आज सुबह बहुत तेज़ बारिश हुई। अच्छा हुआ जो कल नहीं हुई वरना प्रगति मैदान पुस्तक मेला नहीं जा पाती।
कल गई थी। शहर में ऐसे मेले लगने चाहिए। अच्छा लगता है। मेला एक ऐसी जगह है जहां छोटी-छोटी फिल्में चलती रहती है। बहुत सारी क्रियाएँ एक साथ एक जगह पर हाथ में हाथ थाम कर चलती है।
वास्तव में मेला बच्चों के उत्साह से छलक कर उभरा हुआ शब्द भी है जिसका बाजारवाद ने चुपके से नहीं बल्कि खुलेआम अपहरण कर लिया। आज मेला शब्द ज़मीन से ऊंचा उठा हुआ गुब्बारा सा अहसास देता है, जिसे पैराशूट कहते हैं। पैराशूट जितना हसीन होता है उतना ही पहुँच से दूर जो आकाश की ओर गर्दन उठवा देता है। सिर्फ उसका मालिक उसका मज़ा ले सकता है। आंखो को थोड़ी देर का सुकून जरूर मिल जाता है पर गर्दन का दर्द उपहार स्वरूप भी मिल जाता है।
हिन्दी फिल्मों में मेले के दृश्य बेहद अलग अंदाज़ में दिखाई देते हैं। गुंडे को पकड़ता हुआ हीरो मेले में कितना ज़्यादा नुकसान करता हुआ भागता है। छोटे रेहड़ी वालों का सामान बिखेरता हुआ हीरो किसी के नुकसान की बिलकुल परवाह नहीं करता। गुंडा तो हीरो की पकड़ में आने के लिए ही भगाया जाता है।
एक हिन्दी चर्चित अनुवाद उपन्यास 'संस्कार' में बड़ा खूबसूरत मेला आता है जहां उपन्यास का नायक मेले से गुजरता है। लिखे हुए शब्दों में भी लोगों की भीड़ महसूस हो जाती है। ऐसे और भी उदाहरण होंगे जिनमें मेले का चित्र उभरा हुआ होगा।
लेकिन इस सब से अलग जिन मेलों को मैंने देखा सुना या जीया उनकी बात निराली थी।
14 नवंबर यानि नेहरू चाचा के जन्मदिन पर हमारे स्कूल में मेला लगाया जाता था। सभी उसे 'स्टॉल' कहकर बुलाते थे। उस दिन स्कूल का पूरा काया पलट हो जाता था। पढ़ाई के कमरे पूरी तरह से रोमांचक गतिविधि में तब्दील हो जाते थे। टीचर और विद्यार्थी का रिश्ता एक दूसरे धागे में पिरोया जाता था। किसी कमरे में स्टील के गिलास पहाड़नुमा शक्ल में लगाकर गेंद से तीन वारों में गिराया जाता था। सभी गिलास गिर गए तो आप जीते, नहीं गिरे तो आप हारे नहीं बल्कि हंसने लगे। कहीं आपके मनपसंद खाने की धुएँ की महक-लहर आपकी नाक तक आ जाती थी, तो कहीं नाच गाने का रंगारंग कार्यक्रम चलता था। कुछ साथियों के समूह नाटक भी करते थे जिनमें उनके टीचर की मदद हुआ करती थी।
टीचर भी उस दिन टीचर नहीं बल्कि सहयोगी हो जाया करती थी। आप उनके पास बैठकर उनके बदन की परफ्यूम की महक अपने अंदर ले सकते थे। उस दिन वह भी बातों में शामिल रहती थीं। उनके बालों की कटिंग को पास से देखा जा सकने का मौका मिलता था।
एक बात और जो मुझे पसंद थी। हमारा स्कूल लड़कियों का ही स्कूल था, जहां एक भी लड़का नहीं आ सकता था। लेकिन जब यह दिन आता तो आपको छूट मिलती की आप अपने छोटे या थोड़े बड़े भाई को अपने संग ले जा सकते थे। मौज कर सकते थे।
वैसी मौज और स्वाद अब किसी मेले में नहीं मिलता। प्रगति मैदान का तो खाना ही सोने के दामों में मिलता है जिसे खाकर नहीं फोटो में देखकर तृप्ति करनी पड़ती है। बच्चे भी आते हैं तो वहाँ ग्राहक बन जाते हैं या फिर किसी पेंटिंग प्रतियोगिता का हिस्सा बन बैठते हैं। कल देखा कि बहुत सारे बच्चे खूबसूरत चित्रकारी कर रहे थे। एक से बढ़कर एक नहीं कहना चाहिए, बल्कि जिसकी जैसी कल्पना थी वैसे ही वे चित्र बना रहे थे। लेकिन एक माइक वाले अंकल ने कहा कि सबसे अच्छी पेंटिंग का इनाम इस बच्चे को जाता है और बाकी बच्चे उदास न हों। एकाएक मुझे लगा जैसे मेले में फिर से बाज़ार घुस आया हो।
............उफ्फ!.......... यह शब्दावली मेरी सोच से परे है।
खैर 1968 में आई हिन्दी फिल्म का एक गीत मुझे सीधे मेले में पहुंचा देता है-' ओ फिरकी वाली तू कल फिर आना नहीं फिर जाना तू अपनी जुबान से...।' इतनी सुंदर फिरकी वाली सिर्फ अपने यहाँ ही हो सकती है।
