काफी दिनों बाद ब्लॉग पर 'कम बैक' करना हो तो किसी शायर को लेकर लिख लेना अच्छा है। पिछले दिनों 'मीर' से मुलाक़ात करवाई आज इक़बाल से मिलने का मन हुआ सो उनकी ही कुछ रचनाओं को पढ़ रही थी। मन जितना 'मीर' को पढ़कर खुश हुआ था उतना इक़बाल को पढ़कर नहीं हुआ। लेकिन कुछ शायरी पर ध्यान जाना वाजिब था।
बचपन से एक गीत बहुत ही ज़ोर शोर से सुना और स्कूल ने उसको दिमाग में खूब करीने से पिरोया। हम्म...आप भी जानते हैं कि वह कौन सा गीत है। अरे वही वाला न :-
मुझे बस दो ही लाइनें याद हैं इस पूरे तराने की। आगे याद करने के बारे में कभी गौर भी नहीं किया। मन भी न हुआ। इसे तराना-ए-हिन्द भी कहकर पुकारा जाता है।
इक़बाल का ही लिखा एक शे'र मुझे क्या सभी को याद है और लोग मौक़े और बे मौक़े पर इसका इस्तेमाल भी करते हैं। याद आया?...अरे वही वाला:-
(रज़ा-मर्ज़ी)
इसका गज़ब मतलब मैंने खुद से ही कर लिया था। मुझे अपने स्कूली जमाने तक ख़ुदी कोई वस्तु ही मालूम होती रही और मैं यही सोचती थी कि किसी चीज को ऊंची आवाज़ में पुकारना होगा और आसमान में बैठा हमारा भगवान आएगा और हमें वही देगा जो हम मांगेंगे। मैंने यही सोचा था कि आएंगे तो चॉकोलेट ही मांग लूंगी और माँ के लिए गुलाबी साड़ी। दो ही चीज काफी है। बाकी चाहिए भी नहीं। खैर अब थोड़ा बहुत इस शे'र को समझ पाई हूँ। शायद आगे कभी अपने उपलब्ध दिमाग को लगाकर और भी समझूंगी।
इक़बाल साहब का नाम काफी लोकप्रिय तो है ही लेकिन उनकी लिखी कई रचनाएँ भी उनकी लोकप्रियता से आगे निकल गई हैं। मैंने अपने आसपास ऐसे कई कट्टर हिन्दू लोगों को देखा है जो अपने को ख़ालिस हिन्दू घोषित करते हैं और बिना जाने कि सारे जहां से अच्छा गीत किसने लिखा है, को गाहे-बगाहे गाते रहते हैं। यह उनकी देशभक्ति को मूर्त रूप भी देता है। मुझे अच्छा लगता है। उन्हें नहीं पता कि यह गीत किसी मुसलमान ने लिखा है। एक बार मैंने ऐसे ही किसी शख़्स को बातों बातों में यह बता दिया। वे कुछ देर मुझे देखते रहे फिर जाने क्या सोच कर बोले, 'गुड़िया तू अभी छोटी है। तुझे अभी ठीक से नहीं पता होगा।' मैंने इसके बाद उन्हें कुछ न कहा और हमेशा की तरह मुस्कुरा दी।
कुछ दिनों बाद जब वो वापस मुझे मिले तो मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोले, 'जाने दे गुड़िया...गाना किसी ने भी लिखा है। लिखा तो अपने हिंदुस्तान के लिए ही है।' मैंने इस बार भी कुछ नहीं कहा और उनके लिए चाय बनाने के काम में मुसकुराते हुए लग गई।
मैं अब जब उनसे मिलती हूँ तो उनके अंदर उस कट्टर हिन्दू को नहीं पाती। उन के पास बैठकर अब सूफियाना सा अहसास होता है। जैसे वह किसी में लीन हो रहे हों धीरे धीरे। अब वो सारे जहां से अच्छा तराना भी नहीं गुनगुनाते न ज़्यादा बातचीत में रहते हैं। उनके घर में छोटे छोटे बच्चे हैं जिन्हें वे कई बार पढ़ाने को कहते हैं। एक दिन उनका तीन बरस का पोता शुरुआती क़ायदा लेकर मेरे पास आया। मैंने पेज पलटते ही फिर इक़बाल को पाया और मैंने पढ़कर सुनाया। कुछ ऐसा ही लिख गए हैं इक़बाल।
रात के समय इक़बाल का मकबरा(लाहौर), सौजन्य इंटरनेट
ब्रिटिश भारत में जन्म लेने वाले इक़बाल साहब का जन्म सन् 1875 को बताया जाता है। उन्हों ने फ़ाइन आर्ट की पढ़ाई की थी और 1899 में उन्हों ने दर्शन शास्त्र में पंजाब विश्वविद्यालय से मास्टर भी किया। इन्हें अरबी, उर्दू, फारसी और अंग्रेज़ी का अच्छा इल्म हासिल था।
अपने नौजवानी के दिनों में ही ये काफी मशहूर हो गए थे। उन्हीं दिनों में इनके द्वारा कहा गया ये शे'र बहुत चर्चा में रहा:-
(शाने-करीमी-दया की शान या भगवान, अर्क़-इन्अफाल-पछतावे के कारण आए पसीने की बुँदे)
