Saturday, 24 September 2016

कुछ लोगों का पता लापता होता है


मैं कहाँ रहूँ 
शहर में रहूँ 
घर में रहूँ
दिलों में रहूँ
या फिर कहीं नहीं...

  

"पिछले कुछ समय से अपने आसपास एक आँधी सी महसूस करती हूँ। लगता है कहीं भाग रही हूँ और मज़े की बात यह है कि मैं बिना सोचे समझे भाग रही हूँ। ...क्योंकि सब भाग रहे हैं इसलिए मैं भी भाग रही हूँ। अपने आप को नित नई सूचनाओं से भर रही हूँ। जैसे खाली मटके में पानी भरा जाता है।...

किसी को किन्हीं किताबों पर बात करते हुए सुनती हूँ तब शर्म आती है कि मेरी जानकारी एक चने के बराबर है। कोई जब पलटकर पूछता है कि तुमने फलाना किताब पढ़ी है, तब जबान पर जैसे किसी ने वज़न रख दिया हो, ऐसा मालूम होता है।...

आसपास सब पढ़े लिखे लोग हैं। उनकी तालीम और इल्म के क्या कहने! उनकी जबान से अल्फ़ाज़ निकलते हैं भी तो किसी किताब की पवित्र पंक्तियाँ ही होती हैं।...

इसके चलते सूखे हुए पत्ते की तरह महसूस करने लगी हूँ। यह पत्ता ऐसा है कि वेसलिन भी घस लूँ तब भी नरमी वापस नहीं आएगी। ...सो मुरझाने से अपने को बचाने की कोशिश की है। मुझे तो लगा था इंसान बनना ही काफी है। लेकिन सच यह नहीं है। अब मुझे सफलता का राज पता चला है कि बस 'नोलेज्बल' बनना ही 'बेस्ट' माना जाता है। सपने देखने की कला तो फूहड़ों की निशानी है। आलसी और निष्क्रिय ही ख्वाब देखा करते हैं।  
   

...मैंने उससे हैरानी से पूछा, "क्या बक रही है? दिमाग का ठिकाना तो ठीक है न?" 

वो मेरे पास से उठते हुए बोली, "चल बाद में मिलते हैं। अभी एक अच्छी किताब हाथ लगी है।"

मैंने कुछ नहीं कहा। बस उसे जाते हुए देखा। 

Friday, 23 September 2016

आधी-अधूरी लप्रेकें (लघु प्रेम कथाएँ)

मेरी पैदाइश 90 के आसपास की है। उस समय हर जगह कई महत्वपूर्ण घटनाएँ हो रही थीं। आज जब लप्रेक किताब पर नज़र गई तब यकायक एक कहानी याद आ गई। उस समय हमारा इलाका बसना शुरू हुआ था। लोग छोटी छोटी जगहें खरीद रहे थे और वे लोग भी शामिल थे जिनकी अच्छी हैसियत थी। उनके जमीन के टुकड़े बड़े बड़े हुआ करते थे। इस जगह की खूबसूरती यही है कि यहाँ हर तरह के लोग रहने के लिए आ रहे थे। बाद के बरसों में खिचड़ी के समान मोहल्ला तैयार हो गया। बड़ा मज़ेदार मोहल्ला।

यहाँ एक कच्चे शहर की बू भी रहती थी और पक्के रिश्ते बनने की महक भी आने लगी थी। आपसी रिश्तों में गहराई और मिठास की वजह यह भी थी कि सभी अपनी जड़ों से निकल कर एक सतुष्टिजनक जीवन के लिए यहाँ आए थे। इन हालातों में यह मुनासिब है कि इन लोगों के पास रोज़मर्रा की जरूरत अधिक थी और सामान कम। इसलिए यह पड़ोसी धर्म को बनाते और निभाते हुए एक दूसरे के घरेलू सामानों का विनिमय करते थे। इस विनिमय में बेसन की कढ़ी से लेकर सफ़ेद कपड़ों को हल्का नीला करने वाला नील भी शामिल था जो उस समय पाउडर की शक्ल में बिकता था।

इसी मोहल्ले में नौजवान होते एक जोड़े को प्रेम का चस्का लग गया। दोनों के परिवारों में बहुत मेलजोल था। किसी एक घर के यदि किसी व्यक्ति को बुखार हो जाये तो दूसरे की माँ आकर पट्टी कर जाती थी। इस गज़ब के मेल का यह नतीजा निकला कि यह जोड़ा स्कूल से घर तक अपना काफी समय साथ बिताने लगे। सबसे मासूमियत इसमें झलकती थी कि मोहब्बत की बातों का जरिया चिट्ठी पत्री थी और वाहक गली के सबसे छोटे बच्चे। यह बच्चे खुशी खुशी फरिश्तों के जैसे दोनों के संदेशों का आदान प्रदान करते थे। बिना किसी को कुछ बताए।

बाज़ार ने ताजमहल को मुनाफे का प्रतीक मानते हुए खूब सौदा किया है। उसके नमूने और ग्रीटिंग कार्ड वो भी गुलाबी रंग वाले काफी बड़ी संख्या में उस समय बिका करते थे। लगभग 25 से 30 रुपये में सुंदर कार्ड मिल जाया करता था। इस जोड़े ने कई बार स्कूल जाने के समय मिलने वाले रुपयों से बचाकर कार्ड खरीदा और एक दूसरे को शायरी लिखकर दिया भी।



