Sunday, 27 November 2016

लाख दुखों की एक दवा है, क्यों न आजमाएं

कल 'रोड मूवी' (2010) देख रही थी। इस फिल्म को देखने की तमन्ना थी क्योंकि इसमें रेगिस्तान के चित्र हैं। पहले मुझे यह खयाल रहता था कि मैं कभी भी रेगिस्तान पर कदम नहीं रखूंगी। धूप का डर। प्यास का डर। धूप से जल जाने का डर। रेगिस्तान में खो जाने का डर। ये सभी मेरे अंदर पलने वाले डर थे। लेकिन फिल्म 'जल, पार्च्ड, रोड मूवी, भंवर, बंटवारा, रूदाली' आदि कुछ फिल्में देखकर अब राजस्थान मन में रहने लगा है। खासतौर से उसका रेगिस्तान। शायद कभी तो जाना हो ही जाएगा।

'रोड मूवी' आप सभी ने देखी ही होगी। मुझे फिल्म गज़ब लगी। एक किरदार भी फालतू या कम नहीं है फिल्म में। सिर्फ चार लोग और एक बेहतरीन सफर। फिल्म में एक खास तरह का मज़ा और रोमांच है। हर उम्र का किरदार और उनकी अलग अलग पृष्ठभूमि दमदार है। सधे हुए संवाद और किरदरों की शैली में, कहीं भी खट्टेपन का अहसास नहीं होता।



जब अपना आसपास मुंह चिढ़ाता हो तब एक विचार जो दस्तक देता है वह यह कि भाग जाओ सब छोड़कर। एक आज़ादी का चस्का लेने का मन होने लगता है। कुछ ऐसा खोजने का मन करता है जिसको खोजने के लिए हम यहाँ आए हैं। खाये-पिये और मर गए टाइप में आखिर रखा भी क्या है! फिल्म का मुख्य किरदार विष्णु जब तैल बेचने निकलता है तब एक चिड़चिड़ा नौजवान है। उसे अपने पिता के तैल के व्यवसाय से ऊब है। कुछ भी नया नहीं जिसे सोच कर वह हंस सके। इसलिए वह 1942 में बने एक ट्रक को लेकर एक सफर पर चल पड़ता है। ट्रक में विष्णु है, तैल की बोतलें हैं, एक तिलिस्म यानि फिल्में दिखाने का प्रॉजेक्टर है और हिन्दी-अंग्रेज़ी की कई फिल्मों की रीले हैं।

जब मैं फिल्म देख रही थी तब मुझे भी ये वस्तुएं मामूली ही लगीं। मुझे इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि जब किसी भी वस्तुओं से जुड़ों तब एक मैजिक बनने की शुरुआत होती है। जैसे, जब हम कोई किताब पढ़ते हैं और उस किताबी कहानी से जुड़ना शुरू करते हैं, तब उस कहानी के पाठक से कहीं आगे हम अपना एक रिश्ता क़ायम करते हैं। ठीक ऐसा ही होता है जब कोई गीत सुनने की प्रक्रिया होती है और इसका उत्तम रूप उसको गुनगुनाने में दिखलाई देने लगता है। जानती हूँ पढ़ना और सुनना वस्तु नहीं है। लेकिन कहीं न कहीं उनमें वस्तु एक माध्यम है। ये माध्यम जीने को सरल और दिलचस्प बनाते हैं। यह भी एक तरह की कला है।  

फिल्म की कहानी, विष्णु के सफर में आने वाले पड़ाव से आगे बढ़ती है। रास्ते में उसे एक चाय की दुकान पर काम करने वाला छोटा मगर दिमागदार लड़का मिलता है और यही लड़का एक मस्त मनमौजी ट्रक ठीक करने वाले मकैनिक को लेकर आता है। उम्र दराज़ यह व्यक्ति अपने हुनर का पक्का है और ईमान भी साथ रखता है। सबसे खास बात यह कि यह बंदा फिल्मों का शौकीन है। विष्णु को बार बार दस्तक देता है- 'तेरे पास दिल है कि नहीं!' पुलिस वाले के चंगुल में फंस जाने पर यह बंदा एक युक्ति निकाल कर विष्णु को मुसीबत से निकालता है।



इस किरदार कि खासियत देखें तब पाएंगे कि जमाने ने जो बुद्धिमान और ज़िंदादिल होने के मानक तय किए हैं, यह उससे परे बिलकुल स्वाभाविक हैं। सहज बुद्धि की का इस्तेमाल करना अपने आप में बुद्धिमत्ता है। विष्णु इन्हें चाचा कह कर पुकारता है। चाचा को मेले में जाने के लिए लिफ्ट की जरूरत है और विष्णु के पास ट्रक है। चाचा को फिल्में देखने का चस्का है। अंत में चाचा मर जाते हैं। लेकिन उनकी मौत गज़ब की है। मरते तो हम सभी ही हैं। पर चाचा चार्ली चैपलिन की फिल्म देख कर इतना हँसते हैं कि वह इसी हंसी में मर जाते हैं। जिस तिलिस्म ने उनको मोह लिया था, जिसके वे दीवाने थे...उसी की आशिक़ी में मौत होती है।

मौत एक ऐसा पड़ाव है जिसे तकलीफ, खौफ़, खराब, दुख, आँसू , बिछुड़ जाने आदि से जोड़कर देखा जाता है। हिन्दी सिनेमा में मौत को कई अंदाज़ से फिल्माया गया है। अक्सर ज़िंदगी की 'फलसफे' के घोल के साथ घोलते हुए पेश किया जाता है। फिल्म' आनंद' में आनंद का पूरा चरित्र ज़िंदगी की फ़िलॉसफ़ी दर्द और हंसी के बीच फिल्माने में दिखाया गया है। तब भी आनंद के मरने पर मुझे रोना आ गया था। लेकिन जब इस फिल्म में चाचा मरते हैं तब मुझे रोना नहीं आया। बल्कि मुंह से यह निकला- 'वाह! क्या मौत है!'

...लेकिन कोई फिल्म करती क्या है? हमारे दिमाग में वह एक परत सेट करती है। जो बातें हमें बचपन से संस्कार में मिली होती हैं उसी के आधार पर हम गलत सही का फैसला करते हैं। उसी की ताक पर किरदारों का बंटवारा। ज़रा सोचिए जब किसी फिल्म का खलनायक मरता है तब हमें कितनी खुशी होती है। तब मौत अच्छी लगती है। हममें से कई तो ताली बजाते हैं। इसका अच्छा उदाहरण 'शोले' है। जब 'गब्बर' मरता है तब खुशी और जब 'जय' मरता है तब आँसू निकलते हैं। यही सिनेमा का खेल है। दिमाग को पूरा जकड़ लेने का खेल। इसलिए मेरा एक खयाल यह जरूर रहता है कि फिल्म देखने के दौरान फिल्म और मेरा एक फासला रहे। फिल्म और दर्शक के बीच में एक निश्चित फासला जरूर होना चाहिए। आम समझ यह है कि हम फिल्म देख रहे होते हैं पर वास्तव में फिल्म तो आपके हाथ को पकड़ कर अपने अंदर बहा ले जाती है। अगर दिलचस्पी अधिक रही तब फिल्म के खत्म होने के बाद होश आता है। आप खुद पर इसका एक टेस्ट कर सकते हैं।



बहरहाल फिल्म पर आते हैं। सफर का उद्देश्य बदलता है और तीनों पानी की तलाश के लिए शॉर्टकट रास्ता अपनाते हैं इसी दौरान इन्हें एक जिप्सी औरत मिलती है जो खुद पानी की तलाश में यहाँ वहाँ भटक रही है। बस यहीं से चारों की मंजिल एक दूसरे के साथ हो जाती है। चाचा सुनसान जगह पर हताश होने की बजाय एक आइडिया और लगाते हैं और फिल्म का पर्दा लगाते हैं। फिर क्या, रात होती है और मेला सज जाता है। फिल्म दिखाने पर इनकी मोटी कमाई होती है और पानी भी मिल जाता है।

इसके बाद के दृश्य में सभी चरित्रों की परतें खुलती हैं। विष्णु का डर खत्म होता है। एक खुलापन नज़र आता है। वह पानी डाकुओं से भी तैल का सौदा कर पानी लेता है और उसे प्यासे लोगों में बांटता है। इस एक्शन में कहीं न कहीं उसके दिल का होना मालूम देता है। जिप्सी औरत जिसका पति नहीं है। उसे विष्णु से प्यार हो जाता है। लेकिन अंत में वह विष्णु को रोकती नहींहै बल्कि यह कहती है कि हमारे रास्ते अलग हैं। कहीं न कहीं इस चरित्र में एक मजबूत फैसले लेने की क्षमता दिखती है। बच्चे का किरदार उतना नहीं उभरा है पर वह भी फिल्म का ज़रूरी हिस्सा है।

इस फिल्म का ज़िक्र इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि मेरे पास भी बोरियत की एक फेहरिश्त है। सभी के पास होती है। उसे जीतने के सभी के अपने अपने नुस्खे भी होते हैं। मेरे पास भी हैं। यह सब बातें व्यस्त लोगों के लिए नहीं है। उनके पास तो बेहतरीन जरिया यही है कि वे बिज़ी हैं। हम जैसे फक्कड़ लोगों को अधिक जरूरत पड़ती है अपने आसपास को बार बार देखने की। कभी 90 डिग्री के कोण से तो कभी 180 डिग्री के। इससे ज़िंदादिल रहा जा सकता है। वाद विवाद से बचकर रहा जा सकता है। नए अनुभवों को किताबों की बजाय नई जगहों से पाना सबसे अच्छा तोहफा है। इसके अलावा अपने अंदर के अजनबीपन को पहचानने का सबसे बेहतर तरीका सफर के दौरान ही समझ आता है। इन बातों के तहत यह फिल्म एक नज़रिया तो बतलाती ही है।

जब 'दि अलकेमिस्ट' उपन्यास पढ़ा था तब यही महसूस हुआ था कि किसी अंजान सफर पर जाना कितना रोमांचक होता है। 'सेंटियागो' को अपने झोले में रखकर चलती हूँ। ठीक है उसे एक खजाने के की खोज थी। मेरा खजाना तो नई जगहें ही हैं। मैं जान बूझकर नई जगहों पर जाने की सूची बनाती हूँ। ठीक है शायद नहीं जा पाऊँगी। लेकिन अपनी वसीयत में यह फेहरिश्त तो छोड़ कर जा ही सकती हूँ। शायद किसी और के काम आ जाए।  



Thursday, 24 November 2016

वो पीले जूतों वाली लड़की- ...And everyone wants a piece of her

दो दिन पहले की बात है। FB पर किसी म्यूचुअल दोस्त के दोस्त ने रिक्वेस्ट भेजी। मैंने एक्सेप्ट कर ली। लेकिन सज्जन इतने आतुर दिखे कि मुझे बेहद अजीबो-गरीब मैसेज करने लगे। इतना ही नहीं मुझे उनके चलते एक जानकारी और मिली कि FB में कॉलिंग फीचर भी है। मुझे इसका इल्म नहीं था। सज्जन लगातार कॉल कर रहे थे। न जाने उन्हें मुझमें दिलचस्पी थी या कोई अनंत रहस्य दिखाई दे गया था। ख़ैर, मैंने उनका और अपना दोनों का समय बचाया और ब्लॉक करने का विकल्प इस्तेमाल किया। इस व्यक्ति की एक बात और खास थी। इनका FB कवर फ़ोटो अपनी पत्नी के साथ था। पहली नज़र में किसी को भी लगेगा कि भला व्यक्ति है। बिलकुल पत्नी भक्त। फिर मुझे इतने मैसेज करने के पीछे क्या मतलब निकाला जाए?

