कल 'रोड मूवी' (2010) देख रही थी। इस फिल्म को देखने की तमन्ना थी क्योंकि इसमें रेगिस्तान के चित्र हैं। पहले मुझे यह खयाल रहता था कि मैं कभी भी रेगिस्तान पर कदम नहीं रखूंगी। धूप का डर। प्यास का डर। धूप से जल जाने का डर। रेगिस्तान में खो जाने का डर। ये सभी मेरे अंदर पलने वाले डर थे। लेकिन फिल्म 'जल, पार्च्ड, रोड मूवी, भंवर, बंटवारा, रूदाली' आदि कुछ फिल्में देखकर अब राजस्थान मन में रहने लगा है। खासतौर से उसका रेगिस्तान। शायद कभी तो जाना हो ही जाएगा।
'रोड मूवी' आप सभी ने देखी ही होगी। मुझे फिल्म गज़ब लगी। एक किरदार भी फालतू या कम नहीं है फिल्म में। सिर्फ चार लोग और एक बेहतरीन सफर। फिल्म में एक खास तरह का मज़ा और रोमांच है। हर उम्र का किरदार और उनकी अलग अलग पृष्ठभूमि दमदार है। सधे हुए संवाद और किरदरों की शैली में, कहीं भी खट्टेपन का अहसास नहीं होता।
जब अपना आसपास मुंह चिढ़ाता हो तब एक विचार जो दस्तक देता है वह यह कि भाग जाओ सब छोड़कर। एक आज़ादी का चस्का लेने का मन होने लगता है। कुछ ऐसा खोजने का मन करता है जिसको खोजने के लिए हम यहाँ आए हैं। खाये-पिये और मर गए टाइप में आखिर रखा भी क्या है! फिल्म का मुख्य किरदार विष्णु जब तैल बेचने निकलता है तब एक चिड़चिड़ा नौजवान है। उसे अपने पिता के तैल के व्यवसाय से ऊब है। कुछ भी नया नहीं जिसे सोच कर वह हंस सके। इसलिए वह 1942 में बने एक ट्रक को लेकर एक सफर पर चल पड़ता है। ट्रक में विष्णु है, तैल की बोतलें हैं, एक तिलिस्म यानि फिल्में दिखाने का प्रॉजेक्टर है और हिन्दी-अंग्रेज़ी की कई फिल्मों की रीले हैं।
जब मैं फिल्म देख रही थी तब मुझे भी ये वस्तुएं मामूली ही लगीं। मुझे इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि जब किसी भी वस्तुओं से जुड़ों तब एक मैजिक बनने की शुरुआत होती है। जैसे, जब हम कोई किताब पढ़ते हैं और उस किताबी कहानी से जुड़ना शुरू करते हैं, तब उस कहानी के पाठक से कहीं आगे हम अपना एक रिश्ता क़ायम करते हैं। ठीक ऐसा ही होता है जब कोई गीत सुनने की प्रक्रिया होती है और इसका उत्तम रूप उसको गुनगुनाने में दिखलाई देने लगता है। जानती हूँ पढ़ना और सुनना वस्तु नहीं है। लेकिन कहीं न कहीं उनमें वस्तु एक माध्यम है। ये माध्यम जीने को सरल और दिलचस्प बनाते हैं। यह भी एक तरह की कला है।
फिल्म की कहानी, विष्णु के सफर में आने वाले पड़ाव से आगे बढ़ती है। रास्ते में उसे एक चाय की दुकान पर काम करने वाला छोटा मगर दिमागदार लड़का मिलता है और यही लड़का एक मस्त मनमौजी ट्रक ठीक करने वाले मकैनिक को लेकर आता है। उम्र दराज़ यह व्यक्ति अपने हुनर का पक्का है और ईमान भी साथ रखता है। सबसे खास बात यह कि यह बंदा फिल्मों का शौकीन है। विष्णु को बार बार दस्तक देता है- 'तेरे पास दिल है कि नहीं!' पुलिस वाले के चंगुल में फंस जाने पर यह बंदा एक युक्ति निकाल कर विष्णु को मुसीबत से निकालता है।
