चिराग दिल्ली में दिल्ली का एक अलग ही चेहरा देखने को मिलता है। मुझे उसके आसपास के इलाक़ों की कोई खास खबर नहीं लेकिन बस स्टॉप की हल्की फुल्की खबर जरूर है। जी हाँ ऐसी जगह जो सबके लिए है पर कोई भी वहाँ रुकने के लिए नहीं ठहरता। चिराग दिल्ली को मैं मस्जिद मोड़ कहकर पुकारती हूँ पर बस स्टॉप पर मस्जिद मोथ लिखा गया है। सरकारी शब्दावली है सो मैं खुद को ही गलत कह कर शांति से बैठ जाती हूँ। यहाँ पर लगने वाला 'ट्रैफिक जाम' सभी को जम कर मज़ा देता है। ये जाम कभी नहीं देखता कि आप गरीब हो या अमीर। आप बे-कार हो या फिर बेकार। औरत हो या आदमी, सभी को बराबर की प्रताड़ना देता है। बस स्टॉप एक ऐसी जगह है जहां सभी को जल्दी है। शहर है ही ऐसी बला जो किसी को सांस नहीं लेने देता। कई बार मैंने गौर किया है कि लोग कुछ इस क़द्र जल्दी में होते हैं कि ऑक्सिजन लेने की बजाय कार्बन डाय ऑक्साइड अपने अंदर उतार लेते हैं। गजब है हम लोगों की ज़िंदगी भी।
चलती का नाम गाड़ी - सौजन्य गूगल
हुआ यह था कि मैं एक ख़ास नंबर की बस के इंतज़ार में थी। इस नंबर की बस के बारे में यह कहा जाता है कि इसकी सर्विस बहुत अच्छी है। मिनट मिनट में आती हैं। सो मैं पिछले 20 मिनट से इस बस का कमाल देख रही थी। दो बस आई थीं। लेकिन एक लाल वाली थी तो सोचा खामखां ज़्यादा पैसे खर्च होंगे और एसी का मज़ा भी नहीं मिलेगा। सो छोड़ दी बस। जब हरी बस आई तब उसके ऊपर लोगों के लटकने के करतब को मैंने देखना ही बेहतर समझा। मन से कहा कौन सी मीटिंग में जाना है। आराम से खाली बस में जाएंगे। सीट भी मिल जाएगी।
इस बीच हर तरह के लोग यहाँ बस का इंतज़ार करते हुए दिखे। सभी की नाक, आँख, हाथ पैर, सब कुछ एक जैसा था पर सभी के चेहरे अलग थे। मैं तब से यही गौर कर रही थी। तभी एक मेट्रो फीडर बस आई जिसने अल्प समय के लिए मेरा मनोरंजन किया। अक्सर इन बसों में 16 से 17 साल के बच्चे 'हेल्परी' का काम करते हैं। सवारी को कैसे अपनी बस में ले जाना है, का हुनर ये सब बिना किसी पेशेवर कोर्स के किए ही सीख लेते हैं। इनका सबसे मजबूत पक्ष तरह तरह की आवाज़ें निकालना होता है। ये सवारी को ऑन द स्पॉट ऑफर दे देने की क्षमता रखते हैं। ये ऑफर रूट को लेकर होते हैं। जैसे फीडर घूम कर जाएगी या फिर सीधे फ्लाय ओवर के ऊपर से जाएगी। जिसको ऑफर पसंद आता है वह चढ़ जाता है। लेकिन सुबह दफ्तरी का वक़्त हो या फिर शाम को घर लौटने का, तब कोई इतना नहीं सोचता। बस इस फीडर में कैसे अपनी जगह बना ली जाये और सफर लायक खड़े होने की 'पॉजीशन' बनाने का हुनर आना चाहिए तब आप इस शहर को समझिए की कुछ कुछ समझ रहे हैं वरना तो शहर ही समझा देगा। बढ़िया से।
बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ- सौजन्य गूगल
