Saturday, 30 December 2017

टाइम-लेस

कल के बाद सन् 2017 भी बीत जाएगा। जब से होश संभाला और चीज़ों को वक़्त के दायरे में देखना सिखाया गया तब से यही महसूस होता है कि वक़्त सच में उड़ना जानता है। यह लगता है कि व्यक्ति के जीवन का मध्य भाग बहुत तेज़ी से गुज़रता है। आदि और अंत धीमे-धीमे। शायद यह पूरा सच भी नहीं है। जब अपने अन्तर्मन और बाहर की दुनिया में संपर्क स्थापित होने लगता है तब वक़्त के मायने या तो बदल जाते हैं या फिर हमारा ध्यान वक़्त से हटकर उन बिदुओं पर केन्द्रित हो जाता है, जो बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। हम अपने जन्म के समय सबसे अधिक ख़ालिस होते हैं। पर समय के बीतते-बीतते एक सामाजिक व्यवहार की चादर ओढ़ने के कारण हम एक अजीब सी प्रजाति में बदल जाते हैं। इसलिए चुनौती यही है कि हम जब मरे तब भी ख़ालिस रहे जैसे अपने जन्म के समय थे। 

अख़बारों की परेशान कर देने वाली खबर से लेकर टीवी समाचार चैनलों के शोर तक में समय को किसी दूसरे की नज़र से समझा जा सकता है। मंदिर के घंटे और मस्जिद की आवाज़ से समय को हम जैसे लोग पकड़ लेते हैं। पिता के काम के जाने के समय से तो भाई के देर रात तक घर लौटने के समय को भी समय समझा जा सकता है। आम ज़िंदगियाँ सालों की घटना में सिमट कर जीने लगती हैं तो कुछ के लिए जन्मने, शादी होने, मरने की तारीखों में समय बैठा दिखाई देता है। 



पर इन सब से परे मुझे सपने ज़िंदगी अधिक करीब लगते हैं। समय की वहाँ बिसात नहीं है। आप हैं, आपके खयाल हैं, आपके किरदार हैं, आपकी परिस्थितियाँ हैं, आपका रंगमंच है, आपकी आवाज़ें हैं, आपकी मुश्किलें और खुशियाँ हैं और आपके लिए अटपटे परिदृश्य की बुनावट है, जिसे आपका दिमाग बखूबी रचना जानता है।
फिर भी सपने की बुनियाद आपके उसी जीवन से बनती है जहां आप समय के साथ रहते हैं। 

और कैसे समय को देखा जाये? यह हमेशा मौजूं सवाल है। जितने भी तर्क रख दिये जाएँ कि समय यहाँ नहीं हैं, वहाँ नहीं है...वो लगभग मन को बहलाने के लिए महज़ अच्छे खयाल ही हैं। अगला सवाल है यह होना चाहिए कि समय का शुद्ध रूप कहाँ मिलता है? वाज़िब है कला के अलग-अलग रूपों में समय के शुद्धतम रूप को देखा जाये। कला में या तो सबसे शुद्ध रूप होता है या फिर वह वहाँ होता ही नहीं। इस पर बहस हो सकती है। 

आगे आने वाली दस्तकों में इस बात को लेकर और समझा जाएगा और अपने मुताबिक लिखा जाएगा।

Saturday, 2 December 2017

पंक्चर

कुछ दिनों से लिखना बिलकुल बंद रहा। जब लोगों ने मुझसे मैसेज और फोन कर के पूछा कि क्या हुआ है तब मैंने सवाल बहुत हल्के में लेते हुए तुरंत जवाब दिया-"मेरा लैपटाप खराब हो गया है इसलिए आप लोगों को झेलने का अवसर नहीं मिल रहा है।" हालांकि जवाब मुझे बहुत खराब लगा। ऐसा नहीं  है कि दिमाग में आइडिया नहीं आए। काफी विषय सूझे और मैंने लिखने की भी कोशिश की। पर एक बैठक में हाथ से लिख नहीं पा रही थी।  यह आधुनिक लेखन के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण परेशानी लगी और एक दोस्त ने मुझे इसे लिखने का सुझाव भी दिया। 
पेन और कॉपी लेकर लिखने में मैंने एक अपने स्तर का संघर्ष किया और पाया कि अक्षरों  की बनावट पर मैं अपना शासन खो चुकी हूँ। धीरे लिख रही हूँ। लिखने पर भी जूझ रही हूँ। लय नहीं बन पा रही आदि आदि। कॉलेज और उसके बाद तक के लिखने के सफर में लिखना एक खुशी के साथ आता था। लिखते वक़्त लगता था कि शब्दों का एक झरना बह रहा है और हाथ के माध्यम से पन्नों पर उतर रहा है। लेकिन पिछले तीन साल में मैंने लगातार इस मशीन पर ही लिखने को लिखना समझा और एक घाटे का सौदा किया। हालांकि बीच बीच में डायरी लिखी पर डायरी में 5 या 6 पन्ने लिखने में बहुत बड़ी मुश्किल नहीं लगी। एक वजह यह भी है कि डायरी लेखन एक ऐसी आज़ादी का भी अहसास लेकर चलता है जिसमें बाध्यता बहुत बड़ी बात नहीं होती। डायरी मनमर्ज़ी शब्द से भी कई बार जुड़ जाती है।

बटन दब जाने पर अक्षरों का तुरंत उभर आना एक निहायती बेदिली का काम और उत्पादन है। हाथ और की-बोर्ड के बीच का रिश्ता जैसे को तैसा वाला है। जो बटन दबेगा वही उभरेगा। और यहाँ लिखने की बात ही नहीं है। टाइप करना शब्द युग्म इस्तेमाल किया जाता है। हाथ और की-बोर्ड एक के बीच एक ही एक्शन निरंतर चलता है और परिणाम में लिखा हुआ उभर आता है। जबकि हाथ से लिखने में हाथ और पन्ने के बीच मशीनी रिश्ता नहीं महसूस होता। दूसरी महत्वपूर्ण बात लिखते समय लिपि की बनावट हाथ को एक घुमाव और स्वाभाविक एक्शन मुहैया करवाती है। जो कि हम इन्सानों के खून में है। इसका बढ़िया उदाहरण अगर खोजा जाए तो आपको ऐसे लोग मिलेंगे जो पेन पेंसिल को कान या फिर अपने जुड़े में अटका कर रखते हैं। छोटे बच्चों को जब नई नई पेंसिल दी जाये तब उस पेंसिल का इस्तेमाल लिखने के अलावा मुंह में, सिर में और बाकी तरह से वे करते हुए दिखते हैं। यह सब एक बेहद स्वाभाविक हिस्सा लगता है। 

लेखन से जुड़े दो उदाहरण और देना चाहूंगी। चूंकि JNU में मेरे वक़्त का कुछ हिस्सा चाय पीने में जाता है तो वहाँ कुछ जगहों पर अपने आप ध्यान चला जाता है। वहाँ का माहौल निश्चित रूप से यह बतलाता है कि आप अभी तक इंसान ही हो। इसलिए दिमाग कि तनी हुई सिराएँ थोड़ा ध्यान इधर उधर करने की इजाजत भी दे देती हैं। वहाँ एक लाइब्रेरी के पीछे वाली कैंटीन और मामू का ढाबा है। जब मैं शुरू शुरू में पढ़ने गई थी तब लाइब्रेरी के पीछे वाली कैंटीन में हाथ से कैंटीन के खुलने और बंद होने का समय लिखा रहता था। अब ठीक इसकी जगह टाइप हुए पर्चे पर यही बात लिखी होती है। हालांकि एक आम समझ में यह साफ है कि जो सूचना देने का उद्देश्य था वह पूरा हो चुका है फिर भी थोड़ा गौर करें तो पाएंगे कि अब एक या दो पंक्ति को भी हाथ से नहीं लिखा जा रहा। वास्तव में हाथ का लिखा रिप्लेस होने का शिकार हो रहा है। ठीक वैसे ही जैसे 19+38 को कोई मुझे जोड़ने को कहे तो अमूमन मैं मोबाइल का गणक निकाल कर बैठ जाती हूँ।

                                                            By Justyna Kopania 

अब बात मामू के ढाबे की। यह जगह काफी लाजवाब है। खाना भी अच्छा है। लेकिन जो बात मुझे यहाँ बहुत अच्छी लगती है और मेरा ध्यान खींच लेती है वह अंग्रेज़ी में करसिव हैंड राइटिंग से लिखा हुआ मेन्यू। अगर आप कुछ ऑर्डर करने जाते हैं तब खाने के साथ साथ यह भी दिमाग में आता है कि क्या खूब लिखा है। कितनी सुंदर लिखाई के साथ। इसलिए बाहर कि दुनिया में जाते ही मुझे हर वह चीज जिस पर हाथ की लिखाई लिखी होती है, आकर्षित तो करती ही है और साथ ही दिलचस्प भी लगती है। आजकल डीटीसी की बसों में लहराते हुए शब्द दिखते हैं जो कहते हैं- जेबकतरों से सावधान!

जो सभ्यता नहीं लिखती थीं उनके इतिहास में बहुत झोल मौजूद है। एक झूठा और बनावटी इतिहास। मुझे 'बोलों' की दुनिया में यकीन है पर पूरा का पूरा इतिहास अगर उन पर टिका रहे तो मुझे आपत्ति है। आजकल हर चीज को मशीनों और कार्डों से जोड़ने के पीछे सुविधा की बात को ऊपर रखा जाता है। टीवी पर एक विज्ञापन आता है जिसमें सभी काम कार्ड-पेमेंट से किए जा रहे हैं पर जैसे ही एक व्यक्ति कैश रुपया निकलता है उसे हिकारत की नज़र से देखा जाता है। वह फास्ट लेनदेन में बाधा के रूप में दिखता है। लेकिन इसी विज्ञापन पर यह बहस भी की जा सकती है कि इंसानी दिमाग को लगभग पंक्चर करने की तैयारियां सरकार और कंपनियाँ ज़ोरों पर कर रही हैं। यही नहीं वे अपने काम में सफल भी हो रही हैं। चूंकि सभी पेमेंट कार्ड से हो रही हैं तो यह तय है कि आपसे हिसाब किताब करने का अभ्यास छिना जा रहा है। जहां अभी तक मशीनों से पेमेंट नहीं होता वहाँ हम खुद -ब-खुद जोड़ना शुरू करते हैं और दिमाग पर ज़ोर डालते हैं। इसलिए कई मर्तबा दिक्कत भी आती है। हमारे आसपास अब ऐसे लोगों की संख्या कम होती जा रही है जो मुंह-जुबानी हिसाब जोड़ लिया करते थे।

कितनी अजीब बात यह कि मैं यह सब फिर से उसी लैपटाप पर लिख रही हूँ जिससे अब थोड़ा सा डर लगता है। फिर भी मुझे अपने स्वाभाविक लिखने की रोज़मर्रा के छूटे हुए अभ्यास की तरफ दुबारा जाना चाहिए। इसलिए आजकल घरेलू खर्चों के हिसाब किताब की डायरी को मैंने अपने पिता से लेकर खुद लिखना शुरू किया है। शायद अधिक नहीं लिख पाऊँगी पर एक रोजनामचा (Journal) बनाना तो सीख ही जाऊँगी।  


Monday, 2 October 2017

ये जो प्रेम है

प्रेम एक ऐसा शब्द है जिसके बोलते ही कितनी हलचल मच जाती है। किसी को बॉलीवुड की फिल्म याद आ जाएगी किसी को कोई गीत याद आ जाएगा। किसी को अपना प्यार याद आ जाएगा। किसी को टूटा दिल या बेवफ़ाई याद आ जाएगी। कहने का मतलब यह है कि यह शब्द खाली रहने नहीं देगा। यह ऐसा विषय भी है जिस पर बोलने या लिखने से बचती रही हूँ। पर आज मैं लिखूँगी कि मैं किन किन लोगों की प्रेम दीवानी रही हूँ। हम जैसी बात बात पर शर्मा जाने वाली लड़कियों के अपने ढेरों कोने होते हैं और वहाँ बहुत से लोग ऐसे रहते हैं जिन्हें हम दुनिया की बुरी नज़र से छुपा कर रखना चाहते हैं। पहले पहल मुझे यह लगता था कि किसी को प्यार करना बदनाम हो जाने वाली वजह बन जाती है। लेकिन प्रेम पूर्वाग्रहों से संचालित नहीं होता। इस बात का संतोष और खुशी दोनों है। 

सन् 1972 में हिन्दी की दुनिया को एक बेहतरीन उपन्यास मिला था। उसका नाम है- धरती धन न अपना।  इसके लेखक जगदीश चंद्र हैं। जब मैं इग्नू से अपने एम.ए. हिन्दी की पढ़ाई कर रही थी तब यह उपन्यास कोर्स में लगा था। अधिक समय नहीं हुआ इस बात को। क्योंकि मेरा पूरा समय अपनी नौकरी में गुज़र जाता था इसलिए उपन्यासों को खरीदने की ज़िम्मेदारी मेरे पिता के जिम्मे हो गई थी। वे ही पुरानी दिल्ली के नई सड़क पर लगने वाले बाज़ार से मेरे लिए उन किताबों को खोज खोज कर लाये थे। मैंने उन्हें सभी उपन्यासों की फेहरिश्त दी थी और वे एक ही बार में कम से कम आठ उपन्यास खरीदकर ले आए थे। शाम को जब मैं घर पहुंची तब नई नई किताबों को देखकर एक खुशी अंदर मिनट में पैदा हो गई। मैंने किताबों को देखते हुए कहा- 'ये तो सारी नई लग रही हैं!' वे बोले- 'हाँ,  नई ही हैं। कला मंदिर नामक दुकान से लाया हूँ।' इतनी देर में मैंने कुछ उपन्यासों को उलट पलट कर देख लिया। वो बोले- 'तुम्हें काफी मेहनत करनी होगी।' मैंने किताबों पर हाथ फेरते हुए कहा- 'सो तो है।...पापा आप को कौन सी किताब अच्छी लग रही है?' वो आठों किताबों पर नज़र फेरने के बाद एक किताब मेरे आगे करते हुए बोले- 'ये वाली!' जब मैंने उस किताब को हाथ में लिया तो वह यही उपन्यास निकला- 'धरती धन न अपना'। 

