Wednesday, 31 August 2016

मेला

आज सुबह बहुत तेज़ बारिश हुई। अच्छा हुआ जो कल नहीं हुई वरना प्रगति मैदान पुस्तक मेला नहीं जा पाती।
कल गई थी। शहर में ऐसे मेले लगने चाहिए। अच्छा लगता है। मेला एक ऐसी जगह है जहां छोटी-छोटी फिल्में  चलती रहती है। बहुत सारी क्रियाएँ एक साथ एक जगह पर  हाथ में हाथ थाम कर चलती है।

वास्तव में मेला बच्चों के उत्साह से छलक कर उभरा हुआ शब्द भी है जिसका बाजारवाद ने चुपके से नहीं बल्कि खुलेआम अपहरण कर लिया। आज मेला शब्द ज़मीन से ऊंचा उठा हुआ गुब्बारा सा अहसास देता है, जिसे पैराशूट कहते हैं। पैराशूट जितना हसीन होता है उतना ही पहुँच से दूर जो आकाश की ओर गर्दन उठवा देता है। सिर्फ उसका मालिक उसका मज़ा ले सकता है। आंखो को थोड़ी देर का सुकून जरूर मिल जाता है पर गर्दन का दर्द उपहार स्वरूप भी मिल जाता है।

हिन्दी फिल्मों में मेले के दृश्य बेहद अलग अंदाज़ में दिखाई देते हैं। गुंडे को पकड़ता हुआ हीरो मेले में कितना ज़्यादा नुकसान करता हुआ भागता है। छोटे रेहड़ी वालों का सामान बिखेरता हुआ हीरो किसी के नुकसान की बिलकुल परवाह नहीं करता। गुंडा तो हीरो की पकड़ में आने के लिए ही भगाया जाता है।

एक हिन्दी चर्चित अनुवाद उपन्यास 'संस्कार' में बड़ा खूबसूरत मेला आता है जहां उपन्यास का नायक मेले से गुजरता है। लिखे हुए शब्दों में भी लोगों की भीड़ महसूस हो जाती है। ऐसे और भी उदाहरण होंगे जिनमें मेले का चित्र उभरा हुआ होगा।

लेकिन इस सब से अलग जिन मेलों को मैंने देखा सुना या जीया उनकी बात निराली थी।

14 नवंबर यानि नेहरू चाचा के जन्मदिन पर हमारे स्कूल में मेला लगाया जाता था। सभी उसे 'स्टॉल' कहकर बुलाते थे। उस दिन स्कूल का पूरा काया पलट हो जाता था। पढ़ाई के कमरे पूरी तरह से रोमांचक गतिविधि में तब्दील हो जाते थे। टीचर और विद्यार्थी का रिश्ता एक दूसरे धागे में पिरोया जाता था। किसी कमरे में स्टील के गिलास पहाड़नुमा शक्ल में लगाकर गेंद से तीन वारों में गिराया जाता था। सभी गिलास गिर गए तो आप जीते, नहीं गिरे तो आप हारे नहीं बल्कि हंसने लगे। कहीं आपके मनपसंद खाने की धुएँ की महक-लहर आपकी नाक तक आ जाती थी, तो कहीं नाच गाने का रंगारंग कार्यक्रम चलता था। कुछ साथियों के समूह नाटक भी करते थे जिनमें उनके टीचर की मदद हुआ करती थी।

टीचर भी उस दिन टीचर नहीं बल्कि सहयोगी हो जाया करती थी। आप उनके पास बैठकर उनके बदन की परफ्यूम की महक अपने अंदर ले सकते थे। उस दिन वह भी बातों में शामिल रहती थीं। उनके बालों की कटिंग को पास से देखा जा सकने का मौका मिलता था।

एक बात और जो मुझे पसंद थी। हमारा स्कूल लड़कियों का ही स्कूल था, जहां एक भी लड़का नहीं आ सकता था। लेकिन जब यह दिन आता तो आपको छूट मिलती की आप अपने छोटे या थोड़े बड़े भाई को अपने संग ले जा सकते थे। मौज कर सकते थे।

वैसी मौज और स्वाद अब किसी मेले में नहीं मिलता। प्रगति मैदान का तो खाना ही सोने के दामों में मिलता है जिसे खाकर नहीं फोटो में देखकर तृप्ति करनी पड़ती है। बच्चे भी आते हैं तो वहाँ ग्राहक बन जाते हैं या फिर किसी पेंटिंग प्रतियोगिता का हिस्सा बन बैठते हैं। कल देखा कि बहुत सारे बच्चे खूबसूरत चित्रकारी कर रहे थे। एक से बढ़कर एक नहीं कहना चाहिए, बल्कि जिसकी जैसी कल्पना थी वैसे ही वे चित्र बना रहे थे। लेकिन एक माइक वाले अंकल ने कहा कि सबसे अच्छी पेंटिंग का इनाम इस बच्चे को जाता है और बाकी बच्चे उदास न हों। एकाएक मुझे लगा जैसे मेले में फिर से बाज़ार घुस आया हो।