कहा जाता है कि इश्क़ और मुश्क छुपाय नहीं छुपता। घर में माओं को सबसे पहले पता चला। दोनों ने अपने ढंग से छुपाने की बहुत कोशिश की लेकिन 'फूल और कांटे' फिल्म के गीत अब लोकप्रिय हो चले थे। दोनों परिवारों को इन गीतों का मतलब अब समझ आ गया था। पिटाई की गई। दोनों परिवारों में खूब झगड़ा हुआ। मोहल्ले की बैठकें बैठीं। इन बैठकों में वही बे-गैरत लोग बैठे जिन्हों ने अपने समय में भी ढेरों गुल कभी खिलाये होंगे। दोनों के साथ बहुत बुरा सलूक किया गया।

लड़के को कहा गया कि तुम्हें यह तो सोचना चाहिए थे कि तुम किसी के घर की इज्जत से खेल रहे हो। तुम्हारी भी दो बहने हैं। उनके साथ ऐसा कोई करे तो कैसा लगेगा। लड़का सर नीचे कर के रह गया। लड़की को कहा गया कि तुमने तो अपने घर की इज्जत को गरम तवे पर रख दिया। बेशरम, बेहया और न जाने क्या क्या!

लगाम लगाई गई। दोनों को भाई बहन बनाया गया। कुछ महीने बाद लड़की के पिता ने शर्म और बेइज्जती से बचने के लिए घर बेच दिया। लड़के वाले भी कहीं चले गए। किसी को नहीं पता कहाँ।

अब यह मोहल्ला पक चुका है। नए लोग आ कर बस गए हैं। पर मैंने सुना हैं ऐसे ही कई क़िस्से रात को अंधेरे में आकर आह भरते हैं। शायद कई लप्रेक अपनी मुक्ति खोज रही हैं।


(यह किस्सा बहुत पहले किसी ने बड़े अवसाद मन के साथ मुझे बताया था। उनकी इजाजत से लिखा गया है।)  

Wednesday, 21 September 2016

‘द प्राइज़ ऑफ फ्लावर्स’


जब मेरे लैपटाप का हिन्दी कुंजीपटल काम नहीं करता तब मेरी बेचैनी बढ़ जाती है। अभी किसी तरह से जुगत लगाई है जिससे हिन्दी छाप पा रही हूँ।

बात अहम जो दिमाग में बिजली की तरह आ जा रही है वो यह कि दो रोज़ से प्रभात कुमार मुखोपाध्य की लिखी बेहतरीन कहानी द प्राइज़ ऑफ फ्लावर्स रह-रह कर याद आ रही है। कक्षा बाहरवीं में इस कहानी को अंग्रेज़ी की मैम ने तीन रोज़ में पढ़ाकर पूरा करवाया था।

बहुत गजब अंग्रेज़ी पढ़ाने वाली शिक्षिका थीं। (होंगी भी) गजब का नियंत्रण था इस भाषा पर और हम हिन्दी माध्यम के बच्चों पर। कहानी या पाठ जितना भी लंबा हो वो एक पंक्ति तक स्किप नहीं करती थीं। बहुत ही सुर और आक्रामक दोनों तरह की शैली में पढ़ती-पढ़ाती थीं। साथ ही साथ अंग्रेज़ी शब्दों का अर्थ भी बताती जाती थीं, उदाहरण के साथ। यदि अगले दिन अर्थ हमारी ज़ुबान में नहीं बैठा पाया तो कोसाई भी भरपूर किया करती थीं।

ऐसे ही जब हम अगले पायदान यानि बारहवीं में कूदे तब यह कहानी शायद पहले पाठ के रूप में किताब में दर्ज़ थी। कहानी की मुख्य किरदार मैगी मुझे आज भी भुलाए नहीं भूलती। न ही मैं मैगी जैसी चरित्र को भूलने का पाप सिर माथे लेना चाहती हूँ। उसका पूरा नाम एलिस मारग्रेट क्लिफोर्ड है। प्यार से उसे मैगी कहा जाता है। हुआ यह था कि अपने भारत के लेखक गुप्ता जी इंग्लंड घूमने गए थे वहीं यह लड़की उनसे टकरा जाती है। उसे जब यह मालूम चलता है कि लेखक भारतवर्ष से ताल्लुक रखते हैं तब वह रोमांचित हो जाती है। उनसे भारत के संदर्भ में कई सवाल पूछती है। उसे भारत के संपेरों और भविष्य बताने वाले जोगियों-योगियों में हैरतअंगेज दिलचस्पी भी है। लेखक जहां तक हो इस लड़की के सवालों को जवाब भी देता है।


                                  फोटो गूगल से प्राप्त


लेकिन मैगी गरीब है। वह करीब 13-14 बरस की है। उसकी माँ है। एक भाई भी है जो हिंदुस्तान के पंजाब में तैनात एक सिपाही है जिसका कई सालों से कोई पत्र भी नहीं आया। उसका नाम फ्रांसिस उर्फ फ्रैंक है। वे दोनों उसके लिए चिंतित भी हैं। कहानी आगे बढ़ती है और पता चलता है कि उसका भाई शहीद हो चुका है। वह श्रीमान गुप्ता के आगे अपनी कड़ी मेहनत से कमाई हुई शिलिंग (रूपय) रखती है और कहती है कि इससे कुछ फूल खरीदकर मेरे भाई की कब्र पर रख दीजिएगा। लेखक चाहकर भी शिलिंग वापस नहीं करता। वह चाहता है कि मैगी और उसकी बूढ़ी माँ के पवित्र अहसास उन फूलों के रूप में फ्रैंक के पास जायेंगे।

लेखक की आँखों में आँसू आ जाते हैं और मेरे भी। मैं घर आकर भी बहुत रोई थी। उस वक़्त मुझे रोने में ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी। आज भी जब उस कहानी के पेज पलटती हूँ तब यह लगता है कि मैं भी मैगी के संग बैठकर खूब रोना शुरू कर दूँ। अगर कृष्ण सुनते मेरी तो मैं यही मांग लेती कि मैगी के भाई को सही सलामत वापस भेज दो। उन्हें उसकी जरूरत है।

