"न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को मेरे होने ने, न होता मैं, तो क्या होता"
जी हाँ अब इस बात पर यकीन आ गया है कि मेरा होना ही मेरे क़त्ल की वजह है। ...
8 नवंबर 2016 के दिन को मैं याद कर के रखना चाहूंगी। कारण है। हमारे समय की बेहद बड़ी घटना है। जिसे हम मुद्रा कहकर पुकारते हैं, वो अब भारत सरकार द्वारा रद्द कर दी गई है। अब 500 और 1000 के नोट नहीं चलेंगे। वो रद्दी में तब्दील हो चुके हैं। उनकी शक्ति खत्म हो चुकी है। अब उनसे क्रय नहीं हो सकता। मौजूदा सरकार इसे काले धन के खिलाफ एक जरूरी और साहसिक कदम बता रही है। हालांकि इलेक्ट्रोनिक दुनिया में दो तरह की प्रतिक्रियाएँ सामने आ रही है। कुछ तबका इसे सटीक कारवाई मान रहा है तो दूसरा तबका इसके सख्त खिलाफ दिखाई दे रहा है।
लेकिन ज़मीन और आम लोगों में इसके उलट एक भाव दिखाई दे रहा है। लोगों में ज़ेहनी उथल पुथल मची हुई है तो सामान्य रूटीन कतारों की भेंट चढ़ चुका है। लोगों के पास अपने बच्चों के पास दूध पिलाने के रूपये तक नहीं हैं। मैं खुद ही इसकी शिकार हूँ। कल मेरे पास 5 रुपये भी नहीं थे कि एक कप चाय का पी सकूँ। वास्तव में सरकार यह कदम सही बताने के लिए इसके पक्ष में कुछ बातें रख रही हैं। पहली यह कि काली कमाई पर उस्तरा चलाने का इससे बेहतर कुछ खास इलाज़ नहीं था, दूसरा यह कि यह कदम केवल बेईमान लोगों के लिए है और ईमानदार लोगों के ऊपर इसका असर नहीं पड़ेगा। सरकार द्वारा इतने आनन फानन में उठाए गए इस कदम के पीछे यही तर्क है कि अगर इसे गुप्त नहीं रखा जाता तब काले धन जमकर्ताओं को मौका मिल जाता बच जाने का।
कालरा हल्ब्र्ट द्वारा बनाया गया
बहरहाल, प्रधानमंत्री ने जापान से और वित्त मंत्री ने दिल्ली शहर में प्रैस के सामने कुछ बातें कीं। दोनों के बयानों में वही बातें दोहराई गई हैं। देश की जनसंख्या एक अरब से भी ज़्यादा है। सभी की ज़िंदगी इसी अर्थ पर टिकी व्यवस्था पर है। 29 राज्य वाले देश में किसी भी नीति और योजना को लागू करने से पहले यह सुनिश्चित हो जाना चाहिए था कि इससे संबन्धित अंग सक्रिय करने लायक हैं। निश्चित सोच और शोध की कमी दिखाई देती है। चाहे वह मानव शक्ति, संसाधन या फिर मशीनी तकनीक के स्तर पर हो। विभिन्न मंत्रियों द्वारा जनता को जो हौंसला और तसल्ली की घुट्टी पिलाई जा रही है वह उतनी स्तर तक कामयाब होती दिख नहीं रही।
अब आइये आम जनता पर। मैं शायद रात भर लिखूँ तब भी उनकी परेशानियों को दर्ज़ नहीं कर पाऊँगी। मैं दो दिन से लाइन में जाती हूँ और कुछ घंटे खड़े होने के बाद वापस आ जाती हूँ। घर में बाकी लोगों का भी ऐसा ही हाल है। हालांकि माँ की गुल्लक पर प्रहार हो चुका है जिससे दूध, सब्जी, चावल आदि जैसी बुनियादी खाने की चीजें घर में आ पा रही हैं। निम्न स्तर के मध्यम वर्ग के घर में बनता ही क्या है! दाल तो महंगाई से पहले ही गायब है। अब दूसरी चीजें भी गायब की जा रही हैं। कई जगह से बुजुर्ग लोगों के लाइन में खड़े होने के कारण मरने की खबर भी आईं हैं। कई जगह आपस में या पुलिस से झड़प की खबरें टीवी पर दिखाई जा रही हैं।