इस किरदार कि खासियत देखें तब पाएंगे कि जमाने ने जो बुद्धिमान और ज़िंदादिल होने के मानक तय किए हैं, यह उससे परे बिलकुल स्वाभाविक हैं। सहज बुद्धि की का इस्तेमाल करना अपने आप में बुद्धिमत्ता है। विष्णु इन्हें चाचा कह कर पुकारता है। चाचा को मेले में जाने के लिए लिफ्ट की जरूरत है और विष्णु के पास ट्रक है। चाचा को फिल्में देखने का चस्का है। अंत में चाचा मर जाते हैं। लेकिन उनकी मौत गज़ब की है। मरते तो हम सभी ही हैं। पर चाचा चार्ली चैपलिन की फिल्म देख कर इतना हँसते हैं कि वह इसी हंसी में मर जाते हैं। जिस तिलिस्म ने उनको मोह लिया था, जिसके वे दीवाने थे...उसी की आशिक़ी में मौत होती है।
मौत एक ऐसा पड़ाव है जिसे तकलीफ, खौफ़, खराब, दुख, आँसू , बिछुड़ जाने आदि से जोड़कर देखा जाता है। हिन्दी सिनेमा में मौत को कई अंदाज़ से फिल्माया गया है। अक्सर ज़िंदगी की 'फलसफे' के घोल के साथ घोलते हुए पेश किया जाता है। फिल्म' आनंद' में आनंद का पूरा चरित्र ज़िंदगी की फ़िलॉसफ़ी दर्द और हंसी के बीच फिल्माने में दिखाया गया है। तब भी आनंद के मरने पर मुझे रोना आ गया था। लेकिन जब इस फिल्म में चाचा मरते हैं तब मुझे रोना नहीं आया। बल्कि मुंह से यह निकला- 'वाह! क्या मौत है!'
...लेकिन कोई फिल्म करती क्या है? हमारे दिमाग में वह एक परत सेट करती है। जो बातें हमें बचपन से संस्कार में मिली होती हैं उसी के आधार पर हम गलत सही का फैसला करते हैं। उसी की ताक पर किरदारों का बंटवारा। ज़रा सोचिए जब किसी फिल्म का खलनायक मरता है तब हमें कितनी खुशी होती है। तब मौत अच्छी लगती है। हममें से कई तो ताली बजाते हैं। इसका अच्छा उदाहरण 'शोले' है। जब 'गब्बर' मरता है तब खुशी और जब 'जय' मरता है तब आँसू निकलते हैं। यही सिनेमा का खेल है। दिमाग को पूरा जकड़ लेने का खेल। इसलिए मेरा एक खयाल यह जरूर रहता है कि फिल्म देखने के दौरान फिल्म और मेरा एक फासला रहे। फिल्म और दर्शक के बीच में एक निश्चित फासला जरूर होना चाहिए। आम समझ यह है कि हम फिल्म देख रहे होते हैं पर वास्तव में फिल्म तो आपके हाथ को पकड़ कर अपने अंदर बहा ले जाती है। अगर दिलचस्पी अधिक रही तब फिल्म के खत्म होने के बाद होश आता है। आप खुद पर इसका एक टेस्ट कर सकते हैं।
बहरहाल फिल्म पर आते हैं। सफर का उद्देश्य बदलता है और तीनों पानी की तलाश के लिए शॉर्टकट रास्ता अपनाते हैं इसी दौरान इन्हें एक जिप्सी औरत मिलती है जो खुद पानी की तलाश में यहाँ वहाँ भटक रही है। बस यहीं से चारों की मंजिल एक दूसरे के साथ हो जाती है। चाचा सुनसान जगह पर हताश होने की बजाय एक आइडिया और लगाते हैं और फिल्म का पर्दा लगाते हैं। फिर क्या, रात होती है और मेला सज जाता है। फिल्म दिखाने पर इनकी मोटी कमाई होती है और पानी भी मिल जाता है।
