अपने समय को दर्ज़ न करना सबसे बड़ा जुर्म है। खैर मुझे यह जुर्म नहीं करना इसलिए अपने हैसियत के अनुसार लिखने की कोशिश कर रही हूँ। मेरा समय बहुत हलचल वाला है। नई नीतियों, तकनीक, रहने के बदलते तौर-तरीकों, काम-धंधों, सम्बन्धों आदि में इन कारकों से हर समय की तरह हमारे समय में भी बदलाव हो रहे हैं।
जैसे ही 5 साल वाली सरकारें आती हैं, वैसे ही हमारे रहन-सहन में बदलाव आता है। हमारी शब्दावली बदल जाती है। कुछ शब्द राजनीतिक तरीके से जीभ पर 'ट्रांसप्लांट' किए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि यह 'स्थापना' राजनीति ही करती है। बल्कि यह कई तरीकों से ताउम्र चलता रहता है। जैसे घर में बच्चों को रिश्ते संबंधी शब्द की सौगात देना, स्कूल में नागरिक संबंधी बर्ताव को पनपाना और तरह-तरह की विचारधाराओं को समझते समझाते हुए बड़ी बड़ी 'टर्मिनोलॉजी' की गहरी और आम समझ देना। यह सब तो चलता ही रहता है बॉस! पर कुछ जो यकायक हो जाए वह कैसे ज़ुबान, हाव भाव, रूटीन, समझ, माइंडसेट आदि बदलता है उसका उदाहरण मुझे आज मिला।
एक्शन भी तो मायने रखता है। किसी का भी।
वर्ली चित्रकारी
नोटबंदी जैसी नीति और एक्शन (लागूकरण) ने हर जगह के लोगों की ज़िंदगी को थाम कर रख लिया है। यहाँ बात सरकार के इस फैसले के पक्ष और विपक्ष की नहीं है। यह बहुत स्वाभाविक है कि कुछ लोग इस निर्णय के साथ हैं और कुछ नहीं भी हैं। ऐसा भी हो सकता है कि कुछ दोनों ही से जुदा हैं। कई असमंजस की स्थिति में भी जरूर होंगे। खबरियों की भी खबर रखनी चाहिए। तो दोस्तों सभी चैनलों पर सूट बूट वाले कह रहे हैं कि नोटबंदी के फायदे भी होंगे। तो होंगे...हमने कब इंकार किया है। सरकार के पास बहुत दिमागदार लोग होंगे जिन्हों ने इस नीति के बारे में एक गहरा और लंबा शोध किया होगा। तभी तो इसे लागू किया गया। उन्हें बेहद उम्दा इल्म होगा कि इस नीति के क्या और कौन से नतीजे होंगे। मुझे इसमें दिलचस्पी अभी नहीं आ रही।
मैं बात, इस 'बात' पर भी नहीं कर रही। मुझे अपना मुद्दा निकाल कर लाने की बेहद मामूली समझ है। मैं बड़े बड़े विषयों पर डेटा वाली बहस नहीं कर सकती। मेरी सीमा है।
आज मैं भी सुबह के साढ़े आठ बजे वाली लाइन में जाकर लग गई। इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं था। मैं हैरत में थी कि लाइन लंबी इस शुरू होती सुबह में ही थी। उम्रदराज लोगों की लाइन छोटी थी और बाकी सभी लोग जो एक ही लाइन में लगे थे, उनकी सांप की तरह बलखाती हुई लंबी कतार थी। सभी के चेहरे बेरौनक़ थे। हम लोग आपसी बातचीत में लगे हुए थे। कई लोग जो बहुत सुबह से आए थे वे लघु शंका के लिए भी नहीं जा रहे थे कि कहीं उनको लाइन से बेदखली न मिल जाये या झगड़े फसाद में न हो जाये। लड़कियां और औरतें सूखे गले बैठे हुए थीं। खाना न खाकर आने की बात सभी ने कही। किसी को फॉर्म को भरने की गदर चिंता थी। सुनिए (पढ़िये) जरा कैसी पंक्तियाँ थीं उनकी ज़ुबानों पर-
मेरा मकसद सरकार की छवि गिराने का नहीं है न ही किसी तरह की बहस-विवाद करने का। थोड़ा सा देखिये और समझिए की ज़मीन पर क्या चल रहा है। ऐसा भी हो सकता है कि कई लोगों का काम बेहद 'स्मूद' तरीके से हुआ होगा। लेकिन ऐसे रुझान मुझे नहीं मिले। जो मिलें वे मैंने यहाँ अपनी याद को पछाड़ते हुए छाप दिये।
इन हालातों में बहस छोड़ कर कैसे प्रबंध किए जाने चाहिए, इस पर सरकार को ध्यान देना जरूरी है। यकीन मानिए स्थिति उतनी अच्छी नहीं है। न्यूज़ चैनलों पर अधिक विश्वास न करें। ऐसा मालूम होता है कि वह देश विशेष रिपोर्टिंग न कर के पार्टी और कुछ लोगों की रुचि विशेष कार्यक्रम दिखा रहे हों।
रुकिए कुछ लोगों को मेरी यह बात बेहद विरोधी लगेगी। उसमें मुझे कोई दिक्कत नहीं। मुझे जो दिखा और जो मैंने महसूस किया वही रच डाला। मुझ पर छापे मारने वाले पहले सुबह से शाम तक लाइन में लगें तब मुंह खोलें। तब तक जय बम भोले।
ईश्वर सबको धैर्य दे!