ऐसे ही बुज़ुर्गों की दशा है जो किसी से छुपी नहीं है। जो लोग टीवी से ही दुनिया का नमूना जान लेते हैं वास्तव में वह गलतफहमी में जीते हैं। बैंक में जाइए। तब आपको वे लोग मिलेंगे जिन्हें नहीं पता की फॉर्म कैसे भरते हैं। रूपये की गिनाई से लेकर पासबुक एंट्री तक में बड़े-बूढ़े निर्भर किरदार होते हैं। यकीन नहीं तो चलिये किसी बैंक में।
अन्नपूर्णा पर भी इसका सीधा असर देखा जा रह है। हर वर्ग के परिवारों में कुछ एक जैसी कॉमन आदतें होती हैं। उनमें सबसे बड़ी कॉमन आदत बचत करने की है। एक दफा मुझे एक दिलचस्प सुझाव दिये गए उनमें बचत करने का एक था। सिर्फ एक नए नियुक्त व्यक्ति के दस्तख़त करने के शौक ने सामान्य दिनचर्या का गला घोंट दिया है। घरेलू ज़िंदगी में अर्थ कला और हुनर के रूप में दिखाई देता है। इन दोनों को फिलहाल धक्का लगा है।
एक दफा एक महिला से मिलना हुआ था। उस महिला का पति काम तो करता था पर उन्हें शराब की गंभीर लत थी। रोज़ रात को घर के चैन-ओ- अमन में जैसे आग लग जाती थी। उनकी तीन बेटियाँ ही थीं। इस चलते वह गृहणी अपनी किस्मत पर रोती तो थी पर वह पति को बिना बताए चुपके से रुपया इकट्ठा भी करती थी। बाद में वे उन रुपये का इस्तेमाल बेटियों पर कर के करती थी। कभी तकिये के कवर में तो कभी भगवान की मूर्ति के नीचे वह छुपा दिया करती थीं। आज जब खोज-खुजाई शुरू हो गई है, तब मैं उस महिला के बारे में सोच कर जरा परेशान भी हूँ।
रुकिया कुछ बातें बैंक कर्मचारी को सोचते हुए की जाएँ। फर्ज़ कीजिये, कि यदि बैंक के क्रमचारी हफ्ते के सातों दिनों और दिन में ज़्यादा से ज़्यादा घंटे काम करेंगे तब उनके स्वास्थ्य और काम की गुणवत्ता पर निश्चित और लंबे समय के असर पड़ेंगे। वास्तव में ऐसा हो भी रहा है। भले ही मेरी बात मज़ाक लगे लेकिन यह सच है। एक अरब से भी ज़्यादा के लोग पूरी तरह से इन मुट्ठी भर बैंक कार्यकर्ताओं पर निर्भर हैं।
एटीएम आज से चालू हुए हैं वे भी गिनती करने लायक। जो चालू भी हुए उनके रुपये जल्दी ही खत्म भी हो गए। एटीएम पर टिप्पणी करते हुए वित्त मंत्री ने कहा कि उन्हें तरीके से और इस लायक बनाया जा रहा है ताकि नए नोटों का आकार उनमें फिट हो सके। पहले से तैयार न करने के पक्ष में उन्हों ने कहा कि अगर पहले से एटीएम तैयार किए गए होते तो इस योजना की सीक्रेसी खत्म हो जाती।
चारों तरफ एक अफरा तफरी का माहौल बना है। इस योजना का सीधे तौर पर असर हर जगह दिखाई दे रहा है। फिर चाहे आपकी खाने की थाली हो या फिर सब्जी मंडी में बसी या गलती हुई सब्जियाँ। कुछ लोग जो क्रेडिट कार्ड की दुहाई देकर राहत की बात कर रहे हैं उन्हें ये मालूम हो कि भारत शहरों में नहीं रहता। दिल्ली या बॉम्बे ही भारत नहीं है। एक बहुत बड़ी आबादी 'इलेक्ट्रॉनिकीकरण' को नहीं अपनाती। आज भी वह मोल भाव करते हुए अपनी सामान्य ख़रीदारी को अंजाम देती है।
कोडी लिकॉय ने बनाया है- दोनों चित्र गूगल से साभार
