(रासीपुरम कृष्णमूर्ति लक्ष्मण एक बहुत प्रसिद्ध कार्टून के
जनक हैं। उस कार्टून का नाम है ‘आम आदमी’। यह वही आम आदमी है जो कि चेक का कोट धोती के साथ पहनता
है। सिर पर आगे की ओर बाल नहीं है तथा पीछे की ओर कुछ बूढ़े बाल झुकी कमर के साथ कहराते
हुए मालूम देते हैं। यह कार्टून अख़बार के कोने में चर्खुट्टी जगह घेरे हुए होता है
जहां कि नेता और सियासत उसे धोखा देते हैं।)
पापा कई बार जब बात करते थे तो कहते थे, "हम तो आम आदमी
हैं।"
एक बढ़ती हुई रात में मैंने पापा से पूछा, "पापा ये आम
आदमी कौन होता है?"
बग़ल के टेबल पर पड़े अख़बार में छपी आर. के. लक्ष्मण के कार्टून को
दिखा कर बोले, "यही आम आदमी होता है।"
अचानक किसी के बुलाने पर आगे वे कुछ बोल नहीं
पाये। उनके जाने के बाद मैं अख़बार में उस आदमी को काफ़ी देर तक देखती रही। दिमाग़
में फिर सवाल आए। कमाल है मेरे पापा तो गंजे नहीं हैं, धोती भी नहीं
पहनते और न ही चेक का कोट। और शक़्ल तो (माशा अल्लाह) बिलकुल अलग थी। फिर ये पापा
कैसे हो सकते हैं!
मैंने किचन में काम में उलझी माँ से कहा कि माँ पापा तो
अख़बार में भी छपते हैं। तुम आम औरत के नाम से क्यों नहीं छपती जो आगे से गंजी हो
और चेक का कुर्ता पहनती हो। जिसकी छतरी जैसी मुंछे हों और जो बूढ़ी हो। माँ ने गैस
पर कपड़ा घसीटते हुए गंभीरता से नहीं लिया और बोली, "रात हो गई दीदी के पास जाओ।"
मेरी बहन बहुत होशियार थी। मैंने उससे पूछा, "यह आम आदमी कौन है?"
वो तुनक के बोली, "तेरे पास और कोई काम नहीं है जो इस वक़्त
अख़बार लिए घूम रही है। मुझे पता था वो यही कहेगी। मुझे गुस्सा आया। मेरी नाराज़गी
देखकर उसने न जाने क्या सोचते हुए कहा, “आम आदमी कोई भी हो सकता है। जो रोज़ सुबह
काम पर जाता है, जो साईकिल चलाता है, जिसका चेहरा
सब से मिलता-जुलता हो। जो बहुत अमीर नहीं होता।”
मैंने उससे कहा, “पर इस कार्टून को पापा ने आम आदमी कहा।
तो?”
वो फिर से सवाल सुन के झल्ला गई। और उठकर चली गई अपने नाखून
को लाल रंग से रंगने के लिए।
अगली दोपहर भाई के आगे भी मैंने ये सवाल रख दिया। वो मुझ पर
गुस्सा नहीं करता। मेरे भाई ने मुझे बताया कि आम आदमी वही होता है जिसके पास
मारुति नहीं होती। जो बस में जाते आते हैं। मुझे यकीन हो गया। क्योंकि इन
दिनों उसके पेपर में अच्छे नंबर आने लगे थे। उसका दिमाग कॉम्पलैन से बढ़ रहा था
जैसे मेरा।
अगले दिन स्कूल में मैडम ने ‘बस की सैर’ पाठ पढ़ाया।
उसमें सब बच्चे बस में बैठकर सैर सपाटे के लिए जाते हैं। जब पाठ पढ़ लिया गया तब
मैंने अपनी दोस्त साइस्ता बानो से कहा, “ये सब बच्चे आम आदमी हैं और लड़कियां भी।“
वो आँखें बाहर निकालते हुए बोली, “क्या तुझे
कैसे पता?”
मैंने कहा, “मेरे भाई ने मुझे बताया है।”
वो बोली, “तुझे झूठ बताया है।”
मैंने कहा, “नहीं। वो झूठ नहीं बोलता। आजकल उसके पेपर में अच्छे नंबर
आते हैं।”
साइस्ता ने मुझे कुछ अजीब सी नज़रों से देखा और मैडम से झूठ
बोलकर कि प्यास लगी बाहर चली गई।
लंच के बाद मैडम बोर्ड पर प्रशन-उत्तर करवाने लगी। एक सवाल
आया। वो तेज़ आवाज़ में पूछ रही थीं, “जो बच्चे बस में घूमने गए थे वे कौन थे?”
मेरे अगल बगल में बैठे साथी बोले, “वे सब स्कूल
के बच्चे थे।”
जब वो सब बोल लिये तब मैंने अपना छोटा हाथ खड़ा किया। सबने मुझे
सवालों की नज़र से देखा। मैम बोलीं, “बोलो।”
मैंने कहा, “वो सब बच्चे आम आदमी थे। ‘आम आदमी’ उन्होंने
टेढ़ा-मेढ़ा चेहरा बनाते हुए कहा। उन्होंने पूछा, “तुम्हें कैसे
पता?”
मैंने कहा, “हमारे बड़े भाई ने कल दोपहर को बताया कि जो लोग बस में जाते
हैं वे सब आम आदमी होते हैं।”
वो हल्का मुस्कुरा कर फिर पुछने लगीं, “और क्या
बताया है तुम्हें?”
मैंने कहा उसने यह भी कहा कि जिसके पास मारुति नहीं
होती वो भी आम आदमी होता है। इसलिए मैम,- साइस्ता, शमा, रूबी, शबनम आम औरत
नहीं है। इनके पास कार है। आप भी आम औरत नहीं हो। आपके पास भी कार है। बड़ी मैम भी।”
मैम बहुत तेज़ हंसी और बोलीं, “आम आदमी और
कार का आपस में कोई रिश्ता नहीं होता। हम भी आम आदमी हैं।”
बस फिर क्या था मैंने उस दिन लंच नहीं किया। साइस्ता बानो
ने कई बार मुझे बुलाया। पर मैं अपने कद जैसे डेस्क पर बैठे- बैठे यही सोचती रही कि
मेरा भाई सही है या मेरी मैम। ख़ैर इस बात को मैं धीरे-धीरे भूल गई। पर मैंने अपने
दिमाग़ में आम आदमी को लेकर रहने लगी। सोचा किसी दिन पापा से आराम से पूछूँगी।
(अपनी हालिया दोस्त की बातों से उठाया एक टुकड़ा बचपन वाला)