इसके बाद के दृश्य में सभी चरित्रों की परतें खुलती हैं। विष्णु का डर खत्म होता है। एक खुलापन नज़र आता है। वह पानी डाकुओं से भी तैल का सौदा कर पानी लेता है और उसे प्यासे लोगों में बांटता है। इस एक्शन में कहीं न कहीं उसके दिल का होना मालूम देता है। जिप्सी औरत जिसका पति नहीं है। उसे विष्णु से प्यार हो जाता है। लेकिन अंत में वह विष्णु को रोकती नहींहै बल्कि यह कहती है कि हमारे रास्ते अलग हैं। कहीं न कहीं इस चरित्र में एक मजबूत फैसले लेने की क्षमता दिखती है। बच्चे का किरदार उतना नहीं उभरा है पर वह भी फिल्म का ज़रूरी हिस्सा है।
इस फिल्म का ज़िक्र इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि मेरे पास भी बोरियत की एक फेहरिश्त है। सभी के पास होती है। उसे जीतने के सभी के अपने अपने नुस्खे भी होते हैं। मेरे पास भी हैं। यह सब बातें व्यस्त लोगों के लिए नहीं है। उनके पास तो बेहतरीन जरिया यही है कि वे बिज़ी हैं। हम जैसे फक्कड़ लोगों को अधिक जरूरत पड़ती है अपने आसपास को बार बार देखने की। कभी 90 डिग्री के कोण से तो कभी 180 डिग्री के। इससे ज़िंदादिल रहा जा सकता है। वाद विवाद से बचकर रहा जा सकता है। नए अनुभवों को किताबों की बजाय नई जगहों से पाना सबसे अच्छा तोहफा है। इसके अलावा अपने अंदर के अजनबीपन को पहचानने का सबसे बेहतर तरीका सफर के दौरान ही समझ आता है। इन बातों के तहत यह फिल्म एक नज़रिया तो बतलाती ही है।
जब 'दि अलकेमिस्ट' उपन्यास पढ़ा था तब यही महसूस हुआ था कि किसी अंजान सफर पर जाना कितना रोमांचक होता है। 'सेंटियागो' को अपने झोले में रखकर चलती हूँ। ठीक है उसे एक खजाने के की खोज थी। मेरा खजाना तो नई जगहें ही हैं। मैं जान बूझकर नई जगहों पर जाने की सूची बनाती हूँ। ठीक है शायद नहीं जा पाऊँगी। लेकिन अपनी वसीयत में यह फेहरिश्त तो छोड़ कर जा ही सकती हूँ। शायद किसी और के काम आ जाए।
'रोड मूवी' आप सभी ने देखी ही होगी। मुझे फिल्म गज़ब लगी। एक किरदार भी फालतू या कम नहीं है फिल्म में। सिर्फ चार लोग और एक बेहतरीन सफर। फिल्म में एक खास तरह का मज़ा और रोमांच है। हर उम्र का किरदार और उनकी अलग अलग पृष्ठभूमि दमदार है। सधे हुए संवाद और किरदरों की शैली में, कहीं भी खट्टेपन का अहसास नहीं होता।
जब अपना आसपास मुंह चिढ़ाता हो तब एक विचार जो दस्तक देता है वह यह कि भाग जाओ सब छोड़कर। एक आज़ादी का चस्का लेने का मन होने लगता है। कुछ ऐसा खोजने का मन करता है जिसको खोजने के लिए हम यहाँ आए हैं। खाये-पिये और मर गए टाइप में आखिर रखा भी क्या है! फिल्म का मुख्य किरदार विष्णु जब तैल बेचने निकलता है तब एक चिड़चिड़ा नौजवान है। उसे अपने पिता के तैल के व्यवसाय से ऊब है। कुछ भी नया नहीं जिसे सोच कर वह हंस सके। इसलिए वह 1942 में बने एक ट्रक को लेकर एक सफर पर चल पड़ता है। ट्रक में विष्णु है, तैल की बोतलें हैं, एक तिलिस्म यानि फिल्में दिखाने का प्रॉजेक्टर है और हिन्दी-अंग्रेज़ी की कई फिल्मों की रीले हैं।