तब से एक बात दिमाग में घुस गई कि यह सब लड़ाई-झगड़ा-युद्ध-वॉर अच्छा नहीं होता। जो जीत जाता है वो भी हारता है जो हारता है वो भी हार ही जाता है। इसलिए जब भी किसी के मुंह से पाकिस्तान को सबक़ सिखाने की बात सुनती हूँ तब मुझे घबराहट होती है कि बहुत से नौजवान लोग मारे जाएँगे। मुझे खून बर्दाश्त नहीं। झगड़ा किसी भी बात का हल नहीं है। मैगी की कहानी से मैंने यही जाना।

अंग्रेज़ी की मैम मुझे कहीं आज दिखाई दे गईं तब मैं भागकर उनका हाथ चूम लूँगी कि हिन्दी माध्यम के बच्चों को इस तरह पढ़ाया कि यह पाठ हमारी ज़िंदगी में घोल दिया। हर सरकारी शिक्षक आलसी नहीं होता।      

Monday, 19 September 2016

मुझे वेश्या शब्द से कड़ी आपत्ति है !

यह मेरा निजी ख़याल है। जरूरी नहीं कि आप भी सहमत हों।

आज किसी की पोस्ट पढ़ रही थी। उसमें एक बड़े विदेशी चिंतक ने राजनीति से दूर रहने वाले लोग क्या और कैसे होते हैं बताया है, लिखा था। अजीब बात है उसमें वेश्या शब्द भी था। मुझे यह शब्द बिलकुल नहीं पचा। इसकी पहली वजह यह है कि मैं खुद उसी औरत जात की हूँ। इसलिए इस शब्द को पढ़ कर सुनकर कुफ्त होती है। दूसरी वजह यह है कि वेश्या शब्द कोई प्रकृति की देन नहीं है। इस तबके में आने वाली औरतों की ईज़ाद ईश्वर ने नहीं की। इसलिए चिंतकों और लेखकों को इस शब्द का इस्तेमाल ज़रा समझदारी से करना चाहिए। अपने उदाहरण को प्रतिफलित करने के लिए नहीं।

कुछ दिन पहले नागेश कुकुनूर द्वारा बनाई फिल्म 'लक्ष्मी' (LAKSHMI) (2014) देख रही थी। इस फिल्म में दो मुद्दे उठाए गए हैं। पहला  बच्चों की तस्करी और दूसरा जबर्दस्ती उन्हें देह व्यापार में धकेला जाना। फिल्म में मुख्य भूमिका 'मोह मोह के धागे' जैसा सुरीला गीत गाने वाली गायिका मोनाली ठाकुर ने औसत से बेहतर काम करते हुए निभाई है। इसमें वह 'बंगारु लक्ष्मी' बनी हैं जिसे उसका पियक्कड़ पिता चौदह बरस की उम्र में 30 हज़ार रुपयों में बेच देता है।

इसके बाद फिल्म में बेहद भयानक स्थिति में उसे दिखाया गया है। शायद स्थिति इससे से भी बुरी होती होगी। उसके साथ एक दिन में सात लोग तक जबरन संबंध बनाते हैं। वह भागने की कोशिश करती है तब उसके साथ बेहद अमानवीय व्यवहार किया जाता है। वह मरने की सी दशा में है तब भी उस के साथ 'ग्राहक' संबंध बनाते हैं।

हो सकता है फिल्म में निर्देशक ने 'पोएटिक लाइसेन्स' के तहत छूट ली हो पर कितनी ली होगी इसका अंदाज़ा आप और मैं लगा सकते हैं।  इस लिहाज से यह देखा और सहज बुद्धि से समझा जा सकता है कि वेश्या शब्द एक उदाहरण देने का शब्द तो बिलकुल भी नहीं है, जो निर्लज है। जब गंदगी आप के खुद के खून में बह रही है तो आप कहाँ से इन शब्दों को नकारात्मकता का चोला पहना देते हैं।

मुझे उन औरतों से भी सख्त ऐतराज होता है जो गाली देने में या किसी औरत के चरित्र पर पैना हमला करने के लिए  इस शब्द का खूब ख़तरनाक इस्तेमाल करती हैं। आदमी तो खैर इस जुबानी हमलों में तेज़ देखे पाये जाते हैं।

यह और हैरानी वाली बात है कि गूगल जो आज का देवता है उसके यहाँ शब्दकोश में एक अलग विचित्रता देखी जा सकती है। वाजिब है उसने भी समाज की समझ और उसके व्यवहार से वेश्या शब्द के अर्थों को उठाया होगा। उदाहरण के लिए 'वेश्या' शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद खोजने पर 'स्लट'(SLUT) लिखा हुआ मिलेगा। इसके अतिरिक्त बाकी शब्द:-

कॉल गर्ल ( CALL GIRL)- आवाज़ देकर बुलाने वाली,

होर (WHORE)- कामुक संभोग से भ्रष्ट करना,

प्रोस्टीच्यूट (PROSTITUTE)- वेश्या,

हस्टर (HUSTLER)- चालबाज़,

हार्लोट (HARLOT)- कुल्टा,

ट्रल्लोप (TROLLOP)- फूहड़ औरत,

फ़ैन्सी वुमन(FANCY WOMAN)- आकर्षित करने वाली औरत,

कोकोट्ट (COCOTTE)- वेश्या,

हूकर (HOOKER)- वेश्या,

स्ट्रीट गर्ल (STREET GIRL)- गली वाली अर्थात बाहर विचरण करने वाली,

टार्ट (TART)- दुश्चरित्र स्त्री,

लेडी ऑफ प्लेज़र (LADY OF PLEASURE)- मज़ा देने वाली औरत,

फ्लूज़ी (FLOOZY)- चरित्रहीन महिला,

बाव्ड (BAWD)- कुटनी,

आउट ऑन द स्ट्रीट (OUT ON THE STREET)- बाहर गली में रहने या चलने वाली,

स्लेटर्न (SLATTERN)- फूहड़ औरत,

सिप्रियन (CYPRIAN)- वेश्या,

ब्रास (BRASS)- एक अर्थ पीतल और एक अन्य अर्थ 'बेहयाई'   (संदर्भ गूगल ऑनलाइन शब्दकोश)

