...लेकिन रचना अपने को ठगने का अच्छा तरीका भी है
वास्तव में रचनात्मकता (कोई रचना) अपने आप को ठगने का एक बेहतरीन अदब है। 'लेकिन' आजकल इस अदब-आदाब को सीखने-सिखाने के कोर्स चल पड़े हैं। रचना जितनी समझ से दूर होगी उतनी ही बेमिसाल मानी जाएगी। रचनाकर को खुद भी समझ न आए तो भई, क्या बात है! ऐसे में यह समझ जाना चाहिए कि 33% वालों में से एक आप नहीं रहे। आप उड़नबाज़ कॉलेजों की कट-ऑफ के समान बन गए हैं। अब यह ठगी (मुझे लगता है) व्यक्तिगत दिमाग के रास्ते से होते हुए भीड़ तक बहने लगी है।
नहीं! मुझे सार्वजनिक शब्द का इस्तेमाल नहीं करना। इससे बहुत 'ओल्ड-फैशन' सी बास आती है। शब्दों का भी तो ज़माना हुआ करता था।...और देखिये न, शब्द तो धोती या लंगोट भी नहीं बांधते। अगर बांधते होते तो मैं उन्हें खींच पाती और कुछ रच लेती। लिख लेती। अपने को भी ठग लेती।
हम्म...मेरी बातों से सिंधु घाटी की सभ्यता के अनजाने और पहेली वाले इतिहास की बू आ रही होगी।
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