संजोग बन ही जाते हैं। आज किसी काम की वजह से आई टी ओ जाना हुआ। काम खत्म हुआ तो वहीं नजदीक में बहुत सारे बच्चों को स्कूल की वर्दी में देखा तब अच्छा लगा। इतनी धूप में भी वे सब अपने में लगे हुए थे। सभी चटर-पटर करते हुए बस में घुसे और कुछ ही देर में ओझल हो गए।
फोटो गूगल से उधार
आप एक बार जरूर जाइए।
अब मेरी बारी थी। मैंने तुरंत अपनी मुंडी गुड़िया संग्रहालय यानि डॉल म्यूज़ियम की तरफ की और टिकट कटवाकर अंदर घुस गई। गेट पर ही हिदायत मिल गई थी कि फोटो खींचना मना है। मैंने उसी समय चैन की सांस भरी। चलो अच्छा है ये सब फोटो शोटो खींचने से बचूँगी। यह मेरी पहली दफा की डॉल म्यूज़ियम की यात्रा थी। इससे पहले नाम ही सुना था।
मुझे याद आता है आसपास के लोगों को जब पता चलता था कि मैंने यह जगह नहीं देखी तब वे सब मेरा बहुत मज़ाक बनाने के साथ साथ कहते थे तुम्हारा धरती पर जीना ही धिक्कार है। तब वास्तव मैं कभी कभी बहुत सेडिया जाती थी। कुछ हमदर्द लोगों ने मुझे यह भी बतलाया कि वहाँ बेमिसाल गुड़ियाँ हैं। देखते रह जाओगी। इसलिए डॉल म्यूज़ियम जाने का आकर्षण और भी बढ़ गया।
मैंने उस जगह में घुसते ही कोशिश की कि मेरा दिमाग 10 या 11 साल की बच्ची का बना रहे। गंभीरता को मैंने बाहर ही रख दिया। लेकिन पता नहीं मुझे वो खुशी क्यों नहीं हुई जो अमूमन बचपन में गुड़ियों को देखने और खेलने से हुआ करती थी।
मुझे बहुत अच्छी तरह से याद है मुझे बचपन में गुड़िया नहीं दिलाई जाती थी। इसके पीछे एक ही कारण था और वह यह कि रुपयों की कमी। मैं कोई फिलोसफी यहाँ नहीं चिपकाना चाहती। बाज़ार के खिलौनों के बदले मिट्टी के खिलौने माँ बनाकर दिया करती थी। मिट्टी के खिलौने बहुत आसानी से बन भी जाते थे और उस पर माँ होली के बचे हुए रंग और पैरों में लगाने वाला महावार रंग दिया करती थी। मैंने भी कई खिलौने बनाए। मिट्टी के खिलौने बनाने के कुछ फायदे भी थे। वे ये कि मन भर जाने पर उन्हें नए रूप में तब्दील किया जा सकता था। बनाने का सामान दुकान से नहीं खरीदना पड़ता था। पापा के पैसों की बचत होती थी। और मिट्टी के खिलौने बनाने के बहाने मैं मिट्टी चोरी चुपके खा भी लिया करती थी। मैंने न जाने कितने खिलौने खुद अपने हाथों से बनाए और सजाये भी। मुझे बहुत अच्छा लगता था लेकिन मन में अपनी सहेलियों की गुड़िया और वो भी बार्बी गुड़िया देखकर आँसू भी आ जाते थे। इस विलायती गुड़िया का अपना ही रुआब था। मन में कभी कभी खूब जलन हुआ करती थी, अपने बचपन के दोस्तों से।
लेकिन आज जब इस तरह की तमाम गुड़ियाँ मेरे आँखों के सामने पड़ी हुई थीं तब भी वह खुशी मुझसे होकर नहीं गुजरी जो बचपन में मिट्टी के खिलौनों से होकर गुजरा करती थी। इतने अधिक देशों की गुड्डे गुड़ियाँ...उफ़्फ़! कोई गिनती ही नहीं। हंगरी, जापान, बुल्गारिया, स्पेन, रोमानिया, युगोस्लाविया, फ्रांस, ग्रीस, यू.के., ब्राज़ील, मेक्सिको, क्यूबा, तुर्की, जर्मनी, वियतनाम, थायलैंड, दक्षिण कोरिया,... और भारत के अलग अलग राज्यों की विभिन्न गुड़ियाँ वहाँ खड़ी हुई थीं।
