जब भीड़ को समझना हो तब क़रीब से देखना एक अच्छा तरीका है। लेकिन आपको भीड़ का हिस्सा बनना होगा। घुस जाइए और जानिए कि भीड़ के घटक तत्व क्या हैं? लोग कहने से ही चेहरा समझ नहीं आएगा।
दो दिन से कतार का हिस्सा बन रही हूँ। साधारण होना आपको कई अच्छे मौक़े दे देता है। आम लोगों के बीच जगह बन जाती है। आसानी से मैं उनकी ज़िंदगी में थोड़ी देर के लिए घुस पाई। थोड़ा सा जान पाई उन्हें जो 'सेकंड सेक्स' हैं भारत जैसे देश में।
सरकार द्वारा नोटबंदी करने के फैसले से उन पर क्या असर पड़ा है, इसका अंदाज़ केवल उनसे बात करके ही मालूम चला। लाइन लगाने के लिए बैंक के बाहर लगभग 300 लोग थे। आदमी और औरत दोनों की संख्या में बहुत बड़ी असमानता नहीं थी। लेकिन गिनती की जाती तो शायद 'माओं' की संख्या ज़्यादा निकल आती। जी हाँ, कल और आज मुझे यही अनुभव हुआ कि कतार में ज़्यादातर शादीशुदा औरतें अधिक थीं जिनकी उम्र 30 साल से कुछ ऊपर जा रही थी। कुछ औरतें 50 तक थीं और थोड़ी सीनियर सिटिज़न में भी शामिल थीं।
मिथिला चित्रकारी
बुझे चेहरों के साथ यह औरतें बैंक के गेट पर ही अपनी मुस्तैद नज़र जमाकर बैठी थीं। कई औरतों के सिर पर हाथ थे। हाथ में कभी खरीदे गये कपड़े के साथ आई पोलिथीन थीं जिनमें आधार का 'कारड' और 'फोरम' पड़ा था। कुछ एक दूसरे से कह रही थीं- "भई किसी को लाइन में घुसने मत देना। हम पागल हैं जो भूखे प्यासे खड़े हैं..."
बहुत देर खड़े रहने के कारण मुझे थकावट हो चली थी सो मैं कहीं कोई बैठने के लिए चबूतरा खोज रही थी तभी किसी महिला ने मुझे हताश चेहरे के साथ पीछे से कहा- "क्या आपके पास फुन है? एक फुन करना है बस!"...मैंने हाँ कहा और वह हिन्दी अंकों में नंबर बताने लगीं। मैंने नंबर लगाकर उन्हें फोन दिया तब वह बोलीं- "ज़ाहिद के अब्बू, अब खड़ा न हुआ जा रिया है। आ ही जाओ। पहले वाले बैंक वालों ने ये कह दिया है कि पैसा न है...अब दूसरे बैंक में आई हूँ। उसी के बगल में है। जल्दी आ जाओ।"
फोन देते हुए मुझे शुक्रिया बोलीं। मैंने कहा - "आप सीनियर सिटिज़न वाली लाइन में लग जाओ। क्यों परेशान हो रही हैं आप? वहाँ आपका जल्दी हो जाएगा।"
वो बोलीं- "नहीं लग सकती। उमर न है। लाइन से निकाल देंगे तो बेइज्जती सी लगेगी।"
वह औरत खड़े होकर इतना थक गई थी कि उन्हें जबरन बैठने के लिए लगातार कहा गया। पर वह टस से मस न हुई कि कहीं मेरा नंबर कोई दूसरा न हथिया ले। वह नहीं बैठी।
ऐसी ही एक औरत बंगाली भाषा में दूसरी ही बंगाली औरत से बोल रही थी- "कल 6 बजे आई थी। लाइन में लगी लेकिन काम नहीं हुआ। बताओ अंधेरे में कैसे आ जाऊं लगने! आज आँख नहीं खुल पाई तो 7 बजे आई हूँ।"
दूसरी ने भी अपनी मजबूरी बताई। उसका नंबर भी कल नहीं आ पाया था- "काफी लोग जो लाइन में खड़े थे भड़क गए और पुलिस वालों से झगड़ा भी हुआ। पुलिस वाला तो डर गया था। उसने फोन करके कई और अपने साथियों को बुलाया। मैंने भी अपना गुस्सा उतारा और 3-4 गलियाँ बक दीं। बताओ कोई क्या करेगा! गुस्सा तो आ ही जाता है जब खड़े रहो और काम न हो।"
