Monday, 12 December 2016

दिल पे मत ले यार

पता है, मुझे बहुत अजीब लग रहा है। कल FB पर किसी लड़के की एक पोस्ट पढ़ी। उसने बहुत उम्दा बात लिखी थी। काफी खोजबीन करके। पढ़कर। कश्मीर और देशभक्ति से जुड़ी हुई। मुझे पोस्ट बेहद अच्छी लगी पर मैंने 'like' नहीं की। कारण था। वजह यह थी कि उसमें एक बेहद भयानक गाली थी। हद है साहब, आप अपनी बातों पर वज़न तब तक नहीं रख पाते जब तक आप अपने 'मेल-मन' को तुष्ट करने के लिए औरत से जुड़ी तीखी गाली बोल या न लिख लें। फेसबुक का ज़माना है तो लिखने को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

गालियों से मुझे फिक्र नहीं लेकिन बहुत सी गालियों को सुनकर और पढ़कर फिक्र हो जाती है। 'मेल खून' तब तक महान नहीं हो पाता जब तक 6 या 7 गालियां औरतों और उनके अंगों से जोड़कर न थूक दे। मैंने हर व्यक्ति में इस आदत को करीब से देखा है। बाहर जाओ तब सफ़ेद कॉलर वाले जो नफ़ासत की पढ़ाई कर चुके होते हैं वे भी बेहद लिजलिजी मानसिकता रखते हैं और वक़्त वक़्त पर गाली देकर हल्के हो ही जाते हैं। एक पल यह समझे बिना कि वे भी आखिरकार किसी न किसी तरह किसी स्त्री चरित्र से जुड़े हुए हैं। क्या वे यह भूल सकते हैं कि वे कहाँ से पैदाइश लेते हैं?

                                                    जिराडो सेकोटो- अफ्रीकी कला

ऐसा नहीं है कि यह बुरी लत सिर्फ कुछ तरह के पुरूषों की जागीर है बल्कि हर किसी में क्रोध या उत्तेजना के क्षण में वे अपने कलर में आ जाते हैं। हर घर में यह बीमारी मौजूद है। मैं कई बार अपनों की भी खबर ले लेती हूँ। बल्कि मेरे लिए यह पैमाना मायने रखता है कि जिस माहौल में बातचीत हो रही है उसकी ज़ुबान कैसी है। एक स्वस्थ बातचीत में उन शब्दों को जगह मिलनी चाहिए जिनमें किसी को भी ठेस न पहुंचे। घर में हम बेहद अनौपचारिक रहते हैं। उनमें हल्की फुली बातें होती हैं। अक्सर मैंने  गौर किया है कि जैसे हम घर में पलते हैं, बड़े होते हैं, परवरिश होती है ठीक वैसे भी हमारे आपसी संवादों की भी परवरिश होती है। शब्दों में गरिमा रहती है और उससे से भी ज्यादा मुहब्बत, करूणा और थोड़ा बहुत गुस्सा पाया जाता है। वह माहौल ऐसा है जहां पर एक बातचीत स्थापित करने लायक स्तर बना रहता है। घरेलू बातचीत में कुछ आदर्श मानक तय किए जाते हैं और आशा की जाती है कि सब उस मानक का पालन करें।

लेकिन ऐसा भी होता है किसी परिवार में आपसी दिक्कतें हद तक बढ़ जाती हैं और रंजिशों के चलते संवादों में भी हिंसा आ जाती है। कई बार परिवारों में घरेलू हिंसा की मात्रा ज़्यादा होती है और बात गालियों से आगे बढ़कर हाथापाई तक पहुँच जाती है। उदाहरण के लिए शादी जैसे अवसरों पर झगड़े होना सुनाई पड़ ही जाता है। गौर करने वाली बात यह है कि मैं भाषाओं पर इल्ज़ाम नहीं लगा रही बल्कि भाषा के अंतर्गत रहने वाले उन शब्दों को ध्यान में लाने की कोशिश कर रही जिनसे किसी की भी गरिमा कम होती है या अथवा ठेस पहुँचती है। आप खुद अपने आसपास रहने वाले लोगों को अब्ज़र्व कर सकते हैं।