जैसे ही 5 साल वाली सरकारें आती हैं, वैसे ही हमारे रहन-सहन में बदलाव आता है। हमारी शब्दावली बदल जाती है। कुछ शब्द राजनीतिक तरीके से जीभ पर 'ट्रांसप्लांट' किए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि यह 'स्थापना' राजनीति ही करती है। बल्कि यह कई तरीकों से ताउम्र चलता रहता है। जैसे घर में बच्चों को रिश्ते संबंधी शब्द की सौगात देना, स्कूल में नागरिक संबंधी बर्ताव को पनपाना और तरह-तरह की विचारधाराओं को समझते समझाते हुए बड़ी बड़ी 'टर्मिनोलॉजी' की गहरी और आम समझ देना। यह सब तो चलता ही रहता है बॉस! पर कुछ जो यकायक हो जाए वह कैसे ज़ुबान, हाव भाव, रूटीन, समझ, माइंडसेट आदि बदलता है उसका उदाहरण मुझे आज मिला।
एक्शन भी तो मायने रखता है। किसी का भी।
वर्ली चित्रकारी
नोटबंदी जैसी नीति और एक्शन (लागूकरण) ने हर जगह के लोगों की ज़िंदगी को थाम कर रख लिया है। यहाँ बात सरकार के इस फैसले के पक्ष और विपक्ष की नहीं है। यह बहुत स्वाभाविक है कि कुछ लोग इस निर्णय के साथ हैं और कुछ नहीं भी हैं। ऐसा भी हो सकता है कि कुछ दोनों ही से जुदा हैं। कई असमंजस की स्थिति में भी जरूर होंगे। खबरियों की भी खबर रखनी चाहिए। तो दोस्तों सभी चैनलों पर सूट बूट वाले कह रहे हैं कि नोटबंदी के फायदे भी होंगे। तो होंगे...हमने कब इंकार किया है। सरकार के पास बहुत दिमागदार लोग होंगे जिन्हों ने इस नीति के बारे में एक गहरा और लंबा शोध किया होगा। तभी तो इसे लागू किया गया। उन्हें बेहद उम्दा इल्म होगा कि इस नीति के क्या और कौन से नतीजे होंगे। मुझे इसमें दिलचस्पी अभी नहीं आ रही।
मैं बात, इस 'बात' पर भी नहीं कर रही। मुझे अपना मुद्दा निकाल कर लाने की बेहद मामूली समझ है। मैं बड़े बड़े विषयों पर डेटा वाली बहस नहीं कर सकती। मेरी सीमा है।
आज मैं भी सुबह के साढ़े आठ बजे वाली लाइन में जाकर लग गई। इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं था। मैं हैरत में थी कि लाइन लंबी इस शुरू होती सुबह में ही थी। उम्रदराज लोगों की लाइन छोटी थी और बाकी सभी लोग जो एक ही लाइन में लगे थे, उनकी सांप की तरह बलखाती हुई लंबी कतार थी। सभी के चेहरे बेरौनक़ थे। हम लोग आपसी बातचीत में लगे हुए थे। कई लोग जो बहुत सुबह से आए थे वे लघु शंका के लिए भी नहीं जा रहे थे कि कहीं उनको लाइन से बेदखली न मिल जाये या झगड़े फसाद में न हो जाये। लड़कियां और औरतें सूखे गले बैठे हुए थीं। खाना न खाकर आने की बात सभी ने कही। किसी को फॉर्म को भरने की गदर चिंता थी। सुनिए (पढ़िये) जरा कैसी पंक्तियाँ थीं उनकी ज़ुबानों पर-
- कैसे भरते हैं,
- क्या कागज लाने हैं,
- दस्तख़त बहुत पहले किए थे...पर अब याद नहीं, कहीं रद्द न कर दें,
- कितना रुपया देंगे, मैं तो आठ हज़ार का चेक भर कर लाई हूँ, पता नहीं कहीं ये न कह दें कि कैश खत्म हो गया,
- बेटी की फीस भरनी है, कॉलेज वाले मान भी नहीं रहे,
- मेरी कमर अब जवाब दे रही है,
- बताओ दो दिन(तीन दिन वाले भी)से आ रही हूँ,
- मैं बहुत परेशान हूँ,
- मैं क्या बताऊँ- दूसरे बैंक में लगे थे पर उन्हों ने भी भगा दिया,
- कोई इज्जत से बात भी नहीं कर रहा,
- मरे हुए को मार रहे हैं, पाप पड़ेगा, भगवान छोड़ेंगे नहीं,
- अरे अब भगवान भी नहीं रहा,
- गला सूख रहा है...पानी कैसे पियें,
- टॉइलेट वाले 5 रुपये मांग रहे हैं,
- क्या आप के फुन से एक 'फून' कर लूँ ,
- ज़ाहिद के अब्बा, अब आ जाओ-मुझसे न खड़ा हो जा रिया है,
- आज काम न बनेगा,
- बताओ ऐसा भी कोई करता है,
- गरीब ही मरते हैं हमेशा,
- घर में कुछ नहीं है,
- बच्चे भी हमें देखकर मायूस हो जा रहे हैं,
- हम तो आज छुट्टी लेकर आए हैं,
- आप अपने आगे किसी को मत लगने देना,
- आप तो पीछे थीं आगे कैसे आ गई- बताओ हम बेवकूफ हैं,
- अब मैं घर कैसे चलाऊँ,
- हद हो गई है अब,
- बुड्डे लोगों को चुनोगे तो यही होगा,
- सभी गला काटने के लिए आते हैं,
- हमें कुछ लेना देना नहीं है बस पैसे मिल जाएँ,
- अच्छा किया सरकार ने लेकिन तैयारी तो कर लेते,
- अरे नए नोटों से रंग छूट रहा है,
- चूरन वाले नोट हैं,
- दिक्कत यहाँ ये भी है कि दो हज़ार का खुल्ला भी नहीं हो रहा,
- दबा के जूता मार रहे हैं,
- ढाई साल रुक जाओ यार,
- हमें तो कछु जानकारी नाय है,
- लाइन आगे सरक क्यों न रही है,
- उम्मीद पर तो दुनिया क़ायम है,
- 4 बजे तक कूपन देंगे,
- काम कितनी धीरे धीरे कर रहे हैं,
- ये भी तो इंसान है,
- कितनी देर से लंच कर रहे हैं...
- पुलिस वाले क्या कम हैं, ये और मज़ा कर रहे हैं
- धमका भी रिये हैं
- इनसे कौन बोलेगा
- रात को भी 7 बजे तक बैंक खुले थे, अमीरन के लिए
- आज काम नहीं हुआ तो 3 बजे आऊँगा रात को
- हद है क्या करें हम किरायेदार
- थोड़े दिन बाद सब ठीक हो जाएगा
मेरा मकसद सरकार की छवि गिराने का नहीं है न ही किसी तरह की बहस-विवाद करने का। थोड़ा सा देखिये और समझिए की ज़मीन पर क्या चल रहा है। ऐसा भी हो सकता है कि कई लोगों का काम बेहद 'स्मूद' तरीके से हुआ होगा। लेकिन ऐसे रुझान मुझे नहीं मिले। जो मिलें वे मैंने यहाँ अपनी याद को पछाड़ते हुए छाप दिये।
इन हालातों में बहस छोड़ कर कैसे प्रबंध किए जाने चाहिए, इस पर सरकार को ध्यान देना जरूरी है। यकीन मानिए स्थिति उतनी अच्छी नहीं है। न्यूज़ चैनलों पर अधिक विश्वास न करें। ऐसा मालूम होता है कि वह देश विशेष रिपोर्टिंग न कर के पार्टी और कुछ लोगों की रुचि विशेष कार्यक्रम दिखा रहे हों।
रुकिए कुछ लोगों को मेरी यह बात बेहद विरोधी लगेगी। उसमें मुझे कोई दिक्कत नहीं। मुझे जो दिखा और जो मैंने महसूस किया वही रच डाला। मुझ पर छापे मारने वाले पहले सुबह से शाम तक लाइन में लगें तब मुंह खोलें। तब तक जय बम भोले।
ईश्वर सबको धैर्य दे!
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