Friday, 28 October 2016

चलती हूँ, बस आ गई

चिराग दिल्ली में दिल्ली का एक अलग ही चेहरा देखने को मिलता है। मुझे उसके आसपास के इलाक़ों की कोई खास खबर नहीं लेकिन बस स्टॉप की हल्की फुल्की खबर जरूर है। जी हाँ ऐसी जगह जो सबके लिए है पर कोई भी वहाँ रुकने के लिए नहीं ठहरता। चिराग दिल्ली को मैं मस्जिद मोड़ कहकर पुकारती हूँ पर बस स्टॉप पर मस्जिद मोथ लिखा गया है। सरकारी शब्दावली है सो मैं खुद को ही गलत कह कर शांति से बैठ जाती हूँ। यहाँ पर लगने वाला 'ट्रैफिक जाम' सभी को जम कर मज़ा देता है। ये जाम कभी नहीं देखता कि आप गरीब हो या अमीर। आप बे-कार हो या फिर बेकार। औरत हो या आदमी, सभी को बराबर की प्रताड़ना देता है। बस स्टॉप एक ऐसी जगह है जहां सभी को जल्दी है। शहर है ही ऐसी बला जो किसी को सांस नहीं लेने देता। कई बार मैंने गौर किया है कि लोग कुछ इस क़द्र जल्दी में होते हैं कि ऑक्सिजन लेने की बजाय कार्बन डाय ऑक्साइड अपने अंदर उतार लेते हैं। गजब है हम लोगों की ज़िंदगी भी।

                                                 चलती का नाम गाड़ी - सौजन्य गूगल

हुआ यह था कि मैं एक ख़ास नंबर की बस के इंतज़ार में थी। इस नंबर की बस के बारे में यह कहा जाता है कि इसकी सर्विस बहुत अच्छी है। मिनट मिनट में आती हैं। सो मैं पिछले 20 मिनट से इस बस का कमाल देख रही थी। दो बस आई थीं। लेकिन एक लाल वाली थी तो सोचा खामखां ज़्यादा पैसे खर्च होंगे और एसी का मज़ा भी नहीं मिलेगा। सो छोड़ दी बस। जब हरी बस आई तब उसके ऊपर लोगों के लटकने के करतब को मैंने देखना ही बेहतर समझा। मन से कहा कौन सी मीटिंग में जाना है। आराम से खाली बस में जाएंगे। सीट भी मिल जाएगी।

इस बीच हर तरह के लोग यहाँ बस का इंतज़ार करते हुए दिखे। सभी की नाक, आँख, हाथ पैर, सब कुछ एक जैसा था पर सभी के चेहरे अलग थे। मैं तब से यही गौर कर रही थी। तभी एक मेट्रो फीडर बस आई जिसने अल्प समय के लिए मेरा मनोरंजन किया। अक्सर इन बसों में 16 से 17 साल के बच्चे 'हेल्परी' का काम करते हैं। सवारी को कैसे अपनी बस में ले जाना है, का हुनर ये सब बिना किसी पेशेवर कोर्स के किए ही सीख लेते हैं। इनका सबसे मजबूत पक्ष तरह तरह की आवाज़ें निकालना होता है। ये सवारी को ऑन द स्पॉट ऑफर दे देने की क्षमता रखते हैं। ये ऑफर रूट को लेकर होते हैं। जैसे फीडर घूम कर जाएगी या फिर सीधे फ्लाय ओवर के ऊपर से जाएगी। जिसको ऑफर पसंद आता है वह चढ़ जाता है। लेकिन सुबह दफ्तरी का वक़्त हो या फिर शाम को घर लौटने का, तब कोई इतना नहीं सोचता। बस इस फीडर में कैसे अपनी जगह बना ली जाये और सफर लायक खड़े होने की 'पॉजीशन' बनाने का हुनर आना चाहिए तब आप इस शहर को समझिए की कुछ कुछ समझ रहे हैं वरना तो शहर ही समझा देगा। बढ़िया से।

                                            बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ- सौजन्य गूगल

सुबह और शाम के समय 'यातायात के संसाधनों' का महत्व मुझे तब बेहतर समझ आया जब घर से बाहर के टीचर यानि इस दुनिया से मुलाकात हुई। ज़रा बस स्टॉप के पीछे खड़े होकर भीड़ से अपने को अलग करने पर 'भागदौड़ से लेकर भगदड़' तक की शब्दावली समझ आ जाती है। सब कुछ धरा का धरा रह जाता है। क्या शिष्टाचार है। कौन औरत है और कौन बुजुर्ग... सब एक दूसरे को धक्का देकर आगे जाना चाहते हैं नहीं बल्कि बस में अपनी अपनी जगह तय करना चाहते हैं। बच्चों की इसमें क्या बिसात।...मेट्रो की बात भी कर ली जाए तो बेहतर होगा। मेट्रो वह हाई टेक गाड़ी हाई जो सवारी को भी हाई वाला टेक देती है। लेकिन सुबह और शाम को वह भी पस्त हो जाती है। जी हाँ पढे लिखे लोग भी कुछ अलग अंदाज़ में पेश आते हैं। घटना नहीं घटा करतीं। अब तो दुर्घटना न घटे तो मालूम ही नहीं चलता कि वास्तव में सफर किया है।

                                                    पढ़ाकू लोग-सौजन्य गूगल

लेकिन इस सब से जुदा एक और तस्वीर है जो मुझे बहुत पसंद है। डीटीसी (दिल्ली परिवहन निगम) की एक पुराने वर्जन की बस है जो अपने चलने की खबर कुछ मीटर पहले से ही दे देती है। इसी बस पर एक लाइन लिखी रहती है जिसे मैं सन् 2009 से आजतक एक ही तरह से पढ़ रही हूँ। 'डीटीसी-50 वर्षों से आपकी सेवा में" पंक्ति पढ़कर सच में गजब का एहसास होता है। कॉलर ऊंची होती है। ये बसें लॉ फ्लोर वाली बसों से ऊंची हैं। जब इसकी खिड़कियाँ खुली हों तब हवा जो छू कर जाती है तमाम तरह के अहसासों से भर देती है। जाती हुई गर्मियों और आती हुई सर्दियों के बीच के दिनों में 'इंडिया गेट' के पास से जब यह बस आपको लेकर गुजरती है तब वास्तव में जीने का थोड़ा और मन करने लगता है। लगता है कि वक़्त में ठहराव आ जाए। कुछ पल ठहर जाया जाये। एक ऐसा नज़ारा उभरता है जहां रोशनियाँ हँसती हैं। हवा भी बातें करती हैं। लोग अपने परिवार के पास वहाँ टहल रहे होते हैं। तब एक और पंक्ति दिमाग में आती है कि ज़िंदगी वास्तव में उतनी बुरी भी नहीं।


अभी के लिए इतना ही। मैं जाती हूँ। बस आ गई।    


Thursday, 27 October 2016

सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां तराना लिखने वाले इक़बाल से मिलिये

काफी दिनों बाद ब्लॉग पर 'कम बैक' करना हो तो किसी शायर को लेकर लिख लेना अच्छा है। पिछले दिनों 'मीर' से मुलाक़ात करवाई आज इक़बाल से मिलने का मन हुआ सो उनकी ही कुछ रचनाओं को पढ़ रही थी। मन जितना 'मीर' को पढ़कर खुश हुआ था उतना इक़बाल को पढ़कर नहीं हुआ। लेकिन कुछ शायरी पर ध्यान जाना वाजिब था।
बचपन से एक गीत बहुत ही ज़ोर शोर से सुना और स्कूल ने उसको दिमाग में खूब करीने से पिरोया। हम्म...आप भी जानते हैं कि वह कौन सा गीत है। अरे वही वाला न :-

     "सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
                       हम बुलबुले हैं इसकी ये गुलिस्तां हमारा
गुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में
                     समझो वहीं हमें भी दिल हो जहां हमारा..."

मुझे बस दो ही लाइनें याद हैं इस पूरे तराने की। आगे याद करने के बारे में कभी गौर भी नहीं किया। मन भी न हुआ। इसे तराना-ए-हिन्द भी कहकर पुकारा जाता है।

इक़बाल का ही लिखा एक शे'र मुझे क्या सभी को याद है और लोग मौक़े और बे मौक़े पर इसका इस्तेमाल भी करते हैं। याद आया?...अरे वही वाला:-

"ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले 
ख़ुदा बंदे से पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है"

(रज़ा-मर्ज़ी)

इसका गज़ब मतलब मैंने खुद से ही कर लिया था। मुझे अपने स्कूली जमाने तक ख़ुदी कोई वस्तु ही मालूम होती रही और मैं यही सोचती थी कि किसी चीज को ऊंची आवाज़ में पुकारना होगा और आसमान में बैठा हमारा भगवान आएगा और हमें वही देगा जो हम मांगेंगे। मैंने यही सोचा था कि आएंगे तो चॉकोलेट ही मांग लूंगी और माँ के लिए गुलाबी साड़ी। दो ही चीज काफी है। बाकी चाहिए भी नहीं। खैर अब थोड़ा बहुत इस शे'र को समझ पाई हूँ। शायद आगे कभी अपने उपलब्ध दिमाग को लगाकर और भी समझूंगी।

इक़बाल साहब का नाम काफी लोकप्रिय तो है ही लेकिन उनकी लिखी कई रचनाएँ भी उनकी लोकप्रियता से आगे निकल गई हैं। मैंने अपने आसपास ऐसे कई कट्टर हिन्दू लोगों को देखा है जो अपने को ख़ालिस हिन्दू घोषित करते हैं और बिना जाने कि  सारे जहां से अच्छा गीत किसने लिखा है, को गाहे-बगाहे गाते रहते हैं। यह उनकी देशभक्ति को मूर्त रूप भी देता है। मुझे अच्छा लगता है। उन्हें नहीं पता कि यह गीत किसी मुसलमान ने लिखा है। एक बार मैंने ऐसे ही किसी शख़्स को बातों बातों में यह बता दिया। वे कुछ देर मुझे देखते रहे फिर जाने क्या सोच कर बोले, 'गुड़िया तू अभी छोटी है। तुझे अभी ठीक से नहीं पता होगा।' मैंने इसके बाद उन्हें कुछ न कहा और हमेशा की तरह मुस्कुरा दी।

कुछ दिनों बाद जब वो वापस मुझे मिले तो मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोले, 'जाने दे गुड़िया...गाना किसी ने भी लिखा है। लिखा तो अपने हिंदुस्तान के लिए ही है।' मैंने इस बार भी कुछ नहीं कहा और उनके लिए चाय बनाने के काम में मुसकुराते हुए लग गई।