सुबह और शाम के समय 'यातायात के संसाधनों' का महत्व मुझे तब बेहतर समझ आया जब घर से बाहर के टीचर यानि इस दुनिया से मुलाकात हुई। ज़रा बस स्टॉप के पीछे खड़े होकर भीड़ से अपने को अलग करने पर 'भागदौड़ से लेकर भगदड़' तक की शब्दावली समझ आ जाती है। सब कुछ धरा का धरा रह जाता है। क्या शिष्टाचार है। कौन औरत है और कौन बुजुर्ग... सब एक दूसरे को धक्का देकर आगे जाना चाहते हैं नहीं बल्कि बस में अपनी अपनी जगह तय करना चाहते हैं। बच्चों की इसमें क्या बिसात।...मेट्रो की बात भी कर ली जाए तो बेहतर होगा। मेट्रो वह हाई टेक गाड़ी हाई जो सवारी को भी हाई वाला टेक देती है। लेकिन सुबह और शाम को वह भी पस्त हो जाती है। जी हाँ पढे लिखे लोग भी कुछ अलग अंदाज़ में पेश आते हैं। घटना नहीं घटा करतीं। अब तो दुर्घटना न घटे तो मालूम ही नहीं चलता कि वास्तव में सफर किया है।
पढ़ाकू लोग-सौजन्य गूगल
लेकिन इस सब से जुदा एक और तस्वीर है जो मुझे बहुत पसंद है। डीटीसी (दिल्ली परिवहन निगम) की एक पुराने वर्जन की बस है जो अपने चलने की खबर कुछ मीटर पहले से ही दे देती है। इसी बस पर एक लाइन लिखी रहती है जिसे मैं सन् 2009 से आजतक एक ही तरह से पढ़ रही हूँ। 'डीटीसी-50 वर्षों से आपकी सेवा में" पंक्ति पढ़कर सच में गजब का एहसास होता है। कॉलर ऊंची होती है। ये बसें लॉ फ्लोर वाली बसों से ऊंची हैं। जब इसकी खिड़कियाँ खुली हों तब हवा जो छू कर जाती है तमाम तरह के अहसासों से भर देती है। जाती हुई गर्मियों और आती हुई सर्दियों के बीच के दिनों में 'इंडिया गेट' के पास से जब यह बस आपको लेकर गुजरती है तब वास्तव में जीने का थोड़ा और मन करने लगता है। लगता है कि वक़्त में ठहराव आ जाए। कुछ पल ठहर जाया जाये। एक ऐसा नज़ारा उभरता है जहां रोशनियाँ हँसती हैं। हवा भी बातें करती हैं। लोग अपने परिवार के पास वहाँ टहल रहे होते हैं। तब एक और पंक्ति दिमाग में आती है कि ज़िंदगी वास्तव में उतनी बुरी भी नहीं।
अभी के लिए इतना ही। मैं जाती हूँ। बस आ गई।
चलती का नाम गाड़ी - सौजन्य गूगल
हुआ यह था कि मैं एक ख़ास नंबर की बस के इंतज़ार में थी। इस नंबर की बस के बारे में यह कहा जाता है कि इसकी सर्विस बहुत अच्छी है। मिनट मिनट में आती हैं। सो मैं पिछले 20 मिनट से इस बस का कमाल देख रही थी। दो बस आई थीं। लेकिन एक लाल वाली थी तो सोचा खामखां ज़्यादा पैसे खर्च होंगे और एसी का मज़ा भी नहीं मिलेगा। सो छोड़ दी बस। जब हरी बस आई तब उसके ऊपर लोगों के लटकने के करतब को मैंने देखना ही बेहतर समझा। मन से कहा कौन सी मीटिंग में जाना है। आराम से खाली बस में जाएंगे। सीट भी मिल जाएगी।
