से नोच कर निकल गई हो? लगता है जैसे ज़िस्म के कई ज़रूरी हिस्सों को तगड़ा बिजली का झटका लगा हो. आप कैसे उस नौकरी की बात सोच सकते हैं जो आप को मिलेगी ही नहीं? क्योंकि कई और भी हैं जिनको नहीं मिल रही. जिनको मिली थी, सुना है उनकी भी जा रही है. आप कैसे उस देश में हँसने की बात सोच पा रहे हैं जहाँ, अस्पताल के दरवाजे पर बच्चों का जन्म हो रहा है? आप कैसे उस झक्की नौकरी का सोच सकते हैं जहाँ, रात के समय भरोसे में डूबी लड़की तमाम दुर्घटनाओं के बाद भी यकीं कर के ओला या उबर कर लेती है? पर उसके साथ वही होता है जिसके बारे में आपको और मुझको अच्छी तरह पता है. यह पता होना हमारी बेबसी है. हमारी शर्मंदिगी है. हमारी जिंदा रहते हुए मौत है. मैं बराबर परेशान रहती हूँ क्योंकि इन लोगों ने मुझे कश्मीर के बारे में स्कूल की किताबों में पढ़ाया है. मैं उन लोगों का सोचती हूँ तो जी बाहर आ जाता है. मैं सामान्य जीवन भी नहीं जी पा रही. मैं मर रही हूँ. अगर कोई ख़ुदा है, तो कहो कि वह क़यामत का दिन भूल गया है शायद! मुझे बेसब्री से क़यामत का इंतज़ार है.
Sunday, 14 July 2019
कुछ करना चाहिए
जो ग़लत में ग़लत कर रहे हैं उन्हीं का ज़माना है. यह ज़मीन उन्हीं के लिए स्वर्ग बनी हुई है. इसलिए मैंने आप लोगों के पवित्र ईश्वर से कह दिया है कि आप खामखां रजिस्टर की बर्बादी न करें. क्यों कलम घिस कर पाँच यह दस रुपए की बर्बादी कर रहे हैं? क्यों अपना समय और उर्जा ख़राब कर रहे हैं. कुछ होने से तो रहा. सब पापी यहीं सुख का बेतरह मज़ा ले रहे हैं और जो सही रास्ते पर जाने की जिद्द लेकर बैठे हैं वही लोग इस ज़िन्दगी से हाथ धो रहे हैं या फिर दर्द उठा रहे हैं जिस दर्द को ईश्वर भी सहन करे तो लगभग मर जाए.
आप लोगों को नहीं लगता कि इश्वर की अवधारणा के चलते हमने अपने सच्चे ईश्वर की पनाह इस पृथ्वी को लगभग खो दिया है. बर्बादी के कगार पर पहुंचे हुए हाथ अगर सुरक्षा की याचना करेंगे भी तो कुछ हासिल नहीं होगा. अपनी सब बातों को भूलकर क्या इस पृथ्वी को बचाने का शुरू नहीं किया जा सकता? अभी भी बहुत देर नहीं हुई है.
बाक़ी मन नहीं कर रहा लिखने का!
आप लोगों को नहीं लगता कि इश्वर की अवधारणा के चलते हमने अपने सच्चे ईश्वर की पनाह इस पृथ्वी को लगभग खो दिया है. बर्बादी के कगार पर पहुंचे हुए हाथ अगर सुरक्षा की याचना करेंगे भी तो कुछ हासिल नहीं होगा. अपनी सब बातों को भूलकर क्या इस पृथ्वी को बचाने का शुरू नहीं किया जा सकता? अभी भी बहुत देर नहीं हुई है.
बाक़ी मन नहीं कर रहा लिखने का!