लेकिन मैंने इस किताब को पहले नहीं पढ़ा। इससे पहले मैंने 'गोदान' को और इसके बाद 'सूखा बरगद' पढ़ा। दोनों ठीक-ठाक थे। इस उपन्यास की बारी तीसरी रही और पढ़ने के बाद अफसोस हुआ कि यह पहले क्यों नहीं पढ़ा। वास्तव में यह उपन्यास दिल में उतर जाने वाला लगा। लिखने की शैली ऐसी थी कि पाठक को एक पल को लगता है कि वह 'चमादड़ी' में ही पहुँच गया है। अगर मैं अपनी निजी पसंद कि बात करूँ तो 'गोदान' से पहले मैं इस उपन्यास का नाम लूँगी। फिर भी तुलना बेकार ही है। सभी किताब अपने महत्व को पारित ही करती हैं। खैर इस उपन्यास के चरित्रों 'काली और ज्ञानो' का प्रेम मुझे आज तक सुपर डुपर प्रेम लगता है। ज्ञानो का मरना मुझे एक झटके जैसा लगा था। हमारा खुद का समाज ही प्रेम की स्थापना नहीं करने देता। खैर इस उपन्यास की कहानी नहीं बताना चाहती। लोग खुद से पढ़ें तो अच्छा रहेगा। बात तो प्रेम पर होगी और आकर्षण पर।

इस किताबी प्रेम-कहानी से पहले लड़कियों के जीवन में प्रेम कहाँ-कहाँ से प्रवेश करता है यह भी बड़ा दिलचस्प होता है। मुझे नहीं मालूम की बड़े घर की बेटी का जीवन कैसा होता है पर अपने जैसे घर की लड़की के बारे में कह सकती हूँ कि इनकी रोज़मर्रा बहुत उथल-पुथल वाली होती है। आज भी तकनीक के आ जाने से कुछ खास बदलाव नहीं आया है। 13 या 14 बरस की उम्र में छाती को ढकने वाला दुपट्टा रिशतेदारों से तोहफे में मिलना शुरू हो जाता है। स्कूल की ड्रेस या तो लंबी हो जाती है या फिर वह सीधे सूट में तब्दील हो जाती है। बालों की चमक तैल में चुपड़े हुए बालों में बदल जाती है। और कसकर दो चोटियाँ बना दी जाती है कि बालों का दम घुटने लग जाता है। फिर भी आकर्षण, हिंदुओं की किताब में दिये गए आत्मा के गुण को धारण कर उस सूट सलवार वाली लड़की के जीवन में आ ही जाता है। यही खास खासियत भी है। 



स्कूल के आने जाने के रास्ते कम मोहक नहीं होते! कुछ छोटी उम्र की कहानियाँ वहाँ जन्म ले लेती हैं। कोई लड़का है अजनबी सा जो साथ जाने की ज़िद्द करता है। सुबह 7:30 के समय में वह लंबी वाली सड़क के एक कोने में मोशन में खड़ा है। वह चाहता है कि यह सूट वाली लड़की आए तो साथ रास्ता कट जाये। लड़की अंजान बनी हुई भी सब जानती है। धीरे धीरे जान पहचान मुस्कुराहटों से हो ही जाती है। आह! क्या अहसास है। वह कम उम्र का लड़का अब प्रेमी है और वह लड़की प्रेमिका। कितना केयरिंग नेचर है उस लड़के का। इतना अच्छा अहसास। लड़की को उसका जन्मदिन याद है। वह कुछ ऐसा सामान जो तोहफा हो, देना चाहती है कि वह लड़का अपने साथ उसकी निशानी बनाकर रख सके। वह क्या दे सकती है, सोचने में कई रातें जाग कर बिता देती है। पिछले हफ्ते पिता ने एक बात कही थी कि इंसान को एक घड़ी का साथ रखना चाहिए। उसे यहीं से तोहफे के बारे में इशारा मिल गया। बचे हुए रुपयों से उसने चोरी चुपके एक काले पट्टे वाली घड़ी खरीद ली। उसका खयाल था कि इससे अच्छा तोहफा कुछ हो नहीं सकता। उसने दिया। लड़का हैरानी और प्यार के मिले जुले भाव से घड़ी देखता रह गया। शायद उसकी आँखों में एक आँसू भी तैर गया था। उसने उस पल सोचा-क्या लड़कियां ऐसी होती हैं!' उसने उस लड़की जिसको वह अब प्यार करने लगा है, के भी एक तोहफा खरीदने की बात सोचनी शुरू की। लेकिन जब तक शोर मच गया। बस एक बात जो आसपास होती रही, वह थी- 'लड़की का चक्कर चल रहा है, लड़की का चक्कर चल रहा है!

एक वो वाला प्यार भी होता है जो ट्यूशन में होता है। वहाँ स्कूल ड्रेस या दो चोटियों की ज़िद्द नहीं होती। वहाँ बहाने से छू भी सकते हैं। बात भी हो सकती है। नज़रें भी मिल सकती हैं। यहाँ भी लड़की का दिल अभी सीने से बाहर आने को हुआ होता है। a+b का स्क्व्यर वाला सूत्र कितना अच्छा लगने लगता है। टेस्ट होगा मैथ्स का। एक सवाल गलत नहीं होना चाहिए। टेस्ट का दिन आया। कुल छ सवाल दिये गए। सब अकेले अकेले बैठेंगे। कोई किसी का नहीं देखेगा। लेकिन ये जो आकर्षण है, यह सब कुछ देखता और समझता है। मुंह में केडबरी चॉकलेट की तरह घुल जाता है। लड़के ने लड़की को जितना हो सका दिखाया। दोनों टेस्ट में पास हो गए। अभी तक आकर्षण की भनक किसी बड़ी नज़र को नहीं लगी। यहाँ अभी कोई बदनाम नहीं हुआ है। अच्छा है। सब ठीक ठाक है। 

एक मैगज़ीन वाला प्यार भी होता है। बड़ी होती लड़कियों की जानकारी देने वाली पत्रिका। इसके अलावा वहाँ 'पहला प्यार' वाला किस्सा भी होता है। कितना अच्छा लगता है इस पेज़ को छूकर। आत्मा तृप्त होती है। अगर उस लड़की को अपने पहले प्यार के बारे में कुछ लिखना होता क्या लिखेगी? वह सोच रही है। किससे प्यार हुआ है उस। कोई क्लास का लड़का भी नहीं है, क्योंकि कॉलेज ही लड़कियों वाला है। ट्यूशन है नहीं तो कहाँ और किस्से प्यार होगा। चान्स ही नहीं। मौका है कहाँ! फिर कॉमिक्स के हीरो से। कौन अच्छा लगता है। फिलहाल तो सुपरमैन! अरे वही जो पेंट के ऊपर चड्डी पहनता है, वो भी लाल रंग वाली। कुछ भी कहो अच्छा तो लगता ही है। क्रिप्टन से आया है। अपनी धरती का मुसाफिर नहीं है। चक्कर चला तो किसी को पता भी नहीं चलेगा। हाँ, यह अच्छा वाला विकल्प है। कोई पूछेगा तो कह दूँगी कि है मेरा भी कोई। यहाँ का रहने वाला नहीं है... नहीं यह बताने की ज़रूरत नहीं है। है बस कोई, इतना काफी है। 

दूसरी तरफ उस बेचारे सुपरमैन को नहीं मालूम कि कितनी लड़कियों का वह प्रेमी है। कितने प्रेम पत्रों की वह वजह है। कितनी आँखों के गुलाबी हो जाने का वह कारण है। कितनी सारी डायरियों के पन्नो में वह चिपका हुआ उड़ रहा है, कहीं न जाने के लिए। यह डायरी वही खजाना है जिसके ऊपर सूरज की रोशनी नहीं पड़ा करती। जिसके बारे में कोई भी 'कैप्टन जैक स्पेरॉ' नहीं जानता। वह खोज नहीं सकता इस खजाने को। आज भी ऐसे खजाने रोज़ अहसासों की ज़मीन में छुपाए जा रहे हैं। अच्छा है। यह दुनिया खजाना रहित नहीं होगी। खोजने के लिए कुछ न भी रहा तो कम से कम ये अहसास तो रहेंगे ही न।




Sunday, 1 October 2017

अटेन्शन प्लीज़

जब तक बात 'अजीब' न हो वह ध्यान नहीं खींचती। अजीब का मतलब कुछ भी ऐसा जो जाना-पहचाना न हो या फिर मेरे दायरे से बाहर का हो। और भी बहुत मतलब हैं सभी को मालूम है कि अजीब होता क्या है! मुझे एक बैठक याद आ रही है। बहुत से अनुभवी लोग थे वहाँ, मेरे अलावा। उस आदमी ने कहा- "अपने कम्फर्ट ज़ोन से निकलना अपने आप को सबसे बड़ी चुनौती देने की औकात होती है। अगर आप लगातार उसी में रहते हैं तब मुमकिन है कि कुछ समय अच्छा लगे, पर बाद में खामियाज़ा भुगतना ही पड़ता है। बदलावों के लिए अपनी आराम तलबी तोड़नी ही पड़ती है। ...कैसे मुमकिन है कि सोचने भर से सब कुछ खुद से हो जाएगा! अगर आप पर वार हो रहे हैं तो हो सकता है आप कुछ न कहकर बेकार के पचड़ों में न पड़ने का रास्ता चुनें, पर अगर जवाब देंगे तो मुमकिन है सामने वाला सोचे।... कहने से पहले सोचे।... हो सकता है बोल ही न पाये। ...बच्चों और औरतों पर अपराध इसलिए नहीं बढ़ रहे कि अपराधी बढ़ रहे हैं, बल्कि उस पर प्रतिक्रियाएँ न के बराबर हैं। हमें सीखना और सिखाना होगा कि कैसे पलटवार किया जाता है। यह जरूरी है। अपराध का शिकार हो जाने पर दुबकना किस समाज का बर्ताव है? ऐसे तो घुटन हो जाएगी। कौन जिएगा ऐसे?..."

उसकी बातों में बहुत सी अच्छी बातों को समझा जा सकता है।आज उसकी बातों में से व्यवहार और आदत को ले सकते हैं। अपने व्यवहार को बर्ताव से समझा जा सकता है। यह एक मज़ेदार गतिविधि है। कई बार ऐसे ही पागलपन वाले काम कर लेने चाहिए। कुछ सीखने को मिल जाता है।

 
मुझे लगता है, मैंने बहुत सी बातें छोड़ दी हैं। बात काफी साल पहले की है सो याद रह जाने लायक ही याद आ रहा है। इस आदमी को मैं नहीं जानती थी। जानती थी तो बस इतना कि वह भी किसी संस्था में बच्चों को रेसक्यू करने का काम करता है। वह इतने सामान्य तरीके से बोल रहा था कि मुझे एक पल को अटपटा लगा। भला इतने संवेदनशील मुद्दे पर भी इस तरह कोई बोलता है। बैठक खत्म हो जाने के बाद वह अपना कोना तलाश कर सिगरेट फूँक रहा था। मन में आया, ये आदमी बड़े अजीब होते हैं। पैक पर लिखे होने के बाद भी क्यों सिगरेट पीते हैं! मुझेअपनी तरफ देख वह थोड़ा सा मुस्कुराया। बैठक में जिस लड़की के जिस लड़की के साथ आया था, उसके चाय खत्म करने के बाद तुरंत निकल गया। मैं बात नहीं कर पाई। लेकिन उसकी बातें याद तो है। सही है कि हम सब का अपना अपना एक कोना है। चाहे सीलन हो या बदबू आ जाए हम नहीं निकलना चाहते उस कोने से। बात आराम की नहीं, बात आराम पसंद हो जाने की है। उस डर की है जो हममें कितनी खूबसूरती से अदृश्य रहता है। मैं भी इस डर से अभी तक मुक्त नहीं हो पाई। बहुत डर का असर यह हुआ कि लोगों की बातों के या हमलों के निशाने पर जल्दी आ जाती हूँ।