आप मुझसे सवाल कर सकते हैं कि क्या सिर्फ पुरुष ही गाली देते हैं, ऐसा तो कई औरतें भी करती हैं, उसका क्या? जी। बात बिलकुल ठीक है। मैंने भी कई महिलाओं को गालियों का इस्तेमाल करते हुए देखा और सुना है। लेकिन इस बात से यह साफ है कि गाली नई नई कोई कला नहीं है जो आज हमें आविष्कार में मिली है, बल्कि यह इंसानी बर्ताव का लंबे समय से हिस्सा रही है। आसपड़ोस में जब झगड़े होते हैं तब दोनों पक्षों में धमाकेदार गाली देने के दृश्य चलते हैं।

मेरे यहाँ एक महिला रहती है। उसके 4 छोटे छोटे बच्चे हैं। उसका पति दिन में काम पर ही होता है और देर रात तक आता है। कुछ वक़्त पहले उसकी ज़मीन पर कुछ लोग उससे बिना पूछे अपने वाहन खड़े करने लगे। जब उसने अपना ऐतराज दर्ज़ किया तब वे लोग उससे लड़ने के लिए हाजिर हो गए। इस बात पर उसने ऐसी ऐसी गालियां दीं जिसे सुनकर वे लोग भाग खड़े हुए। इसी तरह उसे अकेली औरत सोचकर जब कोई छेड़ता है तब वह अपने तरकश से बस गालियों के तीर ही निकालती है। यह उसके लिए बचाव करने और हमले के भी काम आती है। मैं फिर भी उसकी गालियों को जायज नहीं ठहरा रही। यदि किसी पुरुष पर नज़र डालें तब आप खुद गौर कीजिएगा कि वह कब इन शब्दों का इस्तेमाल करता है। कुछ लोग सभी तरह के मूड में तो नहीं लेकिन हंसी मज़ाक में भी गालियों का इस्तेमाल करते हैं जिसे दिल पर नहीं लिया जाता। 

पिछले साल 'काशी का अस्सी' फिल्म पर घोर विवाद हुआ और लोगों की भावनाएँ आहत हो गईं क्योंकि फिल्म के ट्रेलर में शिवजी के वेश में एक लड़का गाली देता हुआ दिखा। फिर क्या था, बवाल मचा। ऐसी भी खबरें हैं कि कई FIR दर्ज़ की गईं। इसमें दिलचस्प बात है कि यही FIR किसी भी औरत या औरतों के गुट द्वारा नहीं दायर की गईं। फिर भी आप इस बात पर तो सहमत होंगे कि ईश्वर भले इन शब्दों का इस्तेमाल न करते हों पर क्रोधित तो जरूर होते होंगे। 

गालियों के संदर्भ में एक बात और अजीब है पर उत्तर भारतीय लोग हैरान नहीं होते। (दक्षिण के लोगों का अंदाज़ नहीं) शादी-ब्याह, शगुन, आदि अवसरों पर औरतों द्वारा गाये जाने वाले गीतों में शब्द कम और गालियां अधिक होती हैं। मुझे एक बार ऐसी ही गालियां पड़ी थीं।  तब मेरा गुस्से के मारे दिमाग खराब था- 'यह क्या बकवास गा रही हैं आप लोग?' मुझे कहा गया- 'गाँव है। ऐसा ही होता है, ऐसे मौके पर।' लेकिन मेरा दिमाग जैसे कहीं उड़कर बिखर गया था। मैंने इतनी गालियां पहली दफा सुनी या फिर कहूँ मेरा गालियों से एंकाउंटर किया गया। मुझे शादी पर आने का खूब पछतावा हुआ और उसके बाद से मैं किसी भी शादी में शरीक होने से कतराने लगी। लोगों ने मुझे बताया कि यह परंपरा है और इस तरह के गीत वर पक्ष अथवा दुल्हन पक्ष के लोगों को मज़ाक में गाते हुए दिये जाते हैं। ध्यान से सुनो तो इनमें ताना, बेटी के घर छोड़ कर चले जाने का दुख, घरेलू स्थिति भी दिखाई देगी। ख़ैर मेरे पास अभी इस बात में अपनी बात मिलाने की बुद्धि नहीं आई। है।