सारे शब्दों की बारीक पड़ताल करने पर सिर्फ औरतों से जुड़ी हुई नकारत्मकता झलकती है। यहाँ एक सवाल यह भी सोचा जा सकता है कि यह अर्थ उपजे कैसे या कैसे उपजाए गए? इनके पीछे क्या दशा और मंशा रहीं?

हिन्दी में वेश्या के ही अर्थ में इस्तेमाल होने वाले शब्द, रांड, रंडी, नीच काम करने वाली, गणिका, आदि हैं। इन  अंग्रेज़ी और हिन्दी संज्ञा शब्दों में आर्थिक शब्द जुड़ा हुआ मिलेगा। ध्यान से देखने पर यह मालूम चलता है कि कोई औरत यह काम इसलिए कर रही है क्योंकि बदले में उसे अर्थ यानि रुपयों की प्राप्ति होगी। इसका दूसरा अर्थ यह भी हुआ कि समाज या उसकी व्यवस्था उसे सम्मान जनक रोजगार देने या मुहैया करवाने में असमर्थ सिद्ध हुए। ऐसा आज ही नहीं हो रहा बल्कि सदियों से होता चला आ रहा है।

आर्यों के पुरंदर इतने शौकीन हैं कि उनके दरबार में कई नर्तकियाँ बहुत सुंदर हैं। लेकिन वहीं इंद्राणी नाम की औरत भी है जो इन्द्र की पटरानी है। प्राचीन इतिहास में ये औरतें फिर भी सम्मान पाती थीं और धरती पर उतरकर शादी व बच्चे को जन्म भी देती थीं। ऐसा हिन्दू धर्म की कहानियों में समझा जा सकता है।

बुद्ध के समय में भी अंबपाली जैसी गणिका का ज़िक्र आता है। यहाँ भी स्थिति उतनी चिंताजनक नहीं है। दुख तो है पर सम्मान पर्याप्त है।

मध्यकाल में अनारकाली और सलीम की कहानी दिखाई देती है। इसमें अनारकाली एक कनीज़ है जो दरबार में नाचती है। लेकिन प्रेम की सज़ा उसे ज़िंदा चुनवा कर दी जाती है।

कंपनी के जमाने में अधिकतर ध्यान समाज में औरतों के संबंध में व्याप्त दिक्कतों पर दिया गया जिसके चलते इन औरतों पर उतने बयान दर्ज़ होते नहीं दिखते। (बेशक बहुत सारे उदाहरण होंगे ) लेकिन देवदास की चन्द्रमुखी को रूमानी प्रेम में लपेट कर लेखक वाह वाही तो ले गए पर कहीं भी उसकी स्थिति में परिवर्तन की बात नहीं की। कहानी देव और पार्वती पर ही टिकी रही।...

आपके मेरे जमाने में रेड लाइट एरिया से यहाँ की औरतें यह कहकर पुकारी जाती हैं कि वे सेक्स वर्कर हैं जो जिस्म बेचती हैं। ...झोल तो हमारे ही समाज में है। ... 

इसलिए शब्दों के उच्चारण से पूर्व एक बार सोचिए कि उन शब्दों में कौन और क्यों रहता है।

Saturday, 17 September 2016

पोथी पर ताला अब न होगा लाला



अख़बार वाला हमारे यहाँ अखबार ज़रा देरी से डालकर जाता है। इसलिए ताज़ा सुबह में बासी खबर का मज़ा नहीं ले पाती। अब जबकि अखबार हाथ में आया तो घड़ी में दो बजने जा रहे हैं। ज़ुबान हिन्दी है तो हाथ खुद से हिन्दी अखबार का ही चुनाव करते हैं। 


पहले पन्ने पर अब खबरें नहीं रहा करती। अब उन्हों ने दूसरी मंजिल पर बसेरा कर लिया है। पहले पन्ने पर आज कोई राइज़ रिज़ॉर्ट रेजीडेंट वालों का विज्ञापन छपा है। बहरहाल यह विज्ञापन मेरे लिए नहीं है। इसलिए अखबारी पन्ना पलट रही हूँ तो पहली खबर किताबें और उसकी फोटोकोपी से जुड़ी है। मामला कुछ वही है जो आप सभी लोगों को पता है। तीन अन्तर-राष्ट्रीय प्रकाशन घरों ने अपनी किताबों के प्रकाशन के अधिकार के मद्देनजर दिल्ली विश्व-विद्यालय के उत्तरी परिसर में मौजूद रामेश्वरी फोटोकॉपी सर्विस के खिलाफ याचिका दायर की थी कि उनकी किताबों के फोटोकॉपी के चलते उन्हें भारी नुकसान हो रहा है और यह प्रकाशन अधिकार का उल्लंघन है। इसके बाद 2012 में उनकी किताबों के फोटोकॉपी पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अब यही प्रतिबंध कल शुक्रवार यानि 16 सितंबर 2016 को उच्चतर न्यायालय ने हटा दिया। न्यायालय ने कहा-