कुछ दिनों पहले सोशल साइट्स पर माहिरा खान की खुली पीठ और हाथों की सिगरेट का ऐसा तूफान आया था कि वह सभी संस्कारी लोगों के निशाने पर आ गई थीं। पहली नज़र में जब मैंने उन तस्वीरों को देखा था तब मुझे कोई खास और बड़ी बात नहीं लगी थी।आज भी नहीं लगती। लेकिन अजीब मुझे वे लोग लगे थे जो उनको गाली दे रहे थे। जो उनको इस्लाम का हवाला देते हुए नसीहत दे रहे थे। ठीक ऐसा ही वाकया प्रियंका चोपड़ा के साथ हुआ था जब वह जर्मनी में प्रधानमंत्री से मिलने गई थीं और तस्वीरों में उनके पैर दिख रहे थे। लोगों ने कहा कि उन्हें प्रधानमंत्री से मिलने साड़ी पहनकर जाना चाहिए था। कुछ ने यह भी कहा कि उन्हें कम से कम संस्कार तो नहीं भूलने चाहिए थे। अभी कुछ दिन पहले हादिया का भी एक मामला आया था जो मन से अखिला से हादिया हो गई हैं। लेकिन वहाँ के न्यायलाय और समाज को बहुत असर पड़ चुका है। 

जब मैं स्नातक में थी तब अंग्रेज़ी की मैम ने पूरी क्लास को एक पेपर लिखने को कहा। यह बहुत दिलचस्प काम था। उन्होने कहा कि आप अपनी आठ दिनों के बारे में रोज़ लिखें और वही आपका पेपर होगा। उसी पर नंबर मिलेंगे। मेरा रोल नंबर ओड(विषम) था इसलिए मुझे और भी खुशी होती थी क्योंकि यही टीचर हमें पढ़ाया करती थी। बहरहाल उस वक़्त तक मैं कम से कम रोज़ डायरी लिखने की अभ्यासी नहीं थी। लिखती थी पर दिनों के अन्तराल में। इसलिए जब यह काम मिला तब मैंने अपने दिन में होने वाली बातों पर गहरी निगाह रखनी शुरू कर दी। इतना ही नहीं अपनी माँ और भाई, बहन और पिता को भी इस नज़र के दायरे में लेना शुरू कर दिया। एक तरफ मुझे अच्छे नंबर की लालसा था तो दूसरी तरफ उस महत्वपूर्ण चीज को दर्ज़ कर लेने की जद्दोजहद भी थी जो बहुत खास हो...अलग हो। 



मेरे घर में मेरे होश संभालने से पहले ही चम्पक, नन्दन और अखबारों का गहरा प्रभाव था। कभी कभी किसी माह की पत्रिका रह जाती तब पढ़ी हुई पत्रिका ही दुबारा पढ़ लेती। इसलिए शब्द और खयाल वहाँ से भी मुझे अपने कॉलेज के दिये काम में मिल रहे थे। मैंने आठ दिनों में वह सब नोट किया या फिर अपने कच्ची बुद्धि के संज्ञान में ले लिया जो मैं ले सकती थी। परिणाम हैरान करने वाला था। मैंने एक बात को बार बार लिखा था। वह यह बात थी कि हम दूसरों को हर 10 या 20 मिनट में जज करते हैं। लगभग हर रोज़। किसी को कैसा बर्ताव करना चाहिए या फिर कैसा नहीं यह हममें तय करने की लगभग एक ज़िद्द है। घर और क्लास में ये बातें बड़े ही सामान्य तरीकों से होती थीं। इनका होना ऐसा है जो हमारा ध्यान भी नहीं खिंचतीं। जैसे मेरे घर में खाने में नमक की हल्की सी बात पर ही हम माँ को नसीहत थमाते चलते थे कि कम है तो कभी ज़्यादा हो गया। बहन के लिए था कि वह खाने में दिल रखकर नहीं पकाती। पकाना चाहिए। दीदी को घर जल्दी लौट आना चाहिए। भाई को पढ़कर अकाउंटैंट बन ही जाना चाहिए। मझला भाई देरी से आता है। जल्दी आना चाहिए। ज़रूर आवारागर्दी करता होगा। ठीक ऐसा ही क्लास में मेरे मन में होता था जो मस्ती करते थे आ फिर मेरे लिंक-अप्स की खबरें यहाँ वहाँ उछालते थे। मन में आता था कि एक एक को पकड़कर कूट डालूँ। कॉलेज में कुछ ऐसे लोगों को भी हल्का फुल्का सुना कि जो लड़की कम कपड़ों में हो वह जरा ऐसी वैसी होती है। 

ऊपर वाले पैरे का पूरा मतलब यह है कि हम किसी को भी एकदम से पोथी लेकर जज करने बैठ जाते हैं। यह हमारी आदतों में से एक गंदी वाली आदत है। कौन क्या पहन रहा है, कौन क्या कर रहा है, कौन क्या खा रहा है, आदि को जानने के लिए हमारी ताक झांक कुछ इस कद्र बढ़ जाती है कि यह एक बहुत बड़े ऐब में तब्दील हो जाती है। समाजों में ऐब ही अपराधों की वजह बन जाते हैं। मैंने पाया है कि हममें अपनी आदतों पर काम करने की बेतरह कमी भी है। व्यक्तिगत से लेकर सरकार तक अब आधार कार्ड के जरिये हमारे निजी जीवन में ताक झांक कर रही है। अगर आप एक औरत हो तो यह बात लोगों के लिए बहुत ही मज़ेदार और आसानी से निशाना साधने लायक बन जाती है। यह व्यक्तिगत गिरावट की निशानी है।  

इसका मैं एक ऐसा उदाहरण देती हूँ जिससे हम अपने व्यवहार को आदत बनते देख और समझ सकते हैं। आजकल मेट्रो का सफर अधिक होता है इसलिए वहाँ से उदाहरण लेना ठीक रहेगा। जब मैं महिलाओं के डिब्बे में जाकर सफर करती हूँ तब ऐसे हर उम्र की औरतों लड़कियों को एक दूसरे को घूरते और कानों में फुसफुसाते हुए पाती हूँ। हमें हंसी भी आ जाती है। उस दिन एक लड़की खूबसूरत सी स्कर्ट पहनकर खड़ी थी तभी कुछ लड़कियां उसकी स्कर्ट को देखकर हंसी और फुसफुसाई। जब मैंने उस स्कर्ट वाली लड़की को ठीक से देखा तो पता चला कि स्कर्ट में एक लंबा कट था जिससे उसके पैर दिख रहे थे। लेकिन फिर भी मुझे यह बात कोई विषय नहीं लगी। ऐसा पढ़ी लिखी लड़कियां बहुत करती हैं। मैंने देखा है कि मज़दूरीनें तो आराम से बैठकर सफर को सफर की तरह कर रही होती हैं। 

ठीक कोई शॉर्ट ड्रेस में लड़की मेट्रो के जनरल डिब्बे में आ जाये तब तो हाहाकार ही मच जाता है। जो लोग मोबाइल में सफ़ेद कमीज पहने हुए हनुमान चालीसा पढ़ रहे होते हैं या फिर टोपी लगाकर दीन के बारे में सोच रहे होते हैं, वे सभी नज़र उठा उठाकर उसे देखते भी हैं और लड़की के स्टेशन पर उतर जाने पर कहते हैं अब तो जमाना ही खराब हो गया है। कोई शरमों हया नहीं बची। वास्तव में जमाना अपने मुताबिक ठीक ही है, दोष तो नज़रों का ही है। खैर मैंने अपने पर बहुत काम किया है कि किसी के जीवन में अपनी नाक न अड़ाऊँ। मैं चाहती हूँ कि यह जज न करने की शैली ताउम्र बनी रहे। 

टिप्पणी के तौर पर यह भी कहूँगी कि बहुत से मसलों पर हमें अच्छा बुरा जज करना ही पड़ता है। इसलिए उन जगहों पर यह शैली भी खुद से विकसित करनी चाहिए। पढ़ने वाले लोग इतने दिमागदार तो होंगे ही कि वे समझेंगे कि मेरा मतलब और मकसद कौन सी बातों के लिए है। 



Sunday, 24 September 2017

दमदार औरतें: अपने स्पेस पर दावा

ज़ोर-जुल्म-जबर्दस्ती के खिलाफ़ सिर मुंडा लेने वाली वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की छात्रा इस समय की सबसे बेहतर प्रेरणास्रोत है। कम से कम मेरे लिए तो है ही। विरोध जताने का नया हथियार ही बता दिया। अब हमारा सिर मुंडवाना ही हमारे विरोधों के तरीकों में से एक होगा। विधवा हो जाने पर सिर के बाल हटा देने वाली परंपरा को जबरन थोपने वाले इस अजीब तरह के लोगों के कबीले के मुंह पर बीएचयू की उस लड़की ने झापड़ रशीद कर उन्हें अपनी जगह दिखला दी है। जैसे बंदूक की नली घुमाकर शिकार करने वालों के आगे ही रख दी है। लो जी चला लो अब गोली! जिल्लत को हथियार में भी तब्दील किया जा सकता है। 

कवि और शायरों ने जिनकी ज़ुल्फों पर किताबें लिखी हों, जिनकी चोटियों को साँप सी लहराती हुई बताया गया हो, जिनके जुड़ों में फूलों को दिखाया गया हो, जिनके लिए बालों को उनकी सुंदरता का अहम हिस्सा बताया जाता हो, जहां बाल धोने के घोल से लेकर बढ़ाने तक के सूत्र बाज़ार में बिकते हों, जो लंबे बालों को शान समझते हैं, वहाँ उसी देश में एक लड़की ने अपने विरोध में उन्हें त्याग दिया और या जतलाया कि गलत के खिलाफ कैसे आवाज़ बुलंद की जाती हो। जिनको यह बात मामूली लगती है लगे, मुझे नहीं लगती।

महिलाओं के विरोधों पर नज़र डाली जाये तो उनके विरोध एक निश्चित खाँचें में दिखते हैं। विरोधों में खामोशी, झगड़े, कहासुनी, बात न करना, खाना छोड़ देना, शादी ब्याह में या किसी भी रस्म पर गीतों के माध्यम से गुबार निकाल लेना शामिल हैं। हो सकता है और भी ऐसे निजी व घरेलू तरीकें हों और अपने अपने अवसर पर वे करगार भी रहे हैं।  पर घर की चौहद्दी से बाहर के विरोधों में नारे लगाने, रैली निकालने और अनशन कर लेने में अब बराबर दिखाई देती हैं। मेधा पाटकर द्वारा नर्मदा बांध के खिलाफ़ किए गए अनशन अति प्रभावी और सम्मानीय रहे। ठीक इसी तरह इतिहास में चिपको आंदोलन में महिलाओं का पेड़ों से चिपक जाना और उन्हें कटने से बचाना भी महिला द्वारा विरोध जतलाने का नायाब उदाहरण हैं। स्वतन्त्रता संग्राम में कविता से लेकर कदम ताल-करने तक वे बहुत आगे थीं।  



आदिवासी आंदोलनों में भी महिलाओं की समान भागीदारी दिखती है। अगर ऐसा नहीं होता था दक्षिण कोरिया की विश्व की सबसे बड़ी स्टील कंपनियों में से एक कंपनी पॉस्को उड़ीसा में अभी तक अपना कारख़ाना लगा चुकी होती। इसके पीछे वहाँ के लोगों का वाजिब मजबूत विरोध रहा, जिसमें औरत मर्द और बच्चों ने पूरा पूरा हिस्सा लिया। एक ब्लॉग के अनुसार जब पुलिस गाँव में जाती थी तब वहाँ की स्थानीय औरतें उनके विरोध में अपने कपड़े उतार देतीं और तेज़ चिल्लाकर कहतीं- 'तुम यहाँ क्यों आए हो? क्या देखना चाहते हो?' ऐसा ही हाल मणिपुर में औरतों के विरोध में दिखा। 

पर मणिपुर को शर्मिला इरोम के कारण लोग जान पाये। सोलह वर्षों का उपवास रखकर प्रशासन को उसके अत्याचार के बदले रचनात्मक और बिना बंदूकों का विरोध बहुत महंगा पड़ा। उनके इतने लंबे अंतराल का विरोध ही था जो देश में एक लहर की तरह दौड़ा और बहुत से सोते हुए लोगों को जगाया। लोकतंत्र में विरोधों की क्या अहमियत होती है यह शर्मिला इरोम से सीखा जा सकता है। ज़रा फर्ज़ कीजिये, एक तरफ आपके पास सारे हथियार व साधन हैं और दूसरी तरह एक औरत का अनशन जैसा हथियार कि तुम गलत हो। गलत को गलत कहना और उसकी सही समय पर पहचान कर लेना बहदुरी के उदारणों में गिना जाता है। मणिपुर में हुए हालिया चुनाव में उन्हें महज़ 90 वोट मिले। लेकिन क्या यह सही नहीं कि कम से कम 90 लोगों में शर्मिला के प्रति एक भाव था। उनके विरोध की क़द्र थी। ऐसे ही शायद देश के बहुत से लोगों में उनके इस जज़्बे को लेकर सम्मान है। 

