आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में एक महिला द्वारा अपने पति को सरकारी अस्पताल में स्ट्रेचर न होने के कारण घसीट कर ले जाने का एक वीडियो फिर से सोशल मीडिया में छाया है। अखबारों और एक दो चैनलों के मुताबिक उस महिला को अपने बीमार पति के लिए एक स्ट्रेचर की जरूरत थी जो कि अस्पताल में मौजूद नहीं था। इसके अलावा अफसोस की बात यह है कि आसपास लोग भी मौजूद थे जों खड़े देखते रहे पर किसी ने भी उस महिला की मदद की जरूरत नहीं समझी। यहाँ अस्पताल प्रशासन की लापरवाही तो है ही साथ ही हमारे समाज के मरने का भी इशारा है।
हमें सरकार को गाली देने में जों सुख मिलता है वही सुख शायद अपने अंदर के नैतिक मूल्य को मरने की खबर नहीं होने देता। खुद मुझमें कितनी नैतिकता बाकी है इसका मुझे अंदाज़ नहीं पर इतना है कि मैं कई बार बाहर की दुनिया में कुछ गलत बातों की तरफ से अपना ध्यान हटा लेती हूँ। यह बचने की तमन्ना ही मेरा खोल है। यही अवरोध भी है। अपने अंदर एक सड़ने की प्रक्रिया को देख रही हूँ और अच्छी तरह से महसूस भी कर रही हूँ। हम सभी धीरे धीरे सड़ ही रहे हैं। इसके बाद हमारी जगह कूड़ेदान होगा।
खोजिए अपनी जड़ें- फेकसाटन के सौजन्य से
कुछ महीने पहले इसी तरह की एक घटना ओड़ीसा के कालाहांडी में रहने वाले दानामाझी के साथ हुई थी। वह अपनी मृत पत्नी को अपने ही कंधे पर उठाकर अस्पताल से अपने घर तक की शव यात्रा कर रहे थे। इसमें भी अस्पताल प्रशासन की घोर लापरवाही सामने आती है। दिलचस्प है कि इस घटना को लेकर हर जगह बे-इंतहा शोर शराबा और प्रवचन कहे गए पर, कुछ दिनों बाद हुआ क्या?... साहब, सोशल मीडिया का जमाना है, जितनी तेज़ी से कुछ 'ब्रेकिंग ताज़ा माल' बिकता है उतनी तेज़ी से उसकी क़ीमत भी घट जाती है। कुछ बची खुची खबरों पर नज़र डालें तब यही पता चलता है कि दानामाझी अपनी बेटियों को पढ़ा रहे हैं। कोई नहीं जानता कि इस नोट बंदी में दानामाझी क्या बैंक के बाहर खड़ी कतार का एक हिस्सा हैं, क्या उनका भी नंबर आ पा रहा है या वह भी दो दिन लाईन में खड़े होकर वापस आ जाते हैं, हम बेखबर हैं। पक्की बात है कि नहीं जानते।
ठीक यही दशा इस महिला की है। चूंकि मेरा अभी तक का समय उत्तर भारत में ही गुजरा है वो भी एक छोटे से हिस्से में। ठीक से अपना शहर भी नहीं देखा। दूर से उड़कर जो कानों तक आया उससे लगा कि दक्षिण भारत के लोग एक दूसरे के साथ बेहतर बर्ताव करते हैं। काफी मददगार हैं। लेकिन जब केरल का जीशा बलात्कार और हत्याकांड सुना तब लगा कि नहीं मैं गलत थी। हर जगह के आधुनिक और पौराणिक मानव में बेहद दिक्कतें हैं और थीं।
गूगल से लिया है
अपने देश की संस्कृति को महान बेशक आप जबरन कहलवा लीजिये पर यह भी अच्छी तरह से जान लीजिये कि महान को छत्तीस दफा महान कहने की जरूरत नहीं होती। ज़ात के नाम पर आप एक बहुत बड़े तबके को आज भी दूर से देख के राह बदल देते हैं। मुझे बताइये कि आप महान कब, क्यों, कहाँ और कैसे हो गए?