इन दो दिनों से कुछ दिन पहले मैंने इस नोटबंदी के मौसम से बचने के लिए फिल्म 'देट गर्ल इन यैलो बूट्स' देखी। फिल्म मुझे बेहतर लगी। हालांकि यह फिल्म मैंने दो टुकड़ों में देखी। एक हिस्सा पहले और दूसरा हिस्सा दो दिन बाद। लेकिन इतना तय था कि फिल्म की मुख्य किरदार भारतीय पिता और ब्रितानी माता की बेटी 'रूथ' मेरे साथ हो चुकी थी। वह हजारों मील दूर अपने भारतीय पिता को खोजने के लिए बॉम्बे आने वाली एक नौजवान लड़की है। वह तोड़ मरोड़ की हिन्दी से बेहतर हिन्दी भी बोल लेती है। लेकिन यह लड़की हर भारतीय लड़की जैसी ही दिक्कतों का सामना करती है।

फिल्म को हर कोण से देखा जा सकता है। जैसे एक विदेशी लड़की की नज़र से। रिश्तों में मजबूत रिश्ता यानि पिता को पाने की चाह रखने वाली बेटी की नज़र से। एक मसाज पार्लर में आदमियों को मसाज देने वाली और 1000 रुपये की अतिरिक्त फीस के साथ 'हैंड मसाज' करने वाली पार्लर वाली की नज़र से। एक ड्रग लेने वाले लड़के की प्रेमिका की नज़र से। ...कहने का मकसद है कि 'रूथ' अंजान बॉम्बे शहर में कई चेहरे के साथ जीने की कोशिश करती है। उसके चरित्र में चालाकी का भी शेड है जिसे फिल्म के कई दृश्य में देखा जा सकता है। जैसे बॉम्बे शहर के सरकारी कार्यलयों में या फिर पोस्ट ऑफिस में जब वह अपना काम निकलवाना चाहती है तब 'घूस' जैसी चीज को वह दान जैसे शब्द से जोड़ते हुए देती है। उसे भारतीय सरकारी दफ्तरों का खूब अंदाज़ा है। यह दान देना उसके कई अटके हुए काम बखूबी करवा भी देता है।

उसकी बॉम्बे की ज़िंदगी में कई मर्द हैं। एक उसका प्रेमी, जो नशे में रहता है और ड्रग के बिना जी नहीं सकता, दूसरा एक माफिया का आदमी जो अपने पिता को बचपन में खो चुका है, तीसरा एक अंजान आदमी जो उसके घर के बाहर कभी पैसे लेने तो कभी उससे से संबंध बनाने की चाहत लिए आता रहता है, चौथा एक बुजुर्ग आदमी जो मसाज करवाने आता है और उसे 'बेटी या बेटा' कहकर पुकारता है, पांचवा एक अमीर आदमी जो उसके पिता से मिलवाने का भरोसा देकर उसका फायदा अपने बिजनेस के लिए उठाना चाहता है और छठा आदमी उसका एक और मसाज कस्टमर जो उसका पिता है। वह अपने पिता को 'हैंड मसाज' भी देती है।

फिल्म के अंत में रूथ तब और चौंक (सदमा) जाती है जब उसे मालूम चलता है कि उसका पिता और कोई नहीं वही व्यक्ति है जो उसका नियमित मसाज ग्राहक है। उसका सब्र का बांध टूट भी जाता है। अंत के दृश्य में उसे दुखी, हैरान और सदमे के चेहरे के साथ टॅक्सी में बैठकर जाते हुए दिखाया जाता है। मुझे लगता है कि यह दृश्य वास्तव में उस सच्चाई की परतें खोलता है जिसमें रूथ को पता चलता है कि लड़की होना बहुत से लोगों के लिए सिर्फ शरीर भर होना ही है। मुझे इस बाबत एक बैठक याद आ जाती है जिसमें एक कार्यकर्ता ने बताया था कि एक 7 साल की बच्ची का रेप उसके खुद के पिता द्वारा रोजाना किया जाता था। इस हरकत की खबर माँ को भी थी पर वह चुप रही।

रूथ पूरी फिल्म में पीले जूतों में नज़र आती है। वह हर जगह इन्हीं जूतों को पहनकर जाती है। एक ही जोड़ी जूता और वह भी एक ही रंग का, यह बतलाता है कि आप कहीं भी जाओ, किसी भी कोने में... औरत और उसके शरीर को लेकर 'आबादी' की सोच साफ है। उस सोच में वही एक रंग है। वही एक झलकी है। शरीर से बाहर कुछ भी नहीं दिखता। जब आप गूगल में इस फिल्म के बारे में पढ़ेंगे तो पायेंगे  वास्तव में हर आदमी उसके खूबसूरत शरीर में एक मौज-मस्ती वाली हिस्सेदारी चाहता है। खुद उसका पिता भी यही करना चाहता है। (...And everyone wants a piece of her.)

हाल ही में आई दो फिल्में 'पार्च्ड' और 'पिंक' दोनों ही महिला आधारित फिल्में हैं। दोनों ही फिल्मों की आलोचना की जा सकती है। फिर भी दोनों फिल्में एक संवाद रचने में कामयाब हैं। 'पार्च्ड' में वे मुख्य महिला किरदार हैं जो ग्रामीण इलाक़े से ताल्लुक रखती हैं और वे पढ़ी लिखी नहीं हैं। जबकि 'पिंक' फिल्म में शहर से ताल्लुक रखने वाली और आर्थिक रूप से स्वतंत्र लड़कियों की कहानी है। तीनों लड़कियां पढ़ी लिखी हैं फिर भी उनको निशाने पर लिया जाता है। 'देट गर्ल इन यैलो बूट्स' फिल्म काफी पहले बन चुकी है और इसमें एक विदेशी मूल की लड़की की कहानी है। लेकिन वह भी उसी तरह की तकलीफ़ों का सामना कर रही है जिसका कि बाक़ी भारतीय लड़कियां।

ये सभी फिल्में मेरे लिए ख़ास हैं। इसलिए नहीं कि इनसे मेरा मनोरंजन हो रहा है या फिर कलाकारों ने बेहतरीन अभिनय किया है। मुझे इस राजनीति, समाज, संस्कृति और पारिवारिक संरचना में कब क्या देखने और समझने को मिल जाये,  इसका अंदाज़ा लगाने में ये सभी फिल्में मददगार हैं। अपने आसपास एक जाल की बुनावट समझ आती है। हर स्तर पर मोटी-मोटी तहें हैं। नियम व शर्तें लागू हैं। इन फिल्मों से बहुत न सही कुछ तो समझ आ ही जाता है।

'रूथ' का किरदार ज़्यादा दिलचस्प है 'पार्च्ड' फिल्म की नायिकाओं की तरह। अंजान बॉम्बे शहर में वह अपनी शैली से जी रही है। वह काम कर रही है। पिता को खोजने का व्यक्तिगत खोजी अभियान चला रही है। सड़े-गले नोकिया फोन का बखूबी इस्तेमाल कर रही है। वह चालाक है। वह दिक्कतों से बाहर निकलने का तरीका भी जानती है। अपने प्रेमी को न कहना और थप्पड़ जड़ना भी वह जानती है। वह माफिया के सरगना से निपटने का जरिया जानती है और उसे अपनाती भी है। अपने मानसिक रूप से विकृत पिता को गरम तैल से जलाती है और तो और उस पर पिस्तौल भी तानती है। वह रोती है पर खुद पर नहीं लोगों के दिमाग पर। रोना अपने आप को हल्के करने का साधन है न कि लाचारी और कमजोर करने का। कुल मिलाकर 'रूथ' से मुलाक़ात बेहतरीन रही।  


Tuesday, 22 November 2016

20 रुपये लेने वाला डॉक्टर

कुछ आदतें देर से लगती हैं। लेकिन चलती बहुत दूर तक हैं। यानि लंबे सफर में कोई साथ दे या न दे, लेकिन कुछ आदतें चिपक जाती है और साथ भी देती हैं। ऐसी एक आदत अखबार पढ़ने की है। चाहे लाख इन्हें कोस लूँ, पढ़ूँ न पढ़ूँ, फिर भी मैं पन्ने पलट लेती हूँ। मामूली हूँ सो एक अदद नौकरी की कामना कर के ही जीती हूँ। जी. के. को दुरुस्त रखना कोई बच्चों का खेल नहीं। इसलिए अखबार से बेहतर कोई और साधन समझ नहीं आता।

सुर्खियां अब धोखा देती हैं। क्या पढ़ा जाये और क्या छोड़ा जाये का विकल्प शुक्र है कि अभी तक अपने हाथ में वरना तो खैरियत ही नहीं होती। विमुद्रीकरण के मौसम में आरोप और प्रत्यारोप की प्रक्रिया चल रही है। अखबार इसी खबर से भरे हुए हैं। लोगों की दिक्कत और उत्तर प्रदेश चुनाव के मद्देनजर कितने ही शोध छप कर आ रहे हैं और शायद ये सब अखबार के पन्नों में जरूरी हिस्सा भी हैं। लेकिन एक खबर दिखी जिस पर मेरा ध्यान गया और सुबह से उस पर थोड़ा बहुत दिमाग का खर्चा भी किया।



खबर है तो दुखद फिर भी मुझे खास लगी। तमिलनाडु के दूसरे सबसे बड़े शहर माने जाने वाले कोयंबटूर में एक स्थानीय डॉक्टर के इंतकाल के बाद उन्हें श्र्द्धांजलि देने के लोग उमड़ पड़े। हर रोज़ कई लोग मरते हैं। लेकिन यकायक इतने अधिक लोगों की आँखें एक साथ नम हो जाएँ ऐसा आजकल कहाँ होता है! बगल में सिर काट लिया जाता है, सड़कों पर जच्चगी हो जाती है तब भी संवेदनशील लोगों की संवेदनाएँ सोई रहती हैं। फिर ऐसा आखिर क्या हो गया कि एक डॉक्टर की मौत पर लोग इकट्ठा हो गए?

अखबार में छपी खबर के मुताबिक डॉक्टर साहब का नाम वी. बालासुब्रमण्यम था। उनका क्लीनिक सिधापुदुर में था। खास और चौंकाने वाली बात यह थी कि महंगाई के इस जमाने में डॉक्टर साहब ने कभी भी अपनी फीस 20 रुपये से ज़्यादा नहीं की। क्लीनिक की शुरुआत में उनकी फीस मात्र 2 रुपये बताई जाती है। इसके अलावा यदि कोई बड़ी बीमारी से पीड़ित व्यक्ति उनके पास आता था तब वह उसकी अनगिनत विज़िट पर भी उससे केवल एक बार ही फीस के रूपये लेते थे। बाहर की दावा लिखने का बाद भी फीस का रुपया 50 से अधिक नहीं जाता था। पूरे शहर में उन्हें लोग '20 रुपये वाला डॉक्टर' कहकर पुकारते थे। इसके पीछे यही फीस 20 रुपये होना है।

मुझे उनके मौत का दुख है। उनकी मौत एक न भर पाने वाला नुकसान जरूर है। लेकिन सबसे ज़्यादा अहम उनकी सोच का मूल्य है। उनका संतोष है। हम लाख एन. सी. आर. टी. की आदर्शवादी कहानी पढ़ लेते हैं पर न जाने बड़े होने पर किस रेत के नीचे दबा आते हैं। (नदी गंदी कर चुके हैं, मिट्टी की भी अच्छी दशा नहीं रख छोड़ी है) डॉक्टर साहब का इतनी कम फीस लेने के बारे में कहना था कि भगवान ने मुझे मेरा खयाल रखने के लिए काफी पैसा दिया है। इसलिए मैं गरीबों को स्वस्थ रहने में मदद करता हूँ।



कुछ दिनों पहले मैं अपनी सिर दर्द की परेशानी को लेकर एक MBBS डॉक्टर से मुलाकात कर बैठी। एक सफ़ेद पर्चा भर गया। मालूम चला कि आधे पर्चे पर ढेर सारी दवाइयाँ लिखी गई हैं तो आधे पर दर्जन भर टेस्ट लिखे गए हैं। मैंने पूछा कि क्या मुझे ट्यूमर हो गया है या फिर मुझे घर बैठकर 'आनंद' फिल्म के गीत सुनने चाहिए तब डॉक्टर ने बड़े गंभीर लहजे से कहा - 'कुछ कहना मुश्किल है। पहले ये सब टेस्ट करवाकर आइये।' मैंने फिर पूछा कि जब कह नहीं सकते तो दवाइयाँ इतनी अधिक क्यो वो भी 500 रुपये की? तब वह झल्ला गया और बोलने लगा, आप लोगों को ज़्यादा पुछने की आदत न जाने क्यों है? डॉक्टर हम हैं या आप?...खैर कुछ दिनों तक लगा कि मेरे पास अधिक समय नहीं और दिल के ग़म में 'आनंद' फिल्म के गीत भी सुन लिए।

घर पर कभी डॉक्टर के लिखे पर्चे को पढ़ने की कोशिश करती तो कभी दवाइयों की गूगल पर खोज करती। लेकिन पर्चे पढ़ने की प्रक्रिया में मुझे एक बात यही समझ आई कि डॉक्टर ने मुझसे हुई बातचीत को पर्चे पर छाप दिया था। खैर मैंने न तो दवाइयाँ खरीदीं और न ही टेस्ट करवाए। मैं अब बेहतर महसूस करती हूँ। सारा खेल तो रूटीन और खानपान में छुपा है।

फिजूल के टेस्ट और दवाएं आजकल के झोला छाप और प्रमाणपत्र धारण किए डॉक्टरों की आय का मुख्य जरिया बन चुका है। ऐसे बहुत कम डॉक्टर हैं जो वास्तव में मरीज का मर्म और दर्द समझकर ईलाज कर रहे हैं। मेरी मुलाकात फिर भी ऐसे अच्छे डॉक्टर से अभी तक नहीं हुई। बड़े अस्पतालों का क्या कहना! उनके तो बाथरूम का फर्श भी मेरे घर के फर्श से अधिक चमकदार होता है। उसकी सफाई का खर्च भी मरीज के गले पर ऑपरेशन का चाकू रखकर आराम से ले लिया जाता है। मरीज को लगता है कि उसका बड़ा ऑपरेशन किया गया है।

क़ातिल तो सामने आकर चाकू से वार करता है। पर ये बड़े बड़े अस्पताल पीछे से ही गला काट रहे हैं। ऐसे माहौल में इन जैसे डॉक्टर का अब न होना एक बड़ी हानी है। आपको नहीं लगता?    









