पठनीय किताब हासिल कर लेने का सुख 'अंडरलाइन' किया जाना चाहिए।
मैं अपने जैसे सामान्य पाठिका की बात करना पसंद करूंगी। मेरी शुरूआत किसी भी किताब के कवर पेज को देखकर ही हो जाती है। उदाहरण के लिए शीर्षक चाहे जैसा भी हो पर यदि कवर खूबसूरत हो तो मैं आकर्षित हो जाती हूँ। इसकी वजह गहरी है। किताब की 'ब्रांडिंग' करने वालों ने हम जैसे नयन सुख लोगों को अच्छी तरह से भाँप लिया है।
दूसरा कदम पढ़ने की ओर, यदि मुझे अपने मतलब या दिलचस्पी का विषय किताब के पढ़ने से समझ आया तो किताब को उधार मांगने में मुझे ज़रा भी हया नहीं आती। यदि सामने वाला किताब देने में राज़ी न हो तो तब तक मैं उस किताब की उधारी की बात बीच बीच में करती रहती हूँ जिस तरह से मीडिया किया करता है।
तीसरा कदम, किताब कितनी घिसी हुई और पुरानी है पर भी मैं किताब पर मोहित हो जाती हूँ। ऐसी किताबें ट्रंकधारी लोगों के पास मिल जाया करती हैं। ये ट्रंकधारी लोग बड़े हसीन होते हैं। मुझे ये लोग इसलिए पसंद हैं क्योंकि इन्हें वास्तव में सहेजना का अर्थ पता है। सोने चाँदी के अलावा किताब, पुराने कटे फटे पन्ने, डायरियाँ, रशीदें, किराने के सामान की सूचियाँ भी इनके ट्रंक में मिल जाती हैं। लगता है जैसे अपने ही इतिहास को 'ओरल' की जगह लिखित समेटने की कोशिश हो। ज़रा सोचिए कि इनके ट्रंक में सब सामान महफूज़ होने की सांसें लेते होंगे। ऐसे लोग किताब मांगने पर आराम से मुस्कुराहट वाले चेहरे से देते हैं साथ ही एक कप चाय भी तोहफे में मिल जाया करती है।
एक और दिलचस्प जगह है जहां वास्तव में हर उम्र की किताब एक के ऊपर एक पटकी या धरी रहती हैं। वह आपके और मेरे मोहल्ले का कबाड़ी। वास्तव में कबाड़ी की दुकान दीपावली में जितनी लबालब होती है उतनी शायद बाकी दिनों में नहीं। कबाड़ी से अच्छा एग्ज़ीबिशन लगाने का हुनर मैंने कहीं और नहीं देखा। वह संसार के ज्ञान को धारण करने वाली किताबों को छुपाकर या दबाकर नहीं रखता। दुकान पर आने वाला ग्राहक खरीददार भी बन सकता है। ऐसा कई बार होता है। मेरे साथ हुआ है।
किताबघर और दुकान से किताब आसानी से खरीदी जा सकती है। यह अच्छा है कि कोई आसानी से किताब खरीद कर पढ़ सकता है। मैं भी ऐसा करती हूँ। 'लेकिन' दोनों जगहों में शर्ते हैं। एक में 'साइलेंस प्लीज' की तख़्ती है और दूसरी में 'अर्थ की पर्ची' है। दोनों जगहों से किताबें हासिल करने का मुझे कोई बहुत बड़ा सुख कभी महसूस नहीं हुआ। लेकिन बाकी उपर्युक्त वर्णन से मुझे अजीब सा सुख महसूस होता है।
मैंने अपने आप में यह बात गौर की है कि अपने ट्रंक में रखी हुई, उधार मांगी हुई, कबाड़ी की दुकान से खरीदी हुई किताबों को अधिक रूचि और गति से पढ़ लेती हूँ।
(यह जरूरी नहीं कि आप मेरी बात से सहमत हों।)
मैं अपने जैसे सामान्य पाठिका की बात करना पसंद करूंगी। मेरी शुरूआत किसी भी किताब के कवर पेज को देखकर ही हो जाती है। उदाहरण के लिए शीर्षक चाहे जैसा भी हो पर यदि कवर खूबसूरत हो तो मैं आकर्षित हो जाती हूँ। इसकी वजह गहरी है। किताब की 'ब्रांडिंग' करने वालों ने हम जैसे नयन सुख लोगों को अच्छी तरह से भाँप लिया है।
दूसरा कदम पढ़ने की ओर, यदि मुझे अपने मतलब या दिलचस्पी का विषय किताब के पढ़ने से समझ आया तो किताब को उधार मांगने में मुझे ज़रा भी हया नहीं आती। यदि सामने वाला किताब देने में राज़ी न हो तो तब तक मैं उस किताब की उधारी की बात बीच बीच में करती रहती हूँ जिस तरह से मीडिया किया करता है।
तीसरा कदम, किताब कितनी घिसी हुई और पुरानी है पर भी मैं किताब पर मोहित हो जाती हूँ। ऐसी किताबें ट्रंकधारी लोगों के पास मिल जाया करती हैं। ये ट्रंकधारी लोग बड़े हसीन होते हैं। मुझे ये लोग इसलिए पसंद हैं क्योंकि इन्हें वास्तव में सहेजना का अर्थ पता है। सोने चाँदी के अलावा किताब, पुराने कटे फटे पन्ने, डायरियाँ, रशीदें, किराने के सामान की सूचियाँ भी इनके ट्रंक में मिल जाती हैं। लगता है जैसे अपने ही इतिहास को 'ओरल' की जगह लिखित समेटने की कोशिश हो। ज़रा सोचिए कि इनके ट्रंक में सब सामान महफूज़ होने की सांसें लेते होंगे। ऐसे लोग किताब मांगने पर आराम से मुस्कुराहट वाले चेहरे से देते हैं साथ ही एक कप चाय भी तोहफे में मिल जाया करती है।
एक और दिलचस्प जगह है जहां वास्तव में हर उम्र की किताब एक के ऊपर एक पटकी या धरी रहती हैं। वह आपके और मेरे मोहल्ले का कबाड़ी। वास्तव में कबाड़ी की दुकान दीपावली में जितनी लबालब होती है उतनी शायद बाकी दिनों में नहीं। कबाड़ी से अच्छा एग्ज़ीबिशन लगाने का हुनर मैंने कहीं और नहीं देखा। वह संसार के ज्ञान को धारण करने वाली किताबों को छुपाकर या दबाकर नहीं रखता। दुकान पर आने वाला ग्राहक खरीददार भी बन सकता है। ऐसा कई बार होता है। मेरे साथ हुआ है।
किताबघर और दुकान से किताब आसानी से खरीदी जा सकती है। यह अच्छा है कि कोई आसानी से किताब खरीद कर पढ़ सकता है। मैं भी ऐसा करती हूँ। 'लेकिन' दोनों जगहों में शर्ते हैं। एक में 'साइलेंस प्लीज' की तख़्ती है और दूसरी में 'अर्थ की पर्ची' है। दोनों जगहों से किताबें हासिल करने का मुझे कोई बहुत बड़ा सुख कभी महसूस नहीं हुआ। लेकिन बाकी उपर्युक्त वर्णन से मुझे अजीब सा सुख महसूस होता है।
मैंने अपने आप में यह बात गौर की है कि अपने ट्रंक में रखी हुई, उधार मांगी हुई, कबाड़ी की दुकान से खरीदी हुई किताबों को अधिक रूचि और गति से पढ़ लेती हूँ।
(यह जरूरी नहीं कि आप मेरी बात से सहमत हों।)
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