मिथिला चित्रकारी है
एक औरत ने कहा- "हम तो सैलरी वाले लोग हैं। महीने के महीने तनखा आती है और खत्म भी हो जाती है। कुछ बचा लेते हैं। बच्चों वाले लोग हैं। नहीं बचाएंगे तो आड़े टेढ़े वक़्त किसके आगे हाथ फैलाएँगे।" वह यहीं नहीं रूकी और आगे बौखलाहट में बोलने लगीं - "सारी कमाई मेहनत की है फिर काला कहना का क्या मतलब? यहाँ तो कोई गाड़ी वाला दिखाई ही नहीं दे रहा...बेटी की फीस देनी है। तीन से लड़की की छुट्टी करवाई है। 'ये' काम पर जाएंगे मैं यहाँ हूँ तो घर में तो कोई होना ही चाहिए।"
ऐसे ही कई और बयान सुनने को मिले। ये औरतें वही हैं जो 20 रुपये दर्जन वाली पक्की चूड़ियों की तलाश कर कर के पहनती हैं, ताकि पक्की चुड़ियाँ कलाइयों में ज़्यादा दिनों तक टिकें। बार बार चूड़ियों को पहनने का खर्च कम हो। फेंसी चुड़ियाँ तो त्योहारों के लिए जतन से रखी जाती हैं। इन्हीं औरतों में कई औरतें इतनी मासूम थीं कि उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि बैंक में जाकर आखिर क्या क्या काम करने होंगे। कई झुंड बनाकर आई थीं कि इकट्ठे होने में काम जल्दी हो जाएगा। साथ बना रहेगा। सबसे दुखद बात यह कि जैसे ही दिन शाम की तरफ बढ़ रहा था वैसे-वैसे ही इनके चेहरे पीले पड़ रहे थे।
भीड़ में से एक औरत ने कहा - "आज जाने दिन इतनी जल्दी क्यों बीत रहा है!" इसके बाद कई सिर डूबते हुए सूरज की ओर मुड़ गए।
गौरतलब हो कि नारीवाद पर तमाम तरह की गोष्ठियाँ और बैठकें कर लेने वाले लोग इस लाइन के पास दिखे तक नहीं। न जाने वे कौन सी कतारों में खड़ी हैं और खड़े हैं! मिलते तो हाल चाल ही पूछ लेती।
दो दिन से कतार का हिस्सा बन रही हूँ। साधारण होना आपको कई अच्छे मौक़े दे देता है। आम लोगों के बीच जगह बन जाती है। आसानी से मैं उनकी ज़िंदगी में थोड़ी देर के लिए घुस पाई। थोड़ा सा जान पाई उन्हें जो 'सेकंड सेक्स' हैं भारत जैसे देश में।
सरकार द्वारा नोटबंदी करने के फैसले से उन पर क्या असर पड़ा है, इसका अंदाज़ केवल उनसे बात करके ही मालूम चला। लाइन लगाने के लिए बैंक के बाहर लगभग 300 लोग थे। आदमी और औरत दोनों की संख्या में बहुत बड़ी असमानता नहीं थी। लेकिन गिनती की जाती तो शायद 'माओं' की संख्या ज़्यादा निकल आती। जी हाँ, कल और आज मुझे यही अनुभव हुआ कि कतार में ज़्यादातर शादीशुदा औरतें अधिक थीं जिनकी उम्र 30 साल से कुछ ऊपर जा रही थी। कुछ औरतें 50 तक थीं और थोड़ी सीनियर सिटिज़न में भी शामिल थीं।
मिथिला चित्रकारी
बुझे चेहरों के साथ यह औरतें बैंक के गेट पर ही अपनी मुस्तैद नज़र जमाकर बैठी थीं। कई औरतों के सिर पर हाथ थे। हाथ में कभी खरीदे गये कपड़े के साथ आई पोलिथीन थीं जिनमें आधार का 'कारड' और 'फोरम' पड़ा था। कुछ एक दूसरे से कह रही थीं- "भई किसी को लाइन में घुसने मत देना। हम पागल हैं जो भूखे प्यासे खड़े हैं..."