मेधा पाटकर को तो मैंने जब से होश संभाला है एक मजबूत विरोध करते हुए देखा है। मैंने बांध की खासियत और लाभ जरूर किताबों से जाने पर बांध के पीछे की तस्वीर मेधा पाटकर और उन तमाम लोगों से समझे कि बांध बेघर किए जाने की लंबी दास्तान अपने पीछे छोड़ जाते हैं। बहुत कुछ खत्म हो जाता है बांध के निर्माण में। ऐसे कई और विरोधों में भी उनकी अहम भूमिका होती है। ऐसे ही दिल्ली विश्वविद्यालय का एक आंदोलन है जिसका नाम-'पिजड़ा तोड़' है। मुझे यह आंदोलन भी बेहद रचनात्मक लगता है। वजह, छात्राएँ वे तमाम तरह के कदम उठाती हैं जिनमें वे अपने गुस्से और असहमति को मजबूती से दर्ज़ करवा पाएँ। पोस्टर्स से लेकर गीत संगीत और रैलियों के जरिये प्रशासन की नींद उड़ा देती हैं। लड़की हो तो घड़ी की सुइयों के मुताबिक चलने की हिदायत देने वाले कॉलेज के प्रशासन को वे जतला देती हैं कि अब और नहीं चलेगा! ठीक इसी तरह हमारा दिन और हमारी रात वाले अभियान में भी लड़कियों का रात पर सड़कों पर उतरना और यह कहना कि रात में भी हमारा समय है और दिन में भी जैसे अभियान, औरतों के अपने अभियानों और आंदोलनों को पुख्ता करते हैं। फेसबुक से लेकर ट्विटर तक पर गलत के खिलाफ, आज़ादी की सांस के लिए दमदार महिला दस्तक नज़र आ जाती है।

अहिंसक विरोधों की भारत में लंबी परंपरा रही है। इसलिए बीएचयू के गेट पर धरने पर बैठी उन छात्राओं के विरोध को आधी आबादी के जागरण अभियानों में से एक अभियान समझा जाये तो इसमें कुछ गलत नहीं होगा। ठीक इसी तरह और भी मजबूत दस्तक हो रही हैं। मैं अपनी बात रखने की कोशिश में हूँ कि आधी आबादी बोलना भी खूब जान चुकी है। नहीं दोगे हक़ तो छिन कर लेंगी। हलक से भी निकाल लेंगी, वो भी सलीके से! महाभारत के बाद अब बारी महाभारती लिखने की है।

Saturday, 23 September 2017

कुछ छवियों से परहेज़ करना चाहिए


इस तस्वीर को सोशल मीडिया पर जमकर औरत और मर्द दोनों ही नवरात्र के इन दिनों में एक दूसरे से बाँट रहे हैं और प्रोफ़ाइल भी अपडेट कर रहे हैं। भारत में तस्वीरों का एक बहुत बड़ा बाज़ार है जिनके पीछे की वजह यह है कि यहाँ के अधिकांश देवी देवता चित्र में मौजूद हैं। सभी देवी देवताओं की कल्पना कर के उनको एक प्रभावी और खूबसूरत रूप दिया गया है।  इसके अलावा दिल्ली की परिवहन सेवा में हिन्दी सिनेमा से लेकर दूसरी भाषाओं के सिनेमा के कलाकारों ने भी तस्वीरों में एक बड़ी जगह बनाई है। फेसबुक के आ जाने से सोशल मीडिया का रंग कुछ इस तरह बदला कि नए तकनीकी कैमरों से हर कोई अपनी तस्वीर साझा का सकता है। मैं कभी किसी दूसरे देश नहीं गई इस लिए मुझे नहीं पता कि वहाँ का रंग तस्वीरों के मामले में कैसा है? लेकिन अपने देश के भी बहुत छोटे से हिस्से को ही जिया है। अधिकतर घर से। लड़की होने की बहुत क़ीमत तो चुकानी ही पड़ती है। इसलिए गर लोग यह समझे कि भारत के 29 राज्यों के आधार पर तस्वीर वाली बात कह रही हूँ तो वे सबसे पहले खुद की राय दिमाग में उगा लें। 


हमारे यहाँ बचपन से ही तस्वीरों से मुलाक़ात शुरू हो जाती है। अगर आप स्कूल में दाखिल होने जा रहे हैं तब यह निश्चित है कि आपका फोटो पासपोर्ट साइज़ में आना तय है। इसके अलावा स्कूल के ढेर सारे समारोह में भी आपकी तस्वीरों में ख़ास जगह तय ही होती है। लेकिन स्कूल से पहले आपको अपने पारिवारिक फोटो का हिस्सा होना ही होता है। सवाल यादों का होता है। छुटकी कैसी लगती है या फिर छोटू बचपन में कितना ताज़ा मोटा था, यह बात आगे चलकर तस्वीरें ही बताती हैं। इसलिए तस्वीरआपकी जिंदगी का एक अहम हिस्सा है।इससे पहले और कहाँ तस्वीर देखने को मिलती है? घर की दीवारों ने परिवार को कभी दगा दाग नहीं दिया। हिन्दू हूँ इसलिए कह सकती हूँ कि दीवारों पर मुख्य धारा के देवताओं और देवियों का श्रद्धा से कब्जा हुआ होता था। आज भी है पर अब जरूरत तारीख़ और त्योहारों तक सिमटी है। 

अब सोचती हूँ तब पाती हूँ कि मैं कितने प्रभावपूर्ण नज़रिये से सरस्वती माँ के कपड़ों, गहनों, गोरे रंग को, वीणा को और मोर को ताका करती थी। इससे अधिक लक्ष्मी और शेरवाली माता की तस्वीरें अव्वल दर्ज़े की प्रभाव छोड़ने वाली होती थीं। ज़रा सोचिए, जिन शेरों को देखने से ही सिहरन हो जाए भला उस पर कोई देवी सवार हो जाये तो बच्चा दिमाग भगवान जैसे तत्व को न माने तो क्या करे। इस सारी कहानी को कहने का यही मकसद है कि तस्वीरें बहुत ही प्रभावित करती हैं। और इसे मामूली समझकर नज़रअंदाज़ कर देना ठीक बात नहीं। इसलिए जब एक औरत की बहु भुजाओं वाली तस्वीर देखी तो मेरा माथा ठनका, भला औरत को यह क्योंकर देवी बनाने पर तुले हैं?

एक ही  व्यक्ति का बहुत से काम कर देना पहली नज़र में उसका गुण हो सकता है पर उसके ऊपर आरोपित छवियों का एक हिस्सा भी समझा जा सकता है। औरत के बहुत से हाथ बनाकर उसमें काम और व्यस्तता के सभी उपकरण जबरन रचकर क्या  साबित होता है? यही कि वह आला दर्ज़े की नौकरानी है। मुफ्त का श्रम किया करती है। उसके पास पढ़ने का या कुछ भी रचनात्मक करने का समय नहीं है। वह इतनी अव्वल है कि सभी काम करने के चक्कर में अपने को आईने में देखना भी भूल जाती है। उफ़्फ़ ! गजब है! यह औरत है या गधी?

लोग तारीफ़ करें तो करें इस छवि की, मुझसे न हो पाएगी। भला क्योंकर मैं अपने को इस छवि में देखूँ? या भला कोई क्यों मुझे इस छवि में उभारे? हो सकता है जब इस छवि की रचना हुई हो तब इसके पीछे अच्छी मंशा हो। लेकिन अब तो यह मुझे छुपा हुआ चाकू-मार क़त्ल लगता है। टीवी पर आने वाला एक विज्ञापन तो इतने भयानक है कि कई दिन मैं उसके बारे में सोचती ही रही। पति, पत्नी से दफ़्तर में नीचे के पद पर है और पत्नी किसी भी हाल में उसे जरूरी काम निपटाने को कहती है। घर जाती है और फोन कर कहती है कि खाना क्या खाना पसंद करोगे?...बस यहीं वह निहायती बेवकूफ लगती है। मैडम, आप दफ़्तर में तो खट कर आई हैं और अब घर में भी कीचन की रौनक बनेंगी।  

यह बात कौन नहीं जानता कि औरतें बहुगुणी होती हैं और कलाकार भी। लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं कि वे इस लिबास को मनपसन्दगी से औढ़ती हैं। तीन चार स्केच पेन उठाए और लग गए कलाकारी में कि देखिये औरतें तो बहुभुज हैं। जो काम कोई न कर पाये वह काम ये कर लेती हैं। बात को ठहर कर सोचिए। 'सेल्फी विद डॉटर' जैसा काम नहीं कि मोबाइल आगे किया और फोटो खींचकर एफ़बी पर पोस्ट कर दी और महिला जागृति और सशक्तिकरण कर दिया। फोटो खींचने से मजबूती आती तो लोग अंबुजा सीमेंट का काम सेल्फी खींचकर कर लेते और रुपया बचाते। लड़कियों अपना दिमाग दौड़ाओ। ऐसी तस्वीरों के पीछे अपने गधी होने की बात को समझो जो दिन रात मशीन की तरह काम करती है। जिसका रूटीन और समय काम के नाम है। यार, तुम्हें क्या अपने लिए एक कप चाय बनाकर खिड़की से बाहर गली को देखने का मन नहीं करता? या फिर कोई अपना मनपसंद गाना सुनने का मन नहीं होता? कभी दिन में थकावट से दस्तक दे गई झपकी लेने का मन नहीं करता? करता तो होगा। तुम इंसान ही तो हो!  

Sunday, 17 September 2017

सपने

एक भरी पूरी नींद अगर किसी भी व्यक्ति को हर दिन नसीब होती है तब उस व्यक्ति को यह मान लेना चाहिए कि वह बहुत अच्छी किस्मत की मालकिन या मालिक है। मेरी यह बात शायद मतिभ्रम मालूम हो पर जिसके पास यह नहीं है उससे बेहतर कौन समझेगा! एक सेहतमंद नींद से जागना बहुत ही खुशनुमा अहसास होता है। शरीर और दिमाग दोनों के लिए।

मुझे रोज़ तो अच्छी नींद नहीं मिलती पर जब मेरी आँखें खुद से ही झपकती हुईं सोने की मांग करती है तब मैं नहीं रोकती। कुछ रोज़ पहले शाम को थकावट ने अच्छी नींद का तोहफा दिया। मुझे लेटते ही नींद आ गई। लेकिन सपने! हम्म...वे भी तो नींद का एक हिस्सा हैं। झपकी में तो उनकी जगह नहीं होती पर...एक मुकम्मल नींद में उनकी बेहतर गुंजाइश रहती है। कभी कभी इन ख्वाबों को सोचते हुए यह सोचती हूँ कि आखिरी बार कब घर से बाहर गहरी नींद में ये आँखों में उतरे थे। उतरे भी थे या नहीं। नींद आई थी भी या नहीं। एक लड़की की नींद कैसी तरल और नाजुक होती है। किसी के छिंकते ही चट से टूट जाती है।  कोई गैर हाथ अगर उठाने को आगे बढ़े तो शरीर कितना छटक और घबरा जाता है।



नौकरी के दिनों में जब कहीं जाना होता था तब घर से बाहर होने पर घर दिमाग में ही रहता था। और जब रात को बिस्तर पर 'कुछ सो लेने' का मन होता तो आँखें चिटकनी से लगे दरवाज़े पर ही टिकी रहतीं। ऐसा मन में डर आता कि अभी कोई दरवाज़े पर जोरदार लात मारकर घुस आएगा। मैं चिल्ला पड़ूँगी। ...मैं कितनी डरपोक हो जाती हूँ। क्या बाकी लोग भी ऐसे ही हैं? क्या जाने न भी हों? कहने का यही मतलब है कि मेरी जगह अगर बादल जाती है तब सपने का नामोनिशान नहीं होता। ऐसा लगता है कि अपनी ही बैगानियत लिए कहीं पैराशूट से गिर पड़ी हूँ। पर घर...हाँ घर! वहाँ सपने बहुत आते हैं। हर तरह के। बहुत से याद रहते हैं। बहुत से नहीं और बहुत से 50-50 याद रह जाते हैं।...ओह! पैराशूट...इसका भी तो सपना देखा है। कितना अच्छा!

