Sunday, 20 November 2016

छुक छुक की आवाज़ से बढ़कर है रेल...

आज की बड़ी खबर रात के करीब 3 बजे ही घट चुकी थी। जी हाँ, इंदौर-पटना एक्सप्रेस के 14 डिब्बे अपनी पटरी से कानपुर के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गए और मरने वालों की संख्या खबरों के मुताबिक 115 बताई जा रही है। देश में एक बड़ी घटना 8 नवंबर 2016 की रात को पहले ही घट चुकी है। अभी वह घटना खत्म भी नहीं हुई कि जब तक यह भयानक हादसा हो गया। हादसों में तो आजकल हर व्यक्ति जी रहा है। हादसे मानों आदत बन चुके हैं। इसलिए आज किसी हादसे पर कलम नहीं चलानी। 

इत्तिफाक़ से कल मैं अपने एक दोस्त के साथ भारतीय रेल की तारीफ में व्यस्त थी। राजा रवि वर्मा, गांधी, नेहरू और वे लोग जिनके मैं नाम नहीं जानती, सभी ने इसी भारतीय रेल से हिंदुस्तान को बेहतर जाना है। इतना ही नहीं हिन्दी फिल्मों में तो  रेल और उसकी पटरियों की अहम भूमिका है, चाहे बात इश्क़ की हो या फिर शोध की। रेल है ही आकर्षित करने वाली।



एक बार मेरे किसी आत्मीय की बातचीत से मुझे यह मालूम चला था कि भारतीय रेलवे गजब का माध्यम है। यह माध्यम असली भारतियों के साथ असली भारत का सफर तय करवाता है। यह छोटी से छोटी जगह से जुड़ा है। यह लोगों से कई सालों से हुआ है। इसकी अहमियत को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन अभी भी इस में कुछ गुणवत्ता समय की मांग के अनुसार नहीं जुड़ पाएँ हैं, क्योंकि हम और हमारी सरकार इसके लिए मुस्तैद नहीं हैं।

रेल का ज़िक्र कर रही हूँ तब मैं अपनी ही बात बताती हूँ। बात क्या एक किस्सा है। मैंने रेलवे से कई छोटे और बड़े सफर किए हैं। मुझे आज भी लगभग 4 साल की उम्र के अपने दूसरे (पहला बेहद कम उम्र में था जो याद नहीं)  सफर की हल्की याद है। इस सफर में मैं, अम्मी और मेरे बड़े भाई एक साथ थे। हम स्लीपर में थे। मुझे रेल के धुएँ से ऐसी दिक्कत हुई की ठसाठस भरे हुए डिब्बे में मुझे उल्टी होनी शुरू हो गई। बहुत उल्टी हुई। कई लोग कहने लगे कि इस डिब्बे से निकलो, जाओ, बाहर जाओ...सब गंदा कर के रख दिया लड़की ने।

                                               एक टिकट चेकर द्वारा बनाया गया चित्र

डिब्बे में कुछ ऐसे लोग भी थे जिन्हों ने कहा कि जब उनकी बच्ची की दशा ठीक नहीं है तो ऐसे में यह उसे कहाँ लेकर जाएंगी। आप लोग तो ऐसे कह रहे हो जैसे आप के बच्चे गंदे ही नहीं होते।
 
मेरी माँ आवाज़ और मिजाज़ की तेज़ नहीं हैं। सबसे ज़्यादा उन्हीं के कपड़े गंदे हुए। मेरे भाई मुझे पानी दे देकर कुल्ला करवा रहे थे। जब मेरा जी शांत हुआ तब माँ ने अपनी गोद में मेरे सिर को रखकर हौले हौले सहलाया। इसके बाद खिड़की की हवा और चाँद की रोशनी ने मुझे चैन और नींद का तोहफा दिया। मुझे यह सब के सब दृश्य आज भी ज्यों के त्यों याद है। अपनी माँ की साड़ी का रंग मेरे बड़े भैया का कम उम्र वाला चेहरा। हमारी पेटी। उसका रंग। स्टेशन। उसके कुछ लोग। उनकी बातें। सब याद है।