............उफ्फ!.......... यह शब्दावली मेरी सोच से परे है।

खैर 1968 में आई हिन्दी फिल्म का एक गीत मुझे सीधे मेले में पहुंचा देता है-' ओ फिरकी वाली तू कल फिर आना नहीं फिर जाना तू अपनी जुबान से...।' इतनी सुंदर फिरकी वाली सिर्फ अपने यहाँ ही हो सकती है।

Sunday, 28 August 2016

किताब हासिल कर लेने का सुख

पठनीय किताब हासिल कर लेने का सुख 'अंडरलाइन' किया जाना चाहिए।

मैं अपने जैसे सामान्य पाठिका की बात करना पसंद करूंगी। मेरी शुरूआत किसी भी किताब के कवर पेज को देखकर ही हो जाती है। उदाहरण के लिए शीर्षक चाहे जैसा भी हो पर यदि कवर खूबसूरत हो तो मैं आकर्षित हो जाती हूँ। इसकी वजह गहरी है। किताब की 'ब्रांडिंग' करने वालों ने हम जैसे नयन सुख लोगों को अच्छी तरह से भाँप लिया है।

दूसरा कदम पढ़ने की ओर, यदि मुझे अपने मतलब या दिलचस्पी का विषय किताब के पढ़ने से समझ आया तो किताब को उधार मांगने में मुझे ज़रा भी हया नहीं आती। यदि सामने वाला किताब देने में राज़ी न हो तो तब तक मैं उस किताब की उधारी की बात बीच बीच में करती रहती हूँ जिस तरह से मीडिया किया करता है।

तीसरा कदम, किताब कितनी घिसी हुई और पुरानी है पर भी मैं किताब पर मोहित हो जाती हूँ। ऐसी किताबें ट्रंकधारी लोगों के पास मिल जाया करती हैं। ये ट्रंकधारी लोग बड़े हसीन होते हैं। मुझे ये लोग इसलिए पसंद हैं क्योंकि इन्हें वास्तव में सहेजना का अर्थ पता है। सोने चाँदी के अलावा किताब, पुराने कटे फटे पन्ने, डायरियाँ, रशीदें, किराने के सामान की सूचियाँ भी इनके ट्रंक में मिल जाती हैं। लगता है जैसे अपने ही इतिहास को 'ओरल' की जगह लिखित समेटने की कोशिश हो। ज़रा सोचिए कि इनके ट्रंक में सब सामान महफूज़ होने की सांसें लेते होंगे। ऐसे लोग किताब मांगने पर आराम से मुस्कुराहट वाले चेहरे से देते हैं साथ ही एक कप चाय भी तोहफे में मिल जाया करती है।

एक और दिलचस्प जगह है जहां वास्तव में हर उम्र की किताब एक के ऊपर एक पटकी या धरी रहती हैं। वह आपके और मेरे मोहल्ले का कबाड़ी। वास्तव में कबाड़ी की दुकान दीपावली में जितनी लबालब होती है उतनी शायद बाकी दिनों में नहीं। कबाड़ी से अच्छा एग्ज़ीबिशन लगाने का हुनर मैंने कहीं और नहीं देखा। वह संसार के ज्ञान को धारण करने वाली किताबों को छुपाकर या दबाकर नहीं रखता। दुकान पर आने वाला ग्राहक खरीददार भी बन सकता है। ऐसा कई बार होता है। मेरे साथ हुआ है।

किताबघर और दुकान से किताब आसानी से खरीदी जा सकती है। यह अच्छा है कि कोई आसानी से किताब खरीद कर पढ़ सकता है। मैं भी ऐसा करती हूँ। 'लेकिन' दोनों  जगहों में शर्ते हैं। एक में 'साइलेंस प्लीज' की तख़्ती है और दूसरी में 'अर्थ की पर्ची' है। दोनों जगहों से किताबें हासिल करने का मुझे कोई बहुत बड़ा सुख कभी महसूस नहीं हुआ। लेकिन बाकी उपर्युक्त वर्णन से मुझे अजीब सा सुख महसूस होता है।

मैंने अपने आप में यह बात गौर की है कि अपने ट्रंक में रखी हुई, उधार मांगी हुई, कबाड़ी की दुकान से खरीदी हुई किताबों को अधिक रूचि और गति से पढ़ लेती हूँ। 
  