       

Sunday, 20 November 2016

छुक छुक की आवाज़ से बढ़कर है रेल...

आज की बड़ी खबर रात के करीब 3 बजे ही घट चुकी थी। जी हाँ, इंदौर-पटना एक्सप्रेस के 14 डिब्बे अपनी पटरी से कानपुर के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गए और मरने वालों की संख्या खबरों के मुताबिक 115 बताई जा रही है। देश में एक बड़ी घटना 8 नवंबर 2016 की रात को पहले ही घट चुकी है। अभी वह घटना खत्म भी नहीं हुई कि जब तक यह भयानक हादसा हो गया। हादसों में तो आजकल हर व्यक्ति जी रहा है। हादसे मानों आदत बन चुके हैं। इसलिए आज किसी हादसे पर कलम नहीं चलानी। 

इत्तिफाक़ से कल मैं अपने एक दोस्त के साथ भारतीय रेल की तारीफ में व्यस्त थी। राजा रवि वर्मा, गांधी, नेहरू और वे लोग जिनके मैं नाम नहीं जानती, सभी ने इसी भारतीय रेल से हिंदुस्तान को बेहतर जाना है। इतना ही नहीं हिन्दी फिल्मों में तो  रेल और उसकी पटरियों की अहम भूमिका है, चाहे बात इश्क़ की हो या फिर शोध की। रेल है ही आकर्षित करने वाली।



एक बार मेरे किसी आत्मीय की बातचीत से मुझे यह मालूम चला था कि भारतीय रेलवे गजब का माध्यम है। यह माध्यम असली भारतियों के साथ असली भारत का सफर तय करवाता है। यह छोटी से छोटी जगह से जुड़ा है। यह लोगों से कई सालों से हुआ है। इसकी अहमियत को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन अभी भी इस में कुछ गुणवत्ता समय की मांग के अनुसार नहीं जुड़ पाएँ हैं, क्योंकि हम और हमारी सरकार इसके लिए मुस्तैद नहीं हैं।

रेल का ज़िक्र कर रही हूँ तब मैं अपनी ही बात बताती हूँ। बात क्या एक किस्सा है। मैंने रेलवे से कई छोटे और बड़े सफर किए हैं। मुझे आज भी लगभग 4 साल की उम्र के अपने दूसरे (पहला बेहद कम उम्र में था जो याद नहीं)  सफर की हल्की याद है। इस सफर में मैं, अम्मी और मेरे बड़े भाई एक साथ थे। हम स्लीपर में थे। मुझे रेल के धुएँ से ऐसी दिक्कत हुई की ठसाठस भरे हुए डिब्बे में मुझे उल्टी होनी शुरू हो गई। बहुत उल्टी हुई। कई लोग कहने लगे कि इस डिब्बे से निकलो, जाओ, बाहर जाओ...सब गंदा कर के रख दिया लड़की ने।

                                               एक टिकट चेकर द्वारा बनाया गया चित्र

डिब्बे में कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्हों ने कहा कि जब उनकी बच्ची की दशा ठीक नहीं है तो ऐसे में यह उसे कहाँ लेकर जाएंगी। आप लोग तो ऐसे कह रहे हो जैसे आप के बच्चे गंदे ही नहीं होते।
 
मेरी माँ आवाज़ और मिजाज़ की तेज़ नहीं हैं। सबसे ज़्यादा उन्हीं के कपड़े गंदे हुए। मेरे भाई मुझे पानी दे देकर कुल्ला करवा रहे थे। जब मेरा जी शांत हुआ तब माँ ने अपनी गोद में मेरे सिर को रखकर हौले हौले सहलाया। इसके बाद खिड़की की हवा और चाँद की रोशनी ने मुझे चैन और नींद का तोहफा दिया। मुझे यह सब के सब दृश्य आज भी ज्यों के त्यों याद है। अपनी माँ की साड़ी का रंग मेरे बड़े भैया का कम उम्र वाला चेहरा। हमारी पेटी। उसका रंग। स्टेशन। उसके कुछ लोग। उनकी बातें। सब याद है।

पर इन सबसे ज़्यादा मुझे रेल याद है। गहरा मिट्टी रंग था उस रेल का। ज़्यादा नई भी नहीं थी और न ही बेहद पुरानी। एक दम लंबी। ढेरों लोगों को ले जाती हुई मशीन। उसका रूप ऐसा कि हैरत में डाल दे। जैसे ही रुकती एक नई दुनिया ही नज़र आती। कभी कोई चाय लेकर आ जाता तो कोई चने... वहाँ इतनी आवाज़ें थीं कि मैंने पहली बार जाना था कि जब बहुत सी आवाज़ें एक दूसरे में घुल जाती हैं तब साफ न सुनना एक बेबसी की दशा है। शोर कहकर क्यों दोष लगाया जाये? जैसे ही ट्रेन नदी या फिर किसी पुल से गुजरती तो रोमांच सा महसूस होने लगता।  खैर, चीज़ खरीदने और खाने की ज़िद्द के चलते मुझे रेल के बारे में 'ऑन द स्पॉट' कहानी रच कर सुनाई गई।

                                                        अदिति भट्ट का बनाया हुआ चित्र

"चीज़ खाओगी तो रेल से बात नहीं कर पाओगी। रेल उनसे बात नहीं करती जो रो रो कर चीज खाने की ज़िद्द करते हैं।"
(...हद है। मुझे पहले क्यों नहीं बताया कि ऐसा मामला है।) ..."फिर कैसे बात करेगी, बताओ...?"

"अरे कुछ नहीं देखो उसके आगे जाओ। वहीं उसका मुंह है गोल सा बोलने वाला। पापा तो वहीं जाकर उससे बात कर लेते हैं।"

फिर क्या था। जिस स्टेशन पर ट्रेन रुकती मैं आगे पहुँच जाती। मैंने बहुत कोशिश की, कि ट्रेन से बात हो जाये पर हुई नहीं। इस बीच मुझे उल्टी नहीं हुई और मैंने कोई ज़िद्द भी नहीं की। घर तक मैं यही पुछती रही कि पापा से कैसे बात करती है मुझसे तो बोली ही नहीं! फार्मूला काम कर रहा था। ... आज भी भैया मेरी बेवकूफी पर खूब हँसते हैं।   

कुछ ऐसी है भारतीय रेल। ढेरों किस्से हैं जो हर उस व्यक्ति के अंदर है जिसने इससे अपना सफर किया है। इसलिए जब यह हादसे होते हैं तो मानिए कि कुछ चकनाचूर हो जाता है। सही प्रबंधन न होना इसकी एक बड़ी वजह है। लोग भी इसकी ओर से बेरुखी दिखाते हैं। हम भला कौन सी ज़िम्मेदारी निभाते हैं? हमारी सरकारें जिस भी आदमी को इसका सरताज बनाती हैं वह रेल बजट निकाल कर ही निकल जाता है। मुझे रेलवे की खूब खबर तो नहीं लेकिन यह अहसास जरूर है कि इस पुरानी और चरमराती संपदा को एक सुगठित सुधार की बेहद जरूरत है।

हादसों की जवाबदेही तय करनी चाहिए। हम भारत के लोगों को वास्तव में 'हम' यह भारतीय रेल भी बनाती है। आपको ऐसा नहीं लगता? गर नहीं लगता तो जनाब आपने फिर रेल को जीया ही नहीं। रेल छुक छुक की आवाज़ से बढ़कर कुछ और भी है। जब फिल्म 'गांधी' या फिर अ ट्रेन टू पाकिस्तान' देखी तब उस आज़ादी से पहले और आसपास के भारत के चित्र दिमाग में  घुमने लगे। फिल्म 'वॉटर' में भी ट्रेन से जुड़ा एक अंत में बेहद खूबसूरत दृश्य है। इन फिल्मों के दृश्य में रेल एक बदलाव के साथ दिखाई देती है। एक सकारात्मक परिवर्तन की दस्तक देने वाली सूचक की तरह। आपने गुलज़ार साहब की मशहूर कहानी 'रावी पार' पढ़ी होगी। नहीं पढ़ी तो पढ़िये। आपको वह कहानी उस समय का दर्द बयां करेगी। एक रेल के ऊपर बैठे पिता के चेहरे से। तब आप न हिन्दू रह पाएंगे और न मुसलमान।

कुछ ऐसी है रेल। महज डिब्बे नहीं जिन्हें एक पुराना इंजन खींचता है। बल्कि रेल निशानी है जिंदगी में गति की और निरंतर बढ़ने की। आगे से छुक छुक न सुनिएगा बल्कि बात कर के लौटिएगा।... आपकी यात्रा शुभ हो!     



Friday, 18 November 2016

अपनी मरम्मत भी बहुत ज़रूरी है...

आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में एक महिला द्वारा अपने पति को सरकारी अस्पताल में स्ट्रेचर न होने के कारण घसीट कर ले जाने का एक वीडियो फिर से सोशल मीडिया में छाया है। अखबारों और एक दो चैनलों के मुताबिक उस महिला को अपने बीमार पति के लिए एक स्ट्रेचर की जरूरत थी जो कि अस्पताल में मौजूद नहीं था। इसके अलावा अफसोस की बात यह है कि आसपास लोग भी मौजूद थे जों खड़े देखते रहे पर किसी ने भी उस महिला की मदद की जरूरत नहीं समझी। यहाँ अस्पताल प्रशासन की लापरवाही तो है ही साथ ही हमारे समाज के मरने का भी इशारा है।

हमें सरकार को गाली देने में जों सुख मिलता है वही सुख शायद अपने अंदर के नैतिक मूल्य को मरने की खबर नहीं होने देता। खुद मुझमें कितनी नैतिकता बाकी है इसका मुझे अंदाज़ नहीं पर इतना है कि मैं कई बार बाहर की दुनिया में कुछ गलत बातों की तरफ से अपना ध्यान हटा लेती हूँ। यह बचने की तमन्ना ही मेरा खोल है। यही अवरोध भी है। अपने अंदर एक सड़ने की प्रक्रिया को देख रही हूँ और अच्छी तरह से महसूस भी कर रही हूँ।  हम सभी धीरे धीरे सड़ ही रहे हैं। इसके बाद हमारी जगह कूड़ेदान होगा।


                                                 खोजिए अपनी जड़ें- फेकसाटन के सौजन्य से

कुछ महीने पहले इसी तरह की एक घटना ओड़ीसा के कालाहांडी में रहने वाले दानामाझी के साथ हुई थी। वह अपनी मृत पत्नी को अपने ही कंधे पर उठाकर अस्पताल से अपने घर तक की शव यात्रा कर रहे थे। इसमें भी अस्पताल प्रशासन की घोर लापरवाही सामने आती है। दिलचस्प है कि इस घटना को लेकर हर जगह बे-इंतहा शोर शराबा और प्रवचन कहे गए पर, कुछ दिनों बाद हुआ क्या?... साहब, सोशल मीडिया का जमाना है, जितनी तेज़ी से कुछ 'ब्रेकिंग ताज़ा माल' बिकता है उतनी तेज़ी से उसकी क़ीमत भी घट जाती है। कुछ बची खुची खबरों पर नज़र डालें तब यही पता चलता है कि दानामाझी अपनी बेटियों को पढ़ा रहे हैं। कोई नहीं जानता कि इस नोट बंदी में दानामाझी क्या बैंक के बाहर खड़ी कतार का एक हिस्सा हैं, क्या उनका भी नंबर आ पा रहा है या वह भी दो दिन लाईन में खड़े होकर वापस आ जाते हैं, हम बेखबर हैं। पक्की बात है कि नहीं जानते।

ठीक यही दशा इस महिला की है। चूंकि मेरा अभी तक का समय उत्तर भारत में ही गुजरा है वो भी एक छोटे से हिस्से में। ठीक से अपना शहर भी नहीं देखा। दूर से उड़कर जो कानों तक आया उससे लगा कि दक्षिण भारत के लोग एक दूसरे के साथ बेहतर बर्ताव करते हैं। काफी मददगार हैं। लेकिन जब केरल का जीशा बलात्कार और हत्याकांड सुना तब लगा कि नहीं मैं गलत थी। हर जगह के आधुनिक और पौराणिक मानव में बेहद दिक्कतें हैं और थीं।

                                                                    गूगल से लिया है

अपने देश की संस्कृति को महान बेशक आप जबरन कहलवा लीजिये पर यह भी अच्छी तरह से जान लीजिये कि महान को छत्तीस दफा महान कहने की जरूरत नहीं होती। ज़ात के नाम पर आप एक बहुत बड़े तबके को आज भी दूर से देख के राह बदल देते हैं। मुझे बताइये कि आप महान कब, क्यों, कहाँ और कैसे हो गए?