मैं अब जब उनसे मिलती हूँ तो उनके अंदर उस कट्टर हिन्दू को नहीं पाती। उन के पास बैठकर अब सूफियाना सा अहसास होता है। जैसे वह किसी में लीन हो रहे हों धीरे धीरे। अब वो सारे जहां से अच्छा तराना भी नहीं गुनगुनाते न ज़्यादा बातचीत में रहते हैं। उनके घर में छोटे छोटे बच्चे हैं जिन्हें वे कई बार पढ़ाने को कहते हैं। एक दिन उनका तीन बरस का पोता शुरुआती क़ायदा लेकर मेरे पास आया। मैंने पेज पलटते ही फिर इक़बाल को पाया और मैंने पढ़कर सुनाया। कुछ ऐसा ही लिख गए हैं इक़बाल।

                                             रात के समय इक़बाल का मकबरा(लाहौर), सौजन्य इंटरनेट

ब्रिटिश भारत में जन्म लेने वाले इक़बाल साहब का जन्म सन् 1875 को बताया जाता है। उन्हों ने फ़ाइन आर्ट की पढ़ाई की थी और 1899 में उन्हों ने दर्शन शास्त्र में पंजाब विश्वविद्यालय से मास्टर भी किया। इन्हें अरबी, उर्दू, फारसी और अंग्रेज़ी का अच्छा इल्म हासिल था।

अपने नौजवानी के दिनों में ही ये काफी मशहूर हो गए थे। उन्हीं दिनों में इनके द्वारा कहा गया ये शे'र बहुत चर्चा में रहा:-
  "मोती समझ के शाने-करीमी ने चुन लिए 
कतरे जो थे मेरे अर्क़-इन्अफाल के"

(शाने-करीमी-दया की शान या भगवान, अर्क़-इन्अफाल-पछतावे के कारण आए पसीने की बुँदे) 


इसके बाद के दिनों में उनके जीवन में कई पड़ाव आए और गुज़रे। उन्हों ने फारसी भाषा में खूब लिखा और भारत से बाहर ख्याति प्राप्त की। अंग्रेज़ी सरकार ने इन्हें भी 'सर' की उपाधि से नवाज़ा था। फारसी भाषा में असरारे-ख़ुदी और जावेदनमा इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। एक शायर या विचारक की हैसियत से इकबाल ऊंचे पायदान पर खड़े हुए मालूम देते हैं जैसे फारसी की एक नज़्म का नमूना देखिये:-

ख़ुदा इंसान से -
मैंने मिट्टी और पानी से एक संसार बनाया 
तूने मिश्र,तुर्की, ईरान और तातार बना लिए
मैंने धरती की छती से लोहा उत्पन्न किया 
तूने उससे तीर, खंजर, तलवारें और नेज़े ढाल लिए 
तूने हरी शाखाएँ काट डालीं और फैलते हुए पेड़ तोड़ गिराए 
गाते हुए पक्षियों के लिए तूने पिंजरें बना डाले  

इंसान ख़ुदा से -
तूने, ऐ मेरे मालिक ! रात बनाई, मैंने दीये जलाए
तूने मिट्टी उत्पन्न की, मैंने उससे से प्याले बनाए
तूने धरती को वन, पर्वत आउट मरुस्थल दिये
आईने उसमें रंगीन फूल खिलाये, हँसती हुई वाटिका सजाईं 
मैं विष-तिर्याक बनाता हूँ और पत्थर से आईना 
(ऐ मालिक सच बता, तू बड़ा है या मैं ) 

(यह हिन्दी अनुवाद है)

सन् 1938 में इनका देहांत हुआ। लेकिन इनकी शायरी का नहीं। आज मेरी भी तबीयत कुछ नासाज़ है इसलिए इक़बाल की लिखी कुछ लाइनों का साथ आपको दिये जाती हूँ।

पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है 
ख़ाके-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है

शक्ति भी शांति भी भक्ति के गीत में है
धरती के वासियों की मुक्ति परीत में है
(परीत-प्रीत)

दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब
क्या लुत्फ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो
(अंजुमन-सभा)

हर दर्दमंद दिल को रोना मेरा रुला दे
बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगा दे


मरने वाले मरते हैं लेकिन फ़ना होते नहीं
ये हक़ीक़त में हमसे कभी जुदा होते नहीं

दिल से जो बात निकली है असर रखती है
पर नहीं, ताकते-परवाज़ मगर रखती है

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मदद ली है - इक़बाल और उनकी शायरी किताब से
लेखक- प्रकाश पंडित व इंटरनेट और आसपास के लोगों के बयान से   


Saturday, 22 October 2016

याद बैंक


 
 
रटना याद करना नहीं होता। याद तो वह है जिसे भुला नहीं जा सकता, जो ज़ेहन में बस जाता है, यह गणित का कोई सूत्र नहीं होता, यह कोई रसायन विज्ञान का तत्व नहीं होता। याद में कुछ भी समाहित हो सकता है। किसी अजनबी का चेहरा भी हो सकता है, किसी दुर्घटना का दर्द भी हो महसूस हो सकता है। कर्म और कुकर्म से जुड़ा पछतावा और खुशी भी शामिल हो सकती है। याद में पहला प्यार हो सकता है या अधूरे प्यार की पूरी कहानियाँ भी मिल सकती है। याद में 'वाद' की जगह नहीं है पर अगर कोई किसी चिंतन विचारधारा से जुड़ा हुआ है तब 'यादवाद' से इसे समझा जा सकता है। कम्प्युटरधारियों के लिए किसी खाते का भूला हुआ पासवर्ड याद की गुफ़ा में ले जा सकता है। और भी बहुत कुछ है याद में। मैंने अपने 'याद बैंक' से यह कविता आज केश की है। 
 
 
 
हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाएंगे,
कनक तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जायेंगे
 


हम बहता जल पीने वाले
मर जायेंगे भूखे प्यासे,
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक कटोरी की मैदा से


स्वर्ण श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले,
बस सपनों में देख रहे हैं
तरु की फुनगी पर के झूले


ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने,
लाल किरण सी चोंच खोल
चुगते तारक अनार के दाने


होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा होड़ी,
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सांसों की डोरी


नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न भिन्न कर डालो,
लेकिन पंख दिए हैं, तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो

(शिवमंगल सिंह 'सुमन')
 
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सभी चित्र गूगल से लिए गए हैं- आभार 

Thursday, 20 October 2016

अगर आज 'मीर' होते तो मुझ पर नाराज़ होते

मुझे लगता है कि मैं खुशकिस्मत हूँ। कुछ किताबों के साये को अभी भी पी लेती हूँ। ऐसा ही लगा जब मीर से जुड़ी एक छोटी और पतली सी किताब हाथ आ लगी। मुझे उर्दू और फारसी के बारे में तनिक भी जानकारी नहीं इसलिए बाक़ी शायरों को पढ़ने में दिक्कतों से मुलाकात हो जाती है। लेकिन जब मीर साहब को पढ़ा तो नासमझी की बहुत तकलीफ नहीं हुई। किताब मुझे अच्छी मालूम हुई तो थोड़ी बहुत मीर के बारे में जानकारी इंटरनेट से जुटाकर इस पोस्ट को लिखने का खयाल और लालच आया। चलिये मिलते हैं-


उल्टी हो गयी सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया 
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया 
अहदे-जवानी रो-रो काटा पीरी में लों आंखें मूंद 
यानी रात बहुत जागे थे सुबह हुई आराम किया
नाहक़ हम मजबूरों पर यह तोहमत है मुख़्तारी की 
चाहते हैं सो आप करें हैं हमको अबस बदनाम किया 
यां के सफ़ेदो-स्याह में हमको दख्ल जो है सो इतना हो
रात को रो-रो सुबह किया और दिन ज्यूँ-त्यूँ शाम किया
'मीर' के दोनों-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो 
  कश्का खैंचा दैर में बैठा कब तक तर्क इस्लाम किया  


कुछ ऐसा ही अंदाज़ था मक़बूल शायर मीर तक़ी मीर का। मीर तक़ी मीर अगर आज होते तो शायद मुझ पर बेहद नाराज़ होते और अपने पर ज़रा भी लिखने नहीं देते। उनके मिजाजी के क़िस्से बेहद मशहूर हुए और आज भी लोग उनका ज़िक्र किया करते हैं। अपने समय के वह महान शायर कहे जाते हैं। वे थे भी। मैंने उनकी कुछ रचना पढ़ी तो मैं उनको पढ़ती गई। हालांकि मैं उर्दू और फारसी के बहुत से शब्दों से अजनबी हूँ पर इंटरनेट और एक दो किताबों से मदद लेकर थोड़ा सा ही शायर 'मीर' को जान पाई हूँ। किताब से मुझे यह जानकारी मिली की वह दुख-दर्द और करुणा के शायर हैं। उनकी लिखी रचनाओं को भी हिन्दी फिल्मों में खूब जगह मिली है और वे गीत आज भी सदाबहार की पंक्ति में पाये जाते हैं।

                                                                फ़ोटो गूगल से साभार
                                                       
मीर को पढ़कर (थोड़ा सा) लगता है कि अगर वे आज होते बिना डरे और भी बहुत मजबूती के साथ कलम उठाते।  बेबाकी उनकी शायरी में बहुत अच्छी तरह से समझ आती है। इनका जन्म मुग़ल समय के शहरों के शहर आगरा में सन् 1724 को बताया जाता है। इस तारीख को लेकर चिंतकों में काफी मतभेद भी है। कई लोग कहते हैं कि मीर ने लंबी उम्र पाई थी इसलिए वे उनकी उम्र 100 वर्ष भी बताते हैं। लेकिन यदि कुछ प्रचलित बातों पर गौर किया जाये तो मीर की उम्र 88 साल बताई जाती है। जी हाँ, ये मशहूर शायर इतने लंबे समय तक जीया और उर्दू के साथ साथ फारसी साहित्य को भी अपने लेखन से काफी रौनक बख़्शी।