जब मैं फिल्म देख रही थी तब मुझे भी ये वस्तुएं मामूली ही लगीं। मुझे इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि जब किसी भी वस्तुओं से जुड़ों तब एक मैजिक बनने की शुरुआत होती है। जैसे, जब हम कोई किताब पढ़ते हैं और उस किताबी कहानी से जुड़ना शुरू करते हैं, तब उस कहानी के पाठक से कहीं आगे हम अपना एक रिश्ता क़ायम करते हैं। ठीक ऐसा ही होता है जब कोई गीत सुनने की प्रक्रिया होती है और इसका उत्तम रूप उसको गुनगुनाने में दिखलाई देने लगता है। जानती हूँ पढ़ना और सुनना वस्तु नहीं है। लेकिन कहीं न कहीं उनमें वस्तु एक माध्यम है। ये माध्यम जीने को सरल और दिलचस्प बनाते हैं। यह भी एक तरह की कला है।
फिल्म की कहानी, विष्णु के सफर में आने वाले पड़ाव से आगे बढ़ती है। रास्ते में उसे एक चाय की दुकान पर काम करने वाला छोटा मगर दिमागदार लड़का मिलता है और यही लड़का एक मस्त मनमौजी ट्रक ठीक करने वाले मकैनिक को लेकर आता है। उम्र दराज़ यह व्यक्ति अपने हुनर का पक्का है और ईमान भी साथ रखता है। सबसे खास बात यह कि यह बंदा फिल्मों का शौकीन है। विष्णु को बार बार दस्तक देता है- 'तेरे पास दिल है कि नहीं!' पुलिस वाले के चंगुल में फंस जाने पर यह बंदा एक युक्ति निकाल कर विष्णु को मुसीबत से निकालता है।
इस किरदार कि खासियत देखें तब पाएंगे कि जमाने ने जो बुद्धिमान और ज़िंदादिल होने के मानक तय किए हैं, यह उससे परे बिलकुल स्वाभाविक हैं। सहज बुद्धि की का इस्तेमाल करना अपने आप में बुद्धिमत्ता है। विष्णु इन्हें चाचा कह कर पुकारता है। चाचा को मेले में जाने के लिए लिफ्ट की जरूरत है और विष्णु के पास ट्रक है। चाचा को फिल्में देखने का चस्का है। अंत में चाचा मर जाते हैं। लेकिन उनकी मौत गज़ब की है। मरते तो हम सभी ही हैं। पर चाचा चार्ली चैपलिन की फिल्म देख कर इतना हँसते हैं कि वह इसी हंसी में मर जाते हैं। जिस तिलिस्म ने उनको मोह लिया था, जिसके वे दीवाने थे...उसी की आशिक़ी में मौत होती है।
मौत एक ऐसा पड़ाव है जिसे तकलीफ, खौफ़, खराब, दुख, आँसू , बिछुड़ जाने आदि से जोड़कर देखा जाता है। हिन्दी सिनेमा में मौत को कई अंदाज़ से फिल्माया गया है। अक्सर ज़िंदगी की 'फलसफे' के घोल के साथ घोलते हुए पेश किया जाता है। फिल्म' आनंद' में आनंद का पूरा चरित्र ज़िंदगी की फ़िलॉसफ़ी दर्द और हंसी के बीच फिल्माने में दिखाया गया है। तब भी आनंद के मरने पर मुझे रोना आ गया था। लेकिन जब इस फिल्म में चाचा मरते हैं तब मुझे रोना नहीं आया। बल्कि मुंह से यह निकला- 'वाह! क्या मौत है!'