Saturday, 22 June 2019
चश्मे बद्दूर (कहानी)
(इस नीचे दी जा रही घटना के वर्णन से पहले पाठकों को यह जान लेना
ज़रूरी है कि कहीं किसी दुबके हुए शहर में रात के एक अनजाने पहर में किसी लोकल
फ़टॉग्राफ़र के स्टूडियो में रखे एक कंप्यूटर में कुछ अज़ीब घटना घटी. एक नीली रौशनी
चर-चराई और हज़ारों तस्वीरों के फोल्डर से एक नौजवान लड़की ने जन्म लिया. उसका रंग
गहरा था. बाल बेहद काले. चेहरे का नक्शा बेहद खूबसूरत! उसने ऑनलाइन जगत में गूगल
की दुनिया को पूरी तरह जान लिया था और ढेरों फिल्में और किताबें पढ़ने-देखने के
दौरान उसे इश्क़ से इश्क़ करने की चाहत जागी. और उसने इस चाहत के साथ जमीन पर क़दम रख
दिया. अब कहानी आगे आपके हवाले है.)
वह बेहोश हो रही है. उसे इस बात का अच्छी तरह से एहसास भी है. उसे
होश में अब रहना नहीं है. वह पागलपन की कग़ार पर पहुँच गई है. उसे कतई नहीं मालूम
था कि लोग इस तरफ से भी बर्ताव करते हैं. वह सड़क के बीच में खड़ी है. क्या उसे कोने
में जगह खोज लेनी चाहिए बेहोश होने के लिए? लेकिन अगर वह बीच सड़क पर गिर पड़ी तो इस
बात की पूरी उम्मीद है कि लोग उसे जल्दी से उठाकर अस्पताल पहुंचा देंगे. इससे उसकी
बचने की संभावना भी बनी रहेगी. ज़िंदगी तो बची हुई है. उसका माथा इस रफ़्तार से घूम
रहा है जैसे छत का पंखा घूमता है. वह पसीने से तर है. उसने घर की तरफ रूख किया है
पर उसे इस बात का भी पक्का यकीं हैं कि वह घर नहीं जा रही. वह बस बेहोशी को अभी
अपना चुनाव मान रही है.
मद्धम रौशनी में सड़क के एक कोने पर पत्थर दिख रहा है. उसे कुछ देर
सिर टिका लेने के लिए सहारा मिल रहा है. वह अपनी दुनिया में बहुत खुश थी. उसकी
दुनिया में शरीर से लिपटे हुए लोग नहीं रहते. उनकी दुनिया में वह सब कुछ है जो
किसी भी इंसान की यहाँ, धरती पर चाहत रहती है. उसने अपनी दुनिया में कई प्रेम
कहानियों को पढ़ा था. वह उनमें डूबी रहती थी. जब भी वह किसी प्रेम कहानियों को पढ़ती
थी तब कई-कई दिनों तक उनके बारे में सोचा करती थी. वह यह सोचती थी प्रेम कहानी पढ़
लेने से ही जब इस एहसास का इतना असर है तो सच में इस एहसास में रहने पर क्या होता
होगा? यह
भावना ज़रूर कई रूहों की तपस्या का फल होगी. सच में इंसान की ज़ात कितनी नसीब वाली
है!
इसी लगाव और आकर्षण के चलते उसने धरती पर क़दम रखा था. उसे दिल्ली शहर
की एक झुग्गी में छोटा सा कमरा भी रहने को मिल गया था. उसने जब अपने एक बैग के साथ
कमरे के दरवाजे पर क़दम रखा तब उसे जो रोमांच महसूस हुआ वैसा पहले कभी नहीं हुआ था.
वह खुश थी. पर वह किसको बताती कि वह यहाँ प्यार करने आई है. इस कमरे से उसको कोई
शिकायत नहीं थी. बस वह चाहती थी कि उसे जल्दी से कोई प्यार करने वाला मिल जाए.