गालियों के शब्दों या गुच्छों पर ध्यान दें तब मालूम देगा कि पहली नज़र में ये किसी औरत, रिश्ते, और उसके अंगों की तरफ संकेत करती हैं पर इसका दूसरा पहलू सामने वाले को अपनी क्षमता भर ठेस पहुंचाना या फिर बेजोड़ तरीके से शब्दों से वार करना जिसके चलते सुनने वाले को ठेस लगे है। वह बौखला जाये। वह दुखी से ज्यादा हर्ट हो। यहाँ बात उस तरीके के झगड़े या बहस की कर रही हूँ जहां बहुत गंभीरता होती है और नौबत मार-कुटाई तक आ जाती है।



एक मासूम तर्क यह भी है कि हमारी उस क्षमता का विकसित न हो पाना जिसमें हम यह जानते हों कि अपने को कब कब कैसे कैसे अभियाक्त करना चाहिए। मुझे इस बात में वज़न लगता है। वास्तव में हम कितना विकसित हो पाये हैं या फिर हो पाते हैं। हमारे एक्शन को हम खुद नहीं समझ पाते। हमारी दिनचर्या भी तो पालतू है जिसे हमने बड़ी मेहनत से पाला है। क्षमता को मैं किसी भी कला रूप से जोड़ना चाहूंगी। हम कला से कितने परिचित हो पाये हैं यह भी मायने रखता है। इसमें कार्पेंटरी से लेकर चित्रकारी तक शामिल है। हो सकता है मैं बिलकुल गलत हूँ, पर मैंने देखा है जो लोग किसी भी तरह की कलात्मकता से जुडते हैं उनके पास गालियां जैसे स्पेस खाली रहता है।

गालियों की बात चली है तब मुझे रवीश कुमार का चौड़ा चेहरा, जस्टिस काटजू की तोते वाली नाक और दिलीप सी मण्डल की आत्मविश्वास से भरी तीन छवियाँ तुरंत याद आ जाती हैं। मैंने कई बार रवीश कुमार को Prime Time पर तिलमिलाए हुए दिमाग के साथ देखा है। काटजू अलहदा हैं वे FB पर ब्लॉक कर देते हैं और दिलीप मण्डल FB पर एक बार पोस्ट कर देने के बाद दुबारा उस तरफ देखते तक नहीं। पर यकीन मानिए, उन्हें गाली देने वालों का पूरा समुदाय है जो काफिले की तरह उनकी पोस्ट पर आता है और गालियां बकते हुए गुज़रता है। मैंने एक बार उनकी किसी पोस्ट के कमेंट्स पढ़ें तब मन खून की उल्टी करने को हुआ जा रहा था। कई बार उनकी पोस्ट किसी नेता या पार्टी विशेष की आलोचना भी नहीं होती पर फिर भी लोग उनको झोला भर-भर गाली देत हैं। लगता है कि गाली देने वालों के दिमाग की सेटिंग की गई हो कि जैसे ही मण्डल जी पोस्ट डालें आप टूट पड़ो। कभी मिल पाई तो उनसे उस संजीवनी का पूछूंगी कि कहाँ से वह उगाते हैं और लाते हैं। बेहद भयानक गालियों के बाद भी लिखना उनका जारी है। मुझे नहीं लगता कि उनकी पोस्ट्स खराब होती हैं। आलोचना वह अच्छी करते हैं।