(यह जरूरी नहीं कि आप मेरी बात से सहमत हों।)


Friday, 26 August 2016

अकेली

'अकेली' रहने के बहुत फायदे हैं। जब जो मर्ज़ी आए वो कर डालो। बिना वजह के भी बहुत चीजें की जा सकती हैं। मैं 'अकेला' या फिर 'अकेलापन' शब्दों या इन नामों से बनी फिल्मों की चर्चा कतई नहीं करूंगी। क्योंकि ये दोनों ही मेरी बात नहीं करते। ये एक अलग बिरादरों की बिरादरी की बास देते हैं। मुझे इस महक से दिक्कत है। अकेली होने के अपने ही मानीखेज मायने हैं।

लेकिन यह शब्द है क्या, किस बात की तरफ इसका इशारा है, यह किसके लिए है...इन सब सवालों को काजल की कोठरी में डाला जा सकता है। मुझे कहीं जाकर उत्तर पुस्तिका नहीं भरनी या फिर किसी प्रवेश परीक्षा का स्यापा नहीं करना। मैंने इस शब्द को पिछले कुछ वर्षों में जीने का प्रयत्न किया है। हाल ही में जब किसी ने मुझे यह कहा- 'आखिरकार ज्योति हम सब अंत में अकेले ही होते हैं' तब दिमाग की बत्ती जल गई। यह सही है। सौ प्रतिशत सही। जरूरी नहीं कि आप इससे सहमत हों। आप नहीं भी होंगे तब भी मैं इससे सहमत हूँ।

मेरे पड़ोस में एक बुजुर्ग औरत रहा करती थीं। वो भी 'अकेली'। उनके खानपान से लेकर उनके ओढ़ने और पहनने के तरीके दिलचस्प थे। उस पर उनकी ब्रज की भाषा जुलुम ढाती थी। उनका एक संवाद बड़ा जोरदार था- 'जब हाथ में हो न रुपैया, न पति भये अपने और... न साईयां।' इस पंक्ति में ही वह माँ को अपनी ज़िंदगी का फलसफा सुनाया करती थीं। हम सुनकर खूब हंसा भी करते थे। थोड़ा हैरान भी हुआ करते थे कि यह किस तरह की बातें करती हैं और 'अकेली' होकर भी इतनी खुश कैसे रह लेती हैं। जब तक वह हमारे मोहल्ले में रहीं मैंने उन्हें बहुत कम बीमार होते हुए देखा या शायद देखा ही नहीं।

उनके पास अपनी ही ज़िंदगी के देखे और भोगे हुए किस्से होते थे। उन्हें किसी रटे हुए किस्से को कभी सुनाते हुए नहीं सुना। लोग गम खा कर उसकी उल्टियाँ करते हैं पर वे इसके ठीक उलट थीं। वह गीत गया करती थीं। अपनी उम्र और लोगों के नियमों को ठेंगा दिखाकर। 'गुडियर' टायर में मिले सल्फर की तरह उनका रोज़मर्रा हुआ करता था। थोड़ा लचीला, ज़रा सख्त और टिकाऊ। वह अपने दिन को कुछ इस तरह सजाया करती थीं कि उन्हें अपने गम को भुलाने के लिए व्यस्त होने की ज़रूरत नहीं पड़ा करती थी। दिन के सभी काम जीने के लिए ही तैयार करती थीं।

आज मुझे नहीं पता कि वह किस मोहल्ले की रौनक हैं। हैं भी या नहीं। लेकिन जब भी मेरे आगे शादी के प्रस्ताव आते हैं तब मुझे एकदम से वह औरत याद आ जाती है। कुछ महीने पहले जब मैंने श्याम बेनेगल द्वारा निर्मित फिल्म 'मम्मो' देखी तब वह अचानक से दिमाग में उपस्थित हो गईं। वही हँसता हुआ चेहरा, न कहीं ज़िंदगी में पछतावे के छींटे दिखते हैं और न कहीं 'ऊब' की बू आती है। न अपने को व्यस्त होने की नौटंकी दिखती है और न ही घड़ी की सुइयों पर टिका हुआ रूटीन।

यह उस औरत की मामूली सी ज़िंदगी का भारी सा बयान ही तो है। नारीवाद शब्द तो कारखानों की छपाई में गुमशुदा हो गया है लेकिन वास्तव का नारीवाद आसपास ही बिखरा हुआ है। यह 'अकेली' इसका उदाहरण है।

