...यकायक एक अजीब खयाल आया
जब ‘पटाखा’ शब्द सोचती हूँ तब दिमाग में ‘मुर्गा छाप’ लाल रंग वाले, पतले से और बिना गारंटी के दीपावली पर
बिकने वाले पटाखे की तस्वीर दिखलाई देती है। अनोखी बात यह कि यह शब्द मुझे शोर की तस्वीर
नहीं ‘दिखाता’ बल्कि कुछ वे अटपटी कहानियां
‘सुनाता’ है जिनका खास महत्व है। मुझे नहीं
मालूम कि इस पटाखे के बेहद मरियल होने के पीछे क्या कारण है। शायद आम आदमी की जेब के
आकार से इसका कर्ताधर्ता बहुत प्रभावित हुआ होगा। जो भी है लेकिन पटाखा ‘ए वन’ है। यह पटाखा दिखावट में यकीन नहीं रखता। ‘अनार बम’ की तरह। उतना बड़ा नुक्सान भी नहीं पहुंचाता
‘लक्ष्मी’ या ‘आलू’ बम के समान कि फटने पर दिल और कान के परखच्चे ही उड़ा दे। यह आम बच्चों का
खास बम है। बिजली बम या धमाकेदार बम थोड़ा पुरुष होने का अहसास दिला देते हैं लेकिन
इस मुर्गा छाप बम का लाल रंग ‘जेंडर’ के
भेद से परे है।
एक और पटाखा बाद में दिखाई देता है जो मुझे अद्भुत लगता
है। गुंजाइश है कि आप लोग भी उसके साक्षी या प्रयोगकर्ता होंगे। मैं दोनों हूँ।
छोटी सी कागज की लुग्दी से बनी हुई गोल (लाल और गुलाबी
ढक्कन) डिबिया में काले रंग की हाजमौला जैसी गोलियां होती थीं। आग लगाने पर साँप की
तरह बढ़ जाया करती थीं। वाह! उन गोलियों का गोली रूप से साँप जैसे आकार में बदलना ही
मेरे लिए अनोखा था। मजेदार। यह वह खामोशी पटाखा है जिसे मैं जानबूझकर पटाखा कह रही
हूँ। किसी वैज्ञानिक की प्रयोगशाला की युक्ति और उसके तमाशे जैसा है। जब इसे ध्यान
से देखेंगे तो ‘नगीना’ फिल्म की नायिका की
‘निगाहें’ याद आएंगी जिनमें कभी ‘आँख’ तो कभी ‘साँप’ दिखाई देता है।
...शब्द कहाँ से कहाँ ले जाते हैं..,
उफ्फ!
No comments:
Post a Comment