उस रोज़ जो सोई तो उठते ही खुद पर चौंक गई। मैंने देखा कि कोई बड़ा सा खेत था। कोई फसल  उगी हुई थी उसी खेत के एक कोने पर मैं अपना बड़ा सा मुंह खोलकर हैरानी से अपनी आँखें फैलाये खड़ी थी। फसल के बीचों-बीच दो पतले पीले तनों में दो सितारे फूल की तरह चमक रहे थे। मैं खड़ी रही उसी तरह। रात हो गई। मैं फिर भी खड़ी रही, ठीक उसी तरह। ...कहा- "भला सितारे भी कभी उगा करते हैं।"

आँखें खुली तब हैरानी को छिपा नहीं पाई। खुद से कहा- "सितारे जमीन पर कब से उगने लगे!" मैंने ऊपर देखा और कहा- "मुझे ही क्यों सपने आते हैं। मैं तो सो रही थी। जो काम मुझे सबसे अच्छा लगता है!" सपने मुझे पैराशूट भी लगते हैं। कैसे दिमाग में घूमते रहते हैं। किसी अडवेंचर पर ले जाने वाले होते हैं। जिनकी जिंदगी में रोमांच कम होता जाता है उन्हें शायद ये इशारा देते हुए भी लगते हैं। हर चीज की वजह और मतलब होता है। इन सपनों का भी होता है। इसलिए जब भी फुर्सत मिले इन्हें नोट कर के रख लेना चाहिए। कुछ अरसे बाद पढ़ने पर लगता है कि हमारी ज़िंदगी में रचनात्मकता इन सपनों में से होकर भी समझी जा सकती है। वरना जीते तो सभी हैं।

Tuesday, 5 September 2017

अफगानिस्तानी काईट रनर

उस दिन की पिछली रात को ही एकांत के सौ वर्ष पढ़कर पूरा किया था और मैं लगातार उपन्यास के किरदारों के बारे में सोच रही थी। उसके लेखक (मार्केज़) के दिमाग के फैलाव और रचनात्मकता के बारे में सोच रही थी। कितना अलहदा लिखा है। इन दो बातों के बारे में सोच लेने के बाद उपन्यास में लेखक किस चरित्र के पीछे छिपा है यह भी सोचा। इसके बाद उर्सुला, अमारान्ता, रेबेका, रेमेदियोस, मेमे, सांता सोफिया, फेर्नांदा, पेत्रा कोतेस, पिलार तेर्नेरा जैसी औरतों के चरित्रों के बारे में सोचा। मुझे लगा कि मेरे दिमाग में एक खिड़की खुल गई हो। पुरुषों, खोसे आर्कादियो, ओरेलियानो, मेल्कियादस, पियत्रो क्रेस्पी, कर्नल ओरेलियानो, आदि एक जैसे नामों की पीढ़ी दर पीढ़ी उनके चरित्रों के एक जैसी विशेषताओं और विभिन्नताओं के बारे में सोचा। सबसे आखिर में यह सोचा कि लेखक को जरूर दिव्य पागलपन हुआ होगा। मुझे कब ऐसा पागलपन आएगा? यह बहुत अच्छा उपन्यास है और सभी को धरती को अलविदा कहने से पहले एक बार पढ़ना चाहिए।   

इसके बाद मेरी एक दोस्त ने मुझे कैंटीन में एक और किताब दी। द काईट रनर। मैंने यह नाम पहले कहीं सुना था और तुरंत ही एक जुड़ाव का आभास हुआ। रात में जब किताब के कुछ पन्ने पलटे तब एक ही सांस में 25 पन्ने पी गई। किताब पूरी पढ़ ली है। और बहुत कुछ सोचने पर मज़बूर भी करती है। एक रिफ्यूजी की ज़िंदगी आखिर होती कैसी है? उसके दिमाग में 24 घंटें कितना कुछ तूफान उठा रहता है। भावनाओं का कटना सबसे भयानक होता है। यही भावना जब वतन से जुड़ी हो तो दर्द कुछ और बढ़ जाता है। 

किताब अफगानिस्तान के बारे में है, हज़ारा मुसलमान के बारे में है, अपने देश से बाहर जान और जीवन के पीछे भागने के बारे में है, रूस के शीत युद्ध के दौरान अफगानिस्तान में किए गए अतिक्रमण के बारे में है, दो बच्चों की दोस्ती के बारे में है, एक पिता के अपने बेटे को बेटे के रूप में प्यार न कर पाने के बारे में है, कठिनाई के जीवन में भी अपने मेहमान को खाना खिलाने के बारे में है, तालिबान के क्रूरतम कृत्यों के बारे में है, लेखक की अपनी कमजोरी और उससे लड़ने के बारे में है, एक ईमानदार दोस्त के बारे में है.., सब कुछ है इसमें अफगानिस्तान का। प्यार, जीवन, शहर, गीत, मूल्य...सब कुछ तो है। मैं क्या क्या लिखूँ। आप अगर पढ़ चुके हैं तो बहुत अच्छी बात है। अभी तक नहीं पढ़ा है तो जरूर पढ़ें। मैं यहाँ बस थोड़ी झलक ही दूँगी।

सन् 1961 में एक फिल्म आई थी जो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रसिद्ध कहानी काबुलीवाला की कहानी पर आधारित थी। फिल्म का नाम भी यही रखा गया था। फिल्म वास्तव में एक संवेदनशील चित्र ही है। सबका ध्यान रहमत खान पर जरूर जाता है। रहमत अफगानिस्तान से है। रहमत इतना तो भारत के लोगों को बता ही देता है कि उसके देश के लोग कितने ईमानदार और अपनी मिट्टी से जुड़े हुए हैं। वहाँ की ज़मीन के लोगों में भी उसी तरह के भाव हैं जो भारत में है। रहमत अफगानिस्तान का एक ब्लैक एन्ड व्हाइट चेहरा है जो फिल्म के कई दृश्यों में रूला देता है।

भारत के एक हवाई जहाज का अपहरण कर कंधार में उतारा गया था। तब भारत के लोगों ने फिर से अफगानिस्तान को जाना था। अगर महाभारत में झाँकें तब गांधारी को उसी देश से पाते हैं। और भी कारण है कि अफगानिस्तान बहुत पराया देश नहीं हैं। उसी देश के तय अंतराल की कहानी यह उपन्यास कहता है। पहले हिस्से में 1979 से पहले के अफगानिस्तान की एक मनोरम छवि बच्चे की नज़र से पता चलती है। उसके बाद 1979 में रूस के अतिक्रमण और तालिबान के जुल्मों के सिलसिले आते हैं। इसके बाद उस अंतहीन दर्द का खुद में अनुभव होने लगता है कि इंसान कैसा बनता जा रहा है।

फिल्म के मुख्य किरदार आमिर और हसन है। हसन एक हज़ारा मुसलमान है जिनकी इज्जत बेहद कम हैं। हज़ारा मुसलमान शिया हैं इसलिए वे सुन्नियों की नफरत का शिकार हैं। हसन का बचपन में आमिर के सामने ही बलात्कार होता है और वह अपने डर के चलते उसे बचा नहीं पाता। उसे यह बात उम्र भर कचोटती है। उसे ताउम्र उन सब कमजोरियों का सामना करना पड़ता है जिन्हें उसने अपने पर क़ाबू होने दिया। 

उपन्यास की कहानी में फिर रूस और उसके सैनिक दाखिल होते हैं। आपको इस हिस्से को पढ़कर गुस्सा आएगा। बहुत गुस्सा। कैसे आप किसी के देश में घुसकर वहाँ के लोगों पर कब्ज़ा कर सकते हो? यह कौन सी शक्ति है? आप क्यों लेनिनवाद, लालवाद, स्तालिनवाद और पता नहीं क्या क्या समझते हुए भी किसी दूसरे देश को अपने हजारों सैनिकों के चलते उजाड़ने चलते हो? सभी को शीत युद्ध के बारे में पता है। दुनिया के दो ध्रुवों में बंटने का खामियाजा हजारों निर्दोष लोगों ने उठाया है। 

अव्यवस्था के माहौल में लाखों लोग बेवतन हो जाते हैं और अपनी पड़ोसी मुल्कों में शरण पाते हैं। किताब का लेखक बहुत ही सलीके से आपकी उंगली थामकर साथ ले जाकर हर दृश्य दिखाता है। यह भी इस किताब की खासियत है। तालिबान के सन् 1996 में अफगानिस्तान में प्रकट होने के बाद वे इतने कट्टर बन गए कि पतंग उड़ाने पर भी उन्हों ने रोक लगा दी। इसके अलावा हज़ारा मुसलमानों पर फिर से अत्याचार बढ़ा ही साथ ही साथ औरतों पर भी बहुत कट्टर कानून लागू किए गए। इसके अलावा लोगों को पत्थर मार मार कर मारने से भयावह कृत्य भी सामने आए। इसके अलावा भयावह यह भी कि यतीमों की संख्या में इजाफा हुआ। युद्ध में पिताओं के मरने के बाद बच्चों की माएँ उन्हें यतीमख़ानों में छोड़ने के लिए मज़बूर हो गईं। 



मानव समाज की इससे बड़ी क्या तरसादी होगी कि एक नस्ल इंसान होते हुए भी वे एक दूसरे को मार रहे हैं। इनमें बच्चों का क़त्ल भी शामिल है। चैन की ज़िंदगी का हक़ एक सपना बनकर रह गया है। अमीर लोग शरणार्थियों में बदलने के लिए अनुकूल होते हैं, ऐसा इस उपन्यास को पढ़ते हुए पता चला। जिनके पास साधन हैं वे भयानक परिस्थितियों से बचने की योग्यता रखते हैं। उपन्यास का नायक और उसके पिता अमरीका पहुँच गए पर हसन नहीं जा पाता क्योंकि उसके पास कुछ ऐसा नहीं है जो उसमें अफगानिस्तान के बॉर्डर को पार करने की शक्ति भर दे या फिर उसके पास अधिकारियों को खिलाने के लिए रुपये होते। गरीब वहाँ या तो भिखारी बनेगा या फिर मौत का स्वाद चखेगा। 

अंत में उपन्यास हसन के मारे जाने पर आमिर द्वारा उसके बेटे सोहराब को तालिबान से छुड़ा कर अमरीका ले जाने पर समाप्त होता है। इस उपन्यास में एक अनाथ बच्चा किस तरह से अपनी ज़िंदगी से प्रताड़ित होता है यह पता चलता है। उसका बलात्कार होना और फिर अनाथालय में जाने के भय से आत्महत्या की कोशिश पाठकों को उस सच्चाई की धरती पर पटक  देती है जहां पाठक भी सोहराब के दर्द को जीता है और उसके बचने की दुआ करता है। ज़रा फर्ज़ कीजिये उन बच्चों के जीवन के बारे में जिनके माँ बाप युद्ध या आतंक के शिकार हो गए हैं और वे अनाथालय में बस अपनी जिंदगी को रगड़ रहे हैं। मौत से भी बदतर हालात हैं। खाने को खाना नहीं ऊपर से उनका शोषण...यही है बचपन। नायक, आमिर एक जगह कहता भी है- "अफगानिस्तान में बच्चे तो हैं पर बचपन नहीं है।"

उपन्यास में सबसे आखिर में बहुत महत्वपूर्ण औपचारिक नोट है। पलायन के दिनों में लगभग 80 लाख लोग विदेशों में शरणार्थियों के रूप में रह रहे हैं। 20 लाख से अधिक अफगानी पाकिस्तान में पनाह लिए हुए हैं। 2002 में संयुक्त राष्ट्र मदद से करीब 50 लाख लौटे हैं। फिर भी लेखक खालिद हुसैनी के मुताबिक हालात बेहतर नहीं है। और भी जानकारी है जो किताब में मौजूद हैं। खुद पढ़ेंगे तो बेहतर जान पाएंगे। किताब पर फिल्म भी बनी है। वह भी देखि जा सकती है। 

मेरे एक दो दोस्त ऐसे हैं जो दिल्ली शहर में रहने वाले अफगानी बच्चों को संस्था खोल कर पढ़ा रहे हैं। मैं अभी तक उन बच्चों से मुलाकात नहीं कर पाई हूँ। वहाँ भारत के गरीब बच्चे और अफगानी बच्चे दोनों ही आते हैं। मेरे एक दोस्त के मुताबिक बच्चों की नस्ल एक ही होती है और वह है- बचपन। इसलिए उनमें क्लास रूम में वैसे ही लक्षण दिखाई देते हैं जैसे कि बच्चों में होते हैं। माँ बाप गरीब हैं। इसके अलावा रहने खाने में छोटी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा चला जाता है और बचा हुआ हिस्सा बीमारी में दवा आदि में जाता है। पर कुल मिलाकर वे सुरक्षित हैं और खुश भी रहते हैं। हालांकि उन्हें उन तमाम तरह की परेशानियों से दो चार तो होना ही पड़ता है जो दूसरे मुल्कों में रहने के दौरान आती हैं। 



Monday, 28 August 2017

बोन्साई

बाबे की बीस बरस की क़ैद पर बहुत ही खुशी दिखाई पड़ रही है। होनी भी चाहिए। पर एक जिम्मेदार जनता के रूप में हम फ़ेल ही हुए जिन्हों ने एक बहुत बड़ा सामाजिक दबाव भी पैदा नहीं किया। अचानक 25 अगस्त को दो भीड़ दिखती है। एक वो जो टीवी के अंदर थे और दूसरी जो टीवी के ठीक सामने बैठे थे। इस दूसरी भीड़ में भी शामिल हूँ। और हममें से बहुत लोग दूसरी वाली भीड़ का हिस्सा थे। हम नागरिक के तौर पर फेल ही तो हैं! हम बहुत यह सोचकर अपने घर के पर्दे गिरा देते हैं कि हमें दूसरों से क्या मतलब, हम क्यों दूसरों के पचड़ों में पड़ने जाएँ, अरे चुप रहो, न बोलो, इन अमीरों से कौन पंगा ले, अरे हमारे बीवी बच्चे हैं, घर के किसी बंदे को कुछ कर दिया तो? कितने ही बहाने हैं हमारे पास जो इन बहानों की सूची को बड़ा कर जाते हैं। जैसे जैसे यह सूची बढ़ती जाती है हमारी इंसानियत उतनी ही कमजोर, डरपोक और खुदगर्ज़ होने लगती है। 
इस बात के लिए किन कारकों को जिम्मेदार ठहराया जाए? बहुत से हैं। सभी के अपने अपने हैं। हमारे समाज और हमारी पढ़ाई लिखाई हमें एक तरह का खुदगर्ज़ इंसान बना रही है जो डॉक्टर और इंजीनियर तो बनना चाहते हैं पर एक अच्छा इंसान नहीं। हमें यह समझ भी मिल पा रही कि किसी को दर्द हो तो कैसे उस दर्द को अपने अंदर होते महसूस किया जाये। हम चलते फिरते वे प्राणी बन रहे हैं जिन्हें खूबसूरत दुनिया और ज़िंदगी के धोखेबाज़ सपने दिखाये जा रहे हैं। हम भी बिना सोचे समझे उन उल्लू के पट्ठे वाले सपने यह सोचकर मान रहे हैं कि वे ही सबसे बड़ी हासिल करने वाली चीज है। पर वास्तव में यह सच बिलकुल नहीं है। एक टका भी सच नहीं है। 