पर इन सबसे ज़्यादा मुझे रेल याद है। गहरा मिट्टी रंग था उस रेल का। ज़्यादा नई भी नहीं थी और न ही बेहद पुरानी। एक दम लंबी। ढेरों लोगों को ले जाती हुई मशीन। उसका रूप ऐसा कि हैरत में डाल दे। जैसे ही रुकती एक नई दुनिया ही नज़र आती। कभी कोई चाय लेकर आ जाता तो कोई चने... वहाँ इतनी आवाज़ें थीं कि मैंने पहली बार जाना था कि जब बहुत सी आवाज़ें एक दूसरे में घुल जाती हैं तब साफ न सुनना एक बेबसी की दशा है। शोर कहकर क्यों दोष लगाया जाये? जैसे ही ट्रेन नदी या फिर किसी पुल से गुजरती तो रोमांच सा महसूस होने लगता।  खैर, चीज़ खरीदने और खाने की ज़िद्द के चलते मुझे रेल के बारे में 'ऑन द स्पॉट' कहानी रच कर सुनाई गई।

                                                        अदिति भट्ट का बनाया हुआ चित्र

"चीज़ खाओगी तो रेल से बात नहीं कर पाओगी। रेल उनसे बात नहीं करती जो रो रो कर चीज खाने की ज़िद्द करते हैं।"
(...हद है। मुझे पहले क्यों नहीं बताया कि ऐसा मामला है।) ..."फिर कैसे बात करेगी, बताओ...?"

"अरे कुछ नहीं देखो उसके आगे जाओ। वहीं उसका मुंह है गोल सा बोलने वाला। पापा तो वहीं जाकर उससे बात कर लेते हैं।"

फिर क्या था। जिस स्टेशन पर ट्रेन रुकती मैं आगे पहुँच जाती। मैंने बहुत कोशिश की, कि ट्रेन से बात हो जाये पर हुई नहीं। इस बीच मुझे उल्टी नहीं हुई और मैंने कोई ज़िद्द भी नहीं की। घर तक मैं यही पुछती रही कि पापा से कैसे बात करती है मुझसे तो बोली ही नहीं! फार्मूला काम कर रहा था। ... आज भी भैया मेरी बेवकूफी पर खूब हँसते हैं।   

कुछ ऐसी है भारतीय रेल। ढेरों किस्से हैं जो हर उस व्यक्ति के अंदर है जिसने इससे अपना सफर किया है। इसलिए जब यह हादसे होते हैं तो मानिए कि कुछ चकनाचूर हो जाता है। सही प्रबंधन न होना इसकी एक बड़ी वजह है। लोग भी इसकी ओर से बेरुखी दिखाते हैं। हम भला कौन सी ज़िम्मेदारी निभाते हैं? हमारी सरकारें जिस भी आदमी को इसका सरताज बनाती हैं वह रेल बजट निकाल कर ही निकल जाता है। मुझे रेलवे की खूब खबर तो नहीं लेकिन यह अहसास जरूर है कि इस पुरानी और चरमराती संपदा को एक सुगठित सुधार की बेहद जरूरत है।

हादसों की जवाबदेही तय करनी चाहिए। हम भारत के लोगों को वास्तव में 'हम' यह भारतीय रेल भी बनाती है। आपको ऐसा नहीं लगता? गर नहीं लगता तो जनाब आपने फिर रेल को जीया ही नहीं। रेल छुक छुक की आवाज़ से बढ़कर कुछ और भी है। जब फिल्म 'गांधी' या फिर अ ट्रेन टू पाकिस्तान' देखी तब उस आज़ादी से पहले और आसपास के भारत के चित्र दिमाग में  घुमने लगे। फिल्म 'वॉटर' में भी ट्रेन से जुड़ा एक अंत में बेहद खूबसूरत दृश्य है। इन फिल्मों के दृश्य में रेल एक बदलाव के साथ दिखाई देती है। एक सकारात्मक परिवर्तन की दस्तक देने वाली सूचक की तरह। आपने गुलज़ार साहब की मशहूर कहानी 'रावी पार' पढ़ी होगी। नहीं पढ़ी तो पढ़िये। आपको वह कहानी उस समय का दर्द बयां करेगी। एक रेल के ऊपर बैठे पिता के चेहरे से। तब आप न हिन्दू रह पाएंगे और न मुसलमान।

कुछ ऐसी है रेल। महज डिब्बे नहीं जिन्हें एक पुराना इंजन खींचता है। बल्कि रेल निशानी है जिंदगी में गति की और निरंतर बढ़ने की। आगे से छुक छुक न सुनिएगा बल्कि बात कर के लौटिएगा।... आपकी यात्रा शुभ हो!     



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