“शिक्षा महत्वपूर्ण सामाजिक जरूरत है। साहित्य की भाषा में कहें तो कॉपीराइट कोई ऐसा अपरिहार्य, पवित्र, या नैचुरल अधिकार नहीं है जो लेखकों को अपनी कृतियों पर पूर्ण अधिकार देता हो। किसी भी कानून की तरह इस तरह व्याख्या नहीं की जा सकती कि मानवीय बेहतरी की प्रक्रिया फिर से पुरानी स्थिति में लौट जाये। अगर फोटोकॉपी की सुविधा नहीं मिलेगी तो बच्चों को घंटों तक लाइब्रेरी या अपने घरों में बैठकर नोट्स बनाने पड़ेंगे। बच्चों को आधुनिक तकनीक का फायदा उठाने से रोकना सही नहीं होगा।...जब आधुनिक तकनीक उपलब्ध है तो स्टूडेंट्स को पुराने जमाने की तरह पढ़ने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।” (अखबार में छापे शब्द) 



कुछ समय पहले मैंने हिन्दी का चर्चित उपन्यास कितने पाकिस्तान पढ़ा था जिसके लेखक कमलेश्वर हैं। उपन्यास बेहद प्रभावी है और हिन्दी पाठकों में लोकप्रिय भी है। लेकिन मैं बात उपन्यास की नहीं करूंगी। बात आज यहाँ उसकी भूमिका की होगी। उन्हों ने किताब की प्रत्येक छपाई पर उसकी भूमिका लिखी है। एक भूमिका के शब्द बिलकुल याद नहीं हैं फिर भी कुछ दिमाग में अटका रह गया है। उन्हों ने यह लिखते हुए अत्यंत प्रसन्नता दिखाई है कि उनकी किताब के पढ़ने के लोग इतने इच्छुक हो गए हैं कि वे उसकी फोटोकॉपी कर कर के पढ़ रहे हैं। इस बात से उस किताब के प्रकाशक बहुत दुखी जरूर हैं पर कमलेश्वर साहब को इसका कोई मलाल नहीं कि उन्हें इसका घाटा होगा या आमदनी पर असर पड़ेगा। जब मैंने यह सब पढ़ा तब सही मायनों में यह जाना कि लेखन एक बार अगर पाठक के हाथों में पहुँच गया तब उस पर पढ़ने वाले का अधिकार हो जाता है। यही कृति की आज़ादी भी है। 




ज्ञान को तिजोरी में हरिसन या गोदरेज़ ताले में कैसे रखा जा सकता है! मुझे यह कॉपीराइट का मसला उतना समझ भी नहीं आता। इस पर पर्याप्त बहस की जा सकती है। लेकिन एक लेखक से पूछिए कि वह क्या चाहती या चाहता है। इसी तरह के बेहूदे नियम बना बना कर फलां जाति तो फलां लिंग को पढ़ने-पढ़ाने के हक़ से मरहूम किया जाता रहा है।
शुक्र है कि समय बदल गया है। आप जितनी भी गालियां दीजिये या जितने भी प्रकाशन घरानों के हक़ में दलीलें दीजिये, मैं इस फैसले का खुश दिल से स्वागत करती हूँ। यदि मुझे कोई किताब बेहद पसंद आई तब मैं भी उसकी फोटोकॉपी करने से पीछे नहीं हटूँगी। मेरे पास वैसे कुछ अच्छी किताबों की नक़ल मौजूद है।        

Thursday, 15 September 2016

...लेकिन


कल हाथ घड़ी में समय देखा तब 3 बजकर 39 मिनट हो चुके थे। मैंने अपने आप को दिल्ली के एक नामी कॉलेज में पाया। मैं भी एक साक्षात्कार का हिस्सा बनने गई थी। मुझे कुछ बातें बेहद दिलचस्प लगी। मेरे लिए यह सब नया था। चूंकि मेरी पढ़ाई लिखाई कुछ समय के लिए रुकी भी रही इसीलिए मेरी जुबान में पढ़ाई लिखाई के शब्द कम जमे पाये जाते हैं। मेरी नजरें भी अभी साहित्यिक नहीं बन पाई हैं। लेकिन मैं भरपूर कोशिश में हूँ कि अपनी समझ का क्षेत्र बढ़ाऊँ।

कल जिस बड़े से हॉल में हमें (सभी साक्षात्कारी) बैठाया गया था उसके प्रवेश दरवाजे के ठीक ऊपर काली पट्टी पर अंग्रेज़ी में स्टाफ़ रूम लिखा था। हॉल काफी बड़ा था। चौड़ाई कम पर लंबाई अधिक थी। कमरे से घुसते ही सीधे हाथ की ओर सामने वाली दीवार पर बाबा साहेब की इकलौती बड़ी फोटो लगी हुई थी। फोटो में बाबा साहेब कुर्सी में बैठे थे। हल्का मुस्कुरा रहे थे और ठीक पीछे की तरफ कलाकार ने किताबों के शेल्फ का चित्र बनाया था। कुल मिलाकर चित्र बड़ा प्रभावी था। इस चित्र के बगल में ज़रा सा नीचे की ओर पेंडुलम वाली दीवार घड़ी टंगी थी। सच्ची बोलूँ, मैंने ऐसी घड़ी सिर्फ फिल्मों में देखी थी। इसलिए आज साक्षात दर्शन कर मैं अभिभूत सी ही हो गई थी। घड़ी का रंग हल्का पीला था। पेंडुलम चमकीला और सोने के रंग का था। पेंडुलम की गति इतनी सधी हुई थी कि वह एक निश्चित माप से दायें और बाएँ ही जा रहा था। गज़ब। मुझे ऐसे यंत्र बहुत पसंद है। मेरे घर में ऐसी घड़ी हो तब मैं शायद अपना बहुत सा समय घड़ी देखने में ही बिता दूँ।