अच्छा शहर वह नहीं होता जहां इलाज़ के लिए बड़े बड़े अस्पताल हों। वह भी नहीं होते जहां ऊंची इमारतें हों, वह भी नहीं होता जहां बोंसाई कला वाले पेड़ कैंचियों से काट कर सजाये गए हों, वह भी नहीं होता जहां कमरों की चारदीवारी में दम तोड़ता माँ बाप का बुढ़ापा हो, वह भी नहीं होता जहां बेंतहा और जरूरत से अधिक उपभोग हो, वह भी नहीं जहां एक तरह ऊंची इमारत हो वह भी चार लोगों के लिए और दूसरी तरह एक कमरे में आठ जन ज़िंदगी काट रहे हों। आप इसमें और भी जोड़ सकते हैं। ज़रा रुक कर सोचिए कि अगर हम अपना हर पल खुश होकर बिताएँ तो अस्पताल की भला क्या जरूरत है? यहीं इस जगह सभी पेंच को समझना होगा। हम वह ज़िंदगी नहीं जी रहे जो हम जीना चाहते हैं। हम वह जिंदगी जी रहे हैं जो ऊंचा समाज अपने को ऊंचा बनाए रखने की खातिर हमें जीने को बाधित कर रहा है। इसलिए हम स्कूल में से निकल कर भी महान बेवकूफ की कतार में हैं। इसलिए हम लायक़ ही नहीं हैं। 
जब मेट्रो में सफर करती हूँ तब एक बेवकूफ पौध को खूब फलता और फूलता हुआ पाती हूँ जो दुख, दर्द, संघर्ष के पड़ाव या अंतराल से महरूम है। निहायती बे-अहसास के जो आईने में देखने में ही अपने जिंदगी के बहुत सारे पल खत्म कर देते हैं। जो फोन की चैट में ही कितने लफ़्ज़ों को मार देते हैं, बिना खिड़की से बाहर देखे कि हमारा अपना शहर कितना ऊबड़-खाबड़ हो रहा है। हर रोज़। कितनी गरीब तैर रही है। वे नहीं सोचते कि जमुना का रंग इतना काला क्यों हो रहा है? क्यों झुग्गियों की संख्या इतनी रफ्तार से बढ़ रही है? क्यों अपना यह दिल्ली शहर मेट्रो के चक्कर में जमीन में खोखला होता जा रहा है? क्यों सड़कों पर इतने जाम लगने लगे हैं? क्यों हम जनता राजनीतिक दलों के हिस्सेदारी में बंट गई है? क्यों एम्स के बाहर लोग खुले और गंदगी में अपनों का इलाज़ करवा रहे हैं? कितनी ही तो चीजें हैं जिनपर सवाल किया जा सकता है। पर हमें यह तैयारी ही नहीं दी जा रही कि हम उन पर सोच भी सकें।
फिर भी, भारत जैसे देश में न्याय जहां कैंसर से पीड़ित मरीज के अंतिम दिनों से गुजरने के समान है, वहीं रसूख वाले बलात्कारी को सजा होना कोई मामूली बात नहीं है। 25 अगस्त को पंचकुला में हुए हड़कंप में प्रशासन ने इतनी लापरवाही बरती कि वहाँ 30 से अधिक लोगों की मौत हो गई। बात यह नहीं कि वे गलत आदमी का साथ दे रहे थे, बात महत्वपूर्ण यह है कि वे मारे गए। उन्हें इस गुंडे की असली हरकतों को समझने का वह समय नहीं मिला जो मिलना चाहिए था।
समाज और राजनीति को यह सोचने का समय नहीं कि ऐसा गुंडा इतना बड़ा आदमखोर कैसे बन गया। कैसे वह आम लोगों की सोच का इतने नाटकीय मोड़ पर ले आया कि खुलेआम रंगरलियाँ करते हुए भी अपने तथाकथित भक्तों का देवता बना रहा। इसे समझने के लिए निश्चित ही एक अच्छे खासे शोध की जरूरत है। इसके इतिहास में झाँकने की जरूरत है। उन मनो-वैज्ञानिक तथ्यों की पड़ताल की जरूरत है जो अब जरूरी हो गई है। 

सज़ा के फैसले से राहत तो है न! कोई अब भी है जो बिका नहीं है। या फिर उसमें कुछ इंसान बने रहने की पहली शर्त है मौजूद है। 10 ही सही पर सड़े और मरे तो अच्छा है। उन दो लड़कियों को सलाम जो पंद्रह बरस प्रत्येक सुनवाई पर न जाने कौन सा धीर धर बसों से सफर कर मिटती बढ़ती धुंधली उम्मीद को साथ लेकर आती थीं। और आती रहीं, आती रहीं और आती रहीं। उन वकीलों को, जो 15 साल तक अपनी जिरह को रसूख के घेरे में करते रहे, करते रहे और करते रहे। उस पत्रकार और उसके बेटे को सलाम जो अखबार के नाम को नाम समझ कर नहीं जिये बल्कि 'पूरी सच्चाई' से जिये। उस मरहूम पत्रकार को सलाम जो 'पूरा सच' कागज़ों पर नहीं बल्कि वास्तव में मरने के बाद भी अपने इंसाफ को छिन लेने की ज़िद्द करते रहे, करते रहे और करते रहे। उस सीबीआई के उन अफसरों को जो एक फौलादी घेरे को बनाते रहे कि आप बढ़िए। इंसाफ अभी शायद बूढ़ा नहीं हुआ है। इस उम्मीद में वे चलते रहे रहे। उस जज को भी सलाम जो पार्टीबाज़ी से प्रभावित हुए बिना हजारों की भीड़ के बाहर खड़े होने के बाद भी इंसाफ को कलम को थामे रखा। सभी को सलाम! भारत अभी ज़िंदा ही है तो सिर्फ इन लोगो की वजह से!
इस पूरी घटना में भीड़ के उन सभी चेहरों को समझने का एक प्रयास करना जरूरी है, जो उभर कर स्पष्ट दिखते हैं। क्या लोगों को भीड़ में तब्दील कर देना बोन्साई कला है? क्या जरूरतों के मुताबिक इस भीड़ को जब चाहे स्टेडियम में दर्शक या फिर किल्लर में तब्दील कर दिया जा रहा है जो लोगों की जान भी लेने से नहीं हिचकिचा रही? या फिर कुछ और तरीकों से इसे समझना होगा, तो वे क्या होंगे? भीड़ क्यों एक भेड़ों के समूह के समान हो गई है जो या तो एक बाबा के पीछे लगी हुई है या... जो मतलबी राजनीतिक दलों के लिए वोट बैंक बनकर रह गई है? क्या उस भीड़ का अपना विवेक नहीं है? यदि है तो वह क्या है और यदि नहीं है तो क्यों नहीं है? ...निर्भया हादसे में घरों से निकली भीड़ क्या रैली कहकर सही ठहराई जा सकती है? क्या यही भीड़ का आदर्श पैमाना है? क्या अन्ना हज़ारे आंदोलन में भाग लेने वाले लोग भीड़ की ही अच्छी वाली शक्ल है या फिर कुछ और? क्या चपरासी और बाबू की नौकरी के लिए आवेदन देने वाले लोग बेरोजगार वाली भीड़ है? अगर हाँ तो क्यों बन रही है यह भीड़? अगर नहीं तो, क्यों नहीं है? पर इन सवालों के बाद भी एक भीड़ है जो मुझे 'बोदर' करती है। टीवी के सामने बैठी बनावटी और झूठी खुदगर्ज़ भीड़ सबसे खतरनाक और निष्क्रिय है। यह कुछ करती नहीं है बल्कि दूर बैठकर तमाशा देखती है। जब यह खुद शिकार होती है तब इन्हें समाज और उसके मूल्यों का खयाल सबसे अधिक आता है।

इस भीड़ पर ही एक अगली पोस्ट लिखने की जरूरत महसूस हो रही है। आगे की पोस्टों में इसे लेकर कुछ लिखने का प्रयास रहेगा।
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फोटो गूगल से साभार




Monday, 21 August 2017

फ़र्माइशी प्रेम पत्र (कल्पना)

जाने कहाँ से वह जगह अपनी खूबसूरती के साथ इस सुनसान जगह में उभर आई थी, अचानक। ऐसी भी जगह होती है कोई यक़ीन नहीं कर सकता था। कभी देखी-सुनी नहीं थी। आज तक कोई दादी और नानी की कहानी भी उस जगह का वर्णन नहीं पाई थी। किसी लेखक के जेहन में भी वह जगह, अपनी जगह नहीं बना पाई थी। किसी जवान होती लड़की या जवान लड़के के दिल में भी वह जगह अभी तक नहीं आई थी। न जाने वह जगह किन हाथों की रचना थी? इस सवाल का जवाब कोई नहीं जानता सिवाय उन फूलों और जानवरों के जो वहाँ के नागरिक थे। बहुत ही कम संख्या में वहाँ इंसान भी थे जो दिल की तरंगों से बात कर लिया करते थे। 

दूर से देखने पर वह धरती के ठीक ऊपर जमा हुए नीले पानी के रंग से सराबोर दिखाई पड़ती थी। वहाँ के पत्थर भी माँ की तरह हाथ पसार कर अपना प्यार लुटाते थे। फूलों ने कुछ इस तरह से अपनी रंगत विकसित की थी कि वे रंग धरती पर उगने वाले रंगों से अलग नशीले और सम्मोहित करने वाले थे। ज़मीन पर उगी मुलायम घास मानो जादुई कालीन हो। एक जगह रहने की बजाय चोकोर टुकड़ों में यहाँ वहाँ तितलियों के लिए बिछ जाया करती थी। उस जगह पर किसी का भी कब्ज़ा नहीं था। उसकी घेराबंदी 12 घटों तक रहने वाले इंद्रधनुष से की गई थी। उसे वैसे किसी तरह का नुकसान नहीं था फिर भी डर था कि धरती के अलग अलग धर्म के लोग व विचारधारा वाले लोग जबरन न घुस आयें इसलिए इस तरह की घेरा बंदी दिन के बारह घंटे इंद्रधनुष के माध्यम से की गई थी।

                                                               By- Richard Burlet 

बाक़ी बारह घटों की रखवाली एक सफेद झबरीली कुतिया के हवाले की गई थी जो बहुत ही मुस्तैद थी। वह अपने बारह घंटों को गुर्रा गुर्रा कर बिताया करती। पर इसका यह मतलब कतई नहीं था कि वह खूंखार थी। वह तो महज एक झबरीली कुतिया थी जो धरती से कुछ उठी हुई उस खूबसूरत जगह पर बारह घटों के लिए पहरा देती थी। उसका वह पवित्र श्रम था। बदले में वह सब के प्रेम का वह हिस्सा ले लेती थी जो सिर्फ उसके लिए ही था। मनुष्य से पहले जानवरों के अधिकारों की बात की जाती थी। वहाँ कई अजीब-ओ-गरीब जानवर थे जो बात भी कर लिया करते थे। हैरत इस बात कि थी कि इस बात पर किसी को हैरत नहीं थी। 

बहुत कम संख्या में रहने वाले लोग छोटे छोटे मुहल्ले में बंटे हुए थे पर वे तरंगों की बातचीत के चलते आपस में जुड़े हुए भी थे। सभी की अपनी अपनी दिनचर्या तय थी और यह पूरी तरह से लोगों पर निर्भर था कि वह उसे कैसा बनाना चाहते हैं। इस बात के पीछे कोई मनाही न थी। सभी अपना जीवन चलाने के लिए आज़ाद थे। वे जो चाहे जैसा काम कर सकते थे। अगर किसी को घास की उड़ने वाली चटाई बनाकर बाज़ार में बेचने का दिल है तो वह जरूरत के मुताबिक़ बेच सकती और सकता था। ठीक इसी तरह का क़ायदा अन्य लोगों व कार्यों पर भी लागू था। 

शहर के बीच के गोल वाले हिस्से में एक मिनी बाज़ार लगा करता था। उस बाज़ार में तमाम तरह की दुकानें थीं। छोटी टॉफी से लेकर शहद या जादू की पतली वाली छड़ियाँ तक वहाँ मिल जाया करती थीं। लेसदार कपड़ों के अलावा हर वह कपड़े जो वहाँ बिक सकते थे, दुकानों पर सजे रहते थे। बाज़ार की अपनी कुछ मामूली शर्तें थीं कि सभी अपनी दुकान का नाम हाथ से खूबसूरत अक्षर से लिखकर ही लगाएंगे। इस काम में नेफर बहुत अच्छी थी जो अपने पिता के साथ प्रेम पत्र लिखने का काम करती थी। दिन में चार पत्र ही दोनों पिता बेटी के लिए काफी थे। उनसे उनकी जिंदगी और उसके जरूरत के ख़र्च आराम से निकल जाया करते थे। वहाँ जमाखोरी जैसे रिवाज़ अभी तक नहीं उभरे थे। या फिर उन्हें इसकी जरूरत नहीं थी। 

नेफर ने अपने घर में तमाम तरह की प्रेम कहानियों, कविताओं, नाटकों, उपन्यासों, फ़िल्मों की एक अच्छी ख़ासी ब्राउन लाइब्रेरी बना ली थी। ब्राउन इसलिए क्योंकि वह मिट्टी रंग से पुती हुई जगह थी। और तो और किताबों के ऊपर के कवर भी मिट्टी रंग के ही थे। वह इस किताबघर से हर संभव मदद लेती थी जो उसे प्रेम पत्रों को लिखने के लिए अक्सर पड़ा करती थी। पर प्रेम पत्र का अंतिम ख़ाका उसके पिता की अनुभवी नज़रों से होकर ही गुज़रता था। उन्हों ने बेहद कम उम्र से इस काम में क़दम रख लिया था जब नेफर का जन्म भी नहीं हुआ था। यह बात अलग है कि इस जगह में कोई नहीं जानता था कि उनकी वास्तविक उम्र आख़िर थी क्या। नेफर को भी अपनी उम्र का कोई खास अंदाज़ा नहीं था। चार प्रेम पत्रों को लिख लेने के बाद वह अपना बहुत सा समय अपने दोस्तों के साथ गुजारती थी। उसके दोस्त भी कुछ इसी तरह के काम में लगे हुए थे। 

वह शहर अजीब होते हुए भी अजीब नहीं था उसकी यही खासियत थी। शाम के समय धरती से देखने पर लगता जैसे किसी ने नीली रंग की पनियल बॉल आसमान से सफ़ेद धागे में लटका दी है। पर सुबह होते ही वह हरी घासदार गोल जगह में तब्दील हो जाती। सबसे बेहतर वह दिन में लगती जब इंद्रधनुष के रंग चारों ओर फैले दिखते और लगता कि जमीन से कुछ ऊपर प्रकृति कुछ रंगीन कपड़े पहन कर नाच रही है। उस जगह के भीतर एक अलग ही तरह का जीवन चल रहा था जो बहुत रोचक और दिलचस्प था। जहां प्रेम पत्र लिखने की गुलाबी दुकान थी।  

...जारी है। 
   





Sunday, 13 August 2017

सुनो बच्चों!

