मैं आजकल दो ही जगहों के बारे
में सोचती हूँ। ऐसा नहीं है कि और जगहे नहीं हैं। हैं। लेकिन मैं उनका नहीं सोच पा
रही। शायद सोचना ही नहीं चाह रही। ये दो जगहें घर और बाहर हैं। घर से मतलब मेरा कमरा
ही है। कमरे से मतलब नीली रंग की सफेदी वाली और साढ़े नौ फुट दीवारों वाला कमरा जिसमें
सामान इतर से तितर मेरे साथ ही रहता है। एक किताब वहाँ होती है तो दूसरी वहाँ। अखबार
की तहज़ीब पन्नों में बिखरने से ही मुझे समझ आती है।
जगह हमें पकड़ती है या फिर हम
जगह को पकड़ते हैं। कभी कभी यह भी समझ आता है कि इसके पीछे सहूलियत भी बसती है। पर रोज़मर्रा
पर मेरा ज़ोर नहीं रहता। कुछ काम बाहर की तरफ रुख करवाते हैं। लेकिन उनका खत्म होना
वापस घर की तरफ रास्ता मोड़ देता है। देखिये, इच्छा की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। हाल ही में एक दोस्त
से कुछ देर बाते हुईं। उसने बड़ी रोचक बात बताई। उसने कहा कि पहले उसके मन में यह इच्छा
थी कि फलां विश्वविद्यालय में दाखिला मिले। दाखिला मिला। उसने जोश से सामान बांधा और
पहुँच गया उस जगह के हॉस्टल के कमरे में। लेकिन जिस रफ्तार से उसने सामान अपने घर में
बांधा था उस रफ्तार से वह वहाँ खोल ही नहीं पाया। उसने कहा कि दिमाग में ‘घर’
घूमने लगा। जिस घर के छोटे और मामूली सामान को उसने देखा भी नहीं था,
वह भी उसे नज़र आने लगा। उसे एक पल लगा कि चल अपने देस की पंक्ति को चरितार्थ कर दे।
उसने सामान खोलने से पहले घर पर फोन किया और अजीब से लेकर सभी सामान्य बात की।
आज वह जैसे तैसे वहाँ रहता
है। लेकिन वह बसा नहीं है। कहता है जगह तो है पर रिश्ता नहीं बन पा रहा है। वह कोशिश
करता है कि वह वहाँ बसे पर हो ही नहीं पाता। हैरानी की बात यह है कि वह फोन से अपनी
जगह से मिनटों में जुड़ जाता है। अब उसे इच्छा का छलावा समझ आता है। वह खुद मुझे बताता
है कि नया दौर आ जाए या फिर कैसा भी समय आ जाए आप वहीं के हो सकते हैं जहां आप का दिल
रमता है।
जरूरी नहीं कि उसकी इस बात
से सभी सहमत हों।
किसी एक रोज़ मेरी मित्र ने
मेरे घर आने की इच्छा जताई। मैंने कहा तुम क्या करोगी एक अव्यवस्थित लड़की के अव्यवस्थित
कमरे में आकर। वह बोली कि वह पूरा दिन बैंक की चटक और तेज़ लाइट में थक जाती है। इतनी
थकान उसे काम से भी नहीं होती जितनी इन चमकदार रोशनियों से हो जाती है। बैंक में सब
सेट सा रहता है। दीवार पर पानी से लबरेज पेंटिंग रहती है। लेकिन पानी सी ताजगी कभी
महसूस नहीं होती। जगह-जगह नकली फूल रखे गए हैं पर उनकी महक नाक तक नहीं आती। सभी लोग
इतना इत्र लगाते हैं या इत्र में नहाकर आते हैं समझ नहीं आता। न चाहते हुए भी उनकी
यह महक नाक में लेनी पड़ती है। ऊब और उकताहट है पर सरकारी नौकरी नहीं छोड़ सकती। लेकिन
छुट्टी के दिन अपनी मन की जगह पर आकर रहा जा सकता है। उसका कहना है कि उसे धीमी सी
रोशनी में रहना है। उसे मेरे कमरे जैसी तलाश है जहां कुछ भी व्यवस्थित न हो।
मैं भी जब घर से बाहर जाती
हूँ तब मेरी दो आँखें बिखर जाती हैं। ऐसा लगता है कि सिर के पीछे भी दो आँखें अनचाहे
पौधे की तरह उग आई हों। सभी इंद्रिय जरूरत से ज्यादा सक्रिय हो जाती हैं। मन का बिखराव
ज़ोरों पर होता है। लेकिन घर की दहलीज़ पर कदम रखने पर सभी इंद्रिय खामोश सी होने लगती
हैं। लगता है किसी कारखाने में काम के बाद घर लौटी हैं।
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