औरंगज़ेब के बाद के शासक हिंदुस्तान में राज कर रहे थे। मीर का भी यही समय था। मीर के समय का हिंदुस्तान काफी उथल-पुथल वाला शहर था। इन्हीं के समय में भारत पर कई दहशत भरे हमले हुए जिनमें अहमद शाह अब्दाली और नादिर शाह के दिल्ली में हुए भयानक हमले शामिल हैं। खुशवंत सिंह के चर्चित अंग्रेज़ी के उपन्यास 'दिल्ली' में मीर और इन दो विदेशी हमलावरों का दिलचस्प और गहराई के साथ वर्णन है। मीर के बारे में लेखक ने अलग से पूरा अध्याय रचा है और उनकी निजी ज़िंदगी पर अच्छी रोशनी डाली है। मीर के जीवन में भी दिल्ली जैसी ही अफरा तफरी की एक झलक दिखाई देती है। वे एक जगह बहुत खूबसूरती से लिखते भी हैं:-

                                      हमको शायर न कहो  मीर कि साहिब हमने
                                      दर्दों-गम कितने किए जमा तो दीवान किया

मीर ने अपने जीवन परिचय को 'ज़िक्रे-मीर' नामक फारसी भाषा की किताब के रूप में रचा है। यह किताब बहुत जगह तो उपलब्ध नहीं है फिर भी अगर कोशिश में खोजने का जज़्बा मिला दिया जाये तो हासिल की जा सकती है। (मेरे पास नहीं है अभी) मीर साहब के हुलिये के बारे में दर्ज़ है कि:-

'मीर साहब मियाना क़द, लागर-अंदाम (दुबले-पतले), गंदुमी (गेहूंआं) रंग के थे। हर काम मतानत (धैर्य) और आहिस्तगी के साथ किया करते थे। बात बहुत कम, वह भी आहिस्ता से। आवाज़ में नरमी और मुलाइमियत थी। ज़ईफ़ि ने इन सब सिफ़तों को और भी क़वी (बढ़ाया) किया।'

चूंकि मीर की तुनकमिज़ाजी  भी उन्हीं की तरह मक़बूल रही सो इस बात पर भी कई शेर पढ़ने को मिलते हैं जो उनके समय के बाक़ी शायरों ने कसे थे। जैसे :-

पगड़ी अपनी संभालिएगा 'मीर'
और बस्ती नहीं, ये दिल्ली है

जाने अनजाने आज मीर का ज़िक्र इसलिए भी कर रही हूँ कि मीर को पढ़ा नहीं बल्कि अपने में जज़्ब किया जा सकता है। इसके अलावा कोई रास्ता मुझे नहीं सुझा। उनकी जुबां के शब्दों में बहुत आम और रोज़मर्रा के लफ्ज सुनाई पड़ते हैं। आज मुझे उर्दू-फारसी जुबानों के शब्दकोश की ज़रूरत पड़ रही है पर उस समय यकीनन जुरुरत नहीं  पड़ती होगी। मीर को दिल से सुना या पढ़ा जा सकता है। मीर हर किसी के नजदीक जाने में सफल हुए से लगते हैं:-

यूं उठे आह गली से हम
जैसे कोई जहां से उठता है

आतिशे-इश्क़ ने रावन को जलाकर मारा
गर्चे लंका सा था उस देव का घर पानी में

इस तरह के बेमिसाल शायर का निधन सन् 1810 को बताया जाता है। लेकिन मीर आज भी अपनी रचनाओं से महकते हैं। आज भी पत्ता पत्ता बूटा बूटा उनका हाल जानना चाहता है। जाते जाते आपको मीर की कुछ रुबाइयों और शायरी के तोहफे दे जाती हूँ। आइये बैठिए।

शायरी-

गुल ने हरचंद कहा बाग़ में रह, पर उस बिन
जी जो उचटा तो कीसू तरह लगाया न गया
'मीर' मत उज्र गरेबाँ के फटे रहने का कर
जख्मे-दिल, चाके-जिगर था कि सिलाया न गया

(उज्र- बहाना, चाके-जिगर- कलेजे का छेद)     

इधर से अब्र उठकर जो गया है
हमारी ख़ाक पर भी रो गया है
मुसायब और भी थे पर दिल का जाना
अज़ब इक सानहा सा हो गया है
सिरहाने 'मीर' के कोई न बोलो
अभी टूक रोते-रोते सो गया है   

(अब्र-बादल, मुसायब- मुसीबतें, सानहा-दुर्घटना)

मुहब्बत ने खोया खपाया हमें
बहुत उसने ढूंढ़ा न पाया हमें

जागना था हमको सो बेदार होते रह गए
कारवां जाता रहा हम हाय सोते रह गए
जी दिये बिन वह दुरे-मक़सूद कब पाया गया
बेजिगर थे 'मीर' साहब जान खोते रह गए  

(दुरे-मक़सूद- मनचाहा मोती)

चाहत का इज़हार किया सो अपना काम खराब हुआ
इस परदे के उठ जाने से उसको हम से हिजाब हुआ

(हिजाब-शर्म)

रूबाइयाँ

अल्लाह को ज़ाहिद जो तलब करते हैं
जाहीर तक़वा को किस सबब करते हैं
दिखलाने को लोगों को है दोनों की सलाह
पेशे-अंजुम नमाज़े-शब करते हैं

(तक़वा-पवित्रता, पेशे-अंजुम-सितारों के सामने, नमाज़े-शब- रात की नमाज़)

हम 'मीर' से कहते हैं तू न रोया कर
हंस खेल के टूक चैन से भी सोया कर
पाया नहीं जाने का वो दुरे-नायाब
कुढ़-कुढ़ अबस जान को मत खोया कर

(दुरे-नायाब- न हासिल हो सक्ने वाला मोती)

हर रोज़ नया एक तमाशा देखा
हर कूचे में सो जवाने-रअना देखा
दिल्ली थी तिलिस्मात कि हर जागह 'मीर'
इन आँखों से हमने आह क्या-क्या देखा

( जवाने-रअना- सुंदर नौजवान)

 

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किताब-'मीर' तक़ी मीर
सं- प्रकाश पंडित 
प्र-राजपाल
   व
इंटरनेट की मदद ली 

Tuesday, 18 October 2016

खोज

यह बहुत बड़ी गलतफहमी है कि हम जागे हुए हैं। लंबी-गहरी नींद और आलस का बड़ा टुकड़ा थमा देने वाली रोज़मर्रा जितनी शरीफ दिखती है वह उतनी होती नहीं। सुबह घर से तैयार होकर निकलना, धक्के खाना, काम करना, लंच खाना, पानी पीना, घड़ी देखना, वापस घर आना और फिर सो जाना, यही है एक ज़िंदगी का उदाहरण। फिर ...सनडे के दिन को गिन लेना भी तो जरूरी है। वरना उसे भी शिकायत होगी और हमें भी।

फिर भी क्या यही सब के लिए मैं यहाँ हूँ?????



कभी कभी ऐसा लगता है कि पहले से ही एक मुनासिब रास्ता चुनकर आई हूँ। ये रोज़ रोज़ की ज़िंदगी ही मिलने नहीं दे रही तय और मुनासिब रास्ते से। यही है जो टूटी हुई शख़्सियत में मुझे तब्दील कर रही है।

फिर भी मैं उसे खोज रही हूँ। वह शायद सामने ही किसी अखबार की तरह फ़ोल्ड हुआ पड़ा है, शायद वह चाय के खाली कप में भी हो सकता है। नहीं। शायद बालों को सुलझाने वाली... दस रुपये वाली कंघी में कुछ टूटे हुए बालों के रूप में भी हो सकता है, ...नहीं नहीं शायद पानी के स्टील वाले गिलास में कहीं पानी के अंदर घुलमिल के पड़ा हो। पहचान की भी कितनी मेहनत है।

 ...एक न एक रोज़ पहचान ही लूँगी अपना मुनासिब रास्ता।

Monday, 17 October 2016

दादीजान का मशविरा- लोहे की कढ़ाई

मैं जब पाँचवीं कक्षा में पढ़ती थी। इस उम्र में बाहर जाने के ढेरों मौक़े मिला करते थे। खासतौर पर छोटी बड़ी खरीददारी के दौरान। अगर कोई बाहर अपने साथ ले जाने को राज़ी नहीं होता था तब मेरा एक ही हथियार होता था। घर के फर्श पर लोट-लोट कर खूब रोना और तब तक चुप न होना जब तक कि राजीनामा न मिल जाये। जैसे ही 'हाँ' होती मैं झट से खड़ी होकर खुश हो जाया करती।

घर से बाहर की दुनिया मेरे लिए हमेशा ही मज़ेदार और फायदेमंद रही है। ऐसा ही सब के साथ होता है शायद।

ऐसे ही एक दफा बड़ी रोचक और प्यारी दादीजान से मुलाकात हुई थी। पापा के साथ उनके किसी दोस्त के घर जाना हुआ था। हमें स्कूल का बस्ता खरीदना था। चटकनी वाला। क्लास की एक दोस्त शमा परवीन को चटकनी वाला बस्ता दिलवाया गया था। सो मैं कैसे पीछे रह सकती थी। बहुत ज़िद्द कर के पापा को मनाया था। छुट्टी का दिन तय किया गया था बस्ता खरीदने के लिए।

जब बस्ता खरीद लिया गया और क्रीम वाली आइसक्रीम खाई जा रही थी तभी पापा के एक दोस्त मिल गए। वे जबर्दस्ती रात को आठ बजे की चाय पिलाने अपने घर ले गए। पापा अनचाहे मन से गए। मुझे तो बहुत अच्छा लग रहा था कि चलो किसी का घर देखने को मिलेगा।

तंग गलियों से होते हुए हम उनके घर में थोड़ी देर में ही मौजूद थे। घर में बहुत तेज़ पीली रोशनी बिखरी हुई थी। एडिशन वाला बल्ब जल रहा था। कैसेट पर आशिक़ी फिल्म का मशहूर गीत साँसों की जरूरत है जैसे... का अंतरा तेज़ आवाज़ में बज रहा था। एक 19 या 20 साल की लड़की गाना गाते हुए बड़ी सी प्रात में आटा गूँथ रही थी। कोने में एक उम्र दराज़ सफ़ेद बालों वाली औरत आँखें बंद कर बैठी हुई थी। मुझे उन्हें देखकर जरा डर ही लगा। हमें देखकर वह आटा गूँथने वाली लड़की फटाफट उठकर चुन्नी उठाने भागी। चुन्नी लेकर तुरंत अंदर के छोटे कमरे में चली गई।

उसके पिता जी ने मुझे उस बुजुर्ग औरत के पास बिठाते हुए कहा-'बेटी दादी के पास बैठो हम अभी आते हैं। शबाना, बेटी तीन कप चाय रख दे ज़रा जल्दी से।'

लड़की ने दूर से आवाज़ बाहर धकेलते हुए कहा- 'जी अब्बू अभी रखे देती हूँ।'

उसने बाहर निकल कर आशिक़ी के गीत को बंद किया और फिर मुसकुराते हुए अंदर चली गई। घर छोटा ज़रूर था पर करीने से सजा हुआ। ऐसा मालूम होता था कि कोई दिन रात घर को सजाता और साफ करता है। घर में दरवाजों पर हाथों से तैयार की हुई सुंदर और रंग-बिरंगी झालर टंगी हुई थी। दीवारों पर ही पत्थरों की अलमारी बनी हुई थी जिस पर अखबार को डिजाइन में काटकर बिछाया गया था। उस पर बर्तन सजे हुए थे। टीवी को क्रोशिये की बनी झीनी चादर से ढककर रखा गया था। दीवारों पर भी कुछ कुछ चित्र टंगे थे जो मुझे अब याद नहीं पड़ रहे।

अब तक बुजुर्ग औरत मुझे देख रही थी। न जाने कहाँ से एक टॉफी लेकर मुझे दिखाती हुई बोलीं- 'टॉफी खाओगी?'