भक्ति के कितने रूप हैं! भक्तों और भक्ति का जमाना है। चमत्कार को नमस्कार कीजिये। चित्रगुप्त साक्षात यू पी के स्वास्थ्य मंत्री से मिले और मौत के महीने का नाम प्रकट किया। ऑक्सीज़न-फॉक्सीजन तो आपका और हमारा भ्रम है। यह नई खोज है या आविष्कार, जो भी है किताबों में दर्ज़ करने लायक है। समझ तो साहब बस यह नहीं आ रहा कि मौत का हैपी बड्डे मनाया जाये या फिर जन्म का!

पिछले दिनों 'द इजीप्शियन' पढ़ते हुए एक पंक्ति मुझे बहुत अच्छी लगी। उसमें लिखा था - 'मौत असाधारण बीमारी में दयालु मित्र की तरह जीवन को ले जाती है।' सच है। जिनको लाइलाज़ बीमारी होती है उन्हें ही इस बात का पता होता है। एक बार बहुत पहले किसी अखबार में एक विदेशी लड़की की एक अपील को भी पढ़ा था। उसे एक लाइलाज़ बीमारी थी। उसे बहुत दर्द होता था। जिस राज्य में वह रहती थी वहाँ खुद के लिए मौत मांगने का और उसकी इजाजत देने का संविधान में प्रावधान नहीं था। अतः वह अपने जगह को भी बदलने की इच्छा जता चुकी थी। भारत में गरीबों के लिए मौत अब शायद सबसे अच्छे मित्रों में शामिल कर दिया गया है। हैरत न कीजिये कि इसमें देशभक्त सरकार का ही हाथ है। जिन बच्चों को ऑक्सीज़न नहीं मिली, क्या वे भी इसी तरह मौत मांग रहे होंगे या तड़पने में मांगने का खयाल नहीं आया होगा? आखिर उनका गुनाह कोई छोटा नहीं था। गरीब जो पैदा हुए थे।

सुनो बच्चों! तुम बहुत सही जगह से आज़ाद हुए। यहाँ लोग पहले हिन्दू और मुसलमान हैं। ठाकुर और अछूत हैं। अमीर और गरीब हैं। अगर कुछ बच गया तो इंसान हो पाते हैं। वरना यहाँ इंसानियत का कोई चांस नहीं। ये देश बस 'वंदे मातरम् से लेकर भारत माता की जय' तक सिमटता हुआ दिखता है आजकल। यहाँ गद्दारी इस बात से तय नहीं होती कि तुमने कितने घौटाले किए बल्कि इस बात से तय होती है कि तुम 'जन गण मन' पर खड़े नहीं हुए। हाँ, यकीन करो यही था वह देश जहां से तुम्हें मुक्ति मिल गई।

भारत में गरीबों का जीवन बहुत सस्ता है। बहुत सस्ता है यहाँ किसी गरीब बच्चे का जीवन। यहाँ लोग जो नेता भी हैं, अव्वल दर्जे के खूंखार हैं। जो देश अपनी आज़ादी के 70 बरसों का केक काटने जा रहा है, उसे उत्सव मनाने से पहले अपने गिरेबाँ में झांक कर देख लेना चाहिए। अभी की ट्रेंडिंग ख़बरों पर यकीन करें तब मरने वालों की संख्या 72 हो चली है। जरा सोचिए जहां 15 अगस्त से चंद रोज़ पहले ही इतनी मौतें हो चुकी हैं, वहाँ कैसे कोई देश 72 मौतों के बाद भी जश्न मना सकता है? मानवता क्या मंगल ग्रह का अलंकार है या पृथ्वी सिर्फ़ और सिर्फ़ हथियार को सहेज कर खरीदने वाले देशों का गुट बन कर रह गई है। 

प्रदेश स्वास्थ्य मंत्री ने मरने का एक महीना निश्चित कर दिया है। आप किस महीने में जन्म लेंगे इससे ज़्यादा महत्व अब इस बात को दिया जा रहा है कि आप मरेंगे किस महीने में। आसमान के चित्रगुप्त ने सीधे इनसे संपर्क साधा और इन्हें वह आसमानी खुफिया रहस्य बताया कि मौतें अगस्त में ही हुआ करती हैं। मंत्री जी इतने डाटा बख्तर बंद थे, कि डाटा बताते समय उनकी आँख में पानी भी नहीं उतरा। ऐसा आदमी मैंने टीवी पर पहली बार देखा।

हम एक देश के रूप में असफल हैं। हम एक लोकतन्त्र के रूप में भी असफल हैं। हम एक स्वस्थ मीडिया के दायरे में भी रहने में असफल हैं। हम हर जगह तो फेल ही हैं।

तो सफलताएं क्या हैं फिर?

विदेशी यात्राएं ही यहाँ सफलता है। एक देश से दूसरे देश जाना सफलता है। लड़की का पीछा करता हुआ 'विकास' सफलता है। कब्रिस्तान और श्मशान घाट यहाँ सफल हैं। बलात्कार यहाँ सफलता है। हिन्दू और मुसलमान सफलता है। बेरोजगारी सफलता है। अमीर और गरीब की खाई गहरी है, यह सफलता है। बैंकों का दिवालिया सफलता है। विजयमाल्या जैसा आदमी भारत की नई सफलताओं में से एक है।    

कौन कहता है कि विकास नहीं हो रहा। साहब बहुत विकास हो रहा है जो आपको दिख भी रहा है। उदाहरण देखिये न! आप बहुत मासूम जनता हैं। आपको तो कुछ ख़बर ही नहीं। 


Saturday, 12 August 2017

गोरखपुर मर्डर केस

बहुतों को नहीं मालूम कि अस्पताल में मरीज़ के साथ रात बिताना दोनों के लिए कितना परेशानी भरा होता है। मरीज़ जिसका ताज़ा ताज़ा ऑपरेशन हुआ है, उसे कुछ पता ही नहीं होता कि आईसीयू या OT ( ऑपरेशन थिएटर) के बाहर सबसे क़रीबी रिश्ते वाले व्यक्ति का क्या हाल हो रहा है। वह सुइयों और दवाइयों के नशे में बिस्तर पर बेहोशी कि हालत में पड़ा रहता है। हाँ, उसे इस बात का भान तो रहता है कि बाहर उसकी बेटी या बच्चे रो रहे हैं। अगर बच्चा दाखिल हो तो बाहर खड़े लोग इस खौफ़ में रहते हैं कि कोई डॉक्टर निकल कर यह न कह दे कि माफ कीजिये, हम बचा नहीं सके। कई बार अस्पताल वाले यह भी कह देते हैं कि हम कुछ नहीं कर सकते। इसे दूसरे अस्पताल में ले जाओ।
दूसरे अस्पताल ले जाने के लिए तो एम्ब्युलेन्स की जरूरत होती है। बहुत झंझट देते हैं ये सब लोग। लेकिन जब रास्ते पर आते हैं चलाने के मामले में तब ये दुनिया के सबसे बड़े श्रद्धेय बन जाते हैं। तब आपको सड़कों पर खड़ी लाल बत्तियों पर गुस्सा आता है। ट्रेफिक पर गुस्सा आता है। गाड़ीवालों पर गुस्सा आता है। आपके मन में डर होता है कि कहीं रास्ते में कुछ हो न जाये।

बहुतों को यह भी नहीं मालूम होगा कि अस्पताल में रात का पता नहीं चलता। हाँ समय के घंटों का अहसास तो रहता है कि इतने बजे तक सर्जरी होगी। हे ईश्वर सब ठीक हो। कुछ हो न जाये। सबसे क़रीबी रिश्तेदार को न भूख लगती है न प्यास। वह बैठती तक नहीं। डॉक्टर बाहर निकल कर कोई दवा मंगाये तो भागी हुई केमिस्ट पर ऐसी पहुँचती है जैसे धावा बोल दिया हो।
बहुतों ने अपने बच्चे का मरना भी नहीं देखा होगा। बहुत धक्का लगता है। ऐसा लगता है धरती फटे और समा जाएँ। ऐसे लगता है जैसे किसी ने अचानक से जान खींच ली हो। बच्चे के मरे शरीर को देखकर ही दम निकल जाता है। आप गिर जाते हो। आपको लगता है जीना बेकार है। आप भगवान से कहते हो। बार बार कहते हो-'मुझे भी उठा ले। मैं जीना नहीं चाहती।'

लोग कहते हैं आत्मा दिखती नहीं। लेकिन जिस बच्चे की आप चड्डी धोकर साफ करते हो, जिसमें अपनी जान फूँक देते हो। उसमें से आत्मा अचानक निकल जाती है। उस बच्चे से जो आपके शरीर का टुकड़ा होता है। बच्चे के शरीर में बस कंपन होती है। वही आत्मा निकलती है तब। मैंने बहुत करीब से अपने बच्चे को जाते हुए देखा है। बहुत तकलीफ होती है जो बताई ही नहीं जा सकती।

योगी-मोदी जी आपको कैसे बताया जाये कि आपका अपना बच्चा मर रहा होता है आपकी आँखों के सामने तब आप दुनिया के सबसे बेबस माँ बाप होते हैं। बच्चे का इलाज़ करता हुआ डॉक्टर भी उसकी जान जाने के बाद दुख से आँखें बंद कर लेता है। आप जाइये न कभी बच्चों के अस्पताल। बच्चों के माँ बाप से मिलिये। देखिये वहाँ का हाल। आप कभी मन की बात नहीं कर पाएंगे।

आपमें नैतिकता है तो इस्तीफ़ा दे दीजिये।

Friday, 4 August 2017

बेतरतीब


कोशिश की जाएगी 'उसे' शब्दों में उतारने की। यह दिलचस्प होगा कि वह शब्दों में कैसा दिखता है। प्यारा या फिर कठोर। आदमी या आदमियत। मासूम या खतरनाक। आज़ाद या फिर एक क़ैदी। नाम वाला या गुमनाम। अजनबी या फिर जाना पहचाना। अजीब या सामान्य रंगीन या फीका  ...वह शब्द दर शब्द खुलता है। खुद कहता है अपनी कहानी। न यहाँ राजा होता है न रानी। हम इत्मीनान से एक कहानी की तलाश करते हुए यहाँ भटकते हैं। कभी लगता है सही ठिकाने पर पहुंचे हैं। कभी भ्रम में ही रहते हैं। कभी हो सकता है गुम भी हो जाएँ। ठिकाने पर पहुंचाना ही तो सबकुछ नहीं होता। दस्तक पर दरवाजा खुलता है या नहीं यह तय करता है आगे के पलों को। दरवाजा खुला तो कहानी आगे बढ़ेगी। नहीं खुला तो वाजिब है कि खुद को नई दस्तक के लिए तैयार करना होगा। लेखन इस सब को समटेता है। वह भी रोता है और हँसता है।



एक पैराग्राफ़ लिखने की भी तो दस्तक होती है। कुछ जो दिखता है या फिर सूझता है। ऐसे ही नहीं छोड़ता। एक रिश्ता बनाता है। बुनना शुरू हो जाता है। शब्द खुद से जेहन में उतरते हैं। जब तक न लिख दो अंदर हीअंदर उछलते हैं। फिर भी लिखना उतना पका हुआ नहीं हो पाता। उसे साधना पड़ता है। उसको आवाज़ देनी पड़ती है। उसमें ऑक्सीज़न फूंकनी पड़ती है। उगते हुए सूरज का भी महत्व होता है, डूबते हुए का भी। जो बादल में ढका हुआ हो तो वह भी मंजूर है। यहाँ रावण की भी जगह है और राम को भी उतना ही स्पेस मिलता है। यह लेखन है। यहाँ समानता ही रहेगी। यहाँ लिखना खून में समाया हुआ धर्म होगा या फिर पाप, कोई फर्क नहीं पड़ता। लिखना चलता रहता है। इसे उम्र की जरूरत नहीं इसे कलम चाहिए कलाम कहने के लिए। जीवन है तो कहानियाँ पनपती रहेंगी। इसलिए लिखना चलेगा, निरंतर। लिखने के लिए पागल हो जाना इश्क़ के पागलपन से बेहतर है। खुदा अपना इश्क़ रखे और मुझे लिखने का हुनर बख़्श दे। आमीन!  


