जब मैं कुछ लिखने की तरफ बढ़ती हूँ तब मुझे अपने शब्दों पर शक़ होने लगता है। एक पंक्ति को ही लिखने में मैं कई बार उंगली कुंजी पट्टी के 'बेकस्पेस' पर जाती है। मुझे इसमें कोई दर्द नहीं होता। अहम तो यह कि बस शक़ का निदान हो जाये। हर पंक्ति को काट कर, मिटा कर या बदलकर लिखने के जुनून को पाने की चाहत मन में पल रही है। लिखना वास्तव में अपने समय को सामने बिठाकर उससे मद्धम बातचीत करने जैसा है। इस बात का भी ख़याल रखना होता है कि वक़्त से हो रही गुफ़्तुगू को दिमाग न सुन ले।
आप मुझे पागल कह सकते हैं। क्यों नहीं? लोगों की निगाह में वक़्त से बात करना यानि खुद से बात करना यानि अपने में बड़बड़ाना पागलपन ही तो है। आदम को आगे रख के बात करना ही सामान्य होने की निशानी मानी जाती है। 'लेकिन' यकीन मानिए मुझे अपने पागलपन की संज्ञा से लगाव है। इसलिए कहती हूँ कि जब समय मुझसे बात कर के चला जाता है तब मैं सम्पन्न हुए संवाद को लिखने का रूप देने लगती हूँ। उस वार्ता का लिबास सिलने में लग जाती हूँ। शायद यही लिखना मैंने अपने से ईज़ाद करने की कोशिश की है क्योंकि ईश्वर तो कुछ खास लोगों को ही गुण सम्पन्न बनाता है। मैं बेगुण की रस्म को फॉलो करने वालों में हूँ।
विंडो सीट
इतने बेहतरीन घर से हूँ नहीं हूँ कि बचपन से ही किताबों और दूसरी कलाओं की संगत या फिर विधिवत शिक्षा-दीक्षा मिल पाती। बिन गुरु ही रह सीखना, दो नहीं कई शख़्सियतों का निर्माण करता है। कभी गुरु, कभी सीखने वाले नौसिखिया तो कभी दर्शक जैसे व्यक्तित्व पनप जाते हैं। इस कारण बात करने के लिए किसी की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए रोज़मर्रा के साये में ही पलने लगी। मेरा व्याकरण भी उसी रोज़मर्रा की तसबीह से ही बना है। हर मोती को जीते हुए। बस यही तो वह स्रोत है जहां से रचने का कच्चा माल मिल जाता है। लिखना उस अवस्था तक ले जाता है जिसकी तमन्ना मैं रोज़ करती हूँ। वही अपने साथ वक़्त बिताने की बात के समान।
तनाव से बचने और निपटने के लिए ढेर सारे उपाय आजकल फ़ैशन में हैं। मन का डॉक्टर तक है। पर मेरे जैसों को कौन डॉक्टर झेलेगा! कौन हमारे पास कान रखेगा! जो गर कोई मिल भी गया तो मैं ठहरी फक्कड़, फीस में पत्थर तो दूँगी नहीं। इसलिए अपने अंदर ही लोगों को रख लिखने लगी। जब लिखती हूँ तब एक 'विंडो सीट' तैयार करती हूँ ताकि रोज़मर्रा से बात करने में आसानी रहे। कुछ भूल जाऊं तो खिड़की से अपनी पूरी मुंडी निकाल कर उसे पूकारूं। पूरी मुंडी इसलिए कि बाहर के नज़ारे भी दिख जाएँ। यह जगह इसलिए भी अच्छी लगती है क्योंकि यह बचपन की खिड़की वाली सीट का मज़ा भी दे देती है।
(किसी से बातचीत पर आधारित)
आप मुझे पागल कह सकते हैं। क्यों नहीं? लोगों की निगाह में वक़्त से बात करना यानि खुद से बात करना यानि अपने में बड़बड़ाना पागलपन ही तो है। आदम को आगे रख के बात करना ही सामान्य होने की निशानी मानी जाती है। 'लेकिन' यकीन मानिए मुझे अपने पागलपन की संज्ञा से लगाव है। इसलिए कहती हूँ कि जब समय मुझसे बात कर के चला जाता है तब मैं सम्पन्न हुए संवाद को लिखने का रूप देने लगती हूँ। उस वार्ता का लिबास सिलने में लग जाती हूँ। शायद यही लिखना मैंने अपने से ईज़ाद करने की कोशिश की है क्योंकि ईश्वर तो कुछ खास लोगों को ही गुण सम्पन्न बनाता है। मैं बेगुण की रस्म को फॉलो करने वालों में हूँ।
विंडो सीट
इतने बेहतरीन घर से हूँ नहीं हूँ कि बचपन से ही किताबों और दूसरी कलाओं की संगत या फिर विधिवत शिक्षा-दीक्षा मिल पाती। बिन गुरु ही रह सीखना, दो नहीं कई शख़्सियतों का निर्माण करता है। कभी गुरु, कभी सीखने वाले नौसिखिया तो कभी दर्शक जैसे व्यक्तित्व पनप जाते हैं। इस कारण बात करने के लिए किसी की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए रोज़मर्रा के साये में ही पलने लगी। मेरा व्याकरण भी उसी रोज़मर्रा की तसबीह से ही बना है। हर मोती को जीते हुए। बस यही तो वह स्रोत है जहां से रचने का कच्चा माल मिल जाता है। लिखना उस अवस्था तक ले जाता है जिसकी तमन्ना मैं रोज़ करती हूँ। वही अपने साथ वक़्त बिताने की बात के समान।
तनाव से बचने और निपटने के लिए ढेर सारे उपाय आजकल फ़ैशन में हैं। मन का डॉक्टर तक है। पर मेरे जैसों को कौन डॉक्टर झेलेगा! कौन हमारे पास कान रखेगा! जो गर कोई मिल भी गया तो मैं ठहरी फक्कड़, फीस में पत्थर तो दूँगी नहीं। इसलिए अपने अंदर ही लोगों को रख लिखने लगी। जब लिखती हूँ तब एक 'विंडो सीट' तैयार करती हूँ ताकि रोज़मर्रा से बात करने में आसानी रहे। कुछ भूल जाऊं तो खिड़की से अपनी पूरी मुंडी निकाल कर उसे पूकारूं। पूरी मुंडी इसलिए कि बाहर के नज़ारे भी दिख जाएँ। यह जगह इसलिए भी अच्छी लगती है क्योंकि यह बचपन की खिड़की वाली सीट का मज़ा भी दे देती है।
(किसी से बातचीत पर आधारित)
No comments:
Post a Comment