मैंने न में सिर हिलाया।

वह फिर बोलीं- 'अपने अब्बू से डर रही हो?'

मैंने फिर न में सिर हिलाया।

अब वो और भी मुस्कुराने लगीं। थोड़ी देर में वह लड़की चाय तैयार कर लाई।  उसके अब्बू दो कप चाय अंदर ले गए और पीछे गर्दन कर बोलते गए- 'बच्ची को कुछ खिला पीला देना।'

वह लड़की जिसका नाम शबाना था वह झट से एक छोटी तस्तरी में बिस्कुट लाकर हमारे पास बैठ गई। मुझसे मेरा नाम पूछा। मैंने एक बिस्कुट का छोटा टुकड़ा मुंह में लेते हुए बताया। अब वह बूढ़ी दादी मेरे सिर पर हाथ रखकर बोलती गईं- 'खूब तालीम हासिल करो। अल्लाहताला तुम्हें हर तरह की कामयाबी दें। खुश रहो।'
मुझे हल्की हंसी आई। लड़की ने मेरी तरफ इशारा करते हुए अपने सिर के पास उंगली घुमाई। मैं समझ गई उसका इशारा।

फिर वह उठने लगी। तब दादी ने पूछा- 'अब कहाँ?'

                                                         दीथि मुखर्जी द्वारा बनाया गया 


वह बोली सब्जी छौंकने जा रही हूँ। दादी ने तेज़ आवाज़ में उसे कहा- 'अरी लोहे की कढ़ाई में सब्जी छोंकियो। स्टील की कड़ाही में मजा न आवे सब्जी का। सुन ज़रा तैल ज़्यादा डालियो। नमक भी फीका न खाया जाये है मुझसे।...'

'हाँ हाँ दादी जान। ठीक है!'... कहती हुई वो लड़की अंदर चली गई।

अब दादी जी मुझसे पुछने लगी- 'तुम्हारी अम्मी किस कढ़ाई में खाना पकावे है?'

मैंने कहा-'सफ़ेद वाली कढ़ाई में।'

दादी बोलीं- 'हाय अल्लाह! खाना अच्छा भी लगे है? घर जाकर कहियो अम्मी लोहे की कढ़ाई में खाना पकाओ वरना नहीं खाऊँगी।'

मैंने एक और बिस्कुट उठाते हुए- 'कहा ठीक है।'

दादी अब बोली- 'जब मैं ससुराल गई थी तब मेरी अम्मी ने मुझे यही बर्तन दिये थे। इत्ते इत्ते...बड़े बड़े...तूम भी जब ससुराल जाना तब अम्मी से लोहे की कढ़ाई मांग लेना। खाने में ज़ायका आता है।'

मैंने हाँ में सिर हिलाया। इतने में पापा आए और बोले चल बेटे जल्दी देर हो रही है। दादी बोली-'अभी तो दो मिनट भी न हुए। लड़की को बैठने दो।'

पापा के दोस्त बोले- 'अम्मी कल फिर आएंगे। अभी जाने दो।'

हम दुआ सलाम कर के बाहर आ गए। मैंने दादी की आवाज़ बाहर तक सुनी- 'जब भी किसी से बाते करो। लोग उठकर चले जाते हैं!'...वो और कुछ भी बोल रही थी। पर मुझे सुनाई नहीं पड़ा।

घर में देर से आने के कारण माँ को गुस्सा था। लेकिन थोड़ी देर में गुस्सा रफ्फ़ू भी हो गया। जब हमारा खाना पीना हो गया तब मैंने माँ को दादीजान के बारे में बताया। माँ को बहुत हंसी आई। मैंने माँ को हँसते हुए कहा- 'मुझे मेरी शादी में लोहे की कढ़ाई देना।'
माँ और भी तेज़ हंसने लगीं   

(किसी की आपबीती- लिखने के लिए खुद ही मुझसे साझा किया गया है।) 

Sunday, 16 October 2016

टॉक-टोक

यह बात बिलकुल दुरुस्त है कि हम अपने लिए दूसरों की ज़ुबान में शब्द नहीं रख सकते। अल्फ़ाज़ नहीं सजा सकते। हम चाहे चिल्ला-चिल्लाकर लोकतंत्र कहते रहें लेकिन यह बिलकुल सच है कि सच्चा लोकतंत्र कभी आया ही नहीं। आपको लगता है? कम-से-कम मुझे ऐसा महसूस नहीं होता। समाज या राजनीति का ही लोकतंत्र नहीं हुआ करता। ज़ुबान का भी हुआ करता है। इसमें एक न मरने वाली गुलामी की बू आती है। एक तने हुए पेड़ सा घमंड दिखाई देता है।

                                                                        फोटो गूगल से साभार

जब तब इसके उदाहरण मिलते हैं। अक्सर बाहर की दुनिया में जब कुछ संवाद कान में घुसने आते हैं तब मालूम चलता है- 'उफ़्फ़, क्या भाषा है!'

कुछ रोज़ पहले की बात है। सड़क पर जाम लगने की वजह से रिक्शा वाला भी 20 मिनट से धूप में खड़ा था। सभी गाडियाँ शोर मचा रही थीं। ऐसा लग रहा था कि वे एक दूसरे के सिर से होकर भी अपनी कार निकाल कर जाना चाहते हैं। ऐसे में कारें जरा जरा सरक रही थीं। रिक्शे वाला बड़ी सावधानी से अपना रिक्शा भी आगे बढ़ा रहा था तभी अंजाने में आगे के पहिये की रगड़ लंबी कार में लग गई। कार में पीछे बैठी मालकिन को न जाने कैसे यह मालूम चल गया। उसके बगल में बैठा एक आदमी फटाफट उतर आया और रिक्शेवाले को मारने के लिए पूरी शक्ति से बढ़ा। तभी कुछ लोगों ने बीच बचाव किया और बोले- 'जाने दो गरीब है।'

अब तक रिक्शेवाला बे-इंतहा डर गया था। उसके चेहरे पर घबराहट साफ झलक रही थी। जब कार वाला हाथ नहीं उठा पाया तब उसने गालियों के औज़ार का इस्तेमाल करना शुरू किया। कुछ गालियां तो मेरे कान में अभी तक रीप्ले हो रही हैं। हराम..., सा..., सुअ..., भौं..., बहन..., ... । जिस हिसाब से उसकी गाड़ी का आकार बड़ा था ठीक उसी तरह से उसकी ज़ुबान का। रिक्शावाला न जाने क्यों एक भी शब्द न बोल पाया। वह यह भी नहीं बोला-'ए साहब गली मत दो!' हाँ मैं जानती हूँ कि वह पलट कर गाली नहीं दे सकता था। उसके खून में पलट कर वार करना नहीं शामिल। वह धरती पर 'करम' करने आया है। एक रोज़ मर भी जाएगा रिक्शा चलाते चलाते।

ऐसे ही उस दिन बस में दो औरतें अपनी बातों में मशरूफ़ थीं। उन्हें यह भी चिंता नहीं थी कौन उनकी बाते सुन रहा है और कौन नहीं। वह बस में बैठे अपने दिन की परेशानियों को साझा कर रही थीं। एक ने कुछ ऐसा कहा- 'नई मालिकीन आई है दो दिन पहले। ज़्यादा उमर नहीं है। मैं तो उसकी सास के बराबर की उमर की हूँ। फिर भी मुझे तू-तड़ाक कर रही थी। मन तो किया कि कह दूँ कि बीबी तू न बोलो। पर फिर चुप रह गई कि काम से खटपट न हो जाये।'

मैं उसके शब्दों में भी विरोध के बीज देख रही थी। ऐसा नहीं है कि विरोध के बीज नहीं थे। थे। पर वह तो सोये ही रह गए।

मैंने ये दोनों क़िस्से किसी के आगे रखे। मैंने उनसे पूछा कि ऐसे में सहज और मजबूत विरोध क्या हो सकता था? वह बोलीं- 'बात विरोध की नहीं है। विरोध एक दिमागी मालूमात है कि यह मेरे साथ गलत हो रहा है। एक जज़्बा है। इसे शब्दों या फिर क्रिया से दर्ज़ की जा सकती है। और भी तरीकें होंगे इसके। यहाँ 'टोकना' एक एक बेहतर जवाब हो सकता था। रिक्शेवाले के साथ अमूमन ऐसी घटना हुआ करती हैं। लेकिन यह भी है कि वह कितनी बार दूसरे के शब्दों को सुनते ही टोकता है! ठीक ऐसा ही उस घरेलू मददगार औरत के संदर्भ में है। उसके अंदर कहीं न कहीं टोकने का एक मजबूत पक्ष उभर रहा है। संभावना यह भी है कि एक रोज़ वह टोक दे। यह भी हो सकता है कि वह टोके ही न और सुनने की आदी हो जाये। हमें अपने कुछ कदम व्यक्तिगत तौर पर उठाने चाहिए। शायद ऐसा हो भी रहा होगा। जो तुम्हारी और हमारी नज़र में नहीं दिख रहा। हमें अपने या किसी और के विरोध को मापना नहीं चाहिए। यह देखना चाहिए कि विरोध दर्ज़ करने- कराने का जरिया कितना मजबूत है।'...उन्हों ने मुझे उस रोज़ काफी उदाहरण भी दिये।
                                    
मेरे लिए यह जानना जरूरी था कि जिन विरोधों को किताबों में आमतौर पर दर्ज़ नहीं किया जाता, उनकी शक्ल, बनावट या शैली कैसी होती है। मुझे आम लोगों के व्यक्तिगत 'टोक' कि तलाश थी। शायद मैंने एक सिरे को छूने की कोशिश की है। शायद एक रोज़ मैं कुछ बातों और पहलुओं तक पहुँच पाऊँगी। खुद से। लेकिन... 