इस योजना के क्रियान्वयन में और एक मुस्त वक़्त बीत जाने में फिलहाल बहुत समय लगेगा। ऐसे में इसके पीछे क्या सकारत्मक पहलू देखें जाये वे सब इस उथल पुथल के नीचे दफन हुआ मालूम देता है। हम आम लोग अगर आकलन और काले-सफ़ेद की कमाई का चार्ट तैयार करेंगे तो जिएंगे कब! जिंदगी वैसे भी आसान नहीं रही। आज कई बरसों से केबल टीवी की सुविधा देते लड़के को समय पर पैसे नहीं दिये तो वह सेट टॉप बक्सा बंद कर देने की धमकी पकड़ा कर गया है। आज के हमारे इंसानी रिश्ते भी उतने गरम जोशी के नहीं रहे। ऐसे में कौन किसके साथ है कहना जरा मुश्किल है।
एक बात और यह भी पता चल गई कि कोई भी राजनीतिक दल किसी का नहीं। उनके लिए देश के लोग 'जनता' ही होती है। एक भीड़। एक बड़ा समूह। जिनके अपने दिमाग होते तो हैं पर वे राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, मनो-वैज्ञानिक जैसे पले-पलाए कुछ पेटर्नों के गुलाम होते हैं। जो इन सब से परे होता है, कहीं न कहीं वह बेहतर समझ विकसित कर पाता है।
खैर सरकारें भी चमत्कार दिखा दिया करती हैं। ज़रूरी नहीं कि यह ठेका ईश्वर के पास ही हो। फिलहाल यह माहौल अभी आगे आने वाले समय में और बेचैनी से भरा होगा और मुझ जैसे मामूली लोगों पर बड़ा असर डालेगा। खैर बचकर तो आप भी न जा सकेंगे।
ग़ालिब की एक रचना के साथ आपको देते जा रही हूँ:-
कोई उम्मीद बर नज़र नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाले दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूँ सवाबे-ताअतों-जुहद
पर तबीयत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात, जो चुप हूँ
वरना क्या बात करनी नहीं आती
हम वहाँ हैं आजकल जहां से हमको भी
कुछ हमारी खबर हमको नहीं आती
(बर-दिखाई देना)/ (मुअय्यन- निश्चित)/(सवाबे-ताअतों-जुहद- भगवान की पूजा और धार्मिक कर्मों का पुण्य)
डुबोया मुझ को मेरे होने ने, न होता मैं, तो क्या होता"
जी हाँ अब इस बात पर यकीन आ गया है कि मेरा होना ही मेरे क़त्ल की वजह है। ...
8 नवंबर 2016 के दिन को मैं याद कर के रखना चाहूंगी। कारण है। हमारे समय की बेहद बड़ी घटना है। जिसे हम मुद्रा कहकर पुकारते हैं, वो अब भारत सरकार द्वारा रद्द कर दी गई है। अब 500 और 1000 के नोट नहीं चलेंगे। वो रद्दी में तब्दील हो चुके हैं। उनकी शक्ति खत्म हो चुकी है। अब उनसे क्रय नहीं हो सकता। मौजूदा सरकार इसे काले धन के खिलाफ एक जरूरी और साहसिक कदम बता रही है। हालांकि इलेक्ट्रोनिक दुनिया में दो तरह की प्रतिक्रियाएँ सामने आ रही है। कुछ तबका इसे सटीक कारवाई मान रहा है तो दूसरा तबका इसके सख्त खिलाफ दिखाई दे रहा है।
लेकिन ज़मीन और आम लोगों में इसके उलट एक भाव दिखाई दे रहा है। लोगों में ज़ेहनी उथल पुथल मची हुई है तो सामान्य रूटीन कतारों की भेंट चढ़ चुका है। लोगों के पास अपने बच्चों के पास दूध पिलाने के रूपये तक नहीं हैं। मैं खुद ही इसकी शिकार हूँ। कल मेरे पास 5 रुपये भी नहीं थे कि एक कप चाय का पी सकूँ। वास्तव में सरकार यह कदम सही बताने के लिए इसके पक्ष में कुछ बातें रख रही हैं। पहली यह कि काली कमाई पर उस्तरा चलाने का इससे बेहतर कुछ खास इलाज़ नहीं था, दूसरा यह कि यह कदम केवल बेईमान लोगों के लिए है और ईमानदार लोगों के ऊपर इसका असर नहीं पड़ेगा। सरकार द्वारा इतने आनन फानन में उठाए गए इस कदम के पीछे यही तर्क है कि अगर इसे गुप्त नहीं रखा जाता तब काले धन जमकर्ताओं को मौका मिल जाता बच जाने का।