अगर आप को भ्रम पालने का शौक है तब पालते रहिए और एक दिन वही भ्रम जब अजगर बनेगा तब सबसे पहले आपको ही निगलेगा और डकार भी नहीं लेगा। इसलिए बचने के उपाय यही हैं कि बोलिए जब किसी को बेवजह रुलाया जाये, किसी का हक़ छिना जाये...इस तरह की खबरें ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं हैं बल्कि वे घटनाएँ हैं जो आपके कितने इंसान होने की जांच करती हैं।



Thursday, 17 November 2016

नोटबंदी में 'बंदिनी'

जब भीड़ को समझना हो तब क़रीब से देखना एक अच्छा तरीका है। लेकिन आपको भीड़ का हिस्सा बनना होगा। घुस जाइए और जानिए कि भीड़ के घटक तत्व क्या हैं? लोग कहने से ही चेहरा समझ नहीं आएगा।

दो दिन से कतार का हिस्सा बन रही हूँ। साधारण होना आपको कई अच्छे मौक़े दे देता है। आम लोगों के बीच जगह बन जाती है। आसानी से मैं उनकी ज़िंदगी में थोड़ी देर के लिए घुस पाई। थोड़ा सा जान पाई उन्हें जो 'सेकंड सेक्स' हैं भारत जैसे देश में।

सरकार द्वारा नोटबंदी करने के फैसले से उन पर क्या असर पड़ा है, इसका अंदाज़ केवल उनसे बात करके ही मालूम चला। लाइन लगाने के लिए बैंक के बाहर लगभग 300 लोग थे। आदमी और औरत दोनों की संख्या में बहुत बड़ी असमानता नहीं थी। लेकिन गिनती की जाती तो शायद 'माओं' की संख्या ज़्यादा निकल आती। जी हाँ, कल और आज मुझे यही अनुभव हुआ कि कतार में ज़्यादातर शादीशुदा औरतें अधिक थीं जिनकी उम्र 30 साल से कुछ ऊपर जा रही थी। कुछ औरतें 50 तक थीं और थोड़ी सीनियर सिटिज़न में भी शामिल थीं।

                                                                  मिथिला चित्रकारी

बुझे चेहरों के साथ यह औरतें बैंक के गेट पर ही अपनी मुस्तैद नज़र जमाकर बैठी थीं। कई औरतों के सिर पर हाथ थे। हाथ में कभी खरीदे गये कपड़े के साथ आई पोलिथीन थीं जिनमें आधार का 'कारड' और 'फोरम' पड़ा था। कुछ एक दूसरे से कह रही थीं- "भई किसी को लाइन में घुसने मत देना। हम पागल हैं जो भूखे प्यासे खड़े हैं..."

बहुत देर खड़े रहने के कारण मुझे थकावट हो चली थी सो मैं कहीं कोई बैठने के लिए चबूतरा खोज रही थी तभी किसी महिला ने मुझे हताश चेहरे के साथ पीछे से कहा- "क्या आपके पास फुन है? एक फुन करना है बस!"...मैंने हाँ कहा और वह हिन्दी अंकों में नंबर बताने लगीं। मैंने नंबर लगाकर उन्हें फोन दिया तब वह बोलीं- "ज़ाहिद के अब्बू, अब खड़ा न हुआ जा रिया है। आ ही जाओ। पहले वाले बैंक वालों ने ये कह दिया है कि पैसा न है...अब दूसरे बैंक में आई हूँ। उसी के बगल में है। जल्दी आ जाओ।"

फोन देते हुए मुझे शुक्रिया बोलीं। मैंने कहा - "आप सीनियर सिटिज़न वाली लाइन में लग जाओ। क्यों परेशान हो रही हैं आप? वहाँ आपका जल्दी हो जाएगा।"

वो बोलीं- "नहीं लग सकती। उमर न है। लाइन से निकाल देंगे तो बेइज्जती सी लगेगी।"
वह औरत खड़े होकर इतना थक गई थी कि उन्हें जबरन बैठने के लिए लगातार कहा गया। पर वह टस से मस न हुई कि कहीं मेरा नंबर कोई दूसरा न हथिया ले। वह नहीं बैठी।

ऐसी ही एक औरत बंगाली भाषा में दूसरी ही बंगाली औरत से बोल रही थी- "कल 6 बजे आई थी। लाइन में लगी लेकिन काम नहीं हुआ। बताओ अंधेरे में कैसे आ जाऊं लगने! आज आँख नहीं खुल पाई तो 7 बजे आई हूँ।"

दूसरी ने भी अपनी मजबूरी बताई। उसका नंबर भी कल नहीं आ पाया था- "काफी लोग जो लाइन में खड़े थे भड़क गए और पुलिस वालों से झगड़ा भी हुआ। पुलिस वाला तो डर गया था। उसने फोन करके कई और अपने साथियों को बुलाया। मैंने भी अपना गुस्सा उतारा और 3-4 गलियाँ बक दीं। बताओ कोई क्या करेगा! गुस्सा तो आ ही जाता है जब खड़े रहो और काम न हो।"

                                                              मिथिला चित्रकारी है

एक औरत ने कहा- "हम तो सैलरी वाले लोग हैं। महीने के महीने तनखा आती है और खत्म भी हो जाती है। कुछ बचा लेते हैं। बच्चों वाले लोग हैं। नहीं बचाएंगे तो आड़े टेढ़े वक़्त किसके आगे हाथ फैलाएँगे।" वह यहीं नहीं रूकी और आगे बौखलाहट में बोलने लगीं - "सारी कमाई मेहनत की है फिर काला कहना का क्या मतलब? यहाँ तो कोई गाड़ी वाला दिखाई ही नहीं दे रहा...बेटी की फीस देनी है। तीन से लड़की की छुट्टी करवाई है। 'ये' काम पर जाएंगे मैं यहाँ हूँ तो घर में तो कोई होना ही चाहिए।"

ऐसे ही कई और बयान सुनने को मिले। ये औरतें वही हैं जो 20 रुपये दर्जन वाली पक्की चूड़ियों की तलाश कर कर के पहनती हैं, ताकि पक्की चुड़ियाँ कलाइयों में ज़्यादा दिनों तक टिकें। बार बार चूड़ियों को पहनने का खर्च कम हो। फेंसी चुड़ियाँ तो त्योहारों के लिए जतन से रखी जाती हैं। इन्हीं औरतों में कई औरतें इतनी मासूम थीं कि उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि बैंक में जाकर आखिर क्या क्या काम करने होंगे।  कई झुंड बनाकर आई थीं कि इकट्ठे होने में काम जल्दी हो जाएगा। साथ बना रहेगा। सबसे दुखद बात यह कि जैसे ही दिन शाम की तरफ बढ़ रहा था वैसे-वैसे ही इनके चेहरे पीले पड़ रहे थे।

भीड़ में से एक औरत ने कहा - "आज जाने दिन इतनी जल्दी क्यों बीत रहा है!" इसके बाद कई सिर डूबते हुए सूरज की ओर मुड़ गए।   

गौरतलब हो कि नारीवाद पर तमाम तरह की गोष्ठियाँ और बैठकें कर लेने वाले लोग इस लाइन के पास दिखे तक नहीं। न जाने वे कौन सी कतारों में खड़ी हैं और खड़े हैं! मिलते तो हाल चाल ही पूछ लेती।
   

Wednesday, 16 November 2016

एक बहाना मिल गया अच्छा...सरकार ने आ के मेरा हाल (न) पूछा

अपने समय को दर्ज़ न करना सबसे बड़ा जुर्म है। खैर मुझे यह जुर्म नहीं करना इसलिए अपने हैसियत के अनुसार लिखने की कोशिश कर रही हूँ। मेरा समय बहुत हलचल वाला है। नई नीतियों, तकनीक, रहने के बदलते तौर-तरीकों, काम-धंधों, सम्बन्धों आदि में इन कारकों से हर समय की तरह हमारे समय में भी बदलाव हो रहे हैं।

जैसे ही 5 साल वाली सरकारें आती हैं, वैसे ही हमारे रहन-सहन में बदलाव आता है। हमारी शब्दावली बदल जाती है। कुछ शब्द राजनीतिक तरीके से जीभ पर 'ट्रांसप्लांट' किए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि यह 'स्थापना' राजनीति ही करती है। बल्कि यह कई तरीकों से ताउम्र चलता रहता है। जैसे घर में बच्चों को रिश्ते संबंधी शब्द की सौगात देना, स्कूल में नागरिक संबंधी बर्ताव को पनपाना और तरह-तरह की विचारधाराओं को समझते समझाते हुए बड़ी बड़ी 'टर्मिनोलॉजी' की गहरी और आम समझ देना। यह सब तो चलता ही रहता है बॉस! पर कुछ जो यकायक हो जाए वह कैसे ज़ुबान, हाव भाव, रूटीन, समझ, माइंडसेट आदि बदलता है उसका उदाहरण मुझे आज मिला।  

एक्शन भी तो मायने रखता है। किसी का भी।

                                                                 वर्ली चित्रकारी

नोटबंदी जैसी नीति और एक्शन (लागूकरण) ने हर जगह के लोगों की ज़िंदगी को थाम कर रख लिया है। यहाँ बात सरकार के इस फैसले के पक्ष और विपक्ष की नहीं है। यह बहुत स्वाभाविक है कि कुछ लोग इस निर्णय के साथ हैं और कुछ नहीं भी हैं। ऐसा भी हो सकता है कि कुछ दोनों ही से जुदा हैं। कई असमंजस की स्थिति में भी जरूर होंगे। खबरियों की भी खबर रखनी चाहिए। तो दोस्तों सभी चैनलों पर सूट बूट वाले कह रहे हैं कि नोटबंदी के फायदे भी होंगे। तो होंगे...हमने कब इंकार किया है। सरकार के पास बहुत दिमागदार लोग होंगे जिन्हों ने इस नीति के बारे में एक गहरा और लंबा शोध किया होगा। तभी तो इसे लागू किया गया। उन्हें बेहद उम्दा इल्म होगा कि इस नीति के क्या और कौन से नतीजे होंगे। मुझे इसमें दिलचस्पी अभी नहीं आ रही।

मैं बात, इस 'बात' पर भी नहीं कर रही। मुझे अपना मुद्दा निकाल कर लाने की बेहद मामूली समझ है। मैं बड़े बड़े विषयों पर डेटा वाली बहस नहीं कर सकती। मेरी सीमा है।



आज मैं भी सुबह के साढ़े आठ बजे वाली लाइन में जाकर लग गई। इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं था। मैं हैरत में थी कि लाइन लंबी इस शुरू होती सुबह में ही थी। उम्रदराज लोगों की लाइन छोटी थी और बाकी सभी लोग जो एक ही लाइन में लगे थे, उनकी सांप की तरह बलखाती हुई लंबी कतार थी। सभी के चेहरे बेरौनक़ थे। हम लोग आपसी बातचीत में लगे हुए थे। कई लोग जो बहुत सुबह से आए थे वे लघु शंका के लिए भी नहीं जा रहे थे कि कहीं उनको लाइन से बेदखली न मिल जाये या झगड़े फसाद में न हो जाये। लड़कियां और औरतें सूखे गले बैठे हुए थीं। खाना न खाकर आने की बात सभी ने कही। किसी को फॉर्म को भरने की गदर चिंता थी। सुनिए (पढ़िये) जरा कैसी पंक्तियाँ थीं उनकी ज़ुबानों पर-

  • कैसे भरते हैं, 
  • क्या कागज लाने हैं, 
  • दस्तख़त बहुत पहले किए थे...पर अब याद नहीं, कहीं रद्द न कर दें, 
  • कितना रुपया देंगे, मैं तो आठ हज़ार का चेक भर कर लाई हूँ, पता नहीं कहीं ये न कह दें कि कैश खत्म हो गया, 
  • बेटी की फीस भरनी है, कॉलेज वाले मान भी नहीं रहे,
  • मेरी कमर अब जवाब दे रही है, 
  • बताओ दो दिन(तीन दिन वाले भी)से आ रही हूँ, 
  • मैं बहुत परेशान हूँ, 
  • मैं क्या बताऊँ- दूसरे बैंक में लगे थे पर उन्हों ने भी भगा दिया, 
  • कोई इज्जत से बात भी नहीं कर रहा, 
  • मरे हुए को मार रहे हैं, पाप पड़ेगा, भगवान छोड़ेंगे नहीं, 
  • अरे अब भगवान भी नहीं रहा, 
  • गला सूख रहा है...पानी कैसे पियें,
  • टॉइलेट वाले 5 रुपये मांग रहे हैं,
  • क्या आप के फुन से एक 'फून' कर लूँ ,
  • ज़ाहिद के अब्बा, अब आ जाओ-मुझसे न खड़ा हो जा रिया है,
  • आज काम न बनेगा,
  • बताओ ऐसा भी कोई करता है, 
  • गरीब ही मरते हैं हमेशा,
  • घर में कुछ नहीं है,
  • बच्चे भी हमें देखकर मायूस हो जा रहे हैं,
  • हम तो आज छुट्टी लेकर आए हैं,
  • आप अपने आगे किसी को मत लगने देना,
  • आप तो पीछे थीं आगे कैसे आ गई- बताओ हम बेवकूफ हैं,
  • अब मैं घर कैसे चलाऊँ,
  • हद हो गई है अब,
  • बुड्डे लोगों को चुनोगे तो यही होगा,
  • सभी गला काटने के लिए आते हैं, 
  • हमें कुछ लेना देना नहीं है बस पैसे मिल जाएँ,
  • अच्छा किया सरकार ने लेकिन तैयारी तो कर लेते,
  • अरे नए नोटों से रंग छूट रहा है,
  • चूरन वाले नोट हैं, 
  • दिक्कत यहाँ ये भी है कि दो हज़ार का खुल्ला भी नहीं हो रहा,
  • दबा के जूता मार रहे हैं,
  • ढाई साल रुक जाओ यार, 
  • हमें तो कछु जानकारी नाय है,
  • लाइन आगे सरक क्यों न रही है,
  • उम्मीद पर तो दुनिया क़ायम है,
  • 4 बजे तक कूपन देंगे,
  • काम कितनी धीरे धीरे कर रहे हैं,
  • ये भी तो इंसान है,
  • कितनी देर से लंच कर रहे हैं...
  • पुलिस वाले क्या कम हैं, ये और मज़ा कर रहे हैं 
  • धमका भी रिये हैं
  • इनसे कौन बोलेगा 
  • रात को भी 7 बजे तक बैंक खुले थे, अमीरन के लिए 
  • आज काम नहीं हुआ तो 3 बजे आऊँगा रात को 
  • हद है क्या करें हम किरायेदार   
  • थोड़े दिन बाद सब ठीक हो जाएगा 

