उस दिन की पिछली रात को ही एकांत के सौ वर्ष पढ़कर पूरा किया था और मैं लगातार उपन्यास के किरदारों के बारे में सोच रही थी। उसके लेखक (मार्केज़) के दिमाग के फैलाव और रचनात्मकता के बारे में सोच रही थी। कितना अलहदा लिखा है। इन दो बातों के बारे में सोच लेने के बाद उपन्यास में लेखक किस चरित्र के पीछे छिपा है यह भी सोचा। इसके बाद उर्सुला, अमारान्ता, रेबेका, रेमेदियोस, मेमे, सांता सोफिया, फेर्नांदा, पेत्रा कोतेस, पिलार तेर्नेरा जैसी औरतों के चरित्रों के बारे में सोचा। मुझे लगा कि मेरे दिमाग में एक खिड़की खुल गई हो। पुरुषों, खोसे आर्कादियो, ओरेलियानो, मेल्कियादस, पियत्रो क्रेस्पी, कर्नल ओरेलियानो, आदि एक जैसे नामों की पीढ़ी दर पीढ़ी उनके चरित्रों के एक जैसी विशेषताओं और विभिन्नताओं के बारे में सोचा। सबसे आखिर में यह सोचा कि लेखक को जरूर दिव्य पागलपन हुआ होगा। मुझे कब ऐसा पागलपन आएगा? यह बहुत अच्छा उपन्यास है और सभी को धरती को अलविदा कहने से पहले एक बार पढ़ना चाहिए।
इसके बाद मेरी एक दोस्त ने मुझे कैंटीन में एक और किताब दी। द काईट रनर। मैंने यह नाम पहले कहीं सुना था और तुरंत ही एक जुड़ाव का आभास हुआ। रात में जब किताब के कुछ पन्ने पलटे तब एक ही सांस में 25 पन्ने पी गई। किताब पूरी पढ़ ली है। और बहुत कुछ सोचने पर मज़बूर भी करती है। एक रिफ्यूजी की ज़िंदगी आखिर होती कैसी है? उसके दिमाग में 24 घंटें कितना कुछ तूफान उठा रहता है। भावनाओं का कटना सबसे भयानक होता है। यही भावना जब वतन से जुड़ी हो तो दर्द कुछ और बढ़ जाता है।
किताब अफगानिस्तान के बारे में है, हज़ारा मुसलमान के बारे में है, अपने देश से बाहर जान और जीवन के पीछे भागने के बारे में है, रूस के शीत युद्ध के दौरान अफगानिस्तान में किए गए अतिक्रमण के बारे में है, दो बच्चों की दोस्ती के बारे में है, एक पिता के अपने बेटे को बेटे के रूप में प्यार न कर पाने के बारे में है, कठिनाई के जीवन में भी अपने मेहमान को खाना खिलाने के बारे में है, तालिबान के क्रूरतम कृत्यों के बारे में है, लेखक की अपनी कमजोरी और उससे लड़ने के बारे में है, एक ईमानदार दोस्त के बारे में है.., सब कुछ है इसमें अफगानिस्तान का। प्यार, जीवन, शहर, गीत, मूल्य...सब कुछ तो है। मैं क्या क्या लिखूँ। आप अगर पढ़ चुके हैं तो बहुत अच्छी बात है। अभी तक नहीं पढ़ा है तो जरूर पढ़ें। मैं यहाँ बस थोड़ी झलक ही दूँगी।
सन् 1961 में एक फिल्म आई थी जो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रसिद्ध कहानी काबुलीवाला की कहानी पर आधारित थी। फिल्म का नाम भी यही रखा गया था। फिल्म वास्तव में एक संवेदनशील चित्र ही है। सबका ध्यान रहमत खान पर जरूर जाता है। रहमत अफगानिस्तान से है। रहमत इतना तो भारत के लोगों को बता ही देता है कि उसके देश के लोग कितने ईमानदार और अपनी मिट्टी से जुड़े हुए हैं। वहाँ की ज़मीन के लोगों में भी उसी तरह के भाव हैं जो भारत में है। रहमत अफगानिस्तान का एक ब्लैक एन्ड व्हाइट चेहरा है जो फिल्म के कई दृश्यों में रूला देता है।
भारत के एक हवाई जहाज का अपहरण कर कंधार में उतारा गया था। तब भारत के लोगों ने फिर से अफगानिस्तान को जाना था। अगर महाभारत में झाँकें तब गांधारी को उसी देश से पाते हैं। और भी कारण है कि अफगानिस्तान बहुत पराया देश नहीं हैं। उसी देश के तय अंतराल की कहानी यह उपन्यास कहता है। पहले हिस्से में 1979 से पहले के अफगानिस्तान की एक मनोरम छवि बच्चे की नज़र से पता चलती है। उसके बाद 1979 में रूस के अतिक्रमण और तालिबान के जुल्मों के सिलसिले आते हैं। इसके बाद उस अंतहीन दर्द का खुद में अनुभव होने लगता है कि इंसान कैसा बनता जा रहा है।
फिल्म के मुख्य किरदार आमिर और हसन है। हसन एक हज़ारा मुसलमान है जिनकी इज्जत बेहद कम हैं। हज़ारा मुसलमान शिया हैं इसलिए वे सुन्नियों की नफरत का शिकार हैं। हसन का बचपन में आमिर के सामने ही बलात्कार होता है और वह अपने डर के चलते उसे बचा नहीं पाता। उसे यह बात उम्र भर कचोटती है। उसे ताउम्र उन सब कमजोरियों का सामना करना पड़ता है जिन्हें उसने अपने पर क़ाबू होने दिया।