दिवारों पर बाकी कब्ज़ा कई नोटिस बोर्ड ने किया हुआ था। उनके रंग पर ध्यान ही नहीं गया। वहाँ बहुत से ए 4 माप के सफ़ेद कागज चिपके हुए थे। बाकी कुछ दिवारों पर ऐसा नहीं था। उनका रंग फीका हो चुका था जो पीला था। आपने एक रुका हुआ फैसला हिन्दी फिल्म देखी होगी। यह कमरा जिसे स्टाफ़ रूम बताया गया था थी वैसा ही था जैसा इस फिल्म में दिखाया गया कमरा था। कमी तो बस बड़े से टेबल की थी। इस बैठक में बिस्कुटी रंग की ढेर सारी कुर्सियाँ थीं जिन पर हम सब विराजमान थे।

छत पर लटके हुए आठ पंखें थे जिनकी हवा हम तक पहुँच ही जा रही थी। हवा ठंडी थी। बाद में वातानुकूलित का पता। इसके बाद समझ आई कि पंखें ठंडी हवा क्यों उगल रहे हैं।

अब बात साक्षात्कारियों की। सभी लोग बहुत अच्छे लग रहे थे। मैंने उनके चेहरों में उम्मीद की चमक देखी। पुरुषों और कुछ युवा लड़कों ने औपचारिक पहनावा पहना था। सफ़ेद कमीज और पतलून। महिलाओं और युवा लड़कियों ने कमीज सलवार और साड़ी पहनी थीं। सभी के पास अपनी साहित्यिक कमाई हुई पूंजी, उनके थीसिस, छपे हुए लेख और किताबें आदि थीं। कुछ चेहरे बात भी नहीं कर रहे थे। कुछ तनाव में बैठे थे जो मुखड़े पर नज़र आ रहा था। कुछ बार बार घड़ी देख रहे थे। पूरा कमरा बातों से भरा हुआ था। जिन लोगों के साक्षात्कार होते जाते वे पुछने पर यह बताते कि क्या क्या पूछा गया। साक्षात्कार देने के लिए जो महिला मेरे आगे बैठी, ने मुझे अचानक कहा- अब मुझे टेंशन हो रही है। मैं सब भूल गई कि मैंने क्या क्या पेपर पढ़ाया है! मैंने उन्हें बदले में यही कहा कि घबराइए मत। शांत रहिए। आप पढ़ा चुकी हैं। अनुभव से ही बताइएगा।
                           कॉलेज के अंदर का गलियारा, समय 7 बजकर 15 मिनट

जब मेरी बारी आई तब तक शाम और रात के 7 बजकर 23 मिनट हो चुके थे। साक्षात्कार लेने वाले भी थक चुके थे और मैं भी देने के विचार में नहीं थी। मैं अंदर गई तब शायद 5 की संख्या में जानकार लोग बैठे थे। मेरी दिलचस्पी नहीं थी उनसे बात करने की। मैंने कमरे को देखा पर ध्यान से नहीं देख पाई। थके लोग और थकी हुई लड़की क्या बात करेंगे! मुझसे दो ही सवाल पुछे गए, मुझे एक का ही जवाब आता था, एक का नहीं। मैं हल्का मुस्कुराई और दरवाजा खोल कर बाहर आई। जब बाहर की तरफ आई तब हल्की बढ़ती हुई रात की हवा चल रही थी। सच में मैंने भरपूर सांसें भरीं। अब तक मेरा सिर दर्द बहुत बढ़ गया था। न मुझे दुख था, न तनाव हुआ। दिमाग में कुछ नहीं चल रहा था बस दर्द चल रहा था।     



...लेकिन फिर भी साक्षात्कार देती रहूँगी।



Wednesday, 14 September 2016

रोज़मर्रा वाली दिल्ली


हाथ घड़ी में जब साढ़े दस बज रहे थे तब बस में सवारियाँ खुद से अपने आप को बस में भर रही थीं। उनमें मैं भी एक थी। सभी के हाथ में उनके रोज़मर्रा के औज़ार थे। किसी के पास सीमेंट की बोरी में करनी, शायद छोटी छेनी थी तो किसी के पास टिफिन था जो काफी गरम था। औरतें आगे से बस में चढ़ीं तो आदमी पीछे के गेट से। ड्राईवर ने महादेव की कागज की फोटो पर कुछ गेंदे के फूल चढ़ाये और ॐ नमः शिवाय दो बार दोहराया। चूंकि मैं आगे ही खड़ी थी सो मैंने भी ड्राईवर के साथ मन में दो बार ॐ नमः शिवाय कहा। मुझे अच्छा लगा। सच में।

 थोड़ी दूर बस चली ही थी कि ढेर सारी बड़ी गाडियाँ एक के बाद एक कर के बस से आगे निकल गईं। बस के ऊपर अंग्रेज़ी पोस्टर लगे थे। मैंने ऐनक के पार देखते हुए पढ़ने की कोशिश कि तो VOTE SUPPORT- BIDHURI टाइप का कुछ लिखा गया था। सभी कॉलेज के छात्र मालूम पढ़ रहे थे। सभी गाड़ियों के शीशे से अपने आधे शरीर को बाहर निकाले वे सभी नियमों को ठेंगा दिखाकर ट्रेफिक पुलिस के आगे से निकल गए। ऐसा मंजर देखकर कर मेरी बगल में खड़ी अंटी जी को न जाने कौन सा आवेग चढ़ा कि उन्हों ने गाली देते हुए कहा- हराम की खाते हैं। हरामी कहीं के! इन नेताओं को आग भी नहीं लगती कि आग मैया पवितर हो जाती। क़िले की ज़मीन हरामियों ने बेच बेच कर पैसे बना लिया। कोई कमीनी सरकार तब इन नु न कुछ बोली। कुत्ते हैं। किराएदारों से ज़्यादा पैसा एंठे हैं। हमारी तरह कोई मेहनत कर के जी के दिखावें, तब मानू।

मैं अभी उनकी बात को दिमाग में फीड ही कर रही थी तभी एक बुजुर्ग बोले- बताओ। यह तो सरेआम दादागिरी है!