मेरा मकसद सरकार की छवि गिराने का नहीं है न ही किसी तरह की बहस-विवाद करने का। थोड़ा सा देखिये और समझिए की ज़मीन पर क्या चल रहा है। ऐसा भी हो सकता है कि कई लोगों का काम बेहद 'स्मूद' तरीके से हुआ होगा। लेकिन ऐसे रुझान मुझे नहीं मिले। जो मिलें वे मैंने यहाँ अपनी याद को पछाड़ते हुए छाप दिये।

इन हालातों में बहस छोड़ कर कैसे प्रबंध किए जाने चाहिए, इस पर सरकार को ध्यान देना जरूरी है। यकीन मानिए स्थिति उतनी अच्छी नहीं है। न्यूज़ चैनलों पर अधिक विश्वास न करें। ऐसा मालूम होता है कि वह देश विशेष रिपोर्टिंग न कर के पार्टी और कुछ लोगों की रुचि विशेष कार्यक्रम दिखा रहे हों।

रुकिए कुछ लोगों को मेरी यह बात बेहद विरोधी लगेगी। उसमें मुझे कोई दिक्कत नहीं। मुझे जो दिखा और जो मैंने महसूस किया वही रच डाला। मुझ पर छापे मारने वाले पहले सुबह से शाम तक लाइन में लगें तब मुंह खोलें। तब तक जय बम भोले।

ईश्वर सबको धैर्य दे!  
   

Monday, 14 November 2016

विंडो सीट और लेखन

जब मैं कुछ लिखने की तरफ बढ़ती हूँ तब मुझे अपने शब्दों पर शक़ होने लगता है। एक पंक्ति को ही लिखने में मैं कई बार उंगली कुंजी पट्टी के 'बेकस्पेस' पर जाती है। मुझे इसमें कोई दर्द नहीं होता। अहम तो यह कि बस शक़ का निदान हो जाये। हर पंक्ति को काट कर, मिटा कर या बदलकर लिखने के जुनून को पाने की चाहत मन में पल रही है। लिखना वास्तव में अपने समय को सामने बिठाकर उससे मद्धम बातचीत करने जैसा है। इस बात का भी ख़याल रखना होता है कि वक़्त से हो रही गुफ़्तुगू को दिमाग न सुन ले।

आप मुझे पागल कह सकते हैं। क्यों नहीं? लोगों की निगाह में वक़्त से बात करना यानि खुद से बात करना यानि अपने में बड़बड़ाना पागलपन ही तो है। आदम को आगे रख के बात करना ही सामान्य होने की निशानी मानी जाती है। 'लेकिन' यकीन मानिए मुझे अपने पागलपन की संज्ञा से लगाव है। इसलिए कहती हूँ कि जब समय मुझसे बात कर के चला जाता है तब मैं सम्पन्न हुए संवाद को लिखने का रूप देने लगती हूँ। उस वार्ता का लिबास सिलने में लग जाती हूँ। शायद यही लिखना मैंने अपने से ईज़ाद करने की कोशिश की है क्योंकि ईश्वर तो कुछ खास लोगों को ही गुण सम्पन्न बनाता है। मैं बेगुण की रस्म को फॉलो करने वालों में हूँ।

                                                                   विंडो सीट

इतने बेहतरीन घर से हूँ नहीं हूँ कि बचपन से ही किताबों और दूसरी कलाओं की संगत या फिर विधिवत शिक्षा-दीक्षा मिल पाती। बिन गुरु ही रह सीखना, दो नहीं कई शख़्सियतों का निर्माण करता है। कभी गुरु, कभी सीखने वाले नौसिखिया तो कभी दर्शक जैसे व्यक्तित्व पनप जाते हैं। इस कारण बात करने के लिए किसी की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए रोज़मर्रा के साये में ही पलने लगी। मेरा व्याकरण भी उसी रोज़मर्रा की तसबीह से ही बना है। हर मोती को जीते हुए। बस यही तो वह स्रोत है जहां से रचने का कच्चा माल मिल जाता है। लिखना उस अवस्था तक ले जाता है जिसकी तमन्ना मैं रोज़ करती हूँ। वही अपने साथ वक़्त बिताने की बात के समान।

तनाव से बचने और निपटने के लिए ढेर सारे उपाय आजकल फ़ैशन में हैं। मन का डॉक्टर तक है। पर मेरे जैसों को कौन डॉक्टर झेलेगा! कौन हमारे पास कान रखेगा! जो गर कोई मिल भी गया तो मैं ठहरी फक्कड़, फीस में पत्थर तो दूँगी नहीं। इसलिए अपने अंदर ही लोगों को रख लिखने लगी। जब लिखती हूँ तब एक 'विंडो सीट' तैयार करती हूँ ताकि रोज़मर्रा से बात करने में आसानी रहे। कुछ भूल जाऊं तो खिड़की से अपनी पूरी मुंडी निकाल कर उसे पूकारूं। पूरी मुंडी इसलिए कि बाहर के नज़ारे भी दिख जाएँ। यह जगह इसलिए भी अच्छी लगती है क्योंकि यह बचपन की खिड़की वाली सीट का मज़ा भी दे देती है।

(किसी से बातचीत पर आधारित)

Sunday, 13 November 2016

खबरें जो दिमाग में अफवाह रचती हैं

अफवाह में क्या गुण पाया जाता है जो वह इतनी दमदार मौजूदगी दर्ज़ करवाती है। आज घर में किसी पुराने क़िले पर बनी डॉक्युमेंट्री देखी जा रही थी। सो बातों बातों में अफवाह जैसा लफ्ज निकला। मुझे यह शब्द बड़ा ही दिलचस्प लगता है। कल ही तो नमक कम होने की अफवाह ने लोगों और शहर को थूक का पानी पिलवा दिया था। गली में किसी लड़की को सिर पर ढेर सारी नमक की थैलियाँ ले जाते देख कर मुझे कुछ खटका तो था पर लगा शायद उनके यहाँ ढाबे का काम चलता होगा। जब घर में टीवी चालू किया तो अफवाह भी खबरों में अपनी खबर सेट कर चुकी थी।

जेहन और ज़र्रे ज़र्रे में तो बस KRSS ही चल रहा है।...रुकिये पूरा समझिए... 'काला रुपया सर्जिकल स्ट्राइक' इसका पूरा नाम है। कमाल है। खुद से ही क्यों सोचने लगे आप! खैर खबरिये चैनलों की भी खबरों के मामले में पांचों उँगलियाँ घी में हैं और सिर भी नए बाबा वाले निर्मित घी  में सना हुआ है। पर खबरों में से भी अफवाह की सी बू आती है और आ रही है।

                                                                    गूगल से लिया है

आप महकिए इन खबरों को। हाँ, यह सच है कि आपके पास जाँचने का समय नहीं है। आप मेहनतकश हैं। सुबह निकल जाते हैं और शाम को लौटते हैं। तब कहाँ से समय लाएँगे! लेकिन अगर आपने ज़रा सा भी समय इन खबरों की बास लेने के लिए नहीं निकाला तो हम एक रोज़ एक अफवाह का शिकार हो जाएंगे। आपको नहीं लगता ये दिखाई जाने वाली सनसनी और ब्रेकिंग न्यूज़ आपके पड़ोसी और आप में बँटवारे की लकीर खींच रही हैं। एक चैनल बदलों तो एक पार्टी विशेष के गुणगान में ही एंकर अपना विशेष रिपोर्ट का क़ीमती वक़्त खर्च कर देते हैं तो दूसरा चैनल दंत कथाओं में खोया पड़ा है जो समझ से परे है। कुछ नागिन के बदले पर पूरा दिन गुजार देते हैं। कुछ चैनल मुद्दे की बात, बड़ा सवाल टाइप के सुंदर शीर्षक से अंत में खुद ही बेतुके नतीजे पर पहुँचते नज़र आते हैं।

इसलिए इन बहुरूपियों और झुट्ठों से बच कर रहिए। एक सटीक जानकारी लीजिये और आगे बढ़ जाइए। चाहे तो बच्चों के साथ उनके कुछ कार्यक्रम देखिये। History या Discovery देखिये...लेकिन इन्हें अपने सिर पर मत हावी होने दीजिये। ये आपकी उट-पटांग खबरों से फीडिंग करने के लिए तरह तरह के कोर्स कर के आए हैं। बाहर आपके साथ बगल में खड़े चेहरे को जब चाहे कुछ चैनल 'वांटेड' में तब्दील कर सकते हैं और आपको भी इसी कतार में लेकर जा सकते हैं। लेकिन आप खयाल रखिएगा कि आप सलमान खान वाले IPS अफसर नहीं बन सकते। साब...फिल्मों में ही ऐसा होता है।

                                                             नील साइमन ने बनाया है 

इसलिए अफवाह के गणित को खबरों के साथ जोड़ कर भले ही देखिये पर...सूंघ जरूर लीजिये, क्योंकि अफवाह और खबरें जो आजकल हवा में उड़ रही हैं वे आपके दिमाग में सोचने और समझने के अंतराल को कम कर रही हैं। वे भयानक गैस का गुब्बारा बना रही हैं। फूटेगा तो आपको अमिताभ की 'मजबूर' फिल्म घाव का सा अहसास देगा। आप सोचेंगे नहीं तो क्या समझ पाएंगे? एक इल्तिज़ा यह भी है कि आप हिन्दी फिल्मों के पक्के आशिक़ या माशूका होंगे और होंगी। वाजिब है। इसमें बुराई भी नहीं। लेकिन अगर आपका पसंदीदा अभिनेता या अभिनेत्री किसी की तारीफ कर रहे हैं और कर रही हैं तो उस पर भी आँख बंद कर पीछे चप्पू न चलाएं। ...रहिए बाख़बर और होशियार।  



   

Saturday, 12 November 2016

काला धन vs कुछ हमारी खबर हमको नहीं आती

"न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता 
डुबोया मुझ को मेरे होने ने, न होता मैं, तो क्या होता"


जी हाँ अब इस बात पर यकीन आ गया है कि मेरा होना ही मेरे क़त्ल की वजह है। ...
8 नवंबर 2016 के दिन को मैं याद कर के रखना चाहूंगी। कारण है। हमारे समय की बेहद बड़ी घटना है। जिसे हम मुद्रा कहकर पुकारते हैं, वो अब भारत सरकार द्वारा रद्द कर दी गई है। अब 500 और 1000 के नोट नहीं चलेंगे। वो रद्दी में तब्दील हो चुके हैं। उनकी शक्ति खत्म हो चुकी है। अब उनसे क्रय नहीं हो सकता। मौजूदा सरकार इसे काले धन के खिलाफ एक जरूरी और साहसिक कदम बता रही है। हालांकि इलेक्ट्रोनिक दुनिया में दो तरह की प्रतिक्रियाएँ सामने आ रही है। कुछ तबका इसे सटीक कारवाई मान रहा है तो दूसरा तबका इसके सख्त खिलाफ दिखाई दे रहा है।

लेकिन ज़मीन और आम लोगों में इसके उलट एक भाव दिखाई दे रहा है। लोगों में ज़ेहनी उथल पुथल मची हुई है तो सामान्य रूटीन कतारों की भेंट चढ़ चुका है। लोगों के पास अपने बच्चों के पास दूध पिलाने के रूपये तक नहीं हैं। मैं खुद ही इसकी शिकार हूँ। कल मेरे पास 5 रुपये भी नहीं थे कि एक कप चाय का पी सकूँ। वास्तव में सरकार यह कदम सही बताने के लिए इसके पक्ष में कुछ बातें रख रही हैं। पहली यह कि काली कमाई पर उस्तरा चलाने का इससे बेहतर कुछ खास इलाज़ नहीं था, दूसरा यह कि यह कदम केवल बेईमान लोगों के लिए है और ईमानदार लोगों के ऊपर इसका असर नहीं पड़ेगा। सरकार द्वारा इतने आनन फानन में उठाए गए इस कदम के पीछे यही तर्क है कि अगर इसे गुप्त नहीं रखा जाता तब काले धन जमकर्ताओं को मौका मिल जाता बच जाने का।