कल गई थी। शहर में ऐसे मेले लगने चाहिए। अच्छा लगता है। मेला एक ऐसी जगह है जहां छोटी-छोटी फिल्में चलती रहती है। बहुत सारी क्रियाएँ एक साथ एक जगह पर हाथ में हाथ थाम कर चलती है।
वास्तव में मेला बच्चों के उत्साह से छलक कर उभरा हुआ शब्द भी है जिसका बाजारवाद ने चुपके से नहीं बल्कि खुलेआम अपहरण कर लिया। आज मेला शब्द ज़मीन से ऊंचा उठा हुआ गुब्बारा सा अहसास देता है, जिसे पैराशूट कहते हैं। पैराशूट जितना हसीन होता है उतना ही पहुँच से दूर जो आकाश की ओर गर्दन उठवा देता है। सिर्फ उसका मालिक उसका मज़ा ले सकता है। आंखो को थोड़ी देर का सुकून जरूर मिल जाता है पर गर्दन का दर्द उपहार स्वरूप भी मिल जाता है।
हिन्दी फिल्मों में मेले के दृश्य बेहद अलग अंदाज़ में दिखाई देते हैं। गुंडे को पकड़ता हुआ हीरो मेले में कितना ज़्यादा नुकसान करता हुआ भागता है। छोटे रेहड़ी वालों का सामान बिखेरता हुआ हीरो किसी के नुकसान की बिलकुल परवाह नहीं करता। गुंडा तो हीरो की पकड़ में आने के लिए ही भगाया जाता है।
एक हिन्दी चर्चित अनुवाद उपन्यास 'संस्कार' में बड़ा खूबसूरत मेला आता है जहां उपन्यास का नायक मेले से गुजरता है। लिखे हुए शब्दों में भी लोगों की भीड़ महसूस हो जाती है। ऐसे और भी उदाहरण होंगे जिनमें मेले का चित्र उभरा हुआ होगा।
लेकिन इस सब से अलग जिन मेलों को मैंने देखा सुना या जीया उनकी बात निराली थी।
14 नवंबर यानि नेहरू चाचा के जन्मदिन पर हमारे स्कूल में मेला लगाया जाता था। सभी उसे 'स्टॉल' कहकर बुलाते थे। उस दिन स्कूल का पूरा काया पलट हो जाता था। पढ़ाई के कमरे पूरी तरह से रोमांचक गतिविधि में तब्दील हो जाते थे। टीचर और विद्यार्थी का रिश्ता एक दूसरे धागे में पिरोया जाता था। किसी कमरे में स्टील के गिलास पहाड़नुमा शक्ल में लगाकर गेंद से तीन वारों में गिराया जाता था। सभी गिलास गिर गए तो आप जीते, नहीं गिरे तो आप हारे नहीं बल्कि हंसने लगे। कहीं आपके मनपसंद खाने की धुएँ की महक-लहर आपकी नाक तक आ जाती थी, तो कहीं नाच गाने का रंगारंग कार्यक्रम चलता था। कुछ साथियों के समूह नाटक भी करते थे जिनमें उनके टीचर की मदद हुआ करती थी।
टीचर भी उस दिन टीचर नहीं बल्कि सहयोगी हो जाया करती थी। आप उनके पास बैठकर उनके बदन की परफ्यूम की महक अपने अंदर ले सकते थे। उस दिन वह भी बातों में शामिल रहती थीं। उनके बालों की कटिंग को पास से देखा जा सकने का मौका मिलता था।
एक बात और जो मुझे पसंद थी। हमारा स्कूल लड़कियों का ही स्कूल था, जहां एक भी लड़का नहीं आ सकता था। लेकिन जब यह दिन आता तो आपको छूट मिलती की आप अपने छोटे या थोड़े बड़े भाई को अपने संग ले जा सकते थे। मौज कर सकते थे।
वैसी मौज और स्वाद अब किसी मेले में नहीं मिलता। प्रगति मैदान का तो खाना ही सोने के दामों में मिलता है जिसे खाकर नहीं फोटो में देखकर तृप्ति करनी पड़ती है। बच्चे भी आते हैं तो वहाँ ग्राहक बन जाते हैं या फिर किसी पेंटिंग प्रतियोगिता का हिस्सा बन बैठते हैं। कल देखा कि बहुत सारे बच्चे खूबसूरत चित्रकारी कर रहे थे। एक से बढ़कर एक नहीं कहना चाहिए, बल्कि जिसकी जैसी कल्पना थी वैसे ही वे चित्र बना रहे थे। लेकिन एक माइक वाले अंकल ने कहा कि सबसे अच्छी पेंटिंग का इनाम इस बच्चे को जाता है और बाकी बच्चे उदास न हों। एकाएक मुझे लगा जैसे मेले में फिर से बाज़ार घुस आया हो।
............उफ्फ!.......... यह शब्दावली मेरी सोच से परे है।
खैर 1968 में आई हिन्दी फिल्म का एक गीत मुझे सीधे मेले में पहुंचा देता है-' ओ फिरकी वाली तू कल फिर आना नहीं फिर जाना तू अपनी जुबान से...।' इतनी सुंदर फिरकी वाली सिर्फ अपने यहाँ ही हो सकती है।