कालरा हल्ब्र्ट द्वारा बनाया गया
बहरहाल, प्रधानमंत्री ने जापान से और वित्त मंत्री ने दिल्ली शहर में प्रैस के सामने कुछ बातें कीं। दोनों के बयानों में वही बातें दोहराई गई हैं। देश की जनसंख्या एक अरब से भी ज़्यादा है। सभी की ज़िंदगी इसी अर्थ पर टिकी व्यवस्था पर है। 29 राज्य वाले देश में किसी भी नीति और योजना को लागू करने से पहले यह सुनिश्चित हो जाना चाहिए था कि इससे संबन्धित अंग सक्रिय करने लायक हैं। निश्चित सोच और शोध की कमी दिखाई देती है। चाहे वह मानव शक्ति, संसाधन या फिर मशीनी तकनीक के स्तर पर हो। विभिन्न मंत्रियों द्वारा जनता को जो हौंसला और तसल्ली की घुट्टी पिलाई जा रही है वह उतनी स्तर तक कामयाब होती दिख नहीं रही।
अब आइये आम जनता पर। मैं शायद रात भर लिखूँ तब भी उनकी परेशानियों को दर्ज़ नहीं कर पाऊँगी। मैं दो दिन से लाइन में जाती हूँ और कुछ घंटे खड़े होने के बाद वापस आ जाती हूँ। घर में बाकी लोगों का भी ऐसा ही हाल है। हालांकि माँ की गुल्लक पर प्रहार हो चुका है जिससे दूध, सब्जी, चावल आदि जैसी बुनियादी खाने की चीजें घर में आ पा रही हैं। निम्न स्तर के मध्यम वर्ग के घर में बनता ही क्या है! दाल तो महंगाई से पहले ही गायब है। अब दूसरी चीजें भी गायब की जा रही हैं। कई जगह से बुजुर्ग लोगों के लाइन में खड़े होने के कारण मरने की खबर भी आईं हैं। कई जगह आपस में या पुलिस से झड़प की खबरें टीवी पर दिखाई जा रही हैं।
ऐसे ही बुज़ुर्गों की दशा है जो किसी से छुपी नहीं है। जो लोग टीवी से ही दुनिया का नमूना जान लेते हैं वास्तव में वह गलतफहमी में जीते हैं। बैंक में जाइए। तब आपको वे लोग मिलेंगे जिन्हें नहीं पता की फॉर्म कैसे भरते हैं। रूपये की गिनाई से लेकर पासबुक एंट्री तक में बड़े-बूढ़े निर्भर किरदार होते हैं। यकीन नहीं तो चलिये किसी बैंक में।
अन्नपूर्णा पर भी इसका सीधा असर देखा जा रह है। हर वर्ग के परिवारों में कुछ एक जैसी कॉमन आदतें होती हैं। उनमें सबसे बड़ी कॉमन आदत बचत करने की है। एक दफा मुझे एक दिलचस्प सुझाव दिये गए उनमें बचत करने का एक था। सिर्फ एक नए नियुक्त व्यक्ति के दस्तख़त करने के शौक ने सामान्य दिनचर्या का गला घोंट दिया है। घरेलू ज़िंदगी में अर्थ कला और हुनर के रूप में दिखाई देता है। इन दोनों को फिलहाल धक्का लगा है।
एक दफा एक महिला से मिलना हुआ था। उस महिला का पति काम तो करता था पर उन्हें शराब की गंभीर लत थी। रोज़ रात को घर के चैन-ओ- अमन में जैसे आग लग जाती थी। उनकी तीन बेटियाँ ही थीं। इस चलते वह गृहणी अपनी किस्मत पर रोती तो थी पर वह पति को बिना बताए चुपके से रुपया इकट्ठा भी करती थी। बाद में वे उन रुपये का इस्तेमाल बेटियों पर कर के करती थी। कभी तकिये के कवर में तो कभी भगवान की मूर्ति के नीचे वह छुपा दिया करती थीं। आज जब खोज-खुजाई शुरू हो गई है, तब मैं उस महिला के बारे में सोच कर जरा परेशान भी हूँ।
रुकिया कुछ बातें बैंक कर्मचारी को सोचते हुए की जाएँ। फर्ज़ कीजिये, कि यदि बैंक के क्रमचारी हफ्ते के सातों दिनों और दिन में ज़्यादा से ज़्यादा घंटे काम करेंगे तब उनके स्वास्थ्य और काम की गुणवत्ता पर निश्चित और लंबे समय के असर पड़ेंगे। वास्तव में ऐसा हो भी रहा है। भले ही मेरी बात मज़ाक लगे लेकिन यह सच है। एक अरब से भी ज़्यादा के लोग पूरी तरह से इन मुट्ठी भर बैंक कार्यकर्ताओं पर निर्भर हैं।