अगर आप को भ्रम पालने का शौक है तब पालते रहिए और एक दिन वही भ्रम जब अजगर बनेगा तब सबसे पहले आपको ही निगलेगा और डकार भी नहीं लेगा। इसलिए बचने के उपाय यही हैं कि बोलिए जब किसी को बेवजह रुलाया जाये, किसी का हक़ छिना जाये...इस तरह की खबरें ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं हैं बल्कि वे घटनाएँ हैं जो आपके कितने इंसान होने की जांच करती हैं।
हमें सरकार को गाली देने में जों सुख मिलता है वही सुख शायद अपने अंदर के नैतिक मूल्य को मरने की खबर नहीं होने देता। खुद मुझमें कितनी नैतिकता बाकी है इसका मुझे अंदाज़ नहीं पर इतना है कि मैं कई बार बाहर की दुनिया में कुछ गलत बातों की तरफ से अपना ध्यान हटा लेती हूँ। यह बचने की तमन्ना ही मेरा खोल है। यही अवरोध भी है। अपने अंदर एक सड़ने की प्रक्रिया को देख रही हूँ और अच्छी तरह से महसूस भी कर रही हूँ। हम सभी धीरे धीरे सड़ ही रहे हैं। इसके बाद हमारी जगह कूड़ेदान होगा।
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कुछ महीने पहले इसी तरह की एक घटना ओड़ीसा के कालाहांडी में रहने वाले दानामाझी के साथ हुई थी। वह अपनी मृत पत्नी को अपने ही कंधे पर उठाकर अस्पताल से अपने घर तक की शव यात्रा कर रहे थे। इसमें भी अस्पताल प्रशासन की घोर लापरवाही सामने आती है। दिलचस्प है कि इस घटना को लेकर हर जगह बे-इंतहा शोर शराबा और प्रवचन कहे गए पर, कुछ दिनों बाद हुआ क्या?... साहब, सोशल मीडिया का जमाना है, जितनी तेज़ी से कुछ 'ब्रेकिंग ताज़ा माल' बिकता है उतनी तेज़ी से उसकी क़ीमत भी घट जाती है। कुछ बची खुची खबरों पर नज़र डालें तब यही पता चलता है कि दानामाझी अपनी बेटियों को पढ़ा रहे हैं। कोई नहीं जानता कि इस नोट बंदी में दानामाझी क्या बैंक के बाहर खड़ी कतार का एक हिस्सा हैं, क्या उनका भी नंबर आ पा रहा है या वह भी दो दिन लाईन में खड़े होकर वापस आ जाते हैं, हम बेखबर हैं। पक्की बात है कि नहीं जानते।
ठीक यही दशा इस महिला की है। चूंकि मेरा अभी तक का समय उत्तर भारत में ही गुजरा है वो भी एक छोटे से हिस्से में। ठीक से अपना शहर भी नहीं देखा। दूर से उड़कर जो कानों तक आया उससे लगा कि दक्षिण भारत के लोग एक दूसरे के साथ बेहतर बर्ताव करते हैं। काफी मददगार हैं। लेकिन जब केरल का जीशा बलात्कार और हत्याकांड सुना तब लगा कि नहीं मैं गलत थी। हर जगह के आधुनिक और पौराणिक मानव में बेहद दिक्कतें हैं और थीं।
गूगल से लिया है
अपने देश की संस्कृति को महान बेशक आप जबरन कहलवा लीजिये पर यह भी अच्छी तरह से जान लीजिये कि महान को छत्तीस दफा महान कहने की जरूरत नहीं होती। ज़ात के नाम पर आप एक बहुत बड़े तबके को आज भी दूर से देख के राह बदल देते हैं। मुझे बताइये कि आप महान कब, क्यों, कहाँ और कैसे हो गए?
अगर आप को भ्रम पालने का शौक है तब पालते रहिए और एक दिन वही भ्रम जब अजगर बनेगा तब सबसे पहले आपको ही निगलेगा और डकार भी नहीं लेगा। इसलिए बचने के उपाय यही हैं कि बोलिए जब किसी को बेवजह रुलाया जाये, किसी का हक़ छिना जाये...इस तरह की खबरें ब्रेकिंग न्यूज़ नहीं हैं बल्कि वे घटनाएँ हैं जो आपके कितने इंसान होने की जांच करती हैं।
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