Thursday, 25 August 2016

राम नाम सत्य है...हाँ सत्य है

ज़िंदगी और मौत दोनों ही सम्मानजनक हैं, ऐसा मैं सोचा करती थी। ज़िंदगी मौत से ज़्यादा दिखाई देती है। मौत एक पल में रहने वाली मेहमान है। ज़िंदगी को यहाँ लोग उम्र में नापते हैं। पैमाना, समय है जो किसी घड़ी की सुइयों में रहता है। मैंने शायद अभी ज़िंदगी जैसे शब्द को ठीक से समझा नहीं। जिस रोज़ कुछ समझ आएगा उस रोज़ कुछ लिखने की कोशिश करूंगी।

नेहरू प्लेस से बनकर चलने वाली 764 नंबर की बस जब मुनिरका डीडीए फ्लैट्स के बस स्टॉपेज के नजदीक आती है तब वहाँ नीले बोर्ड पर श्मशान घाट की सूचना देने वाले बोर्ड को, थोड़ी गर्दन ऊंची कर के देखा जा सकता है। ऐसी जगहें भी दिमाग में दस्तक देती हैं। अजीब वाली खटखटाहट जो परेशान भी करती है और हैरान भी।





मैंने अभी तक कोई भी श्मशान घाट अपनी आँखों से नहीं देखा। लेकिन कुछ को उनके नामों और बाहर की झलक से जरूर पहचाना है। एक खिड़की गाँव नामक जगह का, एक लोधी रोड वाला और एक और जो यमुना पार जाफराबाद के रास्ते में आता है(शायद)। ये सभी हिन्दू मुर्दाघाट हैं। इनके पास से गुजर जाने भर में ही एक कंपकंपी शरीर में हलचल के साथ गुजरने लगती है। धड़कने ऐसे धड़कती हैं, लगता है दिल का दरवाजा तोड़ कर सड़क पर खून के साथ बिखर जाएंगी। क्या आगे और क्या पीछे बस 'राम निरंजन प्यारा' हो जाएगा। सब कुछ यहीं धरा पर धरा रह जाएगा।

रोजाना की काम और रूटीन की आपाधापी में मैंने इन श्मशान घाटों की ओर आने वाली बहुत से पार्थिव शवों को देखा है। कभी कुछ शवों के साथ अधिक भीड़ दिखी तो कभी कुछ के साथ गिनती के लोग देखे। इन शवों में औरतों की पहचान उनके शादी के लिबास से हुई तो बच्चों की पहचान उनके शरीर की लंबाई को भाँपने से हुई। यह अजीब अवलोकन है। मैं अक्सर ऐसे दृश्यों को देखने के लिए कई दफा रुक भी जाया करती हूँ। देखने के बाद हाथ जोड़कर प्रणाम करती हूँ। यह घर में बताया गया है।  इसके बाद शव को उतनी देर तक निहारती हूँ जब तक कि वह आँखों से ओझल नहीं हो जाते। इनके ओझल हो जाने के बाद अपने प्रिय गुरू की बातें याद करती हूँ कि इन्हों ने अब तक नया जन्म ले लिया होगा।

इसके बाद दिमाग खुद से अपने ढर्रे पर आ जाता है।

यह गैर लोगों की मृत्यु पर आने वाले खयाल हैं। अपना कोई जाता है तब अंग्रेज़ी का 'Dislocation' शब्द पूरी तरह से चरितार्थ हो जाता है। नाम, पता, खैर, खबर, सुख, हंसी, आदि सभी गायब हो जाता है। तब भगवान से यकीन उठ जाता है कि यह कैसा अन्याय 'मेरे' साथ कर दिया। मैं ही मिली थी। सब कुछ छिन लिया.., टाइप के संवाद मुंह पर खुद से आ जाते हैं। मेरे लिए किसी अपने का जाना एक सदमा है जिसे जाते जाते महीनों लग जाते हैं फिर भी सदमा पूरी तरह से मन से जाता नहीं। अच्छा है। कुछ सदमों को जाना भी नहीं चाहिए।

यह निजी अभिव्यक्ति थी। आसपास की अलग होती है। औरतों के भाव अलग और आदमी के अलग होते हैं। इन सब में छोटे बच्चों के भाव सबसे अधिक विचित्र होते हैं। मैंने एक बार पड़ोस में हुई मृत्यु में देखा था कि चार साल के बच्चे को पता ही नहीं था कि आखिर उसकी माँ को हुआ क्या है और वह अपने पिता को देखकर ही रोये जा रहा था। जब उसकी माँ का अंतिम संस्कार कर दिया गया और कुछ घंटों का 'माँ बिना वक़्त' गुजरा तब वह अपने पिता की बाजुएँ पकड़ कर पूछ रहा था, 'माँ कहाँ है, कब आएगी?' मैं उस रोज़ उस बच्चे को देखकर पूरी तरह सदमे में आ गई थी। आज भी वह दृश्य मुझे हुबहु याद है।