ड्राईवर ने इसमें जोड़ा या बताया, पता नहीं लेकिन वह बोला- इनसे कौन पंगा लेगा। मार ही डालेंगे।

अंटी और अंकल जी तो बस स्टॉप पर कुछ कुछ बोलते हुए निकल गए। फिर मेरा स्टॉप आया तो मैं भी उतर गई। जब तक सभी कारें भी बस से और आगे निकल गई।

लगभग एक घंटे पहले जब मैं घर लौट रही थी तब बस में दो कामगार महिलाएं आगे के गेट से चढ़ गईं। ड्राईवर चिल्लाया- पीछे का गेट न है का! उन दोनों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। जहां मैं बैठी थी वहीं वे दोनों आकर टिकट के लिए पैसे बढ़ाते हुए बोलीं-भैया पाँच के दो दे दियो।

टिकट आई तो दोनों ने टिकट को मोड़ते हुए ऐसा रूप दिया की टिकट उंगली में पहनी हुई अंगूठी में फंस गई। फिर बातें चल पड़ीं। एक ने कहा- नीचे वाली आज ज्यादा ऐंठ रही थी। कह रही थी इतनी धीरे धीरे काम करने वाली नहीं चाहिए। मैंने भी कहा कि नहीं चाहिए तो नहीं चाहिए। भाड़ में जाएँ ऐसे लोग। बात-बात में टोकते हैं।

दूसरी वाली ने नीचे वाली की पहचान घर के नंबर से पूछी। जवाब में नंबर 130 मिला।

... उनकी और भी बाते हुईं पर मैं खिड़की से बाहर देखने से गुल कर गई। सच में बहुत गंदी लत लगी है दूसरों की बातें सुनने की।

वक़्त 7 बजकर 4 मिनट हो रहा है। पापा सब्जी लेने के लिए साथ चलने को कह रहे हैं। तभी भाई ने बताया कि मत जाओ। कमेटी वाले सभी की सब्जी की रेहड़ियाँ पलट पलट कर ट्रक में भर रहे हैं।...पापा ने एकदम से कहा-क्या ! ?’ मुझे सच में समझ नहीं आया कि उन्हों ने भाव से कहा या फिर सवाल पूछा।   

Tuesday, 13 September 2016

‘साली’ उसके लिए नॉर्मल गाली थी


फोन जब (मैंने) उठाया तो हमेशा की तरह उसने नॉर्मल गाली मेरे कानों तक पहुंचा दी। मुझे हल्का गुस्सा आया। मैंने कहा- “यह क्या बकवास है? तुम्हारी भाषा सच में काफी बिगड़ गई है।“

उसे मुझ पर हंसी आई। हँसते हुए ही बोली- “अबे साली! हरिच्चंद्र बाबा से ही मिल के नीचे आई है। तू तो जानती ही है कि मेरी आदत है बात बात में साली कहने की। तू गुस्सा न हुआ कर। मैं तो बिगड़ी न थी। बस ये साला कलजुग है। इसी ने बानी खराब कर दी है। घर में जब आदमी गाली देते हैं तो अपने आप सीख मिल जाती है।“

मैंने बीच में टोकते हुए कहा- “यही चीजें सीखती है? कुछ और भी सीख लिया कर।“

वो तुरंत हँसते हुए फिर बोली- “अच्छा ये सब छोड़। फोन में पैसे न हैं। भाई की शादी है 23 को। आंटी अंकल सबको बोल दीयो आ जाएँ। तू भी मर लियो समझी।“

मैंने वही चोचला फिर बोला जो शहरों के लोगों के खून में बहता है- “बिना शादी के कार्ड के मेरे घर वाले कहीं नहीं जाते और वैसे भी मैं कहाँ शादियों में जाया करती हूँ। सॉरी...मैं तो नहीं आ पाऊँगी।“

“...ज़ादी तू भी मुझे परेशान कर अब!”- इतना कहकर उसने फोन काट दिया।

अगले दिन जून की 18 तारीख को वो चेक की कमीज और नीली जींस में मेरे घर में चाय पी रही थी। वो माँ से बोली- “आंटी मुझे पता है। आप शादी ब्याह में न जाओ कहीं। लेकिन इसे भेज देना। तुम जानो हो मेरा थोड़ा हाथ बंटा देगी। शादी का लाल कार्ड माँ को थमाते हुए वह झट से उठी और निकल गई।“

बहरहाल मैं शादी में गई। अच्छी हरियाणवी शादी थी। सब कुछ बेहद उम्दा। खान पान से लेकर हर चीज में दम था। उसे फुर्सत नहीं थी मेरी तरफ देखने की। वह बस जी जी कर अंदर बाहर दौड़ रही थी। कोई नहीं कह सकता था कि वह विज्ञान की उम्दा विद्यार्थी थी।

मुझे कुर्सी पर अकेले बैठे देखकर वह भागते हुए मेरे पास आई और बोली- “लाड़ली! कुछ खा पी लियो। देख रही है न कमीनी फुर्सत न है।“

मैंने देखा कि वह हाँफ रही थी फिर भी हंस रही थी। शादी में झगड़े हुए तब उसने दोनों पार्टी को बड़े अच्छे समझा बूझा लिया। बस जाके वह यह बोली- “तुम दोनों बूढ़ों की तरह लड़ रहे हो। बताओ जवानों की तरह कौन नाचेगा!”