हाँ, हम अपने लिए किसी की भाषा का निर्धारण नहीं कर सकते पर यह बात है कि नकारात्मक, बकवास और गाली-गलौज वाली लफ़्फ़ाज़ी को तुरंत टोका जा सकता है। औरतों को यह बोलने और टोकने की आदत जुरुर डाल लेनी चाहिए।       

Friday, 14 October 2016

गुड़ियों और गुड्डों के बहाने- एक बयान

संजोग बन ही जाते हैं। आज किसी काम की वजह से आई टी ओ जाना हुआ। काम खत्म हुआ तो वहीं नजदीक में बहुत सारे बच्चों को स्कूल की वर्दी में देखा तब अच्छा लगा। इतनी धूप में भी वे सब अपने में लगे हुए थे। सभी चटर-पटर करते हुए बस में घुसे और कुछ ही देर में ओझल हो गए।

अब मेरी बारी थी।  मैंने तुरंत अपनी मुंडी गुड़िया संग्रहालय यानि डॉल म्यूज़ियम की तरफ की और टिकट कटवाकर अंदर घुस गई। गेट पर ही हिदायत मिल गई थी कि फोटो खींचना मना है। मैंने उसी समय चैन की सांस भरी। चलो अच्छा है ये सब फोटो शोटो खींचने से बचूँगी। यह मेरी पहली दफा की डॉल म्यूज़ियम की यात्रा थी। इससे पहले नाम ही सुना था।

मुझे याद आता है आसपास के लोगों को जब पता चलता था कि मैंने यह जगह नहीं देखी तब वे सब मेरा बहुत मज़ाक बनाने के साथ साथ कहते थे तुम्हारा धरती पर जीना ही धिक्कार है। तब वास्तव मैं कभी कभी बहुत सेडिया जाती थी। कुछ हमदर्द लोगों ने मुझे यह भी बतलाया कि वहाँ बेमिसाल गुड़ियाँ हैं। देखते रह जाओगी। इसलिए डॉल म्यूज़ियम जाने का आकर्षण और भी बढ़ गया।

मैंने उस जगह में घुसते ही कोशिश की कि मेरा दिमाग 10 या 11 साल की बच्ची का बना रहे। गंभीरता को मैंने बाहर ही रख दिया। लेकिन पता नहीं मुझे वो खुशी क्यों नहीं हुई जो अमूमन बचपन में गुड़ियों को देखने और खेलने से हुआ करती थी।

मुझे बहुत अच्छी तरह से याद है मुझे बचपन में गुड़िया नहीं दिलाई जाती थी। इसके पीछे एक ही कारण था और वह यह कि रुपयों की कमी। मैं कोई फिलोसफी यहाँ नहीं चिपकाना चाहती। बाज़ार के खिलौनों के बदले मिट्टी के खिलौने माँ बनाकर दिया करती थी। मिट्टी के खिलौने बहुत आसानी से बन भी जाते थे और उस पर माँ होली के बचे हुए रंग और पैरों में लगाने वाला महावार रंग दिया करती थी। मैंने भी कई खिलौने बनाए। मिट्टी के खिलौने बनाने के कुछ फायदे भी थे। वे ये कि मन भर जाने पर उन्हें नए रूप में तब्दील किया जा सकता था। बनाने का सामान दुकान से नहीं खरीदना पड़ता था। पापा के पैसों की बचत होती थी। और मिट्टी के खिलौने बनाने के बहाने मैं मिट्टी चोरी चुपके खा भी लिया करती थी। मैंने न जाने कितने खिलौने खुद अपने हाथों से बनाए और सजाये भी। मुझे बहुत अच्छा लगता था लेकिन मन में अपनी सहेलियों की गुड़िया और वो भी बार्बी गुड़िया देखकर आँसू भी आ जाते थे। इस विलायती गुड़िया का अपना ही रुआब था। मन में कभी कभी खूब जलन हुआ करती थी, अपने बचपन के दोस्तों से।




लेकिन आज जब इस तरह की तमाम गुड़ियाँ मेरे आँखों के सामने पड़ी हुई थीं तब भी वह खुशी मुझसे होकर नहीं गुजरी जो बचपन में मिट्टी के खिलौनों से होकर गुजरा करती थी। इतने अधिक देशों की गुड्डे गुड़ियाँ...उफ़्फ़! कोई गिनती ही नहीं। हंगरी, जापान, बुल्गारिया, स्पेन, रोमानिया, युगोस्लाविया, फ्रांस, ग्रीस, यू.के., ब्राज़ील, मेक्सिको, क्यूबा, तुर्की, जर्मनी, वियतनाम, थायलैंड, दक्षिण कोरिया,... और भारत के अलग अलग राज्यों की विभिन्न गुड़ियाँ वहाँ खड़ी हुई थीं।

मैंने कुछ बाते वहाँ नोटिस किं। शायद वो मुझे अटपटी लगीं। हो सकता है आप लोगों को न लगें। ज़्यादातर देशों की गुड़ियाँ में उनके लिबास सिर से पाँव ढके हुए थे। चूंकि यहाँ बहुत पुरानी गुड़ियाँ मौजूद हैं इसलिए यह बड़े आसानी से समझ आता है कि आदमी औरत के चरित्र उनके लिबास से कैसे समझे जाएँ। मुझे एक बात बहुत हैरतअंगेज़ लगी कि भारत के अलावा अन्य देशों में भी औरत की छवि घरेलू या अन्य बाहरी कामों के साथ जोड़ कर रखी जाती है। जिन कामों को मैंने वहाँ औरतों (गुड़ियाँ) को करते हुए देखा उनमें, चटाई बुनना, लकड़ी की ढुलाई करना, पानी लाना, बच्चे को गोद में लिए हुए रहना, सब्जी बेचना, ओखली में कुछ कूटना(ब्राज़ील), टोकरी बुनना शामिल था। इससे भी जुदा कई छवियाँ थीं लेकिन ये छवियाँ मुझे खटकीं भी।



इसके उलट इन्हीं विदेशी गुड़ियों में पुरुष को औरतों की तुलना में अधिक ताक़त के साथ दिखाया गया है। कई जगह वह एक लट्ठ लिए हैंकड़ी में बैठा है। बीड़ी पी रहा है। उसके बगल में औरत कार्यशील है। कहीं कहीं पुरुष गुड्डा सामान्य से बड़ा चाकू लिए हुए खड़ा है। कहीं न कहीं एक इशारा यह भी है कि वह किसी की तुलना में बेहतर है।

                                                               फोटो गूगल से उधार


इन सब से जुदा आदिवासी संस्कृति में औरत और मर्द में एक नैसर्गिक समानता आपको दिखलाई देगी। कुछ देशो की आदिवासी जातियों का एक दूसरे के प्रति रिश्ता समझ आएगा। उनके रंग से लेकर और पहनावे तक में प्रकृति से एक जुड़ाव आपको महसूस होगा जो बाकी तथकथित विकसित और तकनीक पसंद देशों में नहीं दिखेगा। भारत के संदर्भ में यही दृश्य छत्तीसगढ़ में नज़र आया। कमाल की जीवंतता है इस क्षेत्र की नमूनों में। ऐसा लगता है अभी आप से बोलना शुरू करेंगे। वे नाच रहे हैं। गा रहे हैं। खुश मिजाज हैं। आदमी औरत का फर्क वहाँ आपको नहीं दिखेगा कि कौन बेहतर है और कौन कमतर। एक दिलचस्प बात और की छतीसगढ़ राज्य की झांकी में कोई भी हिन्दू देवी देवता नहीं दिखा जिसे देखकर मुझे काफी खुशी हुई कि बिना धार्मिक किरदार के उनके समाज में एक संतुलन और आचरण बिखरा हुआ है। मनगढ़ंत कहानियों की जगह जीवन अधिक मायने है। गहनों में सोने की जगह रंग-बिरंगी मोतियों की माला भी आपका ध्यान खींच लेगी। यही बात भारतीय व बाहरी आदिवासी लोगों के साथ नोटिस की जा सकती है। इनके परिधान में भी खुले और बेहतरीन दिखाई पड़े।

अब आते हैं अपने भारत पर। सभी राज्यों की तो नहीं पर बहुत से राज्यों की गुड़िया झाँकियाँ वहाँ मौजूद हैं। काफी रंग बिरंगी जो बच्चों से बड़ों तक का ध्यान खींचने के काबिल हैं। उनमें आपको विष्णु अवतार से लेकर गांधी तक की झांकी दिखेगी। ओणम के उपलक्ष्य में भगवान विष्णु के वामन अवतार और राजा बलि की झांकी आपको बेहद अच्छी लगेगी पर उसके पीछे की कहानी आपको बहुत अजीब।

एक और बात जो बहुत अटपटी थी वह यह कि भारतीय सामान्य औरत और आदमी को चटाई पर बैठकर सामान बेचते हुए दिखाया गया है और उन सभी के माथे पर लंबा तिलक लगाया गया है। जबकि अमूमन देखने में यह मिलता है कि पुराने जमाने में गरीब और नीचे की पंक्ति में खड़े किए लोग ब्राह्मण टीके नहीं लगाया करते थे। उन्हें यह हक़ नहीं था।  हालांकि यहाँ आप उनमें जाति का भेद बहुत अच्छी तरह से कर लेंगे। उनके रंग काले और गोरे रखे गए हैं। हो सकता है यह बनाने वाले की कलात्मक आज़ादी हो। इसके अलावा राम का दरबार बेहद खूबसूरत बनाया गया है। राज्यों के पारंपरिक नृत्यों व त्योहारों को भी इन गुड्डे गुड़ियों में खूबसूरती से रखा गया है।

दक्षिण कोरिया देश की झांकी में बच्चों को अच्छी जगह मिली है। पतंग उड़ाते हुए। वे बहुत खुश हैं। गौरतलब हो कि ऐसी खुशी वाली झांकी मुझे और नहीं दिखी या फिर मेरी नज़रें जा नहीं पाईं। खैर...