मण्डल जी के संदर्भ में यह बात भी है कि उन्हें गाली देने वाले लोग अधिकतर जातिवादी होते हैं। मसलन जिन्हें मनु स्मृति पर कट्टर विश्वास है। मुझे याद है मण्डल जी ने एक पोस्ट अंबेडकर जी से जुड़ी हुई डाली थी। उस पोस्ट पर अंबेडकर के खिलाफ बेहद आपत्तिजनक कमेंट्स थे। इसी में एक लहर देशभक्ति का चूना लगाने वालों की भी बहुत है। देशभक्ति और देशद्रोही के बीच के फर्क को वे लोग गालियों से साफ बांटते हैं। लेकिन मुद्दा वही है कि ये आधुनिक गालियां देने वाले सीधे सीधे भारत माँ से भी खुद को जोड़ते हैं और और दूसरों की माँ और बहन को शब्दों में बेज्जत कर देते हैं।        

अब बात आई गालियों के संदर्भ में लिंग पर हमले की। औरतों को गाली देना जिनमें उनके चरित्र को जोड़ा जाता है वे शब्द नुकीले तीर के समान होते हैं। मुझे एक पोस्ट और याद आ रही है जो निर्भया के माता-पिता द्वारा पीएम मोदी जी से गुनहगारों को फांसी देने की मांग को लेकर थी। जिस घटना से देश हिल गया और शर्मसार हुआ था, मालूम चला कि उस लड़की के लिए कोई हमदर्दी नहीं थी। लोगों ने उस पोस्ट के नीचे खोज खोज कर दिल दहला देने वाली गालियां उसके पिता को दी थीं। और तो और बहुत से अपशब्द निर्भया के लिए भी थे। तब मुझे यह यकीन हुआ कि हमारे समाज में एक धड़ा निश्चित ही मानसिक विकलांग है। यह धड़ा ठीक से सोच भी नहीं पाता। तीसरे लिंग को नहीं भूल सकती। जब दिल्ली शहर कि सड़कों की लाल बत्तियों पर बस रूकती है तब इस थर्ड जेंडर के लोग बसों में कुछ मांगने के लिए घुस आते हैं। ऐसा ही एक दिन था, दो लोग आए। पूरी बस में मांगा। जो मिला लेकर चले गए। उनके जाने के बाद बस में मौजूद पुरूषों ने जी भर भर कर गालियां दीं, बिना यह देखे कि बस में बहुत सी मुसाफिर महिलाएं हैं। हाँ, उनमें कुछ ऐसे भी लोग थे जो खूब रस ले रहे थे।


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मैं इस पोस्ट को दो दिन से लिख रही हूँ और अभी भी पूरे पक्ष नहीं रख पाई हूँ। कुछ लोगों से बातें कीं तो कुछ बिन्दु समझ पाई। उन्हें भी डाला है। शुक्रिया के साथ। अभी बहुत कुछ बाकी है जो कभी और जानकारी और अनुभवों से बटोर कर लिखूंगी। फिर भी मैं हमेशा उस स्पेस और अंतराल को बेहतर मानती हूँ जिनमें गालियां और हिंसक संवाद न हो। खासतौर पर महिलाओं और बच्चों के लिए ऐसे स्पेस की कामना करती हूँ जहां वे बेहतर सम्प्रेषण कर सकें। अगर किसी शब्द से किसी की भी गरिमा को ठेस पहुँचती हो, मैं वहाँ रहना ठीक नहीं समझती। खराब शब्द संवाद को नष्ट करते हैं या उनकी उम्र को कम करते हैं।

(दिमाग में बहुत से और खयाल दस्तक दे रहे हैं। एक मुकम्मल पोस्ट बाकी है अभी।)


2 comments:

  1. बहुत सही लिखा है|

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  2. शुक्रिया दीपेंद्र सिंह जी :)

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