                                                      कालरा हल्ब्र्ट द्वारा बनाया गया

बहरहाल, प्रधानमंत्री ने  जापान से और वित्त मंत्री ने दिल्ली शहर में प्रैस के सामने कुछ बातें कीं। दोनों के बयानों में वही बातें दोहराई गई हैं। देश की जनसंख्या एक अरब से भी ज़्यादा है। सभी की ज़िंदगी इसी अर्थ पर टिकी व्यवस्था पर है। 29 राज्य वाले देश में किसी भी नीति और योजना को लागू करने से पहले यह सुनिश्चित हो जाना चाहिए था कि इससे संबन्धित अंग सक्रिय करने लायक हैं। निश्चित सोच और शोध की कमी दिखाई देती है। चाहे वह मानव शक्ति, संसाधन या फिर मशीनी तकनीक के स्तर पर हो। विभिन्न मंत्रियों द्वारा जनता को जो हौंसला और तसल्ली की घुट्टी पिलाई जा रही है वह उतनी स्तर तक कामयाब होती दिख नहीं रही।

अब आइये आम जनता पर। मैं शायद रात भर लिखूँ तब भी उनकी परेशानियों को दर्ज़ नहीं कर पाऊँगी। मैं दो दिन से लाइन में जाती हूँ और कुछ घंटे खड़े होने के बाद वापस आ जाती हूँ। घर में बाकी लोगों का भी ऐसा ही हाल है। हालांकि माँ की गुल्लक पर प्रहार हो चुका है जिससे दूध, सब्जी, चावल आदि  जैसी बुनियादी खाने की चीजें घर में आ पा रही हैं।  निम्न स्तर के मध्यम वर्ग के घर में बनता ही क्या है! दाल तो महंगाई से पहले ही गायब है। अब दूसरी चीजें भी गायब की जा रही हैं। कई जगह से बुजुर्ग लोगों के लाइन में खड़े होने के कारण मरने की खबर भी आईं हैं। कई जगह आपस में या पुलिस से झड़प की खबरें टीवी पर दिखाई जा रही हैं।


ऐसे ही बुज़ुर्गों की दशा है जो किसी से छुपी नहीं है। जो लोग टीवी से ही दुनिया का नमूना जान लेते हैं वास्तव में वह गलतफहमी में जीते हैं। बैंक में जाइए। तब आपको वे लोग मिलेंगे जिन्हें नहीं पता की फॉर्म कैसे भरते हैं। रूपये की गिनाई से लेकर पासबुक एंट्री तक में बड़े-बूढ़े निर्भर किरदार होते हैं। यकीन नहीं तो चलिये किसी बैंक में।

अन्नपूर्णा पर भी इसका सीधा असर देखा जा रह है। हर वर्ग के परिवारों में कुछ एक जैसी कॉमन आदतें होती हैं। उनमें सबसे बड़ी कॉमन आदत बचत करने की है। एक दफा मुझे एक दिलचस्प सुझाव दिये गए उनमें बचत करने का एक था। सिर्फ एक नए नियुक्त व्यक्ति के दस्तख़त करने के शौक ने सामान्य दिनचर्या का गला घोंट दिया है। घरेलू ज़िंदगी में अर्थ कला और हुनर के रूप में दिखाई देता है। इन दोनों को फिलहाल धक्का लगा है।

एक दफा एक महिला से मिलना हुआ था। उस महिला का पति काम तो करता था पर उन्हें शराब की गंभीर लत थी। रोज़ रात को घर के चैन-ओ- अमन में जैसे आग लग जाती थी। उनकी तीन बेटियाँ ही थीं। इस चलते वह गृहणी अपनी किस्मत पर रोती तो थी पर वह पति को बिना बताए चुपके से रुपया इकट्ठा भी करती थी। बाद में वे उन रुपये का इस्तेमाल बेटियों पर कर के करती थी। कभी तकिये के कवर में तो कभी भगवान की मूर्ति के नीचे वह छुपा दिया करती थीं। आज जब खोज-खुजाई शुरू हो गई है, तब मैं उस महिला के बारे में सोच कर जरा परेशान भी हूँ।
 
रुकिया कुछ बातें बैंक कर्मचारी को सोचते हुए की जाएँ। फर्ज़ कीजिये, कि यदि बैंक के क्रमचारी हफ्ते के सातों दिनों और दिन में ज़्यादा से ज़्यादा घंटे काम करेंगे तब उनके स्वास्थ्य और काम की गुणवत्ता पर निश्चित और लंबे समय के असर पड़ेंगे। वास्तव में ऐसा हो भी रहा है। भले ही मेरी बात मज़ाक लगे लेकिन यह सच है। एक अरब से भी ज़्यादा के लोग पूरी तरह से इन मुट्ठी भर बैंक कार्यकर्ताओं पर निर्भर हैं।


एटीएम आज से चालू हुए हैं वे भी गिनती करने लायक। जो चालू भी हुए उनके रुपये जल्दी ही खत्म भी हो गए। एटीएम पर टिप्पणी करते हुए वित्त मंत्री ने कहा कि उन्हें तरीके से और इस लायक बनाया जा रहा है ताकि नए नोटों का आकार उनमें फिट हो सके। पहले से तैयार न करने के पक्ष में उन्हों ने कहा कि अगर पहले से एटीएम तैयार किए गए होते तो इस योजना की सीक्रेसी खत्म हो जाती।


चारों तरफ एक अफरा तफरी का माहौल बना है। इस योजना का सीधे तौर पर असर हर जगह दिखाई दे रहा है। फिर चाहे आपकी खाने की थाली हो या फिर सब्जी मंडी में बसी या गलती हुई सब्जियाँ। कुछ लोग जो क्रेडिट कार्ड की दुहाई देकर राहत की बात कर रहे हैं उन्हें ये मालूम हो कि भारत शहरों में नहीं रहता। दिल्ली या बॉम्बे ही भारत नहीं है। एक बहुत बड़ी आबादी 'इलेक्ट्रॉनिकीकरण' को नहीं अपनाती। आज भी वह मोल भाव करते हुए अपनी सामान्य ख़रीदारी को अंजाम देती है।

  

                                        कोडी  लिकॉय ने बनाया है- दोनों चित्र गूगल से साभार


इस योजना के क्रियान्वयन में और एक मुस्त वक़्त बीत जाने में फिलहाल बहुत समय लगेगा। ऐसे में इसके पीछे क्या सकारत्मक पहलू देखें जाये वे सब इस उथल पुथल के नीचे दफन हुआ मालूम देता है। हम आम लोग अगर आकलन और काले-सफ़ेद की कमाई का चार्ट तैयार करेंगे तो जिएंगे कब! जिंदगी वैसे भी आसान नहीं रही। आज कई बरसों से केबल टीवी की सुविधा देते लड़के को समय पर पैसे नहीं दिये तो वह सेट टॉप बक्सा बंद कर देने की धमकी पकड़ा कर गया है। आज के हमारे इंसानी रिश्ते भी उतने गरम जोशी के नहीं रहे। ऐसे में कौन किसके साथ है कहना जरा मुश्किल है।

एक बात और यह भी पता चल गई कि कोई भी राजनीतिक दल किसी का नहीं। उनके लिए देश के लोग 'जनता' ही होती है। एक भीड़। एक बड़ा समूह। जिनके अपने दिमाग होते तो हैं पर वे राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, मनो-वैज्ञानिक जैसे पले-पलाए  कुछ पेटर्नों के गुलाम होते हैं। जो इन सब से परे होता है, कहीं न कहीं वह बेहतर समझ विकसित कर पाता है।

खैर सरकारें भी चमत्कार दिखा दिया करती हैं। ज़रूरी नहीं कि यह ठेका ईश्वर के पास ही हो। फिलहाल यह माहौल अभी आगे आने वाले समय में और बेचैनी से भरा होगा और मुझ जैसे मामूली लोगों पर बड़ा असर डालेगा। खैर बचकर तो आप भी न जा सकेंगे।

 ग़ालिब की एक रचना के साथ आपको देते जा रही हूँ:-

कोई उम्मीद बर नज़र नहीं आती  
कोई सूरत नज़र नहीं आती 

मौत का एक दिन मुअय्यन है  
नींद क्यों रात भर नहीं आती

आगे आती थी हाले दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती

जानता हूँ सवाबे-ताअतों-जुहद     
पर तबीयत इधर नहीं आती

है कुछ ऐसी ही बात, जो चुप हूँ
वरना क्या बात करनी नहीं आती

हम वहाँ हैं आजकल जहां से हमको भी
कुछ हमारी खबर हमको नहीं आती  


  (बर-दिखाई देना)/ (मुअय्यन- निश्चित)/(सवाबे-ताअतों-जुहद- भगवान की पूजा और धार्मिक कर्मों का पुण्य)





Tuesday, 8 November 2016

माचिस का क्रिएटिव सफर

बिजली के गुल हो जाने में सबसे पहला खयाल जो मुझे आता है वह रोशनी को फिर से पा लेने का होता है। उसके लिए मोमबत्ती चाहिए। मोमबत्ती है, तब उसके लिए माचिस की नन्ही डिबिया भी चाहिए। जी हाँ, जब से शहरीकरण के शिकार हुए हैं, माचिस से हल्की दूरी हो गई है। लेकिन यह डिबिया कभी घर से नदारद नहीं हो पाई। एक या दो डिबिया आड़े-टेढ़े वक़्त के लिए घर की 'अन्नपूर्णा' घर में जरूर रखती है।

पिछले कुछ महीनों से बिजली काफी गुल खिलाती है। इस बहाने अंधेरे से मुलाक़ात हो जाती है। पर अंधेरे की चाहत किसी को बहुत देर तक के लिए नहीं होती। सभी इस 'तम' से बाहर निकल आना चाहते हैं। मुझे अंधेरा पसंद है पर मोमबत्ती की चाहत भी नहीं छोड़ी जा सकती। इसलिए माचिस को भूलना ज़रा मुश्किल काम है।

छोटी सी डिबिया में जादू है। आग को आपकी इच्छा पर जलाया जा सकता है। एक रगड़ से छोटी सी तीली में नन्ही आग जल जाती है और पल में गैस, मोमबत्ती, अलाव वगैरह को जलाया जा सकता है। यह सुलभ तरीका है। यह सस्ता है। यह भरोसेमंद है। इसमें समय भी बेहद कम लगता है। माचिस की तीली पर रगड़ से आग लग जाने वाली चीज फास्फोरस है। यह ज्वलंतशील है। इसका पता सन् 1669 में चला था। उसके बाद कई वैज्ञानिकों ने माचिस के सफर को गढ़ा। इसमें आइरिश वैज्ञानिक रोबर्ट बोयल, अंग्रेज़ वैज्ञानिक जॉन वॉकर, फ्रेंच वैज्ञानिक चार्ल्स सौरिया आदि वैज्ञानिकों ने तरह तरह के प्रयोग करते हुए माचिस में तब्दीलियाँ कीं। सन् 1855 में स्वीडन के जॉन एडवर्ड लण्ड्स्ट्रोम ने माचिस का पेटेंट किया। इसके बाद भी माचिस बनाने के क्षेत्र में तमाम कंपनियों ने काफी कुछ बदलाव किए और लोकप्रियता हासिल की।

भारत के संदर्भ में दिलचस्प है कि माचिस का आयात किया जाता था। यह आयात, जापान, स्वीडन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों से होता था। 1910 के आसपास प्रवासियों ने कलकत्ता में इसे बनाना शुरू किया और जल्द ही वहाँ के लोगों ने इसे बनाने का हुनर सीखते हुए खुद से ही इसे बनाना आरंभ कर दिया। बाद में माचिस निर्माताओं ने दक्षिण भारत में तमिलनाडु का रुख किया और वहाँ अपने इस उद्योग कि स्थापना की। इसके पीछे की वजहें बेहतरीन जलवायु, सस्ते मजदूर और कच्चे माल की सहूलियतें बताई जाती हैं। आज भी तमिलनाडु में 67% माचिस का उत्पादन किया जाता है। विमको(1924) लिमिटेड नामक कंपनी जो कि पुरानी कंपनी भी है, इस क्षेत्र में अपनी 5 कंपनियों की मदद से लगभग 18% माचिस का उत्पादन करती है। माचिस उद्योग, कुटीर और लघु उद्योग से सीधे तौर पर जुड़ा है। पर आजकल इस उद्योग को भी मुश्किलें हो रही हैं। खासतौर से कच्चे माल के लिए।