इसके बाद के दिनों में उनके जीवन में कई पड़ाव आए और गुज़रे। उन्हों ने फारसी भाषा में खूब लिखा और भारत से बाहर ख्याति प्राप्त की। अंग्रेज़ी सरकार ने इन्हें भी 'सर' की उपाधि से नवाज़ा था। फारसी भाषा में असरारे-ख़ुदी और जावेदनमा इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। एक शायर या विचारक की हैसियत से इकबाल ऊंचे पायदान पर खड़े हुए मालूम देते हैं जैसे फारसी की एक नज़्म का नमूना देखिये:-
(यह हिन्दी अनुवाद है)
सन् 1938 में इनका देहांत हुआ। लेकिन इनकी शायरी का नहीं। आज मेरी भी तबीयत कुछ नासाज़ है इसलिए इक़बाल की लिखी कुछ लाइनों का साथ आपको दिये जाती हूँ।
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाके-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है
शक्ति भी शांति भी भक्ति के गीत में है
धरती के वासियों की मुक्ति परीत में है
(परीत-प्रीत)
दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब
क्या लुत्फ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो
(अंजुमन-सभा)
हर दर्दमंद दिल को रोना मेरा रुला दे
बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगा दे
मरने वाले मरते हैं लेकिन फ़ना होते नहीं
ये हक़ीक़त में हमसे कभी जुदा होते नहीं
दिल से जो बात निकली है असर रखती है
पर नहीं, ताकते-परवाज़ मगर रखती है
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मदद ली है - इक़बाल और उनकी शायरी किताब से
लेखक- प्रकाश पंडित व इंटरनेट और आसपास के लोगों के बयान से
बचपन से एक गीत बहुत ही ज़ोर शोर से सुना और स्कूल ने उसको दिमाग में खूब करीने से पिरोया। हम्म...आप भी जानते हैं कि वह कौन सा गीत है। अरे वही वाला न :-
"सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी ये गुलिस्तां हमारा
गुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहां हमारा..."
मुझे बस दो ही लाइनें याद हैं इस पूरे तराने की। आगे याद करने के बारे में कभी गौर भी नहीं किया। मन भी न हुआ। इसे तराना-ए-हिन्द भी कहकर पुकारा जाता है।
इक़बाल का ही लिखा एक शे'र मुझे क्या सभी को याद है और लोग मौक़े और बे मौक़े पर इसका इस्तेमाल भी करते हैं। याद आया?...अरे वही वाला:-
"ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है"
(रज़ा-मर्ज़ी)
इसका गज़ब मतलब मैंने खुद से ही कर लिया था। मुझे अपने स्कूली जमाने तक ख़ुदी कोई वस्तु ही मालूम होती रही और मैं यही सोचती थी कि किसी चीज को ऊंची आवाज़ में पुकारना होगा और आसमान में बैठा हमारा भगवान आएगा और हमें वही देगा जो हम मांगेंगे। मैंने यही सोचा था कि आएंगे तो चॉकोलेट ही मांग लूंगी और माँ के लिए गुलाबी साड़ी। दो ही चीज काफी है। बाकी चाहिए भी नहीं। खैर अब थोड़ा बहुत इस शे'र को समझ पाई हूँ। शायद आगे कभी अपने उपलब्ध दिमाग को लगाकर और भी समझूंगी।
इक़बाल साहब का नाम काफी लोकप्रिय तो है ही लेकिन उनकी लिखी कई रचनाएँ भी उनकी लोकप्रियता से आगे निकल गई हैं। मैंने अपने आसपास ऐसे कई कट्टर हिन्दू लोगों को देखा है जो अपने को ख़ालिस हिन्दू घोषित करते हैं और बिना जाने कि सारे जहां से अच्छा गीत किसने लिखा है, को गाहे-बगाहे गाते रहते हैं। यह उनकी देशभक्ति को मूर्त रूप भी देता है। मुझे अच्छा लगता है। उन्हें नहीं पता कि यह गीत किसी मुसलमान ने लिखा है। एक बार मैंने ऐसे ही किसी शख़्स को बातों बातों में यह बता दिया। वे कुछ देर मुझे देखते रहे फिर जाने क्या सोच कर बोले, 'गुड़िया तू अभी छोटी है। तुझे अभी ठीक से नहीं पता होगा।' मैंने इसके बाद उन्हें कुछ न कहा और हमेशा की तरह मुस्कुरा दी।