बहुत देर खड़े रहने के कारण मुझे थकावट हो चली थी सो मैं कहीं कोई बैठने के लिए चबूतरा खोज रही थी तभी किसी महिला ने मुझे हताश चेहरे के साथ पीछे से कहा- "क्या आपके पास फुन है? एक फुन करना है बस!"...मैंने हाँ कहा और वह हिन्दी अंकों में नंबर बताने लगीं। मैंने नंबर लगाकर उन्हें फोन दिया तब वह बोलीं- "ज़ाहिद के अब्बू, अब खड़ा न हुआ जा रिया है। आ ही जाओ। पहले वाले बैंक वालों ने ये कह दिया है कि पैसा न है...अब दूसरे बैंक में आई हूँ। उसी के बगल में है। जल्दी आ जाओ।"
फोन देते हुए मुझे शुक्रिया बोलीं। मैंने कहा - "आप सीनियर सिटिज़न वाली लाइन में लग जाओ। क्यों परेशान हो रही हैं आप? वहाँ आपका जल्दी हो जाएगा।"
वो बोलीं- "नहीं लग सकती। उमर न है। लाइन से निकाल देंगे तो बेइज्जती सी लगेगी।"
वह औरत खड़े होकर इतना थक गई थी कि उन्हें जबरन बैठने के लिए लगातार कहा गया। पर वह टस से मस न हुई कि कहीं मेरा नंबर कोई दूसरा न हथिया ले। वह नहीं बैठी।
ऐसी ही एक औरत बंगाली भाषा में दूसरी ही बंगाली औरत से बोल रही थी- "कल 6 बजे आई थी। लाइन में लगी लेकिन काम नहीं हुआ। बताओ अंधेरे में कैसे आ जाऊं लगने! आज आँख नहीं खुल पाई तो 7 बजे आई हूँ।"
दूसरी ने भी अपनी मजबूरी बताई। उसका नंबर भी कल नहीं आ पाया था- "काफी लोग जो लाइन में खड़े थे भड़क गए और पुलिस वालों से झगड़ा भी हुआ। पुलिस वाला तो डर गया था। उसने फोन करके कई और अपने साथियों को बुलाया। मैंने भी अपना गुस्सा उतारा और 3-4 गलियाँ बक दीं। बताओ कोई क्या करेगा! गुस्सा तो आ ही जाता है जब खड़े रहो और काम न हो।"
मिथिला चित्रकारी है
एक औरत ने कहा- "हम तो सैलरी वाले लोग हैं। महीने के महीने तनखा आती है और खत्म भी हो जाती है। कुछ बचा लेते हैं। बच्चों वाले लोग हैं। नहीं बचाएंगे तो आड़े टेढ़े वक़्त किसके आगे हाथ फैलाएँगे।" वह यहीं नहीं रूकी और आगे बौखलाहट में बोलने लगीं - "सारी कमाई मेहनत की है फिर काला कहना का क्या मतलब? यहाँ तो कोई गाड़ी वाला दिखाई ही नहीं दे रहा...बेटी की फीस देनी है। तीन से लड़की की छुट्टी करवाई है। 'ये' काम पर जाएंगे मैं यहाँ हूँ तो घर में तो कोई होना ही चाहिए।"
ऐसे ही कई और बयान सुनने को मिले। ये औरतें वही हैं जो 20 रुपये दर्जन वाली पक्की चूड़ियों की तलाश कर कर के पहनती हैं, ताकि पक्की चुड़ियाँ कलाइयों में ज़्यादा दिनों तक टिकें। बार बार चूड़ियों को पहनने का खर्च कम हो। फेंसी चुड़ियाँ तो त्योहारों के लिए जतन से रखी जाती हैं। इन्हीं औरतों में कई औरतें इतनी मासूम थीं कि उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि बैंक में जाकर आखिर क्या क्या काम करने होंगे। कई झुंड बनाकर आई थीं कि इकट्ठे होने में काम जल्दी हो जाएगा। साथ बना रहेगा। सबसे दुखद बात यह कि जैसे ही दिन शाम की तरफ बढ़ रहा था वैसे-वैसे ही इनके चेहरे पीले पड़ रहे थे।
भीड़ में से एक औरत ने कहा - "आज जाने दिन इतनी जल्दी क्यों बीत रहा है!" इसके बाद कई सिर डूबते हुए सूरज की ओर मुड़ गए।
गौरतलब हो कि नारीवाद पर तमाम तरह की गोष्ठियाँ और बैठकें कर लेने वाले लोग इस लाइन के पास दिखे तक नहीं। न जाने वे कौन सी कतारों में खड़ी हैं और खड़े हैं! मिलते तो हाल चाल ही पूछ लेती।
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