Thursday, 25 August 2016

राम नाम सत्य है...हाँ सत्य है

ज़िंदगी और मौत दोनों ही सम्मानजनक हैं, ऐसा मैं सोचा करती थी। ज़िंदगी मौत से ज़्यादा दिखाई देती है। मौत एक पल में रहने वाली मेहमान है। ज़िंदगी को यहाँ लोग उम्र में नापते हैं। पैमाना, समय है जो किसी घड़ी की सुइयों में रहता है। मैंने शायद अभी ज़िंदगी जैसे शब्द को ठीक से समझा नहीं। जिस रोज़ कुछ समझ आएगा उस रोज़ कुछ लिखने की कोशिश करूंगी।

नेहरू प्लेस से बनकर चलने वाली 764 नंबर की बस जब मुनिरका डीडीए फ्लैट्स के बस स्टॉपेज के नजदीक आती है तब वहाँ नीले बोर्ड पर श्मशान घाट की सूचना देने वाले बोर्ड को, थोड़ी गर्दन ऊंची कर के देखा जा सकता है। ऐसी जगहें भी दिमाग में दस्तक देती हैं। अजीब वाली खटखटाहट जो परेशान भी करती है और हैरान भी।





मैंने अभी तक कोई भी श्मशान घाट अपनी आँखों से नहीं देखा। लेकिन कुछ को उनके नामों और बाहर की झलक से जरूर पहचाना है। एक खिड़की गाँव नामक जगह का, एक लोधी रोड वाला और एक और जो यमुना पार जाफराबाद के रास्ते में आता है(शायद)। ये सभी हिन्दू मुर्दाघाट हैं। इनके पास से गुजर जाने भर में ही एक कंपकंपी शरीर में हलचल के साथ गुजरने लगती है। धड़कने ऐसे धड़कती हैं, लगता है दिल का दरवाजा तोड़ कर सड़क पर खून के साथ बिखर जाएंगी। क्या आगे और क्या पीछे बस 'राम निरंजन प्यारा' हो जाएगा। सब कुछ यहीं धरा पर धरा रह जाएगा।

रोजाना की काम और रूटीन की आपाधापी में मैंने इन श्मशान घाटों की ओर आने वाली बहुत से पार्थिव शवों को देखा है। कभी कुछ शवों के साथ अधिक भीड़ दिखी तो कभी कुछ के साथ गिनती के लोग देखे। इन शवों में औरतों की पहचान उनके शादी के लिबास से हुई तो बच्चों की पहचान उनके शरीर की लंबाई को भाँपने से हुई। यह अजीब अवलोकन है। मैं अक्सर ऐसे दृश्यों को देखने के लिए कई दफा रुक भी जाया करती हूँ। देखने के बाद हाथ जोड़कर प्रणाम करती हूँ। यह घर में बताया गया है।  इसके बाद शव को उतनी देर तक निहारती हूँ जब तक कि वह आँखों से ओझल नहीं हो जाते। इनके ओझल हो जाने के बाद अपने प्रिय गुरू की बातें याद करती हूँ कि इन्हों ने अब तक नया जन्म ले लिया होगा।

इसके बाद दिमाग खुद से अपने ढर्रे पर आ जाता है।

यह गैर लोगों की मृत्यु पर आने वाले खयाल हैं। अपना कोई जाता है तब अंग्रेज़ी का 'Dislocation' शब्द पूरी तरह से चरितार्थ हो जाता है। नाम, पता, खैर, खबर, सुख, हंसी, आदि सभी गायब हो जाता है। तब भगवान से यकीन उठ जाता है कि यह कैसा अन्याय 'मेरे' साथ कर दिया। मैं ही मिली थी। सब कुछ छिन लिया.., टाइप के संवाद मुंह पर खुद से आ जाते हैं। मेरे लिए किसी अपने का जाना एक सदमा है जिसे जाते जाते महीनों लग जाते हैं फिर भी सदमा पूरी तरह से मन से जाता नहीं। अच्छा है। कुछ सदमों को जाना भी नहीं चाहिए।

यह निजी अभिव्यक्ति थी। आसपास की अलग होती है। औरतों के भाव अलग और आदमी के अलग होते हैं। इन सब में छोटे बच्चों के भाव सबसे अधिक विचित्र होते हैं। मैंने एक बार पड़ोस में हुई मृत्यु में देखा था कि चार साल के बच्चे को पता ही नहीं था कि आखिर उसकी माँ को हुआ क्या है और वह अपने पिता को देखकर ही रोये जा रहा था। जब उसकी माँ का अंतिम संस्कार कर दिया गया और कुछ घंटों का 'माँ बिना वक़्त' गुजरा तब वह अपने पिता की बाजुएँ पकड़ कर पूछ रहा था, 'माँ कहाँ है, कब आएगी?' मैं उस रोज़ उस बच्चे को देखकर पूरी तरह सदमे में आ गई थी। आज भी वह दृश्य मुझे हुबहु याद है।

ज़िंदगी पर तो हज़ार फिलोसोफियां झाड़ ली जाती हैं और आज भी झाड़ीं जा रही हैं। मृत्यु की फिलोसोफी क्या है, इसे लेकर भी धर्मों ने जरूर कुछ लपेटा हुआ है। उनकी ज़ुबाने अलग हैं वरना उनका कहना लगभग लगभग एक सा ही है। लेकिन हम तो फिल्म 'आनंद' के मुरीद हैं। फिल्म में मौत को ज़िंदगी के साथ ऐसा मिलाया है कि अंत में आँखों में पवित्र आँसू ही बचते हैं। न धर्म बचता है। न कोई विशेष ज़ुबान। न कोई खयाल या विचार का रगड़ा पनपता है। न कोई वाद रहता है।

कई सालों पहले मैंने भी इन्हीं आंसुओं की पवित्रता में ही मौत को समझा था जो ज़िंदगी से उलट अधिक खामोश और अर्थपूर्ण है।

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