मैं जब पाँचवीं कक्षा में पढ़ती थी। इस उम्र में बाहर जाने के ढेरों मौक़े मिला करते थे। खासतौर पर छोटी बड़ी खरीददारी के दौरान। अगर कोई बाहर अपने साथ ले जाने को राज़ी नहीं होता था तब मेरा एक ही हथियार होता था। घर के फर्श पर लोट-लोट कर खूब रोना और तब तक चुप न होना जब तक कि राजीनामा न मिल जाये। जैसे ही 'हाँ' होती मैं झट से खड़ी होकर खुश हो जाया करती।
घर से बाहर की दुनिया मेरे लिए हमेशा ही मज़ेदार और फायदेमंद रही है। ऐसा ही सब के साथ होता है शायद।
ऐसे ही एक दफा बड़ी रोचक और प्यारी दादीजान से मुलाकात हुई थी। पापा के साथ उनके किसी दोस्त के घर जाना हुआ था। हमें स्कूल का बस्ता खरीदना था। चटकनी वाला। क्लास की एक दोस्त शमा परवीन को चटकनी वाला बस्ता दिलवाया गया था। सो मैं कैसे पीछे रह सकती थी। बहुत ज़िद्द कर के पापा को मनाया था। छुट्टी का दिन तय किया गया था बस्ता खरीदने के लिए।
जब बस्ता खरीद लिया गया और क्रीम वाली आइसक्रीम खाई जा रही थी तभी पापा के एक दोस्त मिल गए। वे जबर्दस्ती रात को आठ बजे की चाय पिलाने अपने घर ले गए। पापा अनचाहे मन से गए। मुझे तो बहुत अच्छा लग रहा था कि चलो किसी का घर देखने को मिलेगा।
तंग गलियों से होते हुए हम उनके घर में थोड़ी देर में ही मौजूद थे। घर में बहुत तेज़ पीली रोशनी बिखरी हुई थी। एडिशन वाला बल्ब जल रहा था। कैसेट पर आशिक़ी फिल्म का मशहूर गीत साँसों की जरूरत है जैसे... का अंतरा तेज़ आवाज़ में बज रहा था। एक 19 या 20 साल की लड़की गाना गाते हुए बड़ी सी प्रात में आटा गूँथ रही थी। कोने में एक उम्र दराज़ सफ़ेद बालों वाली औरत आँखें बंद कर बैठी हुई थी। मुझे उन्हें देखकर जरा डर ही लगा। हमें देखकर वह आटा गूँथने वाली लड़की फटाफट उठकर चुन्नी उठाने भागी। चुन्नी लेकर तुरंत अंदर के छोटे कमरे में चली गई।
उसके पिता जी ने मुझे उस बुजुर्ग औरत के पास बिठाते हुए कहा-'बेटी दादी के पास बैठो हम अभी आते हैं। शबाना, बेटी तीन कप चाय रख दे ज़रा जल्दी से।'
लड़की ने दूर से आवाज़ बाहर धकेलते हुए कहा- 'जी अब्बू अभी रखे देती हूँ।'
उसने बाहर निकल कर आशिक़ी के गीत को बंद किया और फिर मुसकुराते हुए अंदर चली गई। घर छोटा ज़रूर था पर करीने से सजा हुआ। ऐसा मालूम होता था कि कोई दिन रात घर को सजाता और साफ करता है। घर में दरवाजों पर हाथों से तैयार की हुई सुंदर और रंग-बिरंगी झालर टंगी हुई थी। दीवारों पर ही पत्थरों की अलमारी बनी हुई थी जिस पर अखबार को डिजाइन में काटकर बिछाया गया था। उस पर बर्तन सजे हुए थे। टीवी को क्रोशिये की बनी झीनी चादर से ढककर रखा गया था। दीवारों पर भी कुछ कुछ चित्र टंगे थे जो मुझे अब याद नहीं पड़ रहे।
अब तक बुजुर्ग औरत मुझे देख रही थी। न जाने कहाँ से एक टॉफी लेकर मुझे दिखाती हुई बोलीं- 'टॉफी खाओगी?'