ज़िंदगी पर तो हज़ार फिलोसोफियां झाड़ ली जाती हैं और आज भी झाड़ीं जा रही हैं। मृत्यु की फिलोसोफी क्या है, इसे लेकर भी धर्मों ने जरूर कुछ लपेटा हुआ है। उनकी ज़ुबाने अलग हैं वरना उनका कहना लगभग लगभग एक सा ही है। लेकिन हम तो फिल्म 'आनंद' के मुरीद हैं। फिल्म में मौत को ज़िंदगी के साथ ऐसा मिलाया है कि अंत में आँखों में पवित्र आँसू ही बचते हैं। न धर्म बचता है। न कोई विशेष ज़ुबान। न कोई खयाल या विचार का रगड़ा पनपता है। न कोई वाद रहता है।

कई सालों पहले मैंने भी इन्हीं आंसुओं की पवित्रता में ही मौत को समझा था जो ज़िंदगी से उलट अधिक खामोश और अर्थपूर्ण है।

Tuesday, 23 August 2016

घर-कमरा-दफ्तर आदि आदि



मैं आजकल दो ही जगहों के बारे में सोचती हूँ। ऐसा नहीं है कि और जगहे नहीं हैं। हैं। लेकिन मैं उनका नहीं सोच पा रही। शायद सोचना ही नहीं चाह रही। ये दो जगहें घर और बाहर हैं। घर से मतलब मेरा कमरा ही है। कमरे से मतलब नीली रंग की सफेदी वाली और साढ़े नौ फुट दीवारों वाला कमरा जिसमें सामान इतर से तितर मेरे साथ ही रहता है। एक किताब वहाँ होती है तो दूसरी वहाँ। अखबार की तहज़ीब पन्नों में बिखरने से ही मुझे समझ आती है।
जगह हमें पकड़ती है या फिर हम जगह को पकड़ते हैं। कभी कभी यह भी समझ आता है कि इसके पीछे सहूलियत भी बसती है। पर रोज़मर्रा पर मेरा ज़ोर नहीं रहता। कुछ काम बाहर की तरफ रुख करवाते हैं। लेकिन उनका खत्म होना वापस घर की तरफ रास्ता मोड़ देता है। देखिये, इच्छा की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। हाल ही में एक दोस्त से कुछ देर बाते हुईं। उसने बड़ी रोचक बात बताई। उसने कहा कि पहले उसके मन में यह इच्छा थी कि फलां विश्वविद्यालय में दाखिला मिले। दाखिला मिला। उसने जोश से सामान बांधा और पहुँच गया उस जगह के हॉस्टल के कमरे में। लेकिन जिस रफ्तार से उसने सामान अपने घर में बांधा था उस रफ्तार से वह वहाँ खोल ही नहीं पाया। उसने कहा कि दिमाग में घर घूमने लगा। जिस घर के छोटे और मामूली सामान को उसने देखा भी नहीं था, वह भी उसे नज़र आने लगा। उसे एक पल लगा कि चल अपने देस की पंक्ति को चरितार्थ कर दे। उसने सामान खोलने से पहले घर पर फोन किया और अजीब से लेकर सभी सामान्य बात की।
आज वह जैसे तैसे वहाँ रहता है। लेकिन वह बसा नहीं है। कहता है जगह तो है पर रिश्ता नहीं बन पा रहा है। वह कोशिश करता है कि वह वहाँ बसे पर हो ही नहीं पाता। हैरानी की बात यह है कि वह फोन से अपनी जगह से मिनटों में जुड़ जाता है। अब उसे इच्छा का छलावा समझ आता है। वह खुद मुझे बताता है कि नया दौर आ जाए या फिर कैसा भी समय आ जाए आप वहीं के हो सकते हैं जहां आप का दिल रमता है।
जरूरी नहीं कि उसकी इस बात से सभी सहमत हों।
किसी एक रोज़ मेरी मित्र ने मेरे घर आने की इच्छा जताई। मैंने कहा तुम क्या करोगी एक अव्यवस्थित लड़की के अव्यवस्थित कमरे में आकर। वह बोली कि वह पूरा दिन बैंक की चटक और तेज़ लाइट में थक जाती है। इतनी थकान उसे काम से भी नहीं होती जितनी इन चमकदार रोशनियों से हो जाती है। बैंक में सब सेट सा रहता है। दीवार पर पानी से लबरेज पेंटिंग रहती है। लेकिन पानी सी ताजगी कभी महसूस नहीं होती। जगह-जगह नकली फूल रखे गए हैं पर उनकी महक नाक तक नहीं आती। सभी लोग इतना इत्र लगाते हैं या इत्र में नहाकर आते हैं समझ नहीं आता। न चाहते हुए भी उनकी यह महक नाक में लेनी पड़ती है। ऊब और उकताहट है पर सरकारी नौकरी नहीं छोड़ सकती। लेकिन छुट्टी के दिन अपनी मन की जगह पर आकर रहा जा सकता है। उसका कहना है कि उसे धीमी सी रोशनी में रहना है। उसे मेरे कमरे जैसी तलाश है जहां कुछ भी व्यवस्थित न हो।
मैं भी जब घर से बाहर जाती हूँ तब मेरी दो आँखें बिखर जाती हैं। ऐसा लगता है कि सिर के पीछे भी दो आँखें अनचाहे पौधे की तरह उग आई हों। सभी इंद्रिय जरूरत से ज्यादा सक्रिय हो जाती हैं। मन का बिखराव ज़ोरों पर होता है। लेकिन घर की दहलीज़ पर कदम रखने पर सभी इंद्रिय खामोश सी होने लगती हैं। लगता है किसी कारखाने में काम के बाद घर लौटी हैं।