कुछ दिनों बाद जब वो वापस मुझे मिले तो मेरे कंधे पर हाथ रख कर बोले, 'जाने दे गुड़िया...गाना किसी ने भी लिखा है। लिखा तो अपने हिंदुस्तान के लिए ही है।' मैंने इस बार भी कुछ नहीं कहा और उनके लिए चाय बनाने के काम में मुसकुराते हुए लग गई।
मैं अब जब उनसे मिलती हूँ तो उनके अंदर उस कट्टर हिन्दू को नहीं पाती। उन के पास बैठकर अब सूफियाना सा अहसास होता है। जैसे वह किसी में लीन हो रहे हों धीरे धीरे। अब वो सारे जहां से अच्छा तराना भी नहीं गुनगुनाते न ज़्यादा बातचीत में रहते हैं। उनके घर में छोटे छोटे बच्चे हैं जिन्हें वे कई बार पढ़ाने को कहते हैं। एक दिन उनका तीन बरस का पोता शुरुआती क़ायदा लेकर मेरे पास आया। मैंने पेज पलटते ही फिर इक़बाल को पाया और मैंने पढ़कर सुनाया। कुछ ऐसा ही लिख गए हैं इक़बाल।
रात के समय इक़बाल का मकबरा(लाहौर), सौजन्य इंटरनेट
ब्रिटिश भारत में जन्म लेने वाले इक़बाल साहब का जन्म सन् 1875 को बताया जाता है। उन्हों ने फ़ाइन आर्ट की पढ़ाई की थी और 1899 में उन्हों ने दर्शन शास्त्र में पंजाब विश्वविद्यालय से मास्टर भी किया। इन्हें अरबी, उर्दू, फारसी और अंग्रेज़ी का अच्छा इल्म हासिल था।
अपने नौजवानी के दिनों में ही ये काफी मशहूर हो गए थे। उन्हीं दिनों में इनके द्वारा कहा गया ये शे'र बहुत चर्चा में रहा:-
"मोती समझ के शाने-करीमी ने चुन लिए
कतरे जो थे मेरे अर्क़-इन्अफाल के"
(शाने-करीमी-दया की शान या भगवान, अर्क़-इन्अफाल-पछतावे के कारण आए पसीने की बुँदे)
इसके बाद के दिनों में उनके जीवन में कई पड़ाव आए और गुज़रे। उन्हों ने फारसी भाषा में खूब लिखा और भारत से बाहर ख्याति प्राप्त की। अंग्रेज़ी सरकार ने इन्हें भी 'सर' की उपाधि से नवाज़ा था। फारसी भाषा में असरारे-ख़ुदी और जावेदनमा इनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। एक शायर या विचारक की हैसियत से इकबाल ऊंचे पायदान पर खड़े हुए मालूम देते हैं जैसे फारसी की एक नज़्म का नमूना देखिये:-
ख़ुदा इंसान से -
मैंने मिट्टी और पानी से एक संसार बनाया
तूने मिश्र,तुर्की, ईरान और तातार बना लिए
मैंने धरती की छती से लोहा उत्पन्न किया
तूने उससे तीर, खंजर, तलवारें और नेज़े ढाल लिए
तूने हरी शाखाएँ काट डालीं और फैलते हुए पेड़ तोड़ गिराए
गाते हुए पक्षियों के लिए तूने पिंजरें बना डाले
इंसान ख़ुदा से -
तूने, ऐ मेरे मालिक ! रात बनाई, मैंने दीये जलाए
तूने मिट्टी उत्पन्न की, मैंने उससे से प्याले बनाए
तूने धरती को वन, पर्वत आउट मरुस्थल दिये
आईने उसमें रंगीन फूल खिलाये, हँसती हुई वाटिका सजाईं
मैं विष-तिर्याक बनाता हूँ और पत्थर से आईना
(ऐ मालिक सच बता, तू बड़ा है या मैं )
(यह हिन्दी अनुवाद है)
सन् 1938 में इनका देहांत हुआ। लेकिन इनकी शायरी का नहीं। आज मेरी भी तबीयत कुछ नासाज़ है इसलिए इक़बाल की लिखी कुछ लाइनों का साथ आपको दिये जाती हूँ।
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाके-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है
शक्ति भी शांति भी भक्ति के गीत में है
धरती के वासियों की मुक्ति परीत में है
(परीत-प्रीत)
दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब
क्या लुत्फ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो
(अंजुमन-सभा)
हर दर्दमंद दिल को रोना मेरा रुला दे
बेहोश जो पड़े हैं शायद उन्हें जगा दे
मरने वाले मरते हैं लेकिन फ़ना होते नहीं
ये हक़ीक़त में हमसे कभी जुदा होते नहीं
दिल से जो बात निकली है असर रखती है
पर नहीं, ताकते-परवाज़ मगर रखती है
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मदद ली है - इक़बाल और उनकी शायरी किताब से
लेखक- प्रकाश पंडित व इंटरनेट और आसपास के लोगों के बयान से
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