मैंने न में सिर हिलाया।
वह फिर बोलीं- 'अपने अब्बू से डर रही हो?'
मैंने फिर न में सिर हिलाया।
अब वो और भी मुस्कुराने लगीं। थोड़ी देर में वह लड़की चाय तैयार कर लाई। उसके अब्बू दो कप चाय अंदर ले गए और पीछे गर्दन कर बोलते गए- 'बच्ची को कुछ खिला पीला देना।'
वह लड़की जिसका नाम शबाना था वह झट से एक छोटी तस्तरी में बिस्कुट लाकर हमारे पास बैठ गई। मुझसे मेरा नाम पूछा। मैंने एक बिस्कुट का छोटा टुकड़ा मुंह में लेते हुए बताया। अब वह बूढ़ी दादी मेरे सिर पर हाथ रखकर बोलती गईं- 'खूब तालीम हासिल करो। अल्लाहताला तुम्हें हर तरह की कामयाबी दें। खुश रहो।'
मुझे हल्की हंसी आई। लड़की ने मेरी तरफ इशारा करते हुए अपने सिर के पास उंगली घुमाई। मैं समझ गई उसका इशारा।
फिर वह उठने लगी। तब दादी ने पूछा- 'अब कहाँ?'
दीथि मुखर्जी द्वारा बनाया गया
वह बोली सब्जी छौंकने जा रही हूँ। दादी ने तेज़ आवाज़ में उसे कहा- 'अरी लोहे की कढ़ाई में सब्जी छोंकियो। स्टील की कड़ाही में मजा न आवे सब्जी का। सुन ज़रा तैल ज़्यादा डालियो। नमक भी फीका न खाया जाये है मुझसे।...'
'हाँ हाँ दादी जान। ठीक है!'... कहती हुई वो लड़की अंदर चली गई।
अब दादी जी मुझसे पुछने लगी- 'तुम्हारी अम्मी किस कढ़ाई में खाना पकावे है?'
मैंने कहा-'सफ़ेद वाली कढ़ाई में।'
दादी बोलीं- 'हाय अल्लाह! खाना अच्छा भी लगे है? घर जाकर कहियो अम्मी लोहे की कढ़ाई में खाना पकाओ वरना नहीं खाऊँगी।'
मैंने एक और बिस्कुट उठाते हुए- 'कहा ठीक है।'
दादी अब बोली- 'जब मैं ससुराल गई थी तब मेरी अम्मी ने मुझे यही बर्तन दिये थे। इत्ते इत्ते...बड़े बड़े...तूम भी जब ससुराल जाना तब अम्मी से लोहे की कढ़ाई मांग लेना। खाने में ज़ायका आता है।'
मैंने हाँ में सिर हिलाया। इतने में पापा आए और बोले चल बेटे जल्दी देर हो रही है। दादी बोली-'अभी तो दो मिनट भी न हुए। लड़की को बैठने दो।'
पापा के दोस्त बोले- 'अम्मी कल फिर आएंगे। अभी जाने दो।'
हम दुआ सलाम कर के बाहर आ गए। मैंने दादी की आवाज़ बाहर तक सुनी- 'जब भी किसी से बाते करो। लोग उठकर चले जाते हैं!'...वो और कुछ भी बोल रही थी। पर मुझे सुनाई नहीं पड़ा।
घर में देर से आने के कारण माँ को गुस्सा था। लेकिन थोड़ी देर में गुस्सा रफ्फ़ू भी हो गया। जब हमारा खाना पीना हो गया तब मैंने माँ को दादीजान के बारे में बताया। माँ को बहुत हंसी आई। मैंने माँ को हँसते हुए कहा- 'मुझे मेरी शादी में लोहे की कढ़ाई देना।'
माँ और भी तेज़ हंसने लगीं
(किसी की आपबीती- लिखने के लिए खुद ही मुझसे साझा किया गया है।)
No comments:
Post a Comment