फिर मेरे पास आकर आराम से बैठकर वक़्त बिताया। कुछ बोलती भी रही- “घर में चुनाव हो तो कोई किसी का नहीं रहता। फिर बचने के लिए ज़ुबान में मिशरी ही घोलनी पड़ती है।“

मैंने कहा-“मैं समझी नहीं।“

वो हँसते हुए बोली-“ तू रहने दे साली।“

मेरी उससे आखिरी बात शादी के लगभग 15 या 16 दिनों के बाद हुई। वह खुश थी। उसने गोलगप्पा मुंह में डालते हुए चबाया या खाया। फिर बोली- “मैं तो मर गई हूँ।“

मैंने फिर कहा- “क्या बकवास है!”

वह बोली- “बकवास न है। तू तो कुछ समझे ही न है।“ फिर हम खूब हंसे।...कई दिनों बाद,

मुझे नहीं पता था कि मेरी मुलाकात सदमे से होने वाली है।...

वह मर चुकी थी। इस घटना को काफी समय बीत गया था।

मुझे नहीं पता कि वह कैसे मरी। उसके छोटे भाई ने मुझे बताया कि दीदी ने जहर खा लिया था। मुंह से सफ़ेद झाग निकल रहा था। मैं तब से उसके घर नहीं गई।  

Sunday, 11 September 2016

इश्क़ वाला इतिहास और मकबरा

पिछली सर्दियाँ मुझे भुलाए नहीं भूलतीं। मौसम जैसा साथी किसी का भला क्या होगा। घर में बंद रहने वाली चिड़िया ने जब मौसम नाम के अदरक को चखा तो वो नशा छाया कि दिमाग से जाता नहीं। चली गई थी ऐसे ही अकेले। कुतुबमीनार देखा तो सच्चा बंदा आशिक का सा खयाल आने लगा। देर तक देखा। घूरा भी। वहीं से चाहत सही मायनों में समझी। (शुक्र है कि इंसान से नहीं हुई)। अब भी कई बार ऐसे ही मुंह उठाकर बेहया होकर चली जाती हूँ, अपने आशिक को देखने।

खोजबीन से पता चला कि पास ही में महरौली के बाकी उजाड़- सुजाड़ क़िले भी रहते हैं। क़िले क्या जनाब मकबरे कहूँ तो ज़्यादा सही होगा। सरकार ने काफी सही से संभाल कर रखा है।




                            https://en.wikipedia.org/wiki/Jamali_Kamali_Mosque_and_Tomb


'मुफ्त में यहाँ रोशनियाँ बिखरी हैं'- मुझे तो यही पंक्ति इन मकबरों को देखकर उस समय याद आई थी। आपको चलने की भी जरूरत नहीं मालूम पड़ेगी। पैर खुद ब खुद चल पड़ेंगे। मेरे तो ऐसे ही चल पड़ते हैं। दोनों तस्वीरें जमाली कमाली के मकबरे की हैं। मुझे इनकी बेहद कम जानकारी है। एक दफा अच्छे 'मुहरत' में मुझे एक पुरातत्व विभाग के सज्जन टकरा गए थे। उन्हों बताया कि ये दोनों भाई गीतकार थे। बगल में ही एक बहुत बड़ा आँगन है। उसके कुछ हिस्से में अलग से सफ़ेद दीवार हैं। वहाँ रहने वाले वर्दीधारी से पूछा तो उसने मुस्कुराते हुए बताया- अरे,... तुम नहीं जानती! यह महफिलगार है। यहीं इसी जगह पर महफिल लगा करती थीं। दोनों खूब गाते थे। और दूसरी पल्ली तरफ इनकी माशूकाएँ और बाकी सुनने वाली औरतें बैठा करती थीं।

मुग़ल काल के शुरुआत से जरा पहले ही यह मकबरे बन गए थे। इनमें लाल पत्थर में अकबर वाले लाल पत्थर की सी शक्ति का आभास यहाँ नहीं होता। निर्माण में इस्तेमाल हुए पत्थरों में गुलाबी सी रंगत है। सफ़ेद संगमरमर पत्थरों का इस्तेमाल दोनों को ही 'सूफी' शब्द से जोड़ता है।

इस जगह पर जाकर सच में एक प्रेम वाली सूफियाना महक का अहसास होता है। ऐसा लगता है कि शायद कोई इश्क़ वाला अहसास वहाँ अब भी रहता है। जब बड़ा आँगन देखो तो लगता है गुजरी रात महफिल लगी थी। इसलिए दिन में सब आराम कर रहे हैं। रात आएगी तब फिर महफ़िल लगेगी।

(मैं इन ऐतिहासिक इमारतों-मकबरों से मिले भाव ही साझा कर सकती हूँ। वास्तविक जानकारी तो कोई इतिहासकार ही बता सकता है- मेरा भरोसा न करें)

Saturday, 10 September 2016

आम आदमी



(रासीपुरम कृष्णमूर्ति लक्ष्मण एक बहुत प्रसिद्ध कार्टून के जनक हैं। उस कार्टून का नाम है आम आदमी। यह वही आम आदमी है जो कि चेक का कोट धोती के साथ पहनता है। सिर पर आगे की ओर बाल नहीं है तथा पीछे की ओर कुछ बूढ़े बाल झुकी कमर के साथ कहराते हुए मालूम देते हैं। यह कार्टून अख़बार के कोने में चर्खुट्टी जगह घेरे हुए होता है जहां कि नेता और सियासत उसे धोखा देते हