Wednesday, 2 November 2016

पार्च्ड - महज़ मनोरंजन नहीं है

कुछ दिनों से दर्द ने स्थगित कर दिया था। इसलिए अपना ईलाज कर के आई हूँ। कल रात पत्थर शब्द कहीं पढ़ा तो दिमाग में फिल्म 'पार्च्ड' की घंटी बजी और याद आया कि पोटली में अभी भी कुछ पड़ा हुआ है। मुझे 'पोटली बाबा की कहानियाँ' सीरीज़ से यह पोटली शब्द मिला और घर में भी कुछ 'पोटलियों' से मैंने इंटरव्यू किया है। तमाम तरह की कथनी को कहीं दूर पटकते हुए इस फिल्म को देखने के लिए एक दिलचस्पी अपने अंदर शुरू की। फिल्म का नाम भी बेहद बढ़िया है जो मैं पाँचवी बार में सही बोल पाई। (आसान होने में भी क्या ख़ाक मज़ा है) मुझे अपने दौर में बन रही फिल्मों से अब कड़वी शिकायत नहीं है। 'क्वीन' 'पिंक' और अब आई 'पार्च्ड' फिल्में मेरे लिए टॉनिक की तरह हैं। मानो न मानो इन फिल्मों में कुछ तो है जो मज़ा-मनोरंजन नहीं बल्कि कुछ बातों और अहसासों का आरेख खींचता है। अहसास वे जिन्हें 'सेकंड सेक्स' जीती हैं। जिसे लोग समाज और परिवार कहकर पुकारते हैं कई बार वे ही औरतों के अस्तित्व को बोझिल करते हुए रंगे हाथ पाये जाते हैं। इसी बात की यह फिल्म तसदीक़ करती है। 

फिल्म की तीनों किरदार मुझे बहुत बेहतरीन लगीं। वे आपको अपने अभिनय में शामिल करती हैं। पर्दे के अंदर का नहीं बल्कि कहती लगती हैं, साथ चलिये, आपको राजस्थान के हमारे गाँव की सैर करवाते हैं।  मैं कुछ वही सैर कर के आ रही हूँ। तीनों के साथ अभी भी जुड़ा हुआ पा रही हूँ। बहुत ज़रूरी है इस तरह के चरित्रों से विनिमय करना। मैं कर रही हूँ।
 
 https://www.youtube.com/watch?v=m69d-KNi2Q0
                          फिल्म का ट्रैलर

सबसे पहले रानी की बात करना चाहूंगी जो 32 साल की विधवा औरत है। जिसका एक बेटा है। वह उसकी शादी कम उम्र में ही कर देती है। रानी के बेटे का नाम गुलाब है जो वास्तव में पितृसत्ता समाज का सूचक लगता है। वह शराब पीता है। अपना प्रभाव घर में जमा कर रखना चाहता है। जो अपनी माँ के (औरत) मेहनत के रुपये चुराता है। वह अपनी नाबालिग पत्नी और माँ पर ज़ोर चलाकर अपनी मर्दानगी साबित करते हुए दिखता है। वह घर के बाहर भी यही चेहरा लिए जीता है। जबकि दूसरी तरफ दोनों औरतें वही शिकार के रूप में दिखाई देती हैं। उनकी ज़िम्मेदारी घरेलू काम, बाहरी काम, और हर तरह की घुटन में जीते हुए दिखती हैं।

याद हो कि पिछले अरसे भारत सरकार द्वारा संचालित टीवी पर एक विज्ञापन आया करता था। विज्ञापन का नाम 'बेल बजाओ' था। घरेलू हिंसा को रोकने की मुहिम के अंतर्गत यह विज्ञापन मुझे बहुत असरदार लगा। जिन मामलों को घरेलू मामला कहकर रफा दफा किया जाता था उसको देखते हुए यह विज्ञापन सीधा हस्तक्षेप था, इस तरह की घरेलू हिंसा को रोकने के लिए। फिल्म की अन्य किरदार लज्जो (लाजो) है जो 'सेकंड सेक्स' का दूसरा चेहरा है। वह माँ नहीं बन पा रही। इसलिए उसे पति द्वारा खूब पीटा जाता है। यह पिटाई कभी कभार की नहीं बल्कि रोजाना की बात है। लेकिन उसके अंदर माँ बनने की एक पवित्र इच्छा है। इसलिए वह किसी दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आती है और गर्भवती होती है।

यह किरदार वास्तव में 'सेकंड सेक्स' की वही ज़िंदगी है जो कभी बदली ही नहीं। आदमी को यह लगता ही रहा है कि औरत उसकी संपत्ति है और औरत को यह लगता ही रहा कि वह आदमी की संपत्ति है। जब औरत ने खिलाफत की तब मामला बिगड़ा और 'डोमेस्टिक वायलेंस' जैसी शब्दावली दिखी। लज्जो इसी शब्दावली का जीता जागता उदाहरण है। मार खाने के बाद का दर्द और उसके ज़ख्म का अहसास समझ आना अपने आप में उस दर्द को महसूस करना है जिसे वह रोज़ सहती है। शरीर और मन पर कब्जा करना और उसे तोड़ना खतरनाक बात है। इस प्रक्रिया से औरतें एक लंबे वक़्त से गुज़र रही हैं इसलिए ये सब एक आम बात लगने लगी है। जबकि ऐसा नहीं है। ऐसा होना भी नहीं चाहिए।

                                                             फ्रीडा द्वारा निर्मित चित्र 

तीसरा चरित्र 'बिजली' का है जो एक नौटंकी में नाचने गाने का काम करती है। मन बहलाने का। वह इस पेशे में बेहद कम उम्र से है। वह उत्तेजक है। वह बिंदास है। वह शराब पीती है। वह गाली देती है। वह अपने पेशे को लेकर शर्म में नहीं जीती। वह मोटर गाड़ी चलाना जानती है। वह तर्कपूर्ण बातें करती है। उसे परवाह नहीं कि कोई उसके बारे में क्या कहता है। उसके किरदार में ताज़ापन है। वह अपनी दोस्तों की हमराज है। हालांकि उसकी ज़िंदगी में भी बहुत परेशानियाँ हैं।

अगर इन चरित्रों और इनकी प्रतिक्रियाएँ की बात की जाये तब कुछ उभरने लगता है। तीनों की उम्र परिपक्व उम्र है। तीनों ही ज़िंदगी और लोगों द्वारा दिये दर्द को झेल रही हैं। तीनों अपने अपने स्तरों पर इस दर्द और टॉर्चर की खिलाफत भी कर रही हैं। उनके तरीके सादे और दमदार हैं। वे एक दूसरे को आपस में बाँट रही है। उनका आपस में संवाद है। दोस्ती में किसी का पेशा आड़े नहीं आता। वह साथ घूमने जा रही है। उन्हें पता है कि एक ही ज़िंदगी मिली है और इसी में प्यार करना है। वे एक दूसरे की 'हेलपिंग हैंड' हैं। लज्जो की मदद में वे एक आदमी का सहारा लेती हैं। इस बात का उनको कोई दुख-डर-पछतावा नहीं है। उल्टा लज्जो के माँ बनने की खबर से वे खुश हैं। खुद लज्जो खुश है। वह अपने पति से कहती भी है कि इस बच्चे को अपनाकर साथ जीते हैं। पर पति को यह गंवारा नहीं। अपने फैसले लेना और तीनों का उन्हें अंजाम तक पहुंचाना भी उनके चरित्रों का दमदार पक्ष है।

रानी का अपनी नाबालिग बहू को किसी दूसरे समझदार लड़के साथ भेजना एक मजबूत फैसले का इशारा है। इस फैसले में उसकी बहू जो कि एक औरत है की ज़िंदगी का सकारात्मक बदलाव है। रानी जैसी औरत जो ठेठ गाँव से है पर फिर भी वह उस बदलाव को चुन रही है जिससे किसी की ज़िंदगी में अच्छे बदलाव आ रहे हैं। वह अपने बेटे में अपने पति का हिंसक चेहरा पाती है और उसे अपने बेटे की जगह एक शोषक के रूप में पहचानती है। उसकी खिलाफत करती है। रानी अपनी सहज बुद्धि का इस्तेमाल करती है और सही गलत का फर्क करती है। 

                                                                     फिल्म का पॉस्टर

बिजली पारिवारिक रिश्तों में नहीं पीस रही बल्कि समाज उसे पीस रहा है। उसके साथ इज्जत और बेइज्जत जैसे शब्द चिपके हैं। जो लोग उसका नाच देखने जाते हैं वे लोग इज्जतदार हैं पर वह बेशर्म है। वह जब तब अपना विरोध दर्ज़ करवाती है। गालियों से। कहती है कि सारी गाली औरतों के साथ जोड़कर बनाई है। अपने नाम से एक भी नहीं। इसके बाद के दृश्यों में वह बकायदा मर्द को इंगित करती हुई गालियों का ईजात करती है। बापचौ...बेटाचौ... जैसी गलियाँ देकर वे तीनों अपनी आवाज़ उठाती हैं। तीनों चरित्रों की बुनाई में एक अहम बात यह भी है कि तीनों आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ी हैं। शायद उनके किरदारों में मजबूती का कारण यह भी है।

अंत में तीनों गाँव छोड़कर अपने लिए मंजिल की तलाश में निकलती हैं। यही उनकी जीत भी है और जज्बा भी है। इस फिल्म के साथ नारीवाद शब्द जोड़ना मुझे ज़ायकेदार नहीं लग रहा। मेरा मन नहीं नारीवाद शब्द को इस फिल्म से जबरन चिपकाने का। इन चरित्रों के अंदाज़ और बयान ने जो मेरे मन में दस्तक दी है वही मेरे लिए काफी है।

एक बार ज़रूर देखें।   



 




















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