Wednesday, 2 August 2017

हर बार इश्क़ का रंग पक्का नहीं होता (भाग-2)

परिस्थितियों का जमा और घटा यह था कि यह नौजवान जोड़ा कुछ परेशान-सा बैठा हुआ था। दोनों की सांसें मानो कहीं से जान बचाकर भाग रही हों तेज़ी से अंदर-बाहर निकल रही थीं। चेहरे और बगल से पसीना बह रहा था और उनकी बदहवाशी को बयां कर था। इतना तय था कि वे दोनों डरे हुए थे और बुरी तरह परेशान थे। 

पर लोग तो परेशान ही रहते हैं। इसलिए मैंने अधिक ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा। लेटे लेटे शाम की बातें याद करने लगी।

रेल के हिचकोलों में रात गहरा रही थी। आधा रास्ता माँ के प्रवचन सुन के कट गया। थोड़ी देर बाद अचानक गाड़ी को सिग्नल न मिलने के कारण वह कुछ समय तक एक स्टेशन पर रुक गई। जगह काफी सुहानी थी और माँ के लिए सुनसान। 

 

अप्रैल का महीना उतरने लगा था। दिन गरमाने लगे थे। मौसम की बेईमानी धीरे-धीरे समझ आने लगी थी। दिन की गुनगुनी धूप रात के लिए कुछ मसमसाहट और चिपचिपाहट उधार छोड़ रही थी। पसीना बदन पर सुखकर कुनकुनाने लगा था और महक बोनस के साथ बाहर निकलने लगी थी। कुल मिलाकर कहा जा सकता था कि गर्मी का मौसम दस्तक दे चुका था।

इसी माहौल में छुट्टियों की महक के लिए अपने साज़ो-सामान के साथ माँ पीहर और मैं अपने ननिहाल के लिए निकल चुके थे। माँ ने ज़िद्द कर के मुझे सलवार क़मीज़ में कस दिया था। उनका कहना था कि सफ़र दूर का है और ज़माना बहुत खराब है। पर असल बात तो यह थी कि मेरे शरीर ने उम्र के परे जाकर बाहर झांकना शुरू कर दिया था। मैं अब चहकती हुई नहीं बल्कि छलकती हुई मालूम नज़र आती थी। मैं उम्र से ज्यादा बड़ी हो रही थी।  

मैंने भी उनका विरोध नहीं किया मन में खयाल आया ठीक ही कह रही हैं।

पापा फिर नहीं आ पाये। उनका काम इन दिनों ही बढ़ जाता है। पर माँ मुझे अपना ननिहाल दिखाना चाहती थीं। उनका कहना है कि इस समय सरकारी काम बढ़ जाते हैं। नहीं आए तो अच्छा ही है वरना रेल में भी अपनी राजनीति लेकर बैठ जाते। कम से कम इनकी बातों से मुक्ति तो मिलेगी! लेकिन माँ को नहीं पता था कि असल मुक्ति तो पापा को तोहफे में मिली थी।  

पापा ने हमें समय से कुछ पहले ही रेलवे स्टेशन पर पहुंचा दिया था और ढेर सारी हिदायतें देते हुए वो किसी न्यूज़ रीडर की तरह मुझे ज़माने भर की खबरें और उनके नतीजे बताते रहे थे। ये मत करना, बाहर मत जाना, ज़्यादा किसी से बात करने की जरूरत नहीं, माँ का ध्यान रखना, रात तक टी. वी. मत देखना(मामा के यहाँ), छुट्टियों का काम पूरा कर लेना... इतनी बातें! उनके कहने पर मन में उस समय बस यही बात फुदक रही थी कि गाड़ी कब चलेगी!

 

मैं अपनी सोलह बरस की उम्र के चश्मे से इस दुनिया को देख रही थी। ऊपर से इतनी सारी हिदायतों से उसमें दरार आ रही थी। मैं घर में भी अक्सर इसी तरह के साये में जीती हूँ। पर ननिहाल के नाम पर मन उछला था। स्टेशन की गहमा-गहमी कितनी अच्छी लग रही थी। कोई नन्ही चिड़िया जिसने अभी अभी अपने घोंसले की सीमा को पार कर दिया हो, जैसी रोमांचित थी मैं। आकाश के जैसे स्टेशन फैला हुआ था। यहाँ हर तरह की दुकान, हर तरह की आवाज़ और हर तरह के चेहरे थे। देखकर मन में खयाल आया, ‘इसे ही दुनिया कहते हैं। यही वो जगह और माहौल जिसे शहर कहा जाता है।

घर की चार दिवारों में सिमटे हुए घर में दुनिया सिर्फ़ घर का सामान और उसमें रह रहे कुछ लोग ही होते हैं। पर यहाँ तो मेरी आँखें चौंधियाँ गई थीं। मैं उस भीड़ को देख रही थी जिसका कोई चेहरा या सूरत नहीं थी। मैं उन आवाज़ों को सोख रही थी जिसे शहर शोर कहता है। मैं उस धूल और धुएँ को सूंघ रही थी जिसे प्रदूषण कहा जाता है।  

चाय की महक हो या अंडे के सिकने की गमक, नाक से लेकर कान तक को चालू रखने के लिए यहाँ सबकुछ था। माँ और पापा अपने घरेलू हिसाब को लेकर जद्दोजहद कर रहे थे। इतनी देर मैंने बाहर का मुआयना लेने की सोची। मुझे अपनी नज़रें सेंकनी थीं। बाद में मुझे इसका ब्यौरा अपने उसे भी तो बताना था। हाँ, मैं उससे कुछ दिन नहीं मिल पाऊँगी पर फोन नाम की चीज़ से उसे अपने संदेशे पहुंचाने का वादा कर के आई थी।  

मैंने पापा से घबराते हुए 'परमिशन' ली। उन्होंने कुछ पल सोचा कहा, “कहाँ जाओगी? रेलवे स्टेशन भी घूमने की जगह है!”

मैंने नज़रें ज़मीन में गढ़ाते हुए कहा, “मुझे चॉकलेट खाने का मन है।” इतना सुनकर उन्होंने मुझे रोका नहीं। बोले, “फटाफट लेकर आ जाओ।”

मैंने हाँ में सिर हिलाया।

मैंने एक दुकान का रुख किया। वहाँ मैंने सजी हुई चॉकलेट देखी तो जीभ में पानी न जाने कहाँ से उतर आया। मैंने दुकान की तरफ खुशी से क़दम बढ़ा दिये थे। तभी एक शोर मचा और माहौल में अफरा तफरी छा गई। अचानक मुझे पीछे से जबर्दस्त धक्का लगा और मैं मुंह के बल धड़ाम से गिरकर ज़मीन चाटने लगी।

“हाय राम!!...

बेइज्ज़ती हो गई। "किस कमीने ने मुझे गिरा डाला?...”

मैं घबराहट में अपनी धूल और खरोंचों के साथ इन अल्फ़ाज़ों को बोलते हुए उठने की कोशिश करने लगी। कुछ लोगों ने मुझे बांह पकड़ के सहारा भी दिया।

न जाने क्या हुआ था। मेरे गिरने के बाद न कोई शोर, न कोई शराबा। धड़-धड़ के साथ कुछ लोग भागे और क्यों भागे किसी को पता नहीं चला। मेरे साथ सब भौंचक्के बने देखते रहे। मैं बहुत घबरा गई। भीड़, जिसकी कोई शक्ल नहीं थी, आपस में बुदबुदाने लगी।

मैंने चॉकलेट का ख़्याल छोड़ा और वापसी का रुख किया।

अब तक माँ और पापा इस शोर से घबरा चुके थे।

मुझे देखते हुए ही माँ की आवाज़ तेज़ हो गई। पूछा, “क्या हुआ?”

मैंने उन्हें बिना देखे ही कहा, “पता नहीं पीछे से किसी ने धक्का दिया और मैं गिर गई।”

पापा बोले, “अब यहाँ कौन आतंकवादी आ गया!... कहीं भी चैन नहीं।”

मैंने इसी बीच पापा से पूछ लिया, “पापा आपको कैसे पता कि वे लोग आतंकवादी हैं?”

वो कुछ नहीं बोले और गुस्से से आँखें गरम करके वे बाहर की तरफ़ चल दिये।

मेरे मन में फिर से वही सवाल दुबारा आया, ‘रेल चल क्यों नहीं रही!

लगभग दस मिनट बाद पापा कुछ फल हाथ में लिए हुए लौटे। बोले, “कुछ लोग दो लोगों की तलाश में स्टेशन में घुस आए थे। कुल चार लोग हैं। कोई लड़का-लड़की भागे हैं। उन्हें वे लोग ढूंढ रहे हैं। अब उन्हें पुलिस ने पकड़ लिया है। घबराने की कोई ज़रूरत नहीं।”

जब माँ ने ये बातें सुनी तब फिर ज़माने की दुहाई दी। मेरे उभरते बदन को देखा और मुझे चुन्नी को ठीक से ओढ़ने की हिदायत दी। फिर थोड़ी देर बाद ख़ुद ही चुप हो गईं। मैंने झिझकती हुई नज़रों से सामने बैठे जोड़े को देखा और सोचा जाने यह क्या सोच रहे होंगे। लेकिन इस बार फिर वे घबराए हुए ही लगे।

मैं इसलिए सुकून से थी क्योंकि आख़िरकार रेल चले जा रही थी और माँ इसलिए बेचैन थी कि हो हल्ला हो गया था। उनकी जवान बेटी भी उनके साथ थी। ट्रेन में वक़्त गुज़ारने के लिए मैंने एक किताब जो इस उम्र की महक लिए हुए थी को, माँ की नज़रों से बचाकर अपने पास रख ली थी। मैंने अपनी क्लास की एक दोस्त से ज़िद्द करके उसे हासिल किया था। प्रेम कहानी वाली किताब। उस किताब के किरदार बस इंसान थे जिनका न तो कोई मज़हब था और न कोई ज़ात। पर वो गुनाहगार थे। सामाजिक गुनाहगार। वे प्रेमी थे।

ट्रेन में फीकी और डरी रंगत लिए बैठा नया कपल अपने में उलझा था। न तो वे दोनों कुछ खा रहे थे न कुछ पी रहे थे। मेरे मन में आया कि उनसे उनकी परेशानी का सबब पूछ लूँ। पर जब माँ का चेहरा देखा तो मेरी हिम्मत की धज्जियां उड़ गईं।

मैंने रात उनके बेइंतहा डरे-परेशान चेहरे को देख कर काटनी शुरू की। उन दोनों ने एक दूसरे के हाथों को कस कर पकड़ा हुआ था, बिलकुल मेरी किताब के प्रेम क़ैदियों की तरह। दोनों के चेहरे परेशान ज़रूर थे पर आँखों में कल के सपने भी मौजूद थे। उन्हें देखते-देखते लगभग तीन बजे मेरी आँख के पर्दे गिर गए। जब सुबह आँखों की दुकान खुली तो वो जोड़ा नदारद था।

बहरहाल स्टेशन पर मामाजी ने काफ़ी पहले आकर मोर्चा खोल दिया था। माँ को उन्होंने एक लंबा सा प्रणाम किया तो माँ गदगद हो उठीं। मैंने हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा अपनाई।

शाम को घर-बैठक जम गई थी। मुहल्ले के सब लोग माँ से मिलने आए थे। पूरा जमावड़ा लग चुका था। मुझे जबर्दस्ती बीच में बिठाकर रखा गया था। मेरे ज़िस्म का भराव उन लोगों की नज़रों तक पहुँच चुका था। सभी के पास मेरी शादी के लिए एक रिश्ता मौजूद था। मैं इस तरह के रिश्तों की महिमा सुन रही थी और साथ ही अपनी माँ के चेहरे की चमकीली चमक को भी देख के हैरान थी।

पर शुक्र है कि अंधेरा गहराया तो लोगों को अपने अपने घर जाने की याद आ गई। नहीं तो मेरी शादी की शहनाई ही बज जाती। आठ बजते-बजते घर पड़ोसियों से खाली हो गया। खाना खाकर मैंने सोने की इच्छा जताई तो मामाजी ने पढ़ाई का हालचाल जानने के लिए रोक लिया। मैं अभी उन्हें अपने पढ़ाई का हाल बताने ही जा रही थी कि साढ़े आठ बजे की समाचार की सुर्खियों में हम सब के कानों को अपनी ओर खींच लिया। “देश में फिर एक बार ऑनर कीलिंग का मामला सामने आया है। रेलवे स्टेशन पर एक जोड़े की सिर कटी लाशें मिलीं हैं और...।” मैंने आगे की ख़बर नहीं सुनी बस चुन्नी से अपनी छाती को ढका और सामने पड़े पानी के गिलास से एक घूंट अपने गले में उतार लिया।   

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