आप एक बार जरूर जाइए। 


    

Thursday, 13 October 2016

एक बनावट: साझी जगह

कुछ दिनों पहले किसी ने फेसबुक पर कमल मंदिर उर्फ बहाई मंदिर से जुड़ी एक पोस्ट साझा की थी। मुझे वह पोस्ट उतनी दिलचस्प नहीं लगी। उस पोस्ट को पढ़ने के बाद कमल मंदिर के बारे में कुछ लिखने का सोचा। सो आज दूसरी बार मैं इस कमाल की जगह पर पहुँच गई। यकीन मानिए मैं इसलिए इस जगह में नहीं गई थी कि अपने लिए या पूरी दुनिया के लिए कुछ मांग लूं। बल्कि इसलिए यहाँ पहुंची कि इस जगह की बनावट को देख सकूँ और महसूस कर सकूँ।

मैं शाम के समय यहाँ पहुंची। प्रवेश बंद होने से लगभग आधा घंटा पहले। मुझे इस बात की हैरानी हुई कि लोगों की बहुत बड़ी संख्या आज भी वहाँ पहुंची हुई थी। उनमें से मैं भी एक थी। लाइन बहुत लंबी और बहुत छोटी भी नहीं थी। लाइन के धीरे धीरे खिसकने की वजह से एक पुलिस वाला उत्तेजित होते हुए बोला, 'न जाने के कैसे मुर्दा लोग लाइन में खड़े हैं। दिल्ली के लोग अब शायद खाना न खावे हैं। सब के सब मरे हुए लाग रे हैं।' फिर क्या था इसके बाद लाइन के आगे खिसकने में बहुत तेज़ी आई और अगले दो मिनट में मैं मंदिर के अंदर थी। सच में दिल्ली पुलिस का नाम ऐसे ही नहीं फैला। बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ...टाइप वाला।

                                                                     मैंने खींचा है :)

प्रार्थना घर में प्रवेश से पहले सीमेंट की बोरी के खूबसूरत सिले हुए झोले दिये जा रहे थे। कुछ झोले तो बिल्कुल नए थे। उनमें अपनी चप्पलें और जूते डालकर साथ में ही प्रार्थना घर के अंदर ले जाने थे। खैर। मुझसे प्रार्थना नहीं हुई। सो मैं अपना सिर ऊपर उठा-उठा कर ऊपर वाला सोने के रंग का फूल देख रही थी। उस पर कुछ चित्र भी बने थे। मुझे न तो साफ दिखे और न समझ आए। यहाँ लगभग 1300 लोग एक साथ बैठकर अपनी प्रार्थना आसमानी किरदार तक पहुंचा सकते हैं। हम कम संख्या में थे।

यहाँ की सबसे अहम बात यही है कि कहीं भी किसी तरह की मनाही वाली पट्टी नहीं दिखी, मसलन महिलाएं अंदर नहीं जा सकतीं, छोटे कपड़े या जींस पहनकर अंदर आना और प्रार्थना मना है, केवल हिंदुओं के लिए या सिर्फ मुसलमानों के लिए, काले या गोरे का फर्क,...कोई भी आए, किसी भी उम्र का, किसी भी लिंग का, अमीर या गरीब, सभी का यहाँ स्वागत है। कुल मिलाकर यही लगा कि शुक्र यहाँ कोई हिदायत नहीं है और किसी भी तरह का डर भी।

इबादत घर में कई लोग मन लगाकर प्रार्थना भी करते हुए दिखाई दिये। पर मेरे जैसे भी बहुत थे जो हर चीज को निहार रहे थे। कई लोग बाहर अपने अपने फोटो खिंचवाने में व्यस्त थे। हर चेहरा खुश था। मैं भी खुश थी। मुझे बेहद अच्छा लगा कि बिना किसी तामझाम और दिखावे के लोग यहाँ एक जुट होते हुए थोड़ी देर की इबादत में हिस्सा ले रहे हैं। किसी का साझा हिस्सा होगा और किसी का अकेले वाला। मेरे संदर्भ में एक बात गौरतलब करने लायक है। पहली यह कि मैं जहां बैठी थी ठीक उसके ऊपर सूरजमुखी वाला फूल मेरे सिर के ऊपर था और दूसरी खास बात यह रही कि मैं जहां बैठी थी वहाँ से इस्कॉन मंदिर भी दिखाई दे रहा था।  

इस जगह का खास आकर्षण एक कमलनुमा बनावट है जिसमें संगमरमर की 27 पंखुड़ियाँ शामिल हैं। सन् 1953 में इस मंदिर निर्माण के लिए ज़मीन खरीदी गई थी। इसकी कुल जगह 26.6 एकड़ है। इसके वास्तुकार मूलतः ईरान से ताल्लुक रखने वाले फरिबर्ज सहबा हैं और इंजीनियरिंग का कार्य ब्रिटिश फर्म फ्लिंट एंड निल ने किया था। इस बनावट (मंदिर) के आसपास 9 छोटे छोटे तालाब हैं जो देखने में बहुत खूबसूरत लगते हैं और इस जगह के तापमान को संतुलित बनाए रखने में मदद करते हैं। तालाब का पानी नीले रंग का दिखाई देता है जिसे देखकर बहुत अच्छा लगता है। इस मंदिर को बनाने का काम 1980 में शुरू हुआ था और लगभग 6 साल में इसे बनाकर न सिर्फ तैयार किया गया बल्कि आम लोगों के लिए भी खोल दिया गया।

एक चश्मदीद, जो इस संरचना के बनने के साक्षी थे, ने मुझे बताया- 'हम नए नए तब दिल्ली में रहने आए थे। पास ही सराय जुलैना नाम की जगह में रहते थे। सो यहाँ कभी कभी आ जाया करते थे। बेटे तुम्हें क्या बताएं! इत्ते मोटे मोटे छरिया मंगाए जाते थे। बड़े बड़े पत्थर मंगाए जाते थे। सफ़ेद वाले, सुंदर से। ऐसे ही कोई चीज बनकर तैयार थोड़े ही हो जाती है। आदमी का हाथ न हिले काम क्या खाक होगा। ...जब खुदाई होती थी तब पानी निकल आया करता था।...'

इस धर्म से ताल्लुक रखने और बढ़ाने वाले तीन खास शख्सियत पढ़ने को मिलती हैं। पहले 'बाब(1819-1850), बहाउल्लाह (1817-1892) और अब्दुल बहा (1844-1921)। बहाउल्लाह के नाम पर ही इस धर्म का नाम बहाई पड़ गया। इनके नाम का मतलब ईश्वर का प्रताप बताया जाता है। भारतीय जनगणना 2011 की रपट और आंकड़ों के अनुसार देश में 4572 बहाई धर्म को मानने वाले लोग हैं। यह संख्या कम है फिर भी मुझे यह खयाल तुरंत आता है कि भारत जैसे देश में कितना कुछ समाया हुआ है। यह रोचक और रोमांचक है। किसी से बातचीत के दौरान मुझे पता चला कि दक्षिण कोरिया में भी इस धर्म के लोगों की संख्या करीब 100 है। 

और भी दिलचस्प बातें इस मंदिर से जुड़ी हैं जिन्हें आप खुद खोजें। मैंने यहाँ अपनी समझ और थोड़ी बहुत जानकारी से आपको यह जतलाने की कोशिश की है कि वास्तव में कोई भी बनावट अपने साथ कई कहानियाँ लेकर चलती हैं। इस बनावट को मशहूर करने वाली मुरीद आँखें ही होती हैं जो इसे हर रोज़ देखने आती है।     


Tuesday, 11 October 2016

छिटके हुए किरदार

कुछ किरदार छिटक जाएँ इससे पहले उन्हें लिख लेना चाहिए।

भीड़ का आलम गुनहगार है 
भीड़ के अलावा
सब कुछ ओझल है...

                                                              फोटो गूगल की देन



एक शख्स हुआ करता था। अपनी कमीज़ में एक जेब लिए हुए। जेब में हर महीने की पहली तारीख की पगार दस्तक दिया करती थी। वह खुशी से खनक जाया करता था।...घर लौटते वक़्त अपनी पत्नी और बच्चों के लिए कुछ खरीद लाया करता था। कई बार जेब भी कट जाया करती थी। महीने की पहली तारीख को शहर में जेब कतरों की भी संख्या बढ़ जाया करती थी।
ये शख्स और जेब कतरे दोनों गायब हो गए। मुझे दोनों की चिंता हुई। जी हाँ, चिंदी चोर की भी।  
लेकिन अब यह शख्स दिखाई नहीं पड़ता। किसी से पता पूछा तो बड़े कठोर पते हाथ में आए। किसी ने सड़क के किनारे बताया तो किसी ने बड़े बड़े फ्लाई ओवर के नीचे बताया। मैं, जब गई तो सब बातें बेकार और बेबुनियाद पाईं। मैंने उस शख्स की कमीज़ में जेब खोजने की भरसक कोशिश की। लेकिन वह वहाँ नहीं थी। मुझे सुकून हुआ। उसके करीब तो खाली थाली और मरी मक्खियाँ पड़ी थीं।  
मुझे फिर से उसके पते की तलाश करनी है।
(जेब कतरे के पते के बारे में पता चला कि वह तो बड़ी बड़ी बिल्डिंगों में रहता है। मेरी वहाँ जाने की हिम्मत नहीं हुई।)  

Monday, 10 October 2016

रेखा- एक बेहतरीन अदाकारा

मैं यह पोस्ट हिन्दी की जानी मानी बेहतरीन अदाकारा भानुरेखा गणेशन के लिए लिख रही हूँ। आज 10 अक्तूबर है और उनका जन्मदिन भी। इत्तिफाक़ से कल मैं उनका चर्चित इंटरव्यू "रोन्देंवू विद सिम्मी गरेवाल" देख रही थी। मुझे लगता है कि इस अदाकारा ने बेहतरीन इंटरव्यू दिया। ऐसी बातचीत अमूमन बहुत कम देखने को मिलती है। खासतौर पर सिने कलाकारों की। इस बातचीत के पूरे तीन भाग हैं जो कि लगभग डेढ़ घंटे में देखे जा सकते हैं।



मैंने जब से फिल्में देखना और समझना शुरू किया है तब से रेखा जैसी अदाकारा को भी थोड़ा बहुत जानने लगी हूँ। घर में फिल्मों का असर रहा है। मेरी बहनें अमूमन गीत गुनगुनाया करती हैं इसलिए मुझे भी इस तरह की न छूटने वाली आदत लगी हुई है। हमें सुर-वुर से लेना देना नहीं है। मेरी माँ राजेश खन्ना की फिल्मों को देखने की बातें आज भी जब तब बता दिया करती हैं। इसलिए मैंने भी कुछ ही सही पर हिन्दी फिल्मों को देखने का अपना एक खुद का तरीका ईज़ाद किया है। 