उपन्यास की कहानी में फिर रूस और उसके सैनिक दाखिल होते हैं। आपको इस हिस्से को पढ़कर गुस्सा आएगा। बहुत गुस्सा। कैसे आप किसी के देश में घुसकर वहाँ के लोगों पर कब्ज़ा कर सकते हो? यह कौन सी शक्ति है? आप क्यों लेनिनवाद, लालवाद, स्तालिनवाद और पता नहीं क्या क्या समझते हुए भी किसी दूसरे देश को अपने हजारों सैनिकों के चलते उजाड़ने चलते हो? सभी को शीत युद्ध के बारे में पता है। दुनिया के दो ध्रुवों में बंटने का खामियाजा हजारों निर्दोष लोगों ने उठाया है।
अव्यवस्था के माहौल में लाखों लोग बेवतन हो जाते हैं और अपनी पड़ोसी मुल्कों में शरण पाते हैं। किताब का लेखक बहुत ही सलीके से आपकी उंगली थामकर साथ ले जाकर हर दृश्य दिखाता है। यह भी इस किताब की खासियत है। तालिबान के सन् 1996 में अफगानिस्तान में प्रकट होने के बाद वे इतने कट्टर बन गए कि पतंग उड़ाने पर भी उन्हों ने रोक लगा दी। इसके अलावा हज़ारा मुसलमानों पर फिर से अत्याचार बढ़ा ही साथ ही साथ औरतों पर भी बहुत कट्टर कानून लागू किए गए। इसके अलावा लोगों को पत्थर मार मार कर मारने से भयावह कृत्य भी सामने आए। इसके अलावा भयावह यह भी कि यतीमों की संख्या में इजाफा हुआ। युद्ध में पिताओं के मरने के बाद बच्चों की माएँ उन्हें यतीमख़ानों में छोड़ने के लिए मज़बूर हो गईं।

मानव समाज की इससे बड़ी क्या तरसादी होगी कि एक नस्ल इंसान होते हुए भी वे एक दूसरे को मार रहे हैं। इनमें बच्चों का क़त्ल भी शामिल है। चैन की ज़िंदगी का हक़ एक सपना बनकर रह गया है। अमीर लोग शरणार्थियों में बदलने के लिए अनुकूल होते हैं, ऐसा इस उपन्यास को पढ़ते हुए पता चला। जिनके पास साधन हैं वे भयानक परिस्थितियों से बचने की योग्यता रखते हैं। उपन्यास का नायक और उसके पिता अमरीका पहुँच गए पर हसन नहीं जा पाता क्योंकि उसके पास कुछ ऐसा नहीं है जो उसमें अफगानिस्तान के बॉर्डर को पार करने की शक्ति भर दे या फिर उसके पास अधिकारियों को खिलाने के लिए रुपये होते। गरीब वहाँ या तो भिखारी बनेगा या फिर मौत का स्वाद चखेगा।
अंत में उपन्यास हसन के मारे जाने पर आमिर द्वारा उसके बेटे सोहराब को तालिबान से छुड़ा कर अमरीका ले जाने पर समाप्त होता है। इस उपन्यास में एक अनाथ बच्चा किस तरह से अपनी ज़िंदगी से प्रताड़ित होता है यह पता चलता है। उसका बलात्कार होना और फिर अनाथालय में जाने के भय से आत्महत्या की कोशिश पाठकों को उस सच्चाई की धरती पर पटक देती है जहां पाठक भी सोहराब के दर्द को जीता है और उसके बचने की दुआ करता है। ज़रा फर्ज़ कीजिये उन बच्चों के जीवन के बारे में जिनके माँ बाप युद्ध या आतंक के शिकार हो गए हैं और वे अनाथालय में बस अपनी जिंदगी को रगड़ रहे हैं। मौत से भी बदतर हालात हैं। खाने को खाना नहीं ऊपर से उनका शोषण...यही है बचपन। नायक, आमिर एक जगह कहता भी है- "अफगानिस्तान में बच्चे तो हैं पर बचपन नहीं है।"
उपन्यास में सबसे आखिर में बहुत महत्वपूर्ण औपचारिक नोट है। पलायन के दिनों में लगभग 80 लाख लोग विदेशों में शरणार्थियों के रूप में रह रहे हैं। 20 लाख से अधिक अफगानी पाकिस्तान में पनाह लिए हुए हैं। 2002 में संयुक्त राष्ट्र मदद से करीब 50 लाख लौटे हैं। फिर भी लेखक खालिद हुसैनी के मुताबिक हालात बेहतर नहीं है। और भी जानकारी है जो किताब में मौजूद हैं। खुद पढ़ेंगे तो बेहतर जान पाएंगे। किताब पर फिल्म भी बनी है। वह भी देखि जा सकती है।
मेरे एक दो दोस्त ऐसे हैं जो दिल्ली शहर में रहने वाले अफगानी बच्चों को संस्था खोल कर पढ़ा रहे हैं। मैं अभी तक उन बच्चों से मुलाकात नहीं कर पाई हूँ। वहाँ भारत के गरीब बच्चे और अफगानी बच्चे दोनों ही आते हैं। मेरे एक दोस्त के मुताबिक बच्चों की नस्ल एक ही होती है और वह है- बचपन। इसलिए उनमें क्लास रूम में वैसे ही लक्षण दिखाई देते हैं जैसे कि बच्चों में होते हैं। माँ बाप गरीब हैं। इसके अलावा रहने खाने में छोटी कमाई का बहुत बड़ा हिस्सा चला जाता है और बचा हुआ हिस्सा बीमारी में दवा आदि में जाता है। पर कुल मिलाकर वे सुरक्षित हैं और खुश भी रहते हैं। हालांकि उन्हें उन तमाम तरह की परेशानियों से दो चार तो होना ही पड़ता है जो दूसरे मुल्कों में रहने के दौरान आती हैं।