मुझे लगता है कि मैं खुशकिस्मत हूँ। कुछ किताबों के साये को अभी भी पी लेती हूँ। ऐसा ही लगा जब मीर से जुड़ी एक छोटी और पतली सी किताब हाथ आ लगी। मुझे उर्दू और फारसी के बारे में तनिक भी जानकारी नहीं इसलिए बाक़ी शायरों को पढ़ने में दिक्कतों से मुलाकात हो जाती है। लेकिन जब मीर साहब को पढ़ा तो नासमझी की बहुत तकलीफ नहीं हुई। किताब मुझे अच्छी मालूम हुई तो थोड़ी बहुत मीर के बारे में जानकारी इंटरनेट से जुटाकर इस पोस्ट को लिखने का खयाल और लालच आया। चलिये मिलते हैं-
उल्टी हो गयी सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
अहदे-जवानी रो-रो काटा पीरी में लों आंखें मूंद
यानी रात बहुत जागे थे सुबह हुई आराम किया
नाहक़ हम मजबूरों पर यह तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं हमको अबस बदनाम किया
यां के सफ़ेदो-स्याह में हमको दख्ल जो है सो इतना हो
रात को रो-रो सुबह किया और दिन ज्यूँ-त्यूँ शाम किया
'मीर' के दोनों-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
कश्का खैंचा दैर में बैठा कब तक तर्क इस्लाम किया
कुछ ऐसा ही अंदाज़ था मक़बूल शायर मीर तक़ी मीर का। मीर तक़ी मीर अगर आज होते तो शायद मुझ पर बेहद नाराज़ होते और अपने पर ज़रा भी लिखने नहीं देते। उनके मिजाजी के क़िस्से बेहद मशहूर हुए और आज भी लोग उनका ज़िक्र किया करते हैं। अपने समय के वह महान शायर कहे जाते हैं। वे थे भी। मैंने उनकी कुछ रचना पढ़ी तो मैं उनको पढ़ती गई। हालांकि मैं उर्दू और फारसी के बहुत से शब्दों से अजनबी हूँ पर इंटरनेट और एक दो किताबों से मदद लेकर थोड़ा सा ही शायर 'मीर' को जान पाई हूँ। किताब से मुझे यह जानकारी मिली की वह दुख-दर्द और करुणा के शायर हैं। उनकी लिखी रचनाओं को भी हिन्दी फिल्मों में खूब जगह मिली है और वे गीत आज भी सदाबहार की पंक्ति में पाये जाते हैं।
फ़ोटो गूगल से साभार
मीर को पढ़कर (थोड़ा सा) लगता है कि अगर वे आज होते बिना डरे और भी बहुत मजबूती के साथ कलम उठाते। बेबाकी उनकी शायरी में बहुत अच्छी तरह से समझ आती है। इनका जन्म मुग़ल समय के शहरों के शहर आगरा में सन् 1724 को बताया जाता है। इस तारीख को लेकर चिंतकों में काफी मतभेद भी है। कई लोग कहते हैं कि मीर ने लंबी उम्र पाई थी इसलिए वे उनकी उम्र 100 वर्ष भी बताते हैं। लेकिन यदि कुछ प्रचलित बातों पर गौर किया जाये तो मीर की उम्र 88 साल बताई जाती है। जी हाँ, ये मशहूर शायर इतने लंबे समय तक जीया और उर्दू के साथ साथ फारसी साहित्य को भी अपने लेखन से काफी रौनक बख़्शी।
औरंगज़ेब के बाद के शासक हिंदुस्तान में राज कर रहे थे। मीर का भी यही समय था। मीर के समय का हिंदुस्तान काफी उथल-पुथल वाला शहर था। इन्हीं के समय में भारत पर कई दहशत भरे हमले हुए जिनमें अहमद शाह अब्दाली और नादिर शाह के दिल्ली में हुए भयानक हमले शामिल हैं। खुशवंत सिंह के चर्चित अंग्रेज़ी के उपन्यास 'दिल्ली' में मीर और इन दो विदेशी हमलावरों का दिलचस्प और गहराई के साथ वर्णन है। मीर के बारे में लेखक ने अलग से पूरा अध्याय रचा है और उनकी निजी ज़िंदगी पर अच्छी रोशनी डाली है। मीर के जीवन में भी दिल्ली जैसी ही अफरा तफरी की एक झलक दिखाई देती है। वे एक जगह बहुत खूबसूरती से लिखते भी हैं:-
हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने
दर्दों-गम कितने किए जमा तो दीवान किया
