Sunday, 16 October 2016

टॉक-टोक

यह बात बिलकुल दुरुस्त है कि हम अपने लिए दूसरों की ज़ुबान में शब्द नहीं रख सकते। अल्फ़ाज़ नहीं सजा सकते। हम चाहे चिल्ला-चिल्लाकर लोकतंत्र कहते रहें लेकिन यह बिलकुल सच है कि सच्चा लोकतंत्र कभी आया ही नहीं। आपको लगता है? कम-से-कम मुझे ऐसा महसूस नहीं होता। समाज या राजनीति का ही लोकतंत्र नहीं हुआ करता। ज़ुबान का भी हुआ करता है। इसमें एक न मरने वाली गुलामी की बू आती है। एक तने हुए पेड़ सा घमंड दिखाई देता है।

                                                                        फोटो गूगल से साभार

जब तब इसके उदाहरण मिलते हैं। अक्सर बाहर की दुनिया में जब कुछ संवाद कान में घुसने आते हैं तब मालूम चलता है- 'उफ़्फ़, क्या भाषा है!'

कुछ रोज़ पहले की बात है। सड़क पर जाम लगने की वजह से रिक्शा वाला भी 20 मिनट से धूप में खड़ा था। सभी गाडियाँ शोर मचा रही थीं। ऐसा लग रहा था कि वे एक दूसरे के सिर से होकर भी अपनी कार निकाल कर जाना चाहते हैं। ऐसे में कारें जरा जरा सरक रही थीं। रिक्शे वाला बड़ी सावधानी से अपना रिक्शा भी आगे बढ़ा रहा था तभी अंजाने में आगे के पहिये की रगड़ लंबी कार में लग गई। कार में पीछे बैठी मालकिन को न जाने कैसे यह मालूम चल गया। उसके बगल में बैठा एक आदमी फटाफट उतर आया और रिक्शेवाले को मारने के लिए पूरी शक्ति से बढ़ा। तभी कुछ लोगों ने बीच बचाव किया और बोले- 'जाने दो गरीब है।'

अब तक रिक्शेवाला बे-इंतहा डर गया था। उसके चेहरे पर घबराहट साफ झलक रही थी। जब कार वाला हाथ नहीं उठा पाया तब उसने गालियों के औज़ार का इस्तेमाल करना शुरू किया। कुछ गालियां तो मेरे कान में अभी तक रीप्ले हो रही हैं। हराम..., सा..., सुअ..., भौं..., बहन..., ... । जिस हिसाब से उसकी गाड़ी का आकार बड़ा था ठीक उसी तरह से उसकी ज़ुबान का। रिक्शावाला न जाने क्यों एक भी शब्द न बोल पाया। वह यह भी नहीं बोला-'ए साहब गली मत दो!' हाँ मैं जानती हूँ कि वह पलट कर गाली नहीं दे सकता था। उसके खून में पलट कर वार करना नहीं शामिल। वह धरती पर 'करम' करने आया है। एक रोज़ मर भी जाएगा रिक्शा चलाते चलाते।

ऐसे ही उस दिन बस में दो औरतें अपनी बातों में मशरूफ़ थीं। उन्हें यह भी चिंता नहीं थी कौन उनकी बाते सुन रहा है और कौन नहीं। वह बस में बैठे अपने दिन की परेशानियों को साझा कर रही थीं। एक ने कुछ ऐसा कहा- 'नई मालिकीन आई है दो दिन पहले। ज़्यादा उमर नहीं है। मैं तो उसकी सास के बराबर की उमर की हूँ। फिर भी मुझे तू-तड़ाक कर रही थी। मन तो किया कि कह दूँ कि बीबी तू न बोलो। पर फिर चुप रह गई कि काम से खटपट न हो जाये।'

मैं उसके शब्दों में भी विरोध के बीज देख रही थी। ऐसा नहीं है कि विरोध के बीज नहीं थे। थे। पर वह तो सोये ही रह गए।

मैंने ये दोनों क़िस्से किसी के आगे रखे। मैंने उनसे पूछा कि ऐसे में सहज और मजबूत विरोध क्या हो सकता था? वह बोलीं- 'बात विरोध की नहीं है। विरोध एक दिमागी मालूमात है कि यह मेरे साथ गलत हो रहा है। एक जज़्बा है। इसे शब्दों या फिर क्रिया से दर्ज़ की जा सकती है। और भी तरीकें होंगे इसके। यहाँ 'टोकना' एक एक बेहतर जवाब हो सकता था। रिक्शेवाले के साथ अमूमन ऐसी घटना हुआ करती हैं। लेकिन यह भी है कि वह कितनी बार दूसरे के शब्दों को सुनते ही टोकता है! ठीक ऐसा ही उस घरेलू मददगार औरत के संदर्भ में है। उसके अंदर कहीं न कहीं टोकने का एक मजबूत पक्ष उभर रहा है। संभावना यह भी है कि एक रोज़ वह टोक दे। यह भी हो सकता है कि वह टोके ही न और सुनने की आदी हो जाये। हमें अपने कुछ कदम व्यक्तिगत तौर पर उठाने चाहिए। शायद ऐसा हो भी रहा होगा। जो तुम्हारी और हमारी नज़र में नहीं दिख रहा। हमें अपने या किसी और के विरोध को मापना नहीं चाहिए। यह देखना चाहिए कि विरोध दर्ज़ करने- कराने का जरिया कितना मजबूत है।'...उन्हों ने मुझे उस रोज़ काफी उदाहरण भी दिये।
                                    
मेरे लिए यह जानना जरूरी था कि जिन विरोधों को किताबों में आमतौर पर दर्ज़ नहीं किया जाता, उनकी शक्ल, बनावट या शैली कैसी होती है। मुझे आम लोगों के व्यक्तिगत 'टोक' कि तलाश थी। शायद मैंने एक सिरे को छूने की कोशिश की है। शायद एक रोज़ मैं कुछ बातों और पहलुओं तक पहुँच पाऊँगी। खुद से। लेकिन... 

हाँ, हम अपने लिए किसी की भाषा का निर्धारण नहीं कर सकते पर यह बात है कि नकारात्मक, बकवास और गाली-गलौज वाली लफ़्फ़ाज़ी को तुरंत टोका जा सकता है। औरतों को यह बोलने और टोकने की आदत जुरुर डाल लेनी चाहिए।       

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