एटीएम आज से चालू हुए हैं वे भी गिनती करने लायक। जो चालू भी हुए उनके रुपये जल्दी ही खत्म भी हो गए। एटीएम पर टिप्पणी करते हुए वित्त मंत्री ने कहा कि उन्हें तरीके से और इस लायक बनाया जा रहा है ताकि नए नोटों का आकार उनमें फिट हो सके। पहले से तैयार न करने के पक्ष में उन्हों ने कहा कि अगर पहले से एटीएम तैयार किए गए होते तो इस योजना की सीक्रेसी खत्म हो जाती।
चारों तरफ एक अफरा तफरी का माहौल बना है। इस योजना का सीधे तौर पर असर हर जगह दिखाई दे रहा है। फिर चाहे आपकी खाने की थाली हो या फिर सब्जी मंडी में बसी या गलती हुई सब्जियाँ। कुछ लोग जो क्रेडिट कार्ड की दुहाई देकर राहत की बात कर रहे हैं उन्हें ये मालूम हो कि भारत शहरों में नहीं रहता। दिल्ली या बॉम्बे ही भारत नहीं है। एक बहुत बड़ी आबादी 'इलेक्ट्रॉनिकीकरण' को नहीं अपनाती। आज भी वह मोल भाव करते हुए अपनी सामान्य ख़रीदारी को अंजाम देती है।
कोडी लिकॉय ने बनाया है- दोनों चित्र गूगल से साभार
इस योजना के क्रियान्वयन में और एक मुस्त वक़्त बीत जाने में फिलहाल बहुत समय लगेगा। ऐसे में इसके पीछे क्या सकारत्मक पहलू देखें जाये वे सब इस उथल पुथल के नीचे दफन हुआ मालूम देता है। हम आम लोग अगर आकलन और काले-सफ़ेद की कमाई का चार्ट तैयार करेंगे तो जिएंगे कब! जिंदगी वैसे भी आसान नहीं रही। आज कई बरसों से केबल टीवी की सुविधा देते लड़के को समय पर पैसे नहीं दिये तो वह सेट टॉप बक्सा बंद कर देने की धमकी पकड़ा कर गया है। आज के हमारे इंसानी रिश्ते भी उतने गरम जोशी के नहीं रहे। ऐसे में कौन किसके साथ है कहना जरा मुश्किल है।
एक बात और यह भी पता चल गई कि कोई भी राजनीतिक दल किसी का नहीं। उनके लिए देश के लोग 'जनता' ही होती है। एक भीड़। एक बड़ा समूह। जिनके अपने दिमाग होते तो हैं पर वे राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, मनो-वैज्ञानिक जैसे पले-पलाए कुछ पेटर्नों के गुलाम होते हैं। जो इन सब से परे होता है, कहीं न कहीं वह बेहतर समझ विकसित कर पाता है।
खैर सरकारें भी चमत्कार दिखा दिया करती हैं। ज़रूरी नहीं कि यह ठेका ईश्वर के पास ही हो। फिलहाल यह माहौल अभी आगे आने वाले समय में और बेचैनी से भरा होगा और मुझ जैसे मामूली लोगों पर बड़ा असर डालेगा। खैर बचकर तो आप भी न जा सकेंगे।
ग़ालिब की एक रचना के साथ आपको देते जा रही हूँ:-
कोई उम्मीद बर नज़र नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाले दिल पे हंसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूँ सवाबे-ताअतों-जुहद
पर तबीयत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात, जो चुप हूँ
वरना क्या बात करनी नहीं आती
हम वहाँ हैं आजकल जहां से हमको भी
कुछ हमारी खबर हमको नहीं आती
(बर-दिखाई देना)/ (मुअय्यन- निश्चित)/(सवाबे-ताअतों-जुहद- भगवान की पूजा और धार्मिक कर्मों का पुण्य)
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