मैंने कुछ बाते वहाँ नोटिस किं। शायद वो मुझे अटपटी लगीं। हो सकता है आप लोगों को न लगें। ज़्यादातर देशों की गुड़ियाँ में उनके लिबास सिर से पाँव ढके हुए थे। चूंकि यहाँ बहुत पुरानी गुड़ियाँ मौजूद हैं इसलिए यह बड़े आसानी से समझ आता है कि आदमी औरत के चरित्र उनके लिबास से कैसे समझे जाएँ। मुझे एक बात बहुत हैरतअंगेज़ लगी कि भारत के अलावा अन्य देशों में भी औरत की छवि घरेलू या अन्य बाहरी कामों के साथ जोड़ कर रखी जाती है। जिन कामों को मैंने वहाँ औरतों (गुड़ियाँ) को करते हुए देखा उनमें, चटाई बुनना, लकड़ी की ढुलाई करना, पानी लाना, बच्चे को गोद में लिए हुए रहना, सब्जी बेचना, ओखली में कुछ कूटना(ब्राज़ील), टोकरी बुनना शामिल था। इससे भी जुदा कई छवियाँ थीं लेकिन ये छवियाँ मुझे खटकीं भी।
इसके उलट इन्हीं विदेशी गुड़ियों में पुरुष को औरतों की तुलना में अधिक ताक़त के साथ दिखाया गया है। कई जगह वह एक लट्ठ लिए हैंकड़ी में बैठा है। बीड़ी पी रहा है। उसके बगल में औरत कार्यशील है। कहीं कहीं पुरुष गुड्डा सामान्य से बड़ा चाकू लिए हुए खड़ा है। कहीं न कहीं एक इशारा यह भी है कि वह किसी की तुलना में बेहतर है।
फोटो गूगल से उधार
इन सब से जुदा आदिवासी संस्कृति में औरत और मर्द में एक नैसर्गिक समानता आपको दिखलाई देगी। कुछ देशो की आदिवासी जातियों का एक दूसरे के प्रति रिश्ता समझ आएगा। उनके रंग से लेकर और पहनावे तक में प्रकृति से एक जुड़ाव आपको महसूस होगा जो बाकी तथकथित विकसित और तकनीक पसंद देशों में नहीं दिखेगा। भारत के संदर्भ में यही दृश्य छत्तीसगढ़ में नज़र आया। कमाल की जीवंतता है इस क्षेत्र की नमूनों में। ऐसा लगता है अभी आप से बोलना शुरू करेंगे। वे नाच रहे हैं। गा रहे हैं। खुश मिजाज हैं। आदमी औरत का फर्क वहाँ आपको नहीं दिखेगा कि कौन बेहतर है और कौन कमतर। एक दिलचस्प बात और की छतीसगढ़ राज्य की झांकी में कोई भी हिन्दू देवी देवता नहीं दिखा जिसे देखकर मुझे काफी खुशी हुई कि बिना धार्मिक किरदार के उनके समाज में एक संतुलन और आचरण बिखरा हुआ है। मनगढ़ंत कहानियों की जगह जीवन अधिक मायने है। गहनों में सोने की जगह रंग-बिरंगी मोतियों की माला भी आपका ध्यान खींच लेगी। यही बात भारतीय व बाहरी आदिवासी लोगों के साथ नोटिस की जा सकती है। इनके परिधान में भी खुले और बेहतरीन दिखाई पड़े।
अब आते हैं अपने भारत पर। सभी राज्यों की तो नहीं पर बहुत से राज्यों की गुड़िया झाँकियाँ वहाँ मौजूद हैं। काफी रंग बिरंगी जो बच्चों से बड़ों तक का ध्यान खींचने के काबिल हैं। उनमें आपको विष्णु अवतार से लेकर गांधी तक की झांकी दिखेगी। ओणम के उपलक्ष्य में भगवान विष्णु के वामन अवतार और राजा बलि की झांकी आपको बेहद अच्छी लगेगी पर उसके पीछे की कहानी आपको बहुत अजीब।
एक और बात जो बहुत अटपटी थी वह यह कि भारतीय सामान्य औरत और आदमी को चटाई पर बैठकर सामान बेचते हुए दिखाया गया है और उन सभी के माथे पर लंबा तिलक लगाया गया है। जबकि अमूमन देखने में यह मिलता है कि पुराने जमाने में गरीब और नीचे की पंक्ति में खड़े किए लोग ब्राह्मण टीके नहीं लगाया करते थे। उन्हें यह हक़ नहीं था। हालांकि यहाँ आप उनमें जाति का भेद बहुत अच्छी तरह से कर लेंगे। उनके रंग काले और गोरे रखे गए हैं। हो सकता है यह बनाने वाले की कलात्मक आज़ादी हो। इसके अलावा राम का दरबार बेहद खूबसूरत बनाया गया है। राज्यों के पारंपरिक नृत्यों व त्योहारों को भी इन गुड्डे गुड़ियों में खूबसूरती से रखा गया है।
दक्षिण कोरिया देश की झांकी में बच्चों को अच्छी जगह मिली है। पतंग उड़ाते हुए। वे बहुत खुश हैं। गौरतलब हो कि ऐसी खुशी वाली झांकी मुझे और नहीं दिखी या फिर मेरी नज़रें जा नहीं पाईं। खैर...
आप एक बार जरूर जाइए।
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