हैं न दिलचस्प माचिस का अतीत! लेकिन इस सफर से भी ज़्यादा मजेदार माचिसों के कागज़ी(लुगद्दी) डिबिया का डिज़ाइन है। आप यदि गूगल में जाकर इसकी खोज करेंगे तो आपको तमाम तरह के अद्भुत माचिस के सुंदर और बेमिसाल कलाकारी के नमूने मिल जाएंगे। आप का दिमाग तुरंत उन माचिस के सुंदर चित्र के सहारे उन यादों में सोई कहानियों को जगाएगा जिसे आपने किसी किताब में नहीं या किसी प्रदर्शनी में नहीं देखा। किसी महान पैंटर के हाथ से नहीं बनी होगी। सरलता में ही सुंदरता दिखेगी। इसका ये डिज़ाइनर माचिसें बेहतरीन उदाहरण हैं। चलिये कुछ माचिसों के इन्हीं चित्रों की सैर की जाये।






















































और भी बहुत चित्रकारी वाली माचिसें हैं। आपको गूगल में हजारियों मिल जाएंगी। गौर से देखने में मालूम चलता है कि ये सभी चित्र भारत देश के प्रतिकों को खूबसूरती से वहन करते हैं। जानवर से लेकर धर्म तक को सहेजा गया है। सन् 1910 के बाद के इतिहास में उद्योगों के साथ साथ इन चित्रों के होने की वजह के अतीत में इनके बिना नहीं झाँका जा सकता। इन माचिसों की तरफ एक बार देखना होगा। उस समय के लोगों और समाज का मूड इससे समझने में जरूरत मिलेगी। एक रिश्ता दिखेगा। हिन्दू देवता भी माचिस में छपे दिखेंगे और महात्मा बुद्ध भी, इसका एक मतलब यह भी लिया जा सकता है कि उस समय में लोग धर्म और उसके देवता के नाम पर काट-मार या भावनाएँ आहत होने कि शिकायतें न के बराबर करते होंगे।

इन पर किसान से लेकर नेता जी सुभाष चंद्र बोस तक दिखेंगे। इसका सीधा मतलब यह है भी समझा जा सकता है कि गुलाम भारत में नेताओं के संदेशों को घर घर तक पहुँचाने के लिए बहुत सी और बिना शोर मचाने वाली मेहनत इन डिबियाओं ने की होगी। यह भी समझा जा सकता है कि आज़ाद भारत में किसान और नेताओं की स्थिति का स्तर कैसा होगा! इन डिबियाओं पर भारतीय मिथकों का भी बेहद असर दिख रहा है। जैसे काली माँ के चित्र वाली माचिस का चित्र या कंपनी शकुंतला पर छपी तस्वीर।

आज के समय में डिबियाओं के चित्रकारी में बहुत विभिन्नता नहीं रह गई है। आज केक वाली माचिस सबसे अधिक सामान्य है। इसके पीछे की वजह यही होगी- जाने किसकी भावना कब आहत हो जाए। दूसरा कारण लाइटर का इस्तेमाल घरों में अधिक होता है, चाहे सिगरेट सुलगाने के लिए हो या फिर गैस चूल्हा जलाने के लिए। अगली वजह इलेक्ट्रोनिक रीचार्ज लाइट्स  भी हैं। बिजली जाते ही ये मशीनी लाइट्स घर और आँख या फिर दिमाग सब कुछ रोशन कर देती हैं।

माचिस शब्द को लगभग कुछ खास अर्थ से जोड़ा जाता है। मसलन जलाने, गुस्सा करने, आग लगाने(कानाफूसी करने) आदि से। लेकिन मुझे लगता है इस तरह कि एक सैर जरूरी है। शब्दों के जमे हुए चित्र को तोड़ने की भी जरूरत है। माचिस इसलिए भी मायने हैं क्योंकि इसके साथ सामान्य लोगों के रोज़मर्रा के बयान जुड़े हुए हैं। बड़े-बुज़ुर्गों से पूछिए माचिस के बारे में, फिर देखिये क्या बेहतरीन कहानियाँ सुनने को मिलेंगी।   

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सभी चित्र गूगल से- दिल से शुक्रिया के साथ 

इन लिंक्स में अच्छी जानकारी है। आप भी पढ़ सकते हैं।
https://en.wikipedia.org/wiki/Match
http://www.fao.org/docrep/x5860e/x5860e05.htm
http://engrave.in/blog/history-of-indian-matchbox-art/  

Monday, 7 November 2016

शीर्षक आप तय करें- मैंने अल्प विराम सोचा है

इस बच्ची की रंगोली को देखकर बहुत कुछ दिमाग में काफी दिनों से चल रहा था। जब आज बाहर गई तब एक दृश्य दिखाई दिया। घर आई तो किसी ने कुछ बातें बताई और इस पोस्ट को लिखने बैठ गई।


माफ कीजिएगा। हम बचपन कहीं किसी पेटी में बंद कर आए हैं और चाभी भी हमने खो दी है। अपने कु-हाथों से किसी समंदर तल में डाल आए हैं। आज दिल्ली के मौसम का देखूँ, सुनूँ, जानूँ, सोचूँ, पहचानूँ, सूंघूँ या महसूस करूँ तो सबसे ज़्यादा बच्चे त्रस्त होते दिखाई दे रहे हैं।... आज बस में जाते वक़्त एक बुजुर्ग महिला को गुलाबी छोटे कंबल में एक नन्ही जान को लपेटे देखा। उनका घर सड़क के किनारे था। जैसे ही मैंने यह छवि देखी तो पहला खयाल उस बच्चे की साँसों पर गया। कौन सी हवा वो ले रहा होगा, उसका स्वास्थ्य भविष्य क्या होगा, अगर उसके मुंह पर मास्क लगाया भी तो उसके साथ कुछ हो भी सकता है, उसके लिए सरकार क्या करेगी, उसका आसपड़ोस क्या करेगा, उसकी माँ की लाचारी क्या होगी, उसके पिता की कोशिश क्या होगी, ...कुछ यही सवाल और ख़यालों को अभी भी समझने की कोशिश कर रही हूँ।

दूसरी वजह किसी सज्जन ने बताई। वह अपनी बेटी का ईलाज कराने के सिलसिले में 'मेडिकल' (एम्स) जाते हैं और वहाँ होने वाले ढेर सारे किस्से हमें बताते हैं। सच में उनकी बातों को सुनकर मुझे यही एहसास होता है कि वह बहुत बहादुर हैं। वह बड़ी बारीकीयत से वहाँ के माहौल, डॉक्टर (सीनियर और जूनियर), स्वयं सहायक, टेस्ट्स की पर्चियाँ बनवाने की लाइन, पैसे जमा करने की जद्दोजहद, टेस्ट्स करवाने की लाइन, फिर डॉक्टरों में होने वाली आपसी बहसें, बच्ची का मुआयना, फिर लिखी गई दवाइयों को लेने की मशक्कत... कुछ ऐसी ही और भी बातें कहानी की तरह बताते हैं। वह जब भी ये सब बयान साझा करते हैं तब मुझे मन में यह खयाल आता है - 'क़िला फतेह हुआ!'

उन्हों ने आज बताया कि एक 11 बरस के बच्चे को उसकी माँ लाई थी। बच्चे का मर्ज़ इतनी सी उम्र में लगभग 70 किलो का वजन था।

डॉक्टर ने माँ से बच्चे के रूटीन के बारे में पूछा तो माँ ने बताया- 'स्कूल से घर आने के बाद ट्यूशन जाता है। फिर घर में आकर अपने होमवर्क पर लग जाता है। टीवी देखता है फिर सो जाता है।'

डॉक्टर ने ट्यूशन वाली बात को पकड़ा और कहा- 'ये क्या मतलब है ट्यूशन का! जब बच्चा एक जगह पहले से पढ़ रहा है तब इसे ट्यूशन में कौन सा ज्ञान दिलवा रहे हैं आप लोग? इसकी ज़िंदगी तो आपने ही खराब कर दी है। कहीं भी बच्चा खेलेगा नहीं तो क्या होगा इसका? आप लोग खुद ही इसके दुश्मन हैं...' माँ को इतना सुना लेने के बाद डॉक्टर ने बच्चे से पूछा- 'आपके स्कूल में दोस्त हैं?'

बच्चा दो टूक जवाब देते हुए बोला- 'नहीं। मेरा कोई दोस्त नहीं है।'...

जब सज्जन व्यक्ति की ये बातें सुनी तो कहीं न कहीं बच्चों को इस समय सबसे कठोर जगह पर खड़े हुए पाया। खुशहाल परिवार जैसे शब्दों को सोचती हूँ तब कुछ परिभाषाएँ सुनने को मिलती है। कहीं कहीं सरकार की शब्दावली में हम दो हमारे, हमारे दो, छोटा परिवार सुखी परिवार जैसे जुमले बहुत समय पहले से सुनती चले आ रहे हैं। वाजिब है इन जुमलों में स्वास्थ्य की भी कल्पना की गई है, जिसका आधार पारिवारिकता है। लेकिन अगर इससे बाहर जायें तब आसपड़ोस, स्कूल और समाज जैसी इकाई आती हैं।


घर-परिवार-फ़ैमिली

वास्तव में परिवार से लेकर समाज तक सभी संस्थाओं की ज़िम्मेदारी में अब बच्चे छुटते जा रहे हैं। इन ढांचों को देखने पर मालूम देता है कि कुछ झोल हैं जो अब विकराल रूप में दिखाई दे रहे हैं। परिवार की बनावट में बदलाव आया है। शायद दो बच्चों वाली बात में लेकिन उन दो बच्चों के रोज़मर्रा में हुए बुनियादी बदलाव को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। मसलन माता पिता यदि दोनों कामकाजी हैं तब शायद कहीं न कहीं रिश्तों में साथ बिताए जाने वाले वक़्त में भारी कटौती हो रही है। रिश्ते उस मुकाम तक विकसित और संवेदनशील नहीं हो पा रहे जितनी की जरूरत है। तकनीक ने हमारे जीवन में बड़ी वाली और घातक घुसपैठ की है। हमें यह बात पता भी है। बात यह भी है कि कुछ एकल परिवारों से लेकर संयुक्त परिवारों में ज़्यादा की तमन्ना ही नहीं बल्कि उनकी यह बड़ी उम्मीद है कि बच्चा आसमान से तारे तोड़ ले आए। एक्सट्रा करीकुलर एक्टिविटी के नाम पर उससे उसका रूटीन जो सामान्य होना चाहिए था वही लिया भी जा रहा है। क्या हम यह सोचते हैं कि इस 'एक्सट्रा करीकुलर एक्टिविटी' का कितना एक्सट्रापन बच्चे तक पहुंचा, पहुंचा भी या दिमाग में थैलाभर बोझ रख गया?

स्कूल-विद्यालय

मैं जब सरकारी विद्यालयों में घुसती हूँ तब दिमाग में लापरवाही से लेकर स्कूल का पाठ्यक्रम नाचने लगता है। जिनको मेरी बात बुरी लगे उसके लिए मैं माफी भी मांगती हूँ। लेकिन यह मेरा खयाल है। क्लासरूम में चिपके हुए विज्ञान और आदर्श की खूबसूरत पेंटिंग में भी उन बच्चों को जगह दी जाती है जिसका चित्र टीचर को खूबसूरत लगे। ऐसा अक्सर होता है। हो सकता है कहीं न भी हो। क्लास रूम दरवाजे के ऊपर शानदार लाइन होती है जिसे शायद कोई ही पढ़ता है। जैसे समय अमूल्य धन है...आदि आदि। पाठ्यक्रम में घुसी हुईं आदर्श कहानियाँ आदर्श क्यों नहीं दे पातीं, यह सोचने लायक है। क्यों नहीं बच्चों को सच्चाई से रूबरू कराया जाये कि आपका आसपास अब खतरनाक है और जहरीला भी। समाज में बहुत असमानता है, आपको हर अजनबी से अब खतरा हो गया है। काबुलीवाला अब बदल चुका है। भारत में ही रहने लगा है और मौका देखकर वह आपको उठाने की कोशिश करता है...