इस बीच हर तरह के लोग यहाँ बस का इंतज़ार करते हुए दिखे। सभी की नाक, आँख, हाथ पैर, सब कुछ एक जैसा था पर सभी के चेहरे अलग थे। मैं तब से यही गौर कर रही थी। तभी एक मेट्रो फीडर बस आई जिसने अल्प समय के लिए मेरा मनोरंजन किया। अक्सर इन बसों में 16 से 17 साल के बच्चे 'हेल्परी' का काम करते हैं। सवारी को कैसे अपनी बस में ले जाना है, का हुनर ये सब बिना किसी पेशेवर कोर्स के किए ही सीख लेते हैं। इनका सबसे मजबूत पक्ष तरह तरह की आवाज़ें निकालना होता है। ये सवारी को ऑन द स्पॉट ऑफर दे देने की क्षमता रखते हैं। ये ऑफर रूट को लेकर होते हैं। जैसे फीडर घूम कर जाएगी या फिर सीधे फ्लाय ओवर के ऊपर से जाएगी। जिसको ऑफर पसंद आता है वह चढ़ जाता है। लेकिन सुबह दफ्तरी का वक़्त हो या फिर शाम को घर लौटने का, तब कोई इतना नहीं सोचता। बस इस फीडर में कैसे अपनी जगह बना ली जाये और सफर लायक खड़े होने की 'पॉजीशन' बनाने का हुनर आना चाहिए तब आप इस शहर को समझिए की कुछ कुछ समझ रहे हैं वरना तो शहर ही समझा देगा। बढ़िया से।
बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ- सौजन्य गूगल
सुबह और शाम के समय 'यातायात के संसाधनों' का महत्व मुझे तब बेहतर समझ आया जब घर से बाहर के टीचर यानि इस दुनिया से मुलाकात हुई। ज़रा बस स्टॉप के पीछे खड़े होकर भीड़ से अपने को अलग करने पर 'भागदौड़ से लेकर भगदड़' तक की शब्दावली समझ आ जाती है। सब कुछ धरा का धरा रह जाता है। क्या शिष्टाचार है। कौन औरत है और कौन बुजुर्ग... सब एक दूसरे को धक्का देकर आगे जाना चाहते हैं नहीं बल्कि बस में अपनी अपनी जगह तय करना चाहते हैं। बच्चों की इसमें क्या बिसात।...मेट्रो की बात भी कर ली जाए तो बेहतर होगा। मेट्रो वह हाई टेक गाड़ी हाई जो सवारी को भी हाई वाला टेक देती है। लेकिन सुबह और शाम को वह भी पस्त हो जाती है। जी हाँ पढे लिखे लोग भी कुछ अलग अंदाज़ में पेश आते हैं। घटना नहीं घटा करतीं। अब तो दुर्घटना न घटे तो मालूम ही नहीं चलता कि वास्तव में सफर किया है।
पढ़ाकू लोग-सौजन्य गूगल
लेकिन इस सब से जुदा एक और तस्वीर है जो मुझे बहुत पसंद है। डीटीसी (दिल्ली परिवहन निगम) की एक पुराने वर्जन की बस है जो अपने चलने की खबर कुछ मीटर पहले से ही दे देती है। इसी बस पर एक लाइन लिखी रहती है जिसे मैं सन् 2009 से आजतक एक ही तरह से पढ़ रही हूँ। 'डीटीसी-50 वर्षों से आपकी सेवा में" पंक्ति पढ़कर सच में गजब का एहसास होता है। कॉलर ऊंची होती है। ये बसें लॉ फ्लोर वाली बसों से ऊंची हैं। जब इसकी खिड़कियाँ खुली हों तब हवा जो छू कर जाती है तमाम तरह के अहसासों से भर देती है। जाती हुई गर्मियों और आती हुई सर्दियों के बीच के दिनों में 'इंडिया गेट' के पास से जब यह बस आपको लेकर गुजरती है तब वास्तव में जीने का थोड़ा और मन करने लगता है। लगता है कि वक़्त में ठहराव आ जाए। कुछ पल ठहर जाया जाये। एक ऐसा नज़ारा उभरता है जहां रोशनियाँ हँसती हैं। हवा भी बातें करती हैं। लोग अपने परिवार के पास वहाँ टहल रहे होते हैं। तब एक और पंक्ति दिमाग में आती है कि ज़िंदगी वास्तव में उतनी बुरी भी नहीं।
अभी के लिए इतना ही। मैं जाती हूँ। बस आ गई।