यह बहुत बड़ी गलतफहमी है कि हम जागे हुए हैं। लंबी-गहरी नींद और आलस का बड़ा टुकड़ा थमा देने वाली रोज़मर्रा जितनी शरीफ दिखती है वह उतनी होती नहीं। सुबह घर से तैयार होकर निकलना, धक्के खाना, काम करना, लंच खाना, पानी पीना, घड़ी देखना, वापस घर आना और फिर सो जाना, यही है एक ज़िंदगी का उदाहरण। फिर ...सनडे के दिन को गिन लेना भी तो जरूरी है। वरना उसे भी शिकायत होगी और हमें भी।
फिर भी क्या यही सब के लिए मैं यहाँ हूँ?????
कभी कभी ऐसा लगता है कि पहले से ही एक मुनासिब रास्ता चुनकर आई हूँ। ये रोज़ रोज़ की ज़िंदगी ही मिलने नहीं दे रही तय और मुनासिब रास्ते से। यही है जो टूटी हुई शख़्सियत में मुझे तब्दील कर रही है।
फिर भी मैं उसे खोज रही हूँ। वह शायद सामने ही किसी अखबार की तरह फ़ोल्ड हुआ पड़ा है, शायद वह चाय के खाली कप में भी हो सकता है। नहीं। शायद बालों को सुलझाने वाली... दस रुपये वाली कंघी में कुछ टूटे हुए बालों के रूप में भी हो सकता है, ...नहीं नहीं शायद पानी के स्टील वाले गिलास में कहीं पानी के अंदर घुलमिल के पड़ा हो। पहचान की भी कितनी मेहनत है।
...एक न एक रोज़ पहचान ही लूँगी अपना मुनासिब रास्ता।
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