घर में आई एक पड़ोसन ने माँ से अपनी चिंता इस बात में कही कि उसका बच्चा हिन्दी पढ़ने में तो अच्छा है पर अंग्रेज़ी बहुत खराब है। इसलिए स्कूल से बार बार मैडम की शिकायतें आ रही हैं। काम छोड़कर रोज़ रोज़ जाना मुश्किल है। पर ये लड़का जरा सा समझने को तैयार नहीं। ...वह आगे बोली कि मैडम कहती है कैसे माँ बाप हो जो आप बच्चे पर ध्यान नहीं देते। आप लोग अपने में लगे रहते हो। घर में आप लोग टाइम नहीं देते।...अब टीचर को कैसे बताऊँ कि अगर एक छुट्टी हुई तो 'तनखा' कट जाएगी। शाम को लौटो तो हम दोनों इस हालत में नहीं रह पाते कि उसे बैठकर पढ़ाएँ... उनके जाने के बाद मैं उस भली टीचर के बारे में सोचने लगी कि आखिर उनकी बच्चे को लेकर और अँग्रेजी को लेकर क्या कोशिश है...शायद उनकी परेशानी यह भी होगी कि एक जान पर 50 बच्चे...इन महीन बुनावटी तारों को समझो तो सिर चकरा जाये। मैं अगर 2004-05 में आपको अपने स्कूल की बातों में हाथ पकड़ कर ले जाऊं तो हम क्लास में 45 तक की संख्या में थे। हमारे पास भी अंग्रेज़ी का विषय था। हमारी टीचर कसं से ऐसा पढ़ाती थीं कि मैं आज भी अंग्रेज़ी कि उनकी पढ़ाई हुई कहानियाँ न तो भूली हूँ और न ही इस भाषा का आधार।

मेरी माँ का इस किताबी पढ़ाई से रिश्ता नहीं। इसके अलावा उनका समय काम में जाता था। वो बातें भी अपने सीखे हुए हुनर की करती हैं। मसलन बीज को मिट्टी में कितनी दूरी तक डालना है। बीज से क्या बातें कहनी हैं। पानी कितना डालना है। यही सब...इसलिए मेरी पढ़ाई में उनका होमवर्क करवाने वाला हाथ नहीं है। इसके अलावा पिताजी की 8 से 9 वाली ड्यूटी उन्हें थका दिया करती थी। इसलिए शिक्षा में हाथ मेरी तमाम टीचरों का ही रहा। बिना ट्यूशन के।       

मोहल्ला-आसपड़ोस 
मैं जब पीछे मुड़कर अपना और अपने हम उम्र लोगों के बचपन के बारे में बात करती हूँ तब बहुत सारी गतिविधियों को देखती हूँ। जैसे तरह के खेल खेलना, हर तरह के त्योहारों पर कुछ गतिविधियां करना, मेले जाना, गर्मी की छुट्टियों में घर में रहते हुए भी रूटीन में खेल खेलना, पड़ोस में रात को इकट्ठा होकर कहानियाँ सुनाने की ज़िद्द करना, अंताक्षरी खेलना, खिलौने बनाना...ऐसे ही आपका बचपन मुझसे ज़्यादा खास होगा। बचपन देखती हूँ तब ट्यूशन से परे एक मुक्कमल दिनचर्या दिखती है। हाँ, उसमें झोल भी काफी रही हैं पर वे इतनी भयानक नहीं थीं कि दिमाग पर असर कर दें। मुझे याद है जब गली में किसी का बच्चा खोया था तब मोहल्ले में शोर तो हुआ ही साथ में सभी लोग चप्पा चप्पा खोजकर बिना पुलिस की मदद से बच्चे को खोज लाये थे। लेकिन अब यह माहौल 180 डिग्री तक उल्टा घूम गया है। अब लोग अपने अपने घरों में मजबूत दरवाजे लगाए जीते हैं या जाने रहते हैं। मुझे नहीं पता।

इसलिए मैं अभी भी उन बच्चों की साँसों का सोच रही हूँ जिनकी तकलीफ का हमें अंदाज़ नहीं। हाय तौबा मचा मचा कर मैं खुद फेसबुक पर पोस्ट लिख रही हूँ। दूसरों पर इल्ज़ाम लगाने का आसान काम कर रही हूँ। मैं खुद कुछ भी नहीं कर रही। ब्लॉग लिख कर उपदेश दे रही हूँ। दिल्ली के हाल पर खांस रही हूँ, गाड़ियों वालों को कोस रही हूँ। ...सच बताऊँ तो मैं कुछ भी नहीं कर रही। मुझे नहीं पता कि मैं ऐसा क्या करूँ कि हवा सांस लेने लायक हो जाएँ। लेकिन, जब मैं यह सब सोच रही थी तब पापा कुछ पौधे बाज़ार से खरीद लाये हैं। देखभाल करेंगे तो कुछ दिन में बड़े हो जाएंगे।  


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दोनों फोटो गूगल से साभार




Wednesday, 2 November 2016

पार्च्ड - महज़ मनोरंजन नहीं है

कुछ दिनों से दर्द ने स्थगित कर दिया था। इसलिए अपना ईलाज कर के आई हूँ। कल रात पत्थर शब्द कहीं पढ़ा तो दिमाग में फिल्म 'पार्च्ड' की घंटी बजी और याद आया कि पोटली में अभी भी कुछ पड़ा हुआ है। मुझे 'पोटली बाबा की कहानियाँ' सीरीज़ से यह पोटली शब्द मिला और घर में भी कुछ 'पोटलियों' से मैंने इंटरव्यू किया है। तमाम तरह की कथनी को कहीं दूर पटकते हुए इस फिल्म को देखने के लिए एक दिलचस्पी अपने अंदर शुरू की। फिल्म का नाम भी बेहद बढ़िया है जो मैं पाँचवी बार में सही बोल पाई। (आसान होने में भी क्या ख़ाक मज़ा है) मुझे अपने दौर में बन रही फिल्मों से अब कड़वी शिकायत नहीं है। 'क्वीन' 'पिंक' और अब आई 'पार्च्ड' फिल्में मेरे लिए टॉनिक की तरह हैं। मानो न मानो इन फिल्मों में कुछ तो है जो मज़ा-मनोरंजन नहीं बल्कि कुछ बातों और अहसासों का आरेख खींचता है। अहसास वे जिन्हें 'सेकंड सेक्स' जीती हैं। जिसे लोग समाज और परिवार कहकर पुकारते हैं कई बार वे ही औरतों के अस्तित्व को बोझिल करते हुए रंगे हाथ पाये जाते हैं। इसी बात की यह फिल्म तसदीक़ करती है। 

फिल्म की तीनों किरदार मुझे बहुत बेहतरीन लगीं। वे आपको अपने अभिनय में शामिल करती हैं। पर्दे के अंदर का नहीं बल्कि कहती लगती हैं, साथ चलिये, आपको राजस्थान के हमारे गाँव की सैर करवाते हैं।  मैं कुछ वही सैर कर के आ रही हूँ। तीनों के साथ अभी भी जुड़ा हुआ पा रही हूँ। बहुत ज़रूरी है इस तरह के चरित्रों से विनिमय करना। मैं कर रही हूँ।
 
 https://www.youtube.com/watch?v=m69d-KNi2Q0
                          फिल्म का ट्रैलर

सबसे पहले रानी की बात करना चाहूंगी जो 32 साल की विधवा औरत है। जिसका एक बेटा है। वह उसकी शादी कम उम्र में ही कर देती है। रानी के बेटे का नाम गुलाब है जो वास्तव में पितृसत्ता समाज का सूचक लगता है। वह शराब पीता है। अपना प्रभाव घर में जमा कर रखना चाहता है। जो अपनी माँ के (औरत) मेहनत के रुपये चुराता है। वह अपनी नाबालिग पत्नी और माँ पर ज़ोर चलाकर अपनी मर्दानगी साबित करते हुए दिखता है। वह घर के बाहर भी यही चेहरा लिए जीता है। जबकि दूसरी तरफ दोनों औरतें वही शिकार के रूप में दिखाई देती हैं। उनकी ज़िम्मेदारी घरेलू काम, बाहरी काम, और हर तरह की घुटन में जीते हुए दिखती हैं।

याद हो कि पिछले अरसे भारत सरकार द्वारा संचालित टीवी पर एक विज्ञापन आया करता था। विज्ञापन का नाम 'बेल बजाओ' था। घरेलू हिंसा को रोकने की मुहिम के अंतर्गत यह विज्ञापन मुझे बहुत असरदार लगा। जिन मामलों को घरेलू मामला कहकर रफा दफा किया जाता था उसको देखते हुए यह विज्ञापन सीधा हस्तक्षेप था, इस तरह की घरेलू हिंसा को रोकने के लिए। फिल्म की अन्य किरदार लज्जो (लाजो) है जो 'सेकंड सेक्स' का दूसरा चेहरा है। वह माँ नहीं बन पा रही। इसलिए उसे पति द्वारा खूब पीटा जाता है। यह पिटाई कभी कभार की नहीं बल्कि रोजाना की बात है। लेकिन उसके अंदर माँ बनने की एक पवित्र इच्छा है। इसलिए वह किसी दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आती है और गर्भवती होती है।

यह किरदार वास्तव में 'सेकंड सेक्स' की वही ज़िंदगी है जो कभी बदली ही नहीं। आदमी को यह लगता ही रहा है कि औरत उसकी संपत्ति है और औरत को यह लगता ही रहा कि वह आदमी की संपत्ति है। जब औरत ने खिलाफत की तब मामला बिगड़ा और 'डोमेस्टिक वायलेंस' जैसी शब्दावली दिखी। लज्जो इसी शब्दावली का जीता जागता उदाहरण है। मार खाने के बाद का दर्द और उसके ज़ख्म का अहसास समझ आना अपने आप में उस दर्द को महसूस करना है जिसे वह रोज़ सहती है। शरीर और मन पर कब्जा करना और उसे तोड़ना खतरनाक बात है। इस प्रक्रिया से औरतें एक लंबे वक़्त से गुज़र रही हैं इसलिए ये सब एक आम बात लगने लगी है। जबकि ऐसा नहीं है। ऐसा होना भी नहीं चाहिए।

                                                             फ्रीडा द्वारा निर्मित चित्र 

तीसरा चरित्र 'बिजली' का है जो एक नौटंकी में नाचने गाने का काम करती है। मन बहलाने का। वह इस पेशे में बेहद कम उम्र से है। वह उत्तेजक है। वह बिंदास है। वह शराब पीती है। वह गाली देती है। वह अपने पेशे को लेकर शर्म में नहीं जीती। वह मोटर गाड़ी चलाना जानती है। वह तर्कपूर्ण बातें करती है। उसे परवाह नहीं कि कोई उसके बारे में क्या कहता है। उसके किरदार में ताज़ापन है। वह अपनी दोस्तों की हमराज है। हालांकि उसकी ज़िंदगी में भी बहुत परेशानियाँ हैं।

अगर इन चरित्रों और इनकी प्रतिक्रियाएँ की बात की जाये तब कुछ उभरने लगता है। तीनों की उम्र परिपक्व उम्र है। तीनों ही ज़िंदगी और लोगों द्वारा दिये दर्द को झेल रही हैं। तीनों अपने अपने स्तरों पर इस दर्द और टॉर्चर की खिलाफत भी कर रही हैं। उनके तरीके सादे और दमदार हैं। वे एक दूसरे को आपस में बाँट रही है। उनका आपस में संवाद है। दोस्ती में किसी का पेशा आड़े नहीं आता। वह साथ घूमने जा रही है। उन्हें पता है कि एक ही ज़िंदगी मिली है और इसी में प्यार करना है। वे एक दूसरे की 'हेलपिंग हैंड' हैं। लज्जो की मदद में वे एक आदमी का सहारा लेती हैं। इस बात का उनको कोई दुख-डर-पछतावा नहीं है। उल्टा लज्जो के माँ बनने की खबर से वे खुश हैं। खुद लज्जो खुश है। वह अपने पति से कहती भी है कि इस बच्चे को अपनाकर साथ जीते हैं। पर पति को यह गंवारा नहीं। अपने फैसले लेना और तीनों का उन्हें अंजाम तक पहुंचाना भी उनके चरित्रों का दमदार पक्ष है।

रानी का अपनी नाबालिग बहू को किसी दूसरे समझदार लड़के साथ भेजना एक मजबूत फैसले का इशारा है। इस फैसले में उसकी बहू जो कि एक औरत है की ज़िंदगी का सकारात्मक बदलाव है। रानी जैसी औरत जो ठेठ गाँव से है पर फिर भी वह उस बदलाव को चुन रही है जिससे किसी की ज़िंदगी में अच्छे बदलाव आ रहे हैं। वह अपने बेटे में अपने पति का हिंसक चेहरा पाती है और उसे अपने बेटे की जगह एक शोषक के रूप में पहचानती है। उसकी खिलाफत करती है। रानी अपनी सहज बुद्धि का इस्तेमाल करती है और सही गलत का फर्क करती है। 

                                                                     फिल्म का पॉस्टर

बिजली पारिवारिक रिश्तों में नहीं पीस रही बल्कि समाज उसे पीस रहा है। उसके साथ इज्जत और बेइज्जत जैसे शब्द चिपके हैं। जो लोग उसका नाच देखने जाते हैं वे लोग इज्जतदार हैं पर वह बेशर्म है। वह जब तब अपना विरोध दर्ज़ करवाती है। गालियों से। कहती है कि सारी गाली औरतों के साथ जोड़कर बनाई है। अपने नाम से एक भी नहीं। इसके बाद के दृश्यों में वह बकायदा मर्द को इंगित करती हुई गालियों का ईजात करती है। बापचौ...बेटाचौ... जैसी गलियाँ देकर वे तीनों अपनी आवाज़ उठाती हैं। तीनों चरित्रों की बुनाई में एक अहम बात यह भी है कि तीनों आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी हैं। शायद उनके किरदारों में मजबूती का कारण यह भी है।

अंत में तीनों गाँव छोड़कर अपने लिए मंजिल की तलाश में निकलती हैं। यही उनकी जीत भी है और जज्बा भी है। इस फिल्म के साथ नारीवाद शब्द जोड़ना मुझे ज़ायकेदार नहीं लग रहा। मेरा मन नहीं नारीवाद शब्द को इस फिल्म से जबरन चिपकाने का। इन चरित्रों के अंदाज़ और बयान ने जो मेरे मन में दस्तक दी है वही मेरे लिए काफी है।

एक बार ज़रूर देखें।   



 




















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