मैंने रेखा की कुछ फिल्में देखी हैं जो मुझे बहुत गजब की लगती हैं। मैं इन फिल्मों के गाने घंटों गुनगुना सकती हूँ और कई दृश्यों पर काफी कुछ बोल भी सकती हूँ। सन् 1978 में आई फिल्म "घर" में इनके अभिनय को काफी सराहा गया और रेखा उस फिल्म से एक बेहतरीन अदाकारा साबित हुईं। आप सभी को पता है कि इस फिल्म की कहानी में एक शादीशुदा जोड़ा है। विकास और आरती नाम का। एक भयानक रात में आरती के साथ खौफनाक हादसा हो जाता है। चार लोग मिलकर आरती का बलात्कार कर देते हैं। इस हादसे के बाद आरती मानसिक, शारीरिक, सामाजिक आघात से त्रस्त और सम्बन्धों से डर जाने वाली औरत में तब्दील हो जाती है। आप तमाम तरह के अखबारों और पत्रिकाओं को उठकर देख लीजिये। आपको उनमें यही मिलेगा कि रेखा ने दमदार अभिनय से उस भूमिका को निभाया था।

 मेरी दीदी बताती है- "जब मैंने वो फिल्म देखी थी तब उस सीन के बाद मुझे भी सदमा जैसा ही लगा था। रेखा के चिल्लाने से लेकर अजीब से बिहेव करने तक, बहुत अजीब सी घबराहट महसूस हुई थी।...फिल्म के गाने बहुत अच्छे थे।...बंदी ने काम बहुत अच्छा किया। ऐसा लगता है ये रोल उसी के लिए था।..."

नज़र उठाएँ तो हमें हर तरफ बलात्कार की खबरें सुनाई देती हैं और अचानक कानों और नज़रों से गायब हो जाती हैं। लेकिन उन औरतों के दर्द को न तो सरकार समझती है, न उसके खुद के लोग और न यह महान संस्कृति का समाज। रेखा यहाँ अपने अभिनय से  अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवाती हैं। 

इसी तरह फिल्म "उमराव जान(1981)" की बात कर ली जाये या फिर फिल्म "खूबसूरत(1980)" की। दोनों ही गज़ब की फिल्में हैं। दोनों में उनका फिर से बेहतरीन काम है। हर सीन में रेखा को ही देखा जा सकता है। नृत्य से लेकर उनकी अदायगी के जौहर भी नज़र आते हैं। अगर मैं गलत हूँ तो मुझे इसका अफसोस भी नहीं। आप खुद ही देख लीजिये कि दोनों ही फिल्मों का रिमेक भी हुआ और दोनों ही फिल्में बॉक्स ऑफिस पर औंधें मुंह गिरीं। दोनों फिल्मों का नाम लीजिये आपको सिर्फ रेखा ही याद आएंगी।

हाल ही में उन पर लिखी किताब भी आई है- "रेखा-दि अंटोल्ड स्टोरी"...यह एक जीवनी है। अभी तक मैंने यह किताब नहीं पढ़ी। लेकिन मैं फिर से इस किताब के हवाले से उनके निजी जीवन के किस्से सोशल साइट्स पर पढ़ रही हूँ। मुझे हैरानी है कि लोग बहुत अजीब तरीके से उनके बारे में लिख रहे हैं कि उनकी ज़िंदगी में उनके किस किस से संबंध रहे। हद है इस समाज के लोगों की। मैं यही चाहूंगी की रेखा इस किताब को पढ़ें ही न। क्या पता उनको निराशा हाथ लगे। उन्हों ने सिम्मी गरेवाल को दिये अपने इंटरव्यू में कहा था कि उनकी स्कूली पढ़ाई क्लास 9 में ही छूट गई थी। उसके बाद से अपने अभी तक के जीवन में उन्हों ने न तो कोई किताब पढ़ी है और न ही वह कोई अखबार पढ़ती हैं। इस तरह से इस तरह की अफवाहों और खबरों से बेखबर रहती हैं।

एक और अजीब बात जिसको बार बार उनसे जोड़ कर उछाली जाती है। उन्हें किसी भी आम हिंदुस्तानी महिला की तरह सजने और सँवरने का शौक है। वह ऐसी रहती भी हैं। वो बकायदा सिंदूर भी लगाती हैं। इसके चलते उनका नाम बाकी कलाकारों से जोड़ा जाता है। यह बहुत अजीब बात है। वो जैसे रहना चाहती हैं वो वैसे रहती हैं। इतना ही नहीं उनके लिए उनके खुद के साथी कलाकारों ने बेहद आपत्ति जनक बयान भी दिये हैं। लेकिन रेखा इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देतीं।

आप लोग यह कहेंगे कि वे एक सिनेतारिका हैं। इसलिए यह वाजिब है कि उनकी जिंदगी में तांक झांक की जाये। यह सभी के साथ होता है। ...पता नहीं कि आपकी बात सही या गलत। पर मुझे लगता है कि अपने हिन्दी कलाकारों को उनके काम के जरिये आंका जाये न कि उनकी निजी ज़िंदगी में हुई उथल पुथल से।

यह विचार मैंने किसी फैन के रूप में नहीं लिखे। मुझे उनकी कुछ फिल्में बेहतरीन लगीं। उनका काम अच्छा लगा सो लिखा। आम दर्शक के लिहाज से लिखा है। उनके जीवन में छींटाकशी करने वाले, रस लेने वाले और घटिया बयान देने वाले लोगों की मानसिकता की जांच की जाये तो बहुत से लोग आपको अपने आसपास मिल जाएँगे जो अपने मुंह में औरतों को नकारात्मक बताने का थूक लिए चलते हैं। 

    

Sunday, 9 October 2016

व्रत की परंपरा और हम

उफ्फ़!

परवरिश में पम्पराओं की ऐसी नींव जमाई गई है कि वे ताउम्र पीछा नहीं छोड़तीं। वास्तव में हम बहुत बंटे हुए हैं। अंदर से भी और बाहर से भी। अंदर का बंटवारा हमारे खुद के व्यक्तित्व में गिरगिट के तौर तरीकों का घर कर जाना शामिल है जबकि बाहर का बंटवारा हर तरह से देखने से दिखलाई देगा। जाति के नाम पर, अमीर गरीब के नाम पर, धर्म के नाम पर, गोर-काले के नाम पर...और भी बँटवारे है। आप मुझसे बेहतर जानते और समझते हैं।

हिंदुस्तान में तमाम धर्म के लोगों की आदतें कभी कभी चौंका देती हैं। कभी कभी आपको लगेगा कि सच में ये सब भी कितना अच्छा है। जुरुरी है। हिन्दी फिल्मों में दिखाये जाने वाले अच्छे किरदार अगर धार्मिक न हो तब तक उसकी अच्छाई हमें दिखाई ही नहीं देती। जब तक नायिका सुबह सांझ की आरती न उतार दे तब तक हमारे यानि आम दर्शकों के गले से नीचे पानी नहीं उतरता। मैंने यह धार्मिकता का लिबास औरतों को औढ़ते हुए ज़्यादा देखा है। कम उम्र से बढ़ती उम्र तक। यहाँ तक कि उम्र की आखिरी दहलीज़ तक औरत जब तक धार्मिक न हो तब तक उसके चरित्र की संदिग्धता बनी रहती है।

आपको याद है सन् 1975 में आई फिल्म 'जय संतोषी माँ' जिसके गाने आपने कैसटों को कई बार 'रिप्ले' कर के अपने कानों को सुकून दिया होगा। मुंह से कहा होगा 'वाह! क्या गीत हैं!' इसके बाद आपने अपनी धर्मपत्नी से कहा होगा कि संतोषी माँ की असीम कृपा के लिए तुम्हें भी यह शुक्रवार का व्रत करना शुरू कर देना चाहिए। उसके बाद उस मासूम औरत ने वह महान व्रत करना शुरू किया। उसने अपनी बेटी को भी यह संस्कार करवाना शुरू कर दिया। आज तक यह जमात आसमानी शबाब और पति घर के लिए व्रत कर रही है।

एक कहानी भी है:- 

साल में अटरम-शटरम तीजऔर त्योहारों और कई दिनों में भूखी रह जाने वाली औरतें और लड़कियां कहीं विद्रोह न कर दें इसलिए आपने मंगलवार जैसे 'मेल फास्ट' की संकल्पना को अमली जामा पहना दिया। लड़कों को बताया कि (औरत) सीता मैया को अपनी माँ के समान दर्जा देने वाले हनुमान साहब ब्रह्मचारी हैं और बल के देवता हैं। यहीं नहीं उनमें बुद्धि की भी कमी नहीं। अतः आप लोग हफ्ते में इस दिन उपवास रखो तो हनुमान जी की कृपा बिना कर्म करे आपको नसीब हो जाएगी।

चूंकि आदमी अधिक भूख का कष्ट नहीं सह पाते इसलिए आपने 'फल-फूट' खाने की छूट उन्हें मुहैया करवा दी। यह देख कर औरतों ने अपने लिए भी यह रियायत की मांग पुरजोर तरीके से कर दी। आधी अवाम कहीं विद्रोहिणी न बन जाये इस डर से औरतों को भी यह खाने-पीने की छूट मुहैया करवा दी गई। आधी आबादी बहुत खुश हुई और ज़ोर-शोर से यह सब धार्मिक संस्कार करने में जुट गई।

लेकिन देखिये, जरा सुनिए। मोक्ष बहुत बड़ी चीज है। वह आसमानी छतरी है। औरत होकर उसकी कल्पना आसान नहीं।  उसके लिए कर्म करना पड़ता है। पहले ज़मीन पर तो अपने कर्म कर के दिखाओ। अरे! कमाल करती हो। पारिवारिक होकर भी तुम अपने मोक्ष का ख्वाब पालकर बैठी हो। पिता, भाई, पति, पुत्र और परिवार की तरक्की की हर तरह की ज़िम्मेदारी तुम पर ही है। इसलिए अपने बारे में क्या सोचती हो! मोक्ष तो उसे ही मिलता है जो दूसरों के लिए करता है और मर जाता है वो भी करते-करते।

इसलिए तुम्हारे लिए कुछ व्रत निश्चित किए जाते हैं। इन्हें करने से बहुत लाभ होंगे।

सोमवार, भगवान शिव का दिन है। वो भोले हैं। जो मँगोगी मिल जाएगा। बेटी को भी बोलो वो करे तो शिव जैसा पति मिलेगा।

मंगलवार, हनुमान जी का है। तुम कर सकती हो यह व्रत। तुम्हें उनकी कृपा प्राप्त होगी।

बुद्धवार, यह बुद्ध ग्रह के लिए है। इसे करने से शादीशुदा ज़िंदगी में खुशहली आ जाएगी।

बृहस्पतिवार, इस दिन को काफी देवताओं ने अपने नाम से नामांकित किया है। विष्णु से लेकर साईं बाबा भी इसी दिन मिल जाएंगे। कुछ लोगों का यह भी मत है कि इस दिन गणेश जी की भी मिल जाति है।

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शुक्रवार, यह संतोषी माँ का दिन है। करोगी तो बहुत कुछ मिलेगा। सुनो खट्टे से परहेज करना। माता को खट्टे से एलर्जी है।

शनिवार, शनि देव की कु-दृष्टि से बचने के लिए यह तो करना ही पड़ेगा। वरना क्या खाक तरक्की होगी!

