उनकी 'शोभा' न देने वाली बात में सभी खेलने वालों को एक शब्द ने उकसाया होगा। जरूर। 'चुनौती' शब्द खामोशी से उनके मन में घुस गया होगा। ऐसा हो सकता है। चुनौती शब्द सोचने पर शब्द की तस्वीर हर किसी के दिमाग में अलग अलग बनती हैं या बनती होगी। मैंने कुछ लोगों से पूछा तो बड़े दिलचस्प प्रतिक्रियाएँ जानने को मिलीं। एक चौदह साल के युवा होते लड़के ने बताया कि जब वह यह शब्द सोचता है तब उसके दिमाग में सचिन तेंदुलकर बल्ला लिए मैदान में डटे हुए दिखते हैं। किसी मजदूर ने कहा कि उन्हें तसला और चुनाई करने वाला मसाला दिखता है जिसमें सीमेंट अधिक मात्रा में मिला होता है। एक पंद्रह साल की लड़की ने बताया कि उसे एक ऐसा कमरा दिखता है जिसमें किताबें ही किताबें रखी हुई हैं। कभी यह किताबों वाला कमरा बनता है तो कभी रद्दी अखबार वाला कमरा बन जाता है। मुझे उसकी बात पर हैरानी हुई। मैंने उससे फिर पूछा कि यह कमरे की तस्वीर क्यों दिखी, वो भी रद्दी के साथ। तब उसने बताया कि दीपावली पर घर की सफेदी करवाने पर बहुत सारा ऐसा सामान निकलता है जो कभी नया हुआ करता था पर अब कबाड़ है। घर में वे साल भर का कबाड़ किसी कोने में रखते जाते हैं। सबसे अच्छा कबाड़ रद्दी अखबार लगता है। 'कागज पीले पड़ जाते हैं फिर भी खबर ताज़ा लगती है।' (यह पंक्ति उसके पिता कहते हैं)
...उसने आगे बताया कि एक बार वह अपने पिता के साथ एक कबाड़ी की दुकान पर गई थी। उसकी दुकान में रद्दी सबसे अधिक थी और उस छोटी सी दुकान में चारों तरफ कहीं भी नज़र उठाने में रद्दी ही दिख रही थी। दुकान का चित्र उसके दिमाग में उस दिन से रहने लगा। छुट्टियों के बाद स्कूल में टीचर ने कुछ पढ़ाते वक़्त यह कहा कि किताबों से भरा कमरा किसी पाठक के लिए चुनौती है... चेलंज है।
उसे टीचर की यह बात बहुत अच्छी लगी। बस तभी से उसने चुनौती शब्द को इन चित्रों के रूप में समझा। मेरे लिए यह गतिविधि बहुत मजेदार रही। कोई एक शब्द बिना पंख हुए भी उड़ जाता है।
'लेकिन' मुझे इस शब्द का एक रोचक चित्र नज़र आता है- 'मुट्ठी वाला मुक्का'... इसके पीछे भी लंबी कहानी है। फिर कभी फुर्सत से कहूंगी।
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