...लेकिन कोई फिल्म करती क्या है? हमारे दिमाग में वह एक परत सेट करती है। जो बातें हमें बचपन से संस्कार में मिली होती हैं उसी के आधार पर हम गलत सही का फैसला करते हैं। उसी की ताक पर किरदारों का बंटवारा। ज़रा सोचिए जब किसी फिल्म का खलनायक मरता है तब हमें कितनी खुशी होती है। तब मौत अच्छी लगती है। हममें से कई तो ताली बजाते हैं। इसका अच्छा उदाहरण 'शोले' है। जब 'गब्बर' मरता है तब खुशी और जब 'जय' मरता है तब आँसू निकलते हैं। यही सिनेमा का खेल है। दिमाग को पूरा जकड़ लेने का खेल। इसलिए मेरा एक खयाल यह जरूर रहता है कि फिल्म देखने के दौरान फिल्म और मेरा एक फासला रहे। फिल्म और दर्शक के बीच में एक निश्चित फासला जरूर होना चाहिए। आम समझ यह है कि हम फिल्म देख रहे होते हैं पर वास्तव में फिल्म तो आपके हाथ को पकड़ कर अपने अंदर बहा ले जाती है। अगर दिलचस्पी अधिक रही तब फिल्म के खत्म होने के बाद होश आता है। आप खुद पर इसका एक टेस्ट कर सकते हैं।
बहरहाल फिल्म पर आते हैं। सफर का उद्देश्य बदलता है और तीनों पानी की तलाश के लिए शॉर्टकट रास्ता अपनाते हैं इसी दौरान इन्हें एक जिप्सी औरत मिलती है जो खुद पानी की तलाश में यहाँ वहाँ भटक रही है। बस यहीं से चारों की मंजिल एक दूसरे के साथ हो जाती है। चाचा सुनसान जगह पर हताश होने की बजाय एक आइडिया और लगाते हैं और फिल्म का पर्दा लगाते हैं। फिर क्या, रात होती है और मेला सज जाता है। फिल्म दिखाने पर इनकी मोटी कमाई होती है और पानी भी मिल जाता है।
इसके बाद के दृश्य में सभी चरित्रों की परतें खुलती हैं। विष्णु का डर खत्म होता है। एक खुलापन नज़र आता है। वह पानी डाकुओं से भी तैल का सौदा कर पानी लेता है और उसे प्यासे लोगों में बांटता है। इस एक्शन में कहीं न कहीं उसके दिल का होना मालूम देता है। जिप्सी औरत जिसका पति नहीं है। उसे विष्णु से प्यार हो जाता है। लेकिन अंत में वह विष्णु को रोकती नहींहै बल्कि यह कहती है कि हमारे रास्ते अलग हैं। कहीं न कहीं इस चरित्र में एक मजबूत फैसले लेने की क्षमता दिखती है। बच्चे का किरदार उतना नहीं उभरा है पर वह भी फिल्म का ज़रूरी हिस्सा है।
इस फिल्म का ज़िक्र इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि मेरे पास भी बोरियत की एक फेहरिश्त है। सभी के पास होती है। उसे जीतने के सभी के अपने अपने नुस्खे भी होते हैं। मेरे पास भी हैं। यह सब बातें व्यस्त लोगों के लिए नहीं है। उनके पास तो बेहतरीन जरिया यही है कि वे बिज़ी हैं। हम जैसे फक्कड़ लोगों को अधिक जरूरत पड़ती है अपने आसपास को बार बार देखने की। कभी 90 डिग्री के कोण से तो कभी 180 डिग्री के। इससे ज़िंदादिल रहा जा सकता है। वाद विवाद से बचकर रहा जा सकता है। नए अनुभवों को किताबों की बजाय नई जगहों से पाना सबसे अच्छा तोहफा है। इसके अलावा अपने अंदर के अजनबीपन को पहचानने का सबसे बेहतर तरीका सफर के दौरान ही समझ आता है। इन बातों के तहत यह फिल्म एक नज़रिया तो बतलाती ही है।
जब 'दि अलकेमिस्ट' उपन्यास पढ़ा था तब यही महसूस हुआ था कि किसी अंजान सफर पर जाना कितना रोमांचक होता है। 'सेंटियागो' को अपने झोले में रखकर चलती हूँ। ठीक है उसे एक खजाने के की खोज थी। मेरा खजाना तो नई जगहें ही हैं। मैं जान बूझकर नई जगहों पर जाने की सूची बनाती हूँ। ठीक है शायद नहीं जा पाऊँगी। लेकिन अपनी वसीयत में यह फेहरिश्त तो छोड़ कर जा ही सकती हूँ। शायद किसी और के काम आ जाए।