रविवार, भगवान सूर्य की तेज़ रोशनी के समान कृपा इस दिन प्राप्त की जा सकती है।

सुना है बहुत सी औरतें इस परंपरा को दैवीय आदेश के कारण निभा रही हैं। 

कहानी समाप्त 

बहुत मुश्किल है विचारों की भीड़ में अपने मन माफिक विचार को खोजना। लोगों की भीड़ जिस तरह पसीने बहा देती है ठीक उसी तरह विचारों की भीड़ गुमशुदा कर देती है। भीड़ का संतुलित विचार नहीं होता। वह हज़ार आँखों के बावजूद अंधी होती है। अमूमन उनमें शामिल लोग एक दूसरे का बिना वजह पीछा कर रहे होते हैं। आप यह जरूर तय कर लें कि कहीं आप उनमें से एक तो नहीं। अगर हाँ तो उस भीड़ के आदेश और परंपरा से बाहर निकलकर सोचें। आपको कई दूसरे रास्ते मिल जाएंगे। 

Thursday, 6 October 2016

मौहल्ले के देसभगत



सुन मेरे बंधु रे, सुन मेरे मितवा, जरा ज़्यादा गाल न बजाओ। बातों के बतासे न फोड़ो। अब तो हमें भी उकताहट होने लगी है आप सभी लोगों की इलेक्ट्रोनिक देशभक्ति देखकर। राजनेता और पार्टी भक्ति तो आप पैग बनाकर पी और पिला रहे हैं पर उस शराब का इस्तेमाल कर आग क्यों लगाए जा रहे हैं। भला अपने घर में भी कभी आग लगाई जाती है। आपका सवाल होगा कि मैं कौन बोल रही हूँ या बोल रहा हूँ! वाजिब है कि इतनी अक्ल बाकी है कि सवाल पूछ पा रहे हो। सुनो, ध्यान से सुनो-  


...मैं वह आदमी बोल रहा हूँ जो अभी भी बिना टच वाले मोबाइल फोन के टच के बिना रहता हूँ। वही नोकिया वाला फोन इस्तेमाल करता हूँ। मैं बहुत पढ़ा लिखा नहीं। मैं कोई भी हो सकता हूँ। मैं साधारण सा मजदूर सुरेशवा भी हो सकता हूँ, मैं आपके घर की जुड़ाई और चुनाई करने वाला राज मिस्त्री रामजतन भी हो सकता हूँ जिसे आपने कभी पानी और चाय पिलाई होगी। मैंने आपका घर बनाया होगा लेकिन आपको मेरा चेहरा याद नहीं होगा। हो ही कैसे सकता है! मेरा कोई फिक्स या जमा जमाया चेहरा ही नहीं। मैं कभी सुबह बस न मिलने पर पैदल ही काम पर गुटों में बतियाते चला जाता हूँ तो कभी शाम को लौटते समय बस से भी लटक कर घर वापस लौटने का जोखिम उठा लेता हूँ। तभी मेरे मन में शिकायत के नाम पर कुछ खास नहीं होता। न सही समय पर मजदूरी मिलने का गम मुझे खाता है और न मैं फेसबुक का इस्तेमाल कर किसी को गाली देता हूँ। मैं सिंपल जीता ही हूँ। मुझे यही अच्छे से आता है। मेरे मुंह में धूल उड़ उड़कर जम जाती है या जेठ में धूप मुंह क्या शरीर भी जला देती है फिर भी मैं मुंह नहीं ढांपता। मैं काम पर जाता हूँ और आता हूँ। यही नहीं मैं भारत का नाम रोज़ रोज़ नहीं ले पाता। मुझसे नहीं हो पाता यह सब। मैं गाँव ही बोल लेता हूँ। मैं इतना कम पढ़ा लिखा हूँ। न समझ हूँ कि पढ़ी लिखी भाषा नहीं बोल पाता। 


मैं किताब नहीं समझ पाता। मैं खुद अपने जीवन की किताब में जीता हूँ। मेरे पास चाल और चलन वाली जीभ नहीं है। मैं जो बोलता हूँ उसका वही मतलब होता है। मुझे क्या पता कि लक्षणा या अभिव्यंजना शब्द शक्ति क्या होती है। जो हिन्दू रास्ते में टकरा जाये तो राम राम कर देता हूँ जो मुसलमान भाई मिल जाये तो सलाम कह देता हूँ। मैं ऐसा जान बूझकर नहीं करता। मेरी तो बनावट ही ऐसी है। मैं ऐसा ही हूँ। मुझे ट्विटर या हैश टैग क्या होता है समझ नहीं आता। मुझे अपडेट शब्द का मतलब भी नहीं पता। मुझे देशभक्ति नहीं पता कि क्या होती है। मैं अपने गाँव के रसु भगत को भक्ति समझ जाता हूँ। हाँ, कबीर का नाम सुना है। कुछ दोहे भी पता है। जैसे बुरा जो देखन मैं चला...रुको भाई। मैं अभी खाना पकाकर आता हूँ। परदेसी हूँ न। खुद ही पकाना पड़ता है। आए हो तो खाकर जाना। बहुत दिन हो गए कोई मिला नहीं जिससे ठीक से बात नहीं हुई। रुको तुम्हारे लिए चाय रख देता हूँ। दूध नहीं है। काली चाय पियोगे। अच्छी लगती है। रुको तो ज़रा, आता हूँ।


...मैं महीने का राशन इकट्ठे नहीं खरीदती। जरूरत जरूरत पर पास की शीतल की दुकान से ले आती हूँ। हाँ, सरकार की तरफ से गेहूं और चावल मिल जाता है पर, पूरा नहीं पड़ता। अच्छा जाने दो। मेरे तीन बच्चे हैं स्कूल जाने वाले। ठीक से पढ़ते ही नहीं। मुझे उनकी बहुत चिंता होती है। स्कूल में ठीक से पढ़ाया ही नहीं जाता। पैसा होता तो प्राइवेट स्कूल में डाल देते। कुछ तो बन जाते। सरकारी में हाल खराब है। ट्यूशन भी लगवाया है फिर भी इन्हें कुछ समझ नहीं आता। इन्हें तो फुर्सत ही नहीं कुछ सोचने या बच्चों को डांटने की। काम में रहते हैं। कुछ दिन पहले ही मैंने दसवीं बार कहा था कि एक जोड़ी कपड़े सिलवा लो। पर कहते हैं यह साल इन्हीं से निकल जाएगा। सुने तब न मेरी। मैं तो सेल में से साड़ी खरीद लेती हूँ। 250 हो गया है दाम। पहले यही साड़ी 150 में मिलती थी। महंगाई तो बढ़ती ही जा रही है। अभी परसों ही चूड़ी पहनने की सोची तो चूड़ीवाला 20 रुपये दर्जन बताने लगा। सोचा एक ही बार करवा चौथ पर पहन लूँगी। अब त्योहार ही त्योहार आ रहे हैं। त्योहारों में मोहल्ले से लेकर बाज़ार तक रौनक आ जाती है।


अच्छा लगता है, जब भी कोई त्योहार आता है। हमारे मोहल्ले में तो सभी तरह के लोग रहते हैं। सभी हिन्दू...मुसलमान, पंजाबी, बंगाली। अभी कुछ दिनों पहले मलयाली भी आए हैं। सब की सब नर्स हैं। अच्छा है। मोहल्ले में ऐसे लोग रहने चाहिए।...अभी कुछ दिन पहले मेरा छोटा वाला बता रहा था कि अपने यू पी में किसी मुसलमान को मार दिया कुछ कमीनों ने। पापी हैं। पाप बटोर रहे हैं। अरे कोई कुछ भी खाये किसी के बाप दादा का क्या जाता है। मुझे तो डर भी लगने लगा है आजकल। मेरी सास जो थीं, वो दीपावली पर एक दीया आसपड़ोस के नाम भी जलाया करती थीं। सो मैं भी ऐसा ही करती हूँ। एक दीया और जला देती हूँ कि सब ठीक ठाक रहें। जिंदगी का क्या ठिकाना है। कब किसको क्या हो जाये। चाय पिएंगे आप लोग? शाम को कभी कभी बना लेती हूँ। आए हो तो बैठो। अभी चाय बनाकर लाती हूँ। आराम से पिएंगे। फिर न जाने आप कब आएंगे। इन्हें पता चला कि घर में कोई आया था और मैंने चाय नहीं पिलाई तो गुस्सा करेंगे। आप आराम से बैठो... मैं अभी आई।
(किचन से) अरे कल टीवी पर दिखा रहे थे। हमारे सैनिकों को मार दिया पाकिस्तान ने। बताओ उनके परिवार का क्या हाल हो रहा होगा। उनके जच्चा बच्चा अब क्या करेंगे। मेरे तो आँसू आ गए। बताओ भला किसी को मारने से भी कोई जीतता है। हम एक ही तो हैं। जाने इन लोगों को क्या आग लगी है? गरीब ही मरता है। सैनिक ही सबसे महान है। अरे अपनी जान हम लोगों के लिए दे रहा है। उन्हीं के नाम का दीया जलाना चाहिए। सबसे पवितर काम ये लोग ही कर रहे हैं। मुझे तो उन्हें देख कर बहुत अच्छा लगता है।...मेरे छोटे वाले का शरीर काफी अच्छा है। हम तो चाहते हैं कि ये सैनिक बन जाये। कुछ तो करेगा देश के लिए। अपनी मिट्टी ही सब कुछ होती है। चाहे कैसी भी हो।...लो चाय पियो। गरम है। आराम से पियो।           

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...