Sunday, 21 August 2016

कमरा नंबर 371 और 372.

सुबह के 8 बजकर 30 मिनट हो रहे हैं। मैं 'लाइव ब्लॉग' लिख रही हूँ। जरा रूकिए। लिख नहीं रही बल्कि टाइप कर रही हूँ। कई महीनों से कलम ज़्यादा देर तक नहीं उठाई। बस यहीं आ जाती हूँ टाइप- वायप करने के लिए। 'लेकिन' ऐसे में मुझे अपनी एक दोस्त याद आ जाती है। मेरी ही तरह थी और मेरी ही हमनाम। जब वह स्कूल में देरी से आती तब देरी की वजह बड़ी दिलचस्प बताती। उसके देर से आने के कारणों को सुन सुन कर क्लास टीचर भी आदि हो गई थीं।

उसके अनुसार उसका परिवार काफी भरा-पूरा था। उसकी बातों में बहुत से किरदार सुनाई पड़ते थे। उसके जिम्मे बहुत से काम आया करते थे और सबसे बड़ा काम जो रोज़ ही उसे करना पड़ता था वे घर और बाहर के लोगों के लिखा-पढ़ी के काम थे। उसकी बातों से कभी लगा नहीं कि वह इनसे परेशान हो जाती है। वह दिलचस्पी से अपने उन कामों के किस्से सुनाया भी करती थी। उसकी लेखनी भी सुंदर थी और कई बार टीचर ने बाकी लोगों को उससे कुछ सीख लेने की हिदायत भी थी। जैसे ही हमें पता चलता था कि गुरु ज्ञान शुरू होने वाला है तब हम सभी कान की छतरियों का टेलिकास्ट ही बंद कर लेते थे।... खैर, वापस मेरी दोस्त पर आते हैं। किस्से से भटकना ठीक नहीं।
वह घर के लोगों के घरेलू कामों के बहाने कलम पकड़ा करती थी। कभी किराने के सामान की सूची बनाने के लिए तो कभी बैंक के किसी काम की चिट्ठी के बहाने और घर की औरतों के हाथ यदि आटे या बेसन में लिपटे हों तो समझिए बच्चों की स्कूल की छुट्टी का पत्र भी वही लिखा करती थी। रही सही कसर उसके पिता पूरी कर देते थे। किसी भी मजदूर या पड़ोसी का लिखा-पढ़ी का काम वह अपनी बेटी से करवाया करते थे।
कुछ महीनों बाद हमने सुना कि वह अब दूसरे स्कूल में पढ़ेगी क्योंकि हमारे 'विद्यालय' में विज्ञान नहीं पढ़ाया जाता था। वह चली गई और उसके चिट्ठी-पत्री के किस्से भी उसके साथ ही चले गए। कई सालों बाद मुझे वह एक अस्पताल में दिखाई दी थी। उसने डॉक्टर वाला लिबास पहना था। वह अच्छी लग रही थी। उसके उल्टे हाथ में आला था और सीधा हाथ सफ़ेद कोट की जेब में था। उसने मुझे देखा। मैंने उसे देखा। लेकिन कोई बात नहीं हुई। मैंने अपने चेहरे के भाव बदलते हुए बात करने की कोशिश की पर वह देख कर भी अंजान सी बन गई। मैंने कोशिश को वहीं चमकने वाली स्टील कुर्सी पर रख दिया। वह कमरा नंबर 372 की ओर चली गई और मैं कमरा नंबर 371 में।
अब क्या समय हुआ है? ओह! 9 बजकर 27 मिनट। मैं शायद बहुत धीरे लिखती हूँ। नहीं फिर गलत। टाइप करती हूँ।
लिखने का सीधा प्रसारण समाप्त हुआ।
धन्यवाद।