मकान मालिक ने किराए पर कमरा देने से पहले कुछ पड़ताल भी की. कहाँ से
आई हो? यहाँ क्यों आई हो? अकेली क्यों हो? कौन सी पढ़ाई कर रही हो? माँ-बाप क्या
करते हैं? घर में कौन कौन आएगा? बिजली और पानी का अलग-अलग रुपया लगता है, दे
पाओगी? हमें कोई झंझट नहीं चाहिए... वगैरह वगैरह. इन सब बातों से वह कुछ पल को
उकता गई और मन में सोचा इतना तो उसके ख़ुद के भाई ने नहीं पूछा. न ही उस स्टूडियो
के लड़के ने उसे इतनी तवज्जो दी थी. वह तो महज़ इमेज संख्या भर थी. उसने बस एक रोज़ अपने
भाई से कहा कि धरती पर जाना है. प्यार की तलाश करनी है. भाई का जवाब था- “ठीक है.
जैसी तुम्हारी मर्ज़ी!”
बहरहाल, यहाँ पर उसने अपने कमरे में सिर्फ प्रेम कहानियों की किताबें
खरीद कर रख लीं. वह, वह देखना और समझना चाहती कि क्या कोई प्यार का फार्मूला भी
होता है जिसे यहाँ के लोग अपनाते हैं. किन परिस्थितियों में वे लोग प्यार में पड़
जाते हैं? प्यार के लिए उनको आख़िरकार क्या प्रेरित कर देता है आदि-आदि?
उसने घर से बाहर निकलने और दोस्त बनाने के लिए काम करना शुरू किया.
उसने तमाम तरह की सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर अपना खूबसूरत प्रोफाइल बनाई. चूँकि
उसने प्रोफाइल फोटो बहुत सुंदर डाला था इसलिए उसे कई दोस्ती की गुजारिशें मिलीं.
अपनी इसी पहली सफलता पर वह बेहद ख़ुश हुई. इसके अलावा उसने एक जगह कॉल सेंटर में
नौकरी करना भी शुरू कर दिया. उसे बताया गया था कि कॉल सेंटर में बहुत से लोगों से
बातें करने का मौक़ा मिलता है. उसने मन ही मन यह भी सोचा कि इस बहाने उसे ज़रूर कोई
बेहतर चाहने वाला मिल जाएगा.
कॉल सेंटर में काम के दौरान उसे कई ग्राहकों से बात करने का अनुभव
मिला. ढेरों लोगों से बातचीत करने के बाद उसे एक लड़का टकराया जो उसे बहुत बेहतर लगा
था. दोनों ने अपने निजी नंबर एक दूसरे से साझा कर लिए थे. काफी दिनों के बाद उसे
एहसास हुआ कि वह कुछ महसूस कर रही है. वह यह बात किससे बताए. उसका कोई नहीं है
यहाँ पर. दफ़्तर की एक साथी से उसकी शुरुआती बातचीत के बाद अच्छी बनने लगी थी. जब
उसे यकीं हो गया है कि दफ़्तर की इस साथिन पर भरोसा किया जा सकता है तब उसने घुलने
मिलने की कोशिश की.
एक रोज़ इस साथिन ने उससे कहा- “तुम्हारा रंग कितना गहरा है. लेकिन
तुम फिर भी बहुत अच्छी लगती हो. मुझे नहीं पता क्यों? पर जब भी तुमको देखती हूँ लगता
है कि देखती रहूँ. तुम इस दुनिया की नहीं लगतीं. लगता है कहीं से आई हो. क्या इस
दुनिया के बाहर भी दूसरी दुनिया है? अगर है तो तुम वहीं की हो!”
उसने रात को अपने बिस्तर पर सोचा- “इस रंग का क्या माजरा है? मेरा तो
यही रंग है कब से! आज तक किसी ने मुझे इस तरह की बात नहीं कि मेरा रंग गहरा है.
हमारे यहाँ सबके रंग कई तरह के हैं. लेकिन किसी ने कभी इस तरह से कोई रंग को लेकर
बात नहीं की. कभी कभी कितनी दिक्कत होती हैं इन इंसानों को समझने में, उफ़! उस
स्टूडियो के लड़के ने कई मर्तबा मुझे सफ़ेद रंग से रंगा था पर इस बात के पीछे की वजह
मुझे ठीक ठीक मालूम नहीं. यही सब सोचते सोचते उसे नींद आ गई.क्या वह मुझे गोरा बना
रहा था?”
कुछ रोज़ में उसकी मुलाक़ात अपने हो सकने वाले पहले प्यार से होने की
उम्मीद बन गई थी. उस लड़के ने यह जाहिर किया था की वह उससे मिलने को बहुत बेताब है.
उसकी आवाज़ जब इतनी मीठी है तो वह ख़ुद कितनी मीठी होगी. इस तरफ वह भी उत्साहित
थी.उसने सोचा कि जब सब बातें ठीक होंगी तो एक रोज़ भईया से मिलकर बताएगी कि उसे उस
भावना का एहसास हो गया है जिसके बारे में वह पढ़ा करती, सोचा करती थी.
बुधवार! दोनों के लिए यह दिन ठीक रहा तो इस दिन पर मुहर लगा दी गई. सुबह
का समय तय किया गया क्योंकि उस समय थोड़ी ठंडक होगी और इस दौरान किसी जगह को भी तय
कर लिया जाएगा कि कहाँ मुनासिब बातें की जा सकेंगी. फोन पर लड़के ने एक सवाल पूछा-
“कौन से रंग के कपड़े पहनकर आओगी? मैं कौन से रंग की कमीज पहन कर आऊँ?”
उसे फिर से कुछ ज़्यादा समझ नहीं आया.
वह समय से जल्दी पहुँच गई और निश्चित जगह पर एक पार्क खोज के उस लड़के
को इत्तिला दे दी. वह इस बीच बेंच पर बैठकर इंतज़ार करने लगी. उसने अपने उछलते मन
को शांत रहने को कहा. उसे लगा कि उसके मन में सूरजमुखी के फूल के खिल रहे हैं.
उसने सोचा इस एहसास को वह अपनी दफ़्तर की साथिन से बताएगी. उसने बहुत दिनों बाद
पेड़ों की पत्तियों को निहारा. उनको हवा में हिलते हुए पाया. उसे लगा कि वे नाच रही
हैं. उसने नज़रें घास पर टिकाईं. उसे फिर लगा कि घास और हवा आपस में बैंड बजा रहे
हैं. वह यह सब देखकर मुस्कुरा रही थी. तभी पीछे से किसी ने हलो कहा.
उसने पाया कि उसका दिल फिर उछल रहा है. “क्या आप ही वो हैं?”
वह पीछे पलटी और उसने उस लड़के को पहचानने में ज़रा भी देर नहीं लगाई.
उसने मुस्कुराते हुए कहा- “जी हाँ!”
लड़के ने जब उसे देखा तो उसका चेहरा सहम गया. फिर भी उसने किसी तरह इस
भाव को चेहरे से तुरंत हटाया और सामान्य बनने की कोशिश की.
वह जल्दी ही समझ गई. लेकिन उसने भी सामान्य बने रहने को
ही चुना. दोनों ने पास में ही एक रेस्त्रां को खोजकर बैठने का फैसला किया. इस बीच
लड़का अपना धैर्य खोता रहा और जल्द से जल्द जाने की कोशिश करता रहा. बैठने पर दोनों
ने क़रीब से एक दूसरे के चेहरों को देखा. लड़के को उसका चेहरा बेहद गहरे रंग का
दिखा. लड़की ने लड़के को उत्सुकता की नज़र से देखा. उसका चेहरा मुस्कुराता ही रहा.
उसने कोमल भाव को अपने चेहरे पर हमेशा से पाया था. यही उसकी असलियत भी थी. लड़के ने
दो कॉफ़ी का आर्डर दिया.
लड़के ने समय काटने के लिए लड़की से नाम पूछा- “आपने कभी अपना नाम नहीं
बताया. क्या नाम है आपका?”
लड़की ने थोड़ा सोचते हुए पूछा- “नाम? ज़रूरी है?”
उसने कहा- “हाँ, बिलकुल. सभी के नाम होते हैं. कुछ लोगों के तो कई
नाम होते हैं. इससे पता चलता है कि आप क्या और कौन हैं?”
लड़की ने सहमते हुए धीरे से कहा- “अच्छा!”
उसने आज सुबह ऑटो में एक गाना सुना था. उसे याद आया कि स्टूडियो वाला
लड़का भी यही गाना कई बार सुना करता था. उसने झट से उस गाने से बिना सोचे समझे एक
शब्द लड़के के आगे लगभग पटक दिया- “चश्मे! जी हाँ, मेरा नाम चश्मे हैं.”
लड़के ने ऐसा मुंह बनाया जैसे उसके मुंह में सुखी नीम की पत्तियों का
पाउडर डाला गया हो. उसने कहा- “बड़ा अजीब नाम है. मैंने ऐसा नाम कभी पहले नहीं
सुना. वैसे आपका पूरा नाम क्या है?”
लड़की ने असमंजस में पूछा- “नाम पूरा भी होता है क्या? मेरा मतलब नाम
तो नाम होता है! जैसे वर्ड फाइल में सेव की हुई फाइल का नाम तो नाम होता है. उसका
कोई सरनेम तो नहीं होता.”
लड़के ने कहा- “हम्म! फिर भी यहाँ सभी के नाम पूरे होते हैं. सभी के
नाम के पीछे सरनेम लगा होता है. जैसे मेरा पूरा नाम- नवीन भारद्वाज है. वर्ड फाइल
तो कंप्यूटर की दुनिया है. वो दुनिया और हमारी दुनिया में जमीन आसमान का फर्क है.
अब आप बताइए कि आपका सरनेम क्या है?”
लड़की ने चेहरा सोच की मुद्रा में उठाया और फिर दिमाग पर उस गाने के
बोल याद करते हुए ज़ोर लगाया. उसने कुछ सेकंडों का समय लिया और तुरंत दूसरा शब्द
पटका- “बद्दूर..! जी हाँ मेरा पूरा नाम चश्मे बद्दूर है.”
लड़का फिर बोला- “यह नाम नहीं होता. यह तो गाने में इस्तेमाल किया गया
है. और उर्दू का होगा शायद अरबी भी हो सकता है. मुझे ठीक से नहीं पता. लेकिन यह
नाम तो नहीं होता. आप मजाक कर रही हैं?”
लड़की ने ज़ोर देकर कहा- “जी हाँ. मेरा नाम यही है. मैं क्या करूँ?
मुझे यही नाम दिया गया है. इसलिए जल्दी सबको नहीं बताती. आपको बताया क्योंकि आपसे
कुछ भी छुपाना नहीं चाहती.”
लड़का हैरान हुआ. बहुत! लड़के ने बेहद कम बातें कीं. लड़की ने यह सोचा
था कि जिस तरह से वह फोन पर बातें करता है वैसे ही यहाँ भी करेगा. पर ऐसा बिलकुल
नहीं हुआ. उसका चेहरा बता रहा था कि वह बस यहाँ से किसी तरह भाग जाना जाता है.
दोनों लगभग एक घंटे भी किसी तरह साथ रहे और एक दूसरे को बिना जाने चल दिए. लड़की ने
यही सोचा जब यही नहीं चाहता तो मैं क्यों इस पर दबाव बनाऊं?
अगले रोज़ जब नए नाम वाली ‘चश्मे बद्दूर’ ने इस बात को दफ़्तर की साथिन
से बताया तो वह बहुत हैरान नहीं हुई. उसने गुत्थी सुलझाने की कोशिश की. उसने चश्मे
बद्दूर से तुरंत नवीन को फोन मिलाने को कहा. नवीन ने चौथी बार जाकर फोन उठाया और
कहा कि वह बहुत व्यस्त है. शाम को किसी तरह मिलने को राज़ी हुआ. उसी पार्क में
चश्मे बद्दूर पहले बैठकर इंतज़ार कर रही थी. लड़का आया.
बैठे बगैर कहने लगा- “देखो, मैं तो तुमको पसंद करता हूँ. तुम्हारा
रंग गहरा है तो क्या हुआ? तुम मुसलमान हो तो क्या हुआ? पर घर में कभी सुखी नहीं रह
पाओगी. इसलिए यहीं रूकते हैं!”
चश्मे बद्दूर ने उसे काफी देर तक घूरा जैसे उसको कुछ समझ ही नहीं आया
कि आख़िरकार वह कह क्या रहा है? वह चला गया और वह बैठी रही. कुछ बोली ही नहीं.
जब अगले दिन फिर दफ़्तर की साथिन को यह पूरी बात बताई तो उसने सामान्य
ही अंदाज़ में कहा- “ऐसा ही होता है.”
रात में चश्मे बद्दूर ने इस बात और इस घटना पर बहुत विचार किया और
पाया कि यह प्यार तो प्रेम पहली सीढ़ी तक भी नहीं पहुंचा. कुछ देर बाद उसने बेहद
अटपटी बात सोची. पहली सीढ़ी! क्या उसे मालूम है कि अंतिम सीढ़ी क्या है? उफ़! इंसानों
की दुनिया ही नहीं समझ आ रही तो फिर यह मोहब्बत कैसे समझ आएगी... कैसे?
उसने परेशानी में आँखें बंद कर ली. उसने अगली सुबह जल्दी उठकर अपने
भईया को यह पूरा ब्यौरा बताया. उसने यह बताया कि यहाँ नाम तो ज़रूरी हैं साथ ही साथ
सरनेम होना भी. कोई धर्म नाम की चीज़ भी है जिसके बारे में उतना ही पता है जितना
गूगल में लिखा हुआ है. लेकिन असल की दुनिया में यह बहुत घातक मालूम देता है, भाई!
इसके अलावा यहाँ चमड़ी का रंग भी बेहद मायने रखता है. लोगों अलग अलग तरह से समझा
जाता है. कई बार मुझे बहुत परेशानी होती है. यहाँ मकान मालिक हर बार मेरे बारे में
पूछता रहता है. उसको यह लगता है कि मैं इतना फ्री कैसे हूँ. मैंने उन्हें यह कहा है
कि मेरा एक भाई है...भाई ये लोग बेहद अजीब हैं.
मुझे कभी कभी कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता. दो दिन पहले मैं एक लड़के से
मिली. उसी से जिसके बारे में आपको बताया था. फोन पर बात करता था. भाई, मुझे बेहद
अच्छा एहसास मिलता था. पर जब वो मिला और उसने मेरा नाम और मेरा चेहरा देखा तब उसे
पता नहीं क्या हुआ? मैं नहीं जानती. जाने क्या हुआ? आप ही बताओ...क्या मुझे प्रेम
की तलाश बंद कर के वापस आपके पास आ जाना चाहिए यह फिर दिल से एक बार फिर खोजना
चाहिए?
जब सुदूर किसी तस्वीरों वाले फोल्डर में रह रहे उसके भाई ने यह ख़त
पढ़ा तब उसे इंसानों के इस बर्ताव का कुछ मतलब समझ नहीं आया. उसने जवाब लिखा- “यह
तुम्हारी ज़िन्दगी है. तुम जैसे ठीक चाहो करो. मैं यहाँ तुम्हारे ख़त के इंतज़ार में
रहूँगा और तुम्हारी दिल की बातें सुनूंगा. यहाँ आने की जल्दी मत करो. भला हो तुमने
कंप्यूटर की चार दीवारी को तोडा और बाहर निकलने की सोची. वरना तो हम तस्वीरें
पुरानी बनती रहती हैं. एक नई तस्वीर कब पुरानी एलबम में बदल जाए क्या मालूम! पहले
तो एक एक तस्वीर को सुना है लोग हार्ड कॉपी में निकलवाकर रखते थे. कोई कोडक का
कैमरा हुआ करता था जिसमें छत्तीस की संख्या में फोटो ही खींच सकते थे. लेकिन अब टच
मोबाइल का ज़माना है. देखती नहीं कितनी मेमरी बढ़ गई है. तस्वीरों की संख्या अनगिनत
है. सब अगड़म-बगड़म जमा किया जाता है कभी न देखने के लिए...इसलिए मेरी बात मानो यहाँ
मत लौटो. आओगी तो ‘ट्रैश’ की ज़िन्दगी जिओगी. वहीँ सुखी रहो. इंसानों को लगता है कि
ये सब फोल्डर ऐसे ही बेजान होते हैं. पर उन्हें नहीं मालूम कि इनकी असली सच्चाई
क्या है?”
बहन ने जब यह चिट्ठी पढ़ी तो उस की आँखें मानसून बन आईं. आह! कितना
दर्द है हर कहीं!
चश्मे बद्दूर ने अपनी प्रेम को खोजने और जीने की यात्रा जारी रखी.
उसने कॉल सेंटर से काम छोड़ दिया. और दूसरी जगह काम करने लगी. उसने दिल्ली के एक
इलाक़े में कॉफ़ी परोसने की दूकान खोल ली जिसे नफ़ासत की ज़ुबान में कॉफ़ी हाउस कहा
जाता है. वह ख़ुद कॉफ़ी अपने हाथों से बनाकर परोसा करती थी.
लोगों की कहानियों से उसने मुलाक़ात करनी शुरू कर दी. उसे उन लोगों की
कहानियों में प्रेम की कहानियां भी भाती थीं लेकिन धीरे धीरे उसे उन कहानियों में
भी आनंद आने लगा जिनमें घूमने फिरने के अनुभव चिपके होते थे. इसलिए उसने जाना कि
प्रेम के अलावा भी इन इंसानों की ज़िन्दगी में रोमांच भरा हुआ है. उसने घूमने-फिरने
वाली किताबों को भी पढ़ना शुरू किया और वक़्त मिलने पर नै जगहों पर जाना भी.
इसी बीच कॉफ़ी हाउस में उसकी मुलाक़ात एक बेहद सुंदर लड़के से हुई जो
अपनी ही दुनिया में गुम रहता था और देर तक बैठा रहता था. जब भी चश्मे बद्दूर ने
उससे कुछ कहना चाहा वह तुरंत कोई कविता सुना दिया करता और फिर ऐसी रंगीन दुनिया
बना दिया करता कि वह उन बातों में तल्लीन हो जाया करती. एक रोज़ ऐसे ही उसने लड़के
के आगे कहीं दूर पहाड़ों में जाने की बात कही. लड़का तुरंत अपनी दुनिया से जागा और
उसने साथ जाने की इच्छा जाहिर की. चश्मे बद्दूर ने उस रात देर तक लड़के के बारे में
सोचा. उसे लगा शायद उसकी तलाश पूरी होने को है.
चश्मे बद्दूर और वह लड़का तय समय पर मिले और पहाड़ों की तरफ जाने वाली
गाड़ी में बैठ गए. उसने रास्ते में जाना कि प्रेम का भाव इन हवाओं को महसूस करने से
भी मिलता है. इन पहाड़ों को देखने से कहीं भीतर कुछ अच्छा महसूस होता है. पहाड़ों के
ऊपर तैरते और खेलते हुए बादलों से भी प्रेम की अनुभूति होती है. इन रंगीन फूलों के
खिलने में भी एक संगीत है. बहुत कुछ है यहाँ, इस ज़मीन पर जिससे प्रेम के महान और पवित्र
भाव का एहसास होता है. वह बेहद खुश थी.
पहाड़ों के दरम्यां बने एक इंसानी होटल में उन्होंने ठहरना तय किया.
कई दिनों तक वे ख़ूब घूमें. इस बीच चश्मे बद्दूर को ख़ुद से ही प्रेम की तीव्र
अनुभूति हुई. उसे मालूम चला की ज़िन्दगी से ही पहला प्रेम होता है. यह भाव उसके मन
में ऐसे जागा जैसे किसी के मन में सच्चाई को लेकर सम्मान जागता है. उसने जान लिया
था कि वह गलत जगह पर अभी तक रह रही थी. उसने सोचा कि वह यहीं कहीं बसेगी और अपने
भाई को लम्बी-लम्बी चिट्ठियां लिखा करेगी.
उस शाम उन्हें ज़रा देर हो गई. दोनों ने अपने होटल पहुंचकर थकावट
उतारने का सोचा. पहाड़ों की रात बड़ी गहरी और काली हुआ करती है. यह एक ख़ासियत है.
आसमन में बदले हुए हाल सुकून देते हैं और कभी कभी बेचैन कर देते हैं. यह बेचैनी उस
लड़के को हुई जिसका नाम अभी तक चश्मे बद्दूर को अभी तक नहीं मालूम था. लड़के ने नशे
में बात शुरू करने के लिए पूछा- “तुम दिल्ली में कहाँ रहती हो?”
उसने एक झुग्गी वाले इलाक़े का नाम बताया.
लड़का एकदम से ऐसे चौंका जैसे उसे किसी ने तेज़ चींटी काटी हो. उसने
आँखें बड़ी करते हुए कहा- “क्या तुम झुग्गी में रहती हो? लेकिन तुम्हारा तो कॉफ़ी
हाउस है.”
चश्मे बद्दूर ने कहा- हाँ, मैं झुग्गी में रहती हूँ. लेकिन झुग्गी और
कॉफ़ी हाउस का क्या रिश्ता है? क्या झुग्गी वाले यह काम नहीं कर सकते?”
लड़के ने अपने को थोड़ा संयत करते हुए कहा- “क्यों नहीं, कर सकते हैं!”
लड़का नशे में पूरी तरह डूब रहा था. उसने चश्मे बद्दूर को छूने की
कोशिश करनी शुरू कर दी. चश्मे बद्दूर को उस छूने के एहसास से जबर्दस्त धक्का लगा
साथ ही साथ घिन आ गई. उसने उसे धक्का दिया.
लड़का इस बीच ग़ुस्से में आकर हिंसक हो गया. उसने चश्मे बद्दूर का एक
हाथ लगभग मरोड़ते हुए कहा- “तुम झुग्गी में रहने वाली, इतनी भी छूई-मुई न बनो.
कितनी ही तुम्हारी तरह की औरतें मेरे घर में सफाई के काम के अलावा बहुत कुछ करती
रही हैं...बहुत कुछ! समझी?”
इस बात को सुनकर चश्मे बद्दूर को जो ग़ुस्सा आया वह शायद पहले कभी
नहीं आया होगा. उसने अपनी सम्पूर्ण शक्ति से उसे धक्का दिया. उसे लगा जैसे पहाड़ों
की शक्ति उसके अंदर समा गई हो. वह लड़का दूर जाकर गिरा और सुबह तक उठा नहीं. चश्मे
बद्दूर ने उसे उसके हाल पर छोड़ते हुए अपना इक्का-दुक्का सामान बाँधा और पहाड़ों को
और नजदीक से जानने का निश्चय किया. उसने जैसे ही अकेले बाहर क़दम रखा उसे हवा छू के
गई. उसे एक मीठी अनुभूति हुई जो शायद उसकी रूह से उपज रही थी. उसने चलते चलते तय
किया कि वह अपने भाई को लम्बी चिट्ठी लिखेगी जिसमें इंसानों के बजाय प्रकृति से
असल प्रेम का ज़िक्र होगा. इसके अलावा वह कोई भी फोटो नहीं खींचेगी न ही कोई फोल्डर
बनाएगी. वह बस तमाम खूबसूरती को अपने रोम-रोम से पीती जाएगी.
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