मीर ने अपने जीवन परिचय को 'ज़िक्रे-मीर' नामक फारसी भाषा की किताब के रूप में रचा है। यह किताब बहुत जगह तो उपलब्ध नहीं है फिर भी अगर कोशिश में खोजने का जज़्बा मिला दिया जाये तो हासिल की जा सकती है। (मेरे पास नहीं है अभी) मीर साहब के हुलिये के बारे में दर्ज़ है कि:-
'मीर साहब मियाना क़द, लागर-अंदाम (दुबले-पतले), गंदुमी (गेहूंआं) रंग के थे। हर काम मतानत (धैर्य) और आहिस्तगी के साथ किया करते थे। बात बहुत कम, वह भी आहिस्ता से। आवाज़ में नरमी और मुलाइमियत थी। ज़ईफ़ि ने इन सब सिफ़तों को और भी क़वी (बढ़ाया) किया।'
चूंकि मीर की तुनकमिज़ाजी भी उन्हीं की तरह मक़बूल रही सो इस बात पर भी कई शेर पढ़ने को मिलते हैं जो उनके समय के बाक़ी शायरों ने कसे थे। जैसे :-
पगड़ी अपनी संभालिएगा 'मीर'
और बस्ती नहीं, ये दिल्ली है
जाने अनजाने आज मीर का ज़िक्र इसलिए भी कर रही हूँ कि मीर को पढ़ा नहीं बल्कि अपने में जज़्ब किया जा सकता है। इसके अलावा कोई रास्ता मुझे नहीं सुझा। उनकी जुबां के शब्दों में बहुत आम और रोज़मर्रा के लफ्ज सुनाई पड़ते हैं। आज मुझे उर्दू-फारसी जुबानों के शब्दकोश की ज़रूरत पड़ रही है पर उस समय यकीनन जुरुरत नहीं पड़ती होगी। मीर को दिल से सुना या पढ़ा जा सकता है। मीर हर किसी के नजदीक जाने में सफल हुए से लगते हैं:-
यूं उठे आह गली से हम
जैसे कोई जहां से उठता है
आतिशे-इश्क़ ने रावन को जलाकर मारा
गर्चे लंका सा था उस देव का घर पानी में
इस तरह के बेमिसाल शायर का निधन सन् 1810 को बताया जाता है। लेकिन मीर आज भी अपनी रचनाओं से महकते हैं। आज भी पत्ता पत्ता बूटा बूटा उनका हाल जानना चाहता है। जाते जाते आपको मीर की कुछ रुबाइयों और शायरी के तोहफे दे जाती हूँ। आइये बैठिए।
शायरी-
गुल ने हरचंद कहा बाग़ में रह, पर उस बिन
जी जो उचटा तो कीसू तरह लगाया न गया
'मीर' मत उज्र गरेबाँ के फटे रहने का कर
जख्मे-दिल, चाके-जिगर था कि सिलाया न गया
(उज्र- बहाना, चाके-जिगर- कलेजे का छेद)
इधर से अब्र उठकर जो गया है
हमारी ख़ाक पर भी रो गया है
मुसायब और भी थे पर दिल का जाना
अज़ब इक सानहा सा हो गया है
सिरहाने 'मीर' के कोई न बोलो
अभी टूक रोते-रोते सो गया है
(अब्र-बादल, मुसायब- मुसीबतें, सानहा-दुर्घटना)
मुहब्बत ने खोया खपाया हमें
बहुत उसने ढूंढ़ा न पाया हमें
जागना था हमको सो बेदार होते रह गए
कारवां जाता रहा हम हाय सोते रह गए
जी दिये बिन वह दुरे-मक़सूद कब पाया गया
बेजिगर थे 'मीर' साहब जान खोते रह गए
(दुरे-मक़सूद- मनचाहा मोती)
चाहत का इज़हार किया सो अपना काम खराब हुआ
इस परदे के उठ जाने से उसको हम से हिजाब हुआ
(हिजाब-शर्म)
रूबाइयाँ
अल्लाह को ज़ाहिद जो तलब करते हैं
जाहीर तक़वा को किस सबब करते हैं
दिखलाने को लोगों को है दोनों की सलाह
पेशे-अंजुम नमाज़े-शब करते हैं
(तक़वा-पवित्रता, पेशे-अंजुम-सितारों के सामने, नमाज़े-शब- रात की नमाज़)
हम 'मीर' से कहते हैं तू न रोया कर
हंस खेल के टूक चैन से भी सोया कर
पाया नहीं जाने का वो दुरे-नायाब
कुढ़-कुढ़ अबस जान को मत खोया कर
(दुरे-नायाब- न हासिल हो सक्ने वाला मोती)
हर रोज़ नया एक तमाशा देखा
हर कूचे में सो जवाने-रअना देखा
दिल्ली थी तिलिस्मात कि हर जागह 'मीर'
इन आँखों से हमने आह क्या-क्या देखा
( जवाने-रअना- सुंदर नौजवान)
------------------------------------------------------------
किताब-'मीर' तक़ी मीर
सं- प्रकाश पंडित
प्र-राजपाल
व
इंटरनेट की मदद ली
No comments:
Post a Comment