Friday, 19 August 2016

बिना पंख ही उड़ते हैं शब्द

उनकी 'शोभा' न देने वाली बात में सभी खेलने वालों को एक शब्द ने उकसाया होगा। जरूर। 'चुनौती' शब्द खामोशी से उनके मन में घुस गया होगा। ऐसा हो सकता है। चुनौती शब्द सोचने पर शब्द की तस्वीर हर किसी के दिमाग में अलग अलग बनती हैं या बनती होगी।  मैंने कुछ लोगों से पूछा तो बड़े दिलचस्प प्रतिक्रियाएँ जानने को मिलीं। एक चौदह साल के युवा होते लड़के ने बताया कि जब वह यह शब्द सोचता है तब उसके दिमाग में सचिन तेंदुलकर बल्ला लिए मैदान में डटे हुए दिखते हैं। किसी मजदूर ने कहा कि उन्हें तसला और चुनाई करने वाला मसाला दिखता है जिसमें सीमेंट अधिक मात्रा में मिला होता है। एक पंद्रह साल की लड़की ने बताया कि उसे एक ऐसा कमरा दिखता है जिसमें किताबें ही किताबें रखी हुई हैं। कभी यह किताबों वाला कमरा बनता है तो कभी रद्दी अखबार वाला कमरा बन जाता है। मुझे उसकी बात पर हैरानी हुई। मैंने उससे फिर पूछा कि यह कमरे की तस्वीर क्यों दिखी, वो भी रद्दी के साथ। तब उसने बताया कि दीपावली पर घर की सफेदी करवाने पर बहुत सारा ऐसा सामान निकलता है जो कभी नया हुआ करता था पर अब कबाड़ है। घर में वे साल भर का कबाड़ किसी कोने में रखते जाते हैं। सबसे अच्छा कबाड़ रद्दी अखबार लगता है। 'कागज पीले पड़ जाते हैं फिर भी खबर ताज़ा लगती है।' (यह पंक्ति उसके पिता कहते हैं)
...उसने आगे बताया कि एक बार वह अपने पिता के साथ एक कबाड़ी की दुकान पर गई थी। उसकी दुकान में रद्दी सबसे अधिक थी और उस छोटी सी दुकान में चारों तरफ कहीं भी नज़र उठाने में रद्दी ही दिख रही थी। दुकान का चित्र उसके दिमाग में उस दिन से रहने लगा। छुट्टियों के बाद स्कूल में टीचर ने कुछ पढ़ाते वक़्त यह कहा कि किताबों से भरा कमरा किसी पाठक के लिए चुनौती है... चेलंज है।
उसे टीचर की यह बात बहुत अच्छी लगी। बस तभी से उसने चुनौती शब्द को इन चित्रों के रूप में समझा। मेरे लिए यह गतिविधि बहुत मजेदार रही। कोई एक शब्द बिना पंख हुए भी उड़ जाता है।  
'लेकिन' मुझे इस शब्द का एक रोचक चित्र नज़र आता है- 'मुट्ठी वाला मुक्का'... इसके पीछे भी लंबी कहानी है। फिर कभी फुर्सत से कहूंगी।
 

Thursday, 18 August 2016

...यकायक एक अजीब खयाल आया


...यकायक एक अजीब खयाल आया  

जब पटाखा शब्द सोचती हूँ तब दिमाग में मुर्गा छाप लाल रंग वाले, पतले से और बिना गारंटी के दीपावली पर बिकने वाले पटाखे की तस्वीर दिखलाई देती है। अनोखी बात यह कि यह शब्द मुझे शोर की तस्वीर नहीं दिखाता बल्कि कुछ वे अटपटी कहानियां सुनाता है जिनका खास महत्व है। मुझे नहीं मालूम कि इस पटाखे के बेहद मरियल होने के पीछे क्या कारण है। शायद आम आदमी की जेब के आकार से इसका कर्ताधर्ता बहुत प्रभावित हुआ होगा। जो भी है लेकिन पटाखा ए वन है। यह पटाखा दिखावट में यकीन नहीं रखता। अनार बम की तरह। उतना बड़ा नुक्सान भी नहीं पहुंचाता लक्ष्मी या आलू बम के समान कि फटने पर दिल और कान के परखच्चे ही उड़ा दे। यह आम बच्चों का खास बम है। बिजली बम या धमाकेदार बम थोड़ा पुरुष होने का अहसास दिला देते हैं लेकिन इस मुर्गा छाप बम का लाल रंग जेंडर के भेद से परे है।            

एक और पटाखा बाद में दिखाई देता है जो मुझे अद्भुत लगता है। गुंजाइश है कि आप लोग भी उसके साक्षी या प्रयोगकर्ता होंगे। मैं दोनों हूँ।

छोटी सी कागज की लुग्दी से बनी हुई गोल (लाल और गुलाबी ढक्कन) डिबिया में काले रंग की हाजमौला जैसी गोलियां होती थीं। आग लगाने पर साँप की तरह बढ़ जाया करती थीं। वाह! उन गोलियों का गोली रूप से साँप जैसे आकार में बदलना ही मेरे लिए अनोखा था। मजेदार। यह वह खामोशी पटाखा है जिसे मैं जानबूझकर पटाखा कह रही हूँ। किसी वैज्ञानिक की प्रयोगशाला की युक्ति और उसके तमाशे जैसा है। जब इसे ध्यान से देखेंगे तो नगीना फिल्म की नायिका की निगाहें याद आएंगी जिनमें कभी आँख तो कभी साँप दिखाई देता है।

...शब्द कहाँ से कहाँ ले जाते हैं..,

उफ्फ!          

Wednesday, 17 August 2016

अपने को ठगना

...लेकिन रचना अपने को ठगने का अच्छा तरीका भी है

वास्तव में रचनात्मकता (कोई रचना) अपने आप को ठगने का एक बेहतरीन अदब है। 'लेकिन' आजकल इस अदब-आदाब को सीखने-सिखाने के कोर्स चल पड़े हैं। रचना जितनी समझ से दूर होगी उतनी ही बेमिसाल मानी जाएगी। रचनाकर को खुद भी समझ न आए तो भई, क्या बात है! ऐसे में यह समझ जाना चाहिए कि 33% वालों में से एक आप नहीं रहे। आप उड़नबाज़ कॉलेजों की कट-ऑफ के समान बन गए हैं। अब यह ठगी (मुझे लगता है) व्यक्तिगत दिमाग के रास्ते से होते हुए भीड़ तक बहने लगी है।

नहीं! मुझे सार्वजनिक शब्द का इस्तेमाल नहीं करना। इससे बहुत 'ओल्ड-फैशन' सी बास आती है। शब्दों का भी तो ज़माना हुआ करता था।...और देखिये न, शब्द तो धोती या लंगोट भी नहीं बांधते। अगर बांधते होते तो मैं उन्हें खींच पाती और कुछ रच लेती। लिख लेती। अपने को भी ठग लेती।    

हम्म...मेरी बातों से सिंधु घाटी की सभ्यता के अनजाने और पहेली वाले इतिहास की बू आ रही होगी। 

Tuesday, 16 August 2016

...लेकिन मैंने 'लेकिन' को ही चुना

...लेकिन मैंने आज ब्लॉग खोलने और कभी कभी कुछ लिख लेने की बुलबुले वाली चाहत को एक रूप दे ही दिया। ब्लॉग का नाम मुझे किसी दोस्त ने सुझाया था। उस समय तो ध्यान नहीं दिया लेकिन अब जब मौका मिला है तो इसी सुझाव पर इसका नामकरण करना उचित समझा। उसने मुझे यह बताया था कि इस शब्द में बहुत कुछ समेटा जा सकता है। कहानी खत्म हो भी जाये तो लेकिन कहकर शुरू कर सकती हो। लेकिन में एक आशा छुपकर बैठती है। लेकिन दो चार जोड़ी सुनने वाले कान तैयार करवाने वाला शब्द भी है। यह दिमाग पर जोर डालने के लिए कई बार गुजारिश करता है। कई बार मजबूर करता है कि यादों के कुएं में झांक लो बंधु। कई दफे छुपे बैठे विकल्पों की खबर भी दिलवा देता है। यह अपनी बात को मुकम्मल न सही पर रखने की ओर ले जाता है। लेकिन से जुड़े बहुत से हमशक्ल शब्द हैं, पर, किन्तु, परंतु, मगर आदि मुझे याद नहीं इस समय। सभी शब्द थोड़े-मोड़े अलग होंगे। लेकिन मैंने 'लेकिन' को ही इसलिए चुना कि आम बोलचाल में यह बहुत कुछ सुलझे हुए जिंदगी के बयान रखता है। कुछ बयान बहुत छोटे और अदृश्य होते हैं।  मेरा मकसद इन्हीं बयानों की बुनावट करना है।
 

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...