सुबह के 8 बजकर 30 मिनट हो रहे हैं। मैं 'लाइव ब्लॉग' लिख रही हूँ। जरा रूकिए। लिख नहीं रही बल्कि टाइप कर रही हूँ। कई महीनों से कलम ज़्यादा देर तक नहीं उठाई। बस यहीं आ जाती हूँ टाइप- वायप करने के लिए। 'लेकिन' ऐसे में मुझे अपनी एक दोस्त याद आ जाती है। मेरी ही तरह थी और मेरी ही हमनाम। जब वह स्कूल में देरी से आती तब देरी की वजह बड़ी दिलचस्प बताती। उसके देर से आने के कारणों को सुन सुन कर क्लास टीचर भी आदि हो गई थीं।
उसके अनुसार उसका परिवार काफी भरा-पूरा था। उसकी बातों में बहुत से किरदार सुनाई पड़ते थे। उसके जिम्मे बहुत से काम आया करते थे और सबसे बड़ा काम जो रोज़ ही उसे करना पड़ता था वे घर और बाहर के लोगों के लिखा-पढ़ी के काम थे। उसकी बातों से कभी लगा नहीं कि वह इनसे परेशान हो जाती है। वह दिलचस्पी से अपने उन कामों के किस्से सुनाया भी करती थी। उसकी लेखनी भी सुंदर थी और कई बार टीचर ने बाकी लोगों को उससे कुछ सीख लेने की हिदायत भी थी। जैसे ही हमें पता चलता था कि गुरु ज्ञान शुरू होने वाला है तब हम सभी कान की छतरियों का टेलिकास्ट ही बंद कर लेते थे।... खैर, वापस मेरी दोस्त पर आते हैं। किस्से से भटकना ठीक नहीं।
वह घर के लोगों के घरेलू कामों के बहाने कलम पकड़ा करती थी। कभी किराने के सामान की सूची बनाने के लिए तो कभी बैंक के किसी काम की चिट्ठी के बहाने और घर की औरतों के हाथ यदि आटे या बेसन में लिपटे हों तो समझिए बच्चों की स्कूल की छुट्टी का पत्र भी वही लिखा करती थी। रही सही कसर उसके पिता पूरी कर देते थे। किसी भी मजदूर या पड़ोसी का लिखा-पढ़ी का काम वह अपनी बेटी से करवाया करते थे।
कुछ महीनों बाद हमने सुना कि वह अब दूसरे स्कूल में पढ़ेगी क्योंकि हमारे 'विद्यालय' में विज्ञान नहीं पढ़ाया जाता था। वह चली गई और उसके चिट्ठी-पत्री के किस्से भी उसके साथ ही चले गए। कई सालों बाद मुझे वह एक अस्पताल में दिखाई दी थी। उसने डॉक्टर वाला लिबास पहना था। वह अच्छी लग रही थी। उसके उल्टे हाथ में आला था और सीधा हाथ सफ़ेद कोट की जेब में था। उसने मुझे देखा। मैंने उसे देखा। लेकिन कोई बात नहीं हुई। मैंने अपने चेहरे के भाव बदलते हुए बात करने की कोशिश की पर वह देख कर भी अंजान सी बन गई। मैंने कोशिश को वहीं चमकने वाली स्टील कुर्सी पर रख दिया। वह कमरा नंबर 372 की ओर चली गई और मैं कमरा नंबर 371 में।
अब क्या समय हुआ है? ओह! 9 बजकर 27 मिनट। मैं शायद बहुत धीरे लिखती हूँ। नहीं फिर गलत। टाइप करती हूँ।
लिखने का सीधा प्रसारण समाप्त हुआ।
धन्यवाद।
उसके अनुसार उसका परिवार काफी भरा-पूरा था। उसकी बातों में बहुत से किरदार सुनाई पड़ते थे। उसके जिम्मे बहुत से काम आया करते थे और सबसे बड़ा काम जो रोज़ ही उसे करना पड़ता था वे घर और बाहर के लोगों के लिखा-पढ़ी के काम थे। उसकी बातों से कभी लगा नहीं कि वह इनसे परेशान हो जाती है। वह दिलचस्पी से अपने उन कामों के किस्से सुनाया भी करती थी। उसकी लेखनी भी सुंदर थी और कई बार टीचर ने बाकी लोगों को उससे कुछ सीख लेने की हिदायत भी थी। जैसे ही हमें पता चलता था कि गुरु ज्ञान शुरू होने वाला है तब हम सभी कान की छतरियों का टेलिकास्ट ही बंद कर लेते थे।... खैर, वापस मेरी दोस्त पर आते हैं। किस्से से भटकना ठीक नहीं।
वह घर के लोगों के घरेलू कामों के बहाने कलम पकड़ा करती थी। कभी किराने के सामान की सूची बनाने के लिए तो कभी बैंक के किसी काम की चिट्ठी के बहाने और घर की औरतों के हाथ यदि आटे या बेसन में लिपटे हों तो समझिए बच्चों की स्कूल की छुट्टी का पत्र भी वही लिखा करती थी। रही सही कसर उसके पिता पूरी कर देते थे। किसी भी मजदूर या पड़ोसी का लिखा-पढ़ी का काम वह अपनी बेटी से करवाया करते थे।
कुछ महीनों बाद हमने सुना कि वह अब दूसरे स्कूल में पढ़ेगी क्योंकि हमारे 'विद्यालय' में विज्ञान नहीं पढ़ाया जाता था। वह चली गई और उसके चिट्ठी-पत्री के किस्से भी उसके साथ ही चले गए। कई सालों बाद मुझे वह एक अस्पताल में दिखाई दी थी। उसने डॉक्टर वाला लिबास पहना था। वह अच्छी लग रही थी। उसके उल्टे हाथ में आला था और सीधा हाथ सफ़ेद कोट की जेब में था। उसने मुझे देखा। मैंने उसे देखा। लेकिन कोई बात नहीं हुई। मैंने अपने चेहरे के भाव बदलते हुए बात करने की कोशिश की पर वह देख कर भी अंजान सी बन गई। मैंने कोशिश को वहीं चमकने वाली स्टील कुर्सी पर रख दिया। वह कमरा नंबर 372 की ओर चली गई और मैं कमरा नंबर 371 में।
अब क्या समय हुआ है? ओह! 9 बजकर 27 मिनट। मैं शायद बहुत धीरे लिखती हूँ। नहीं फिर गलत। टाइप करती हूँ।
लिखने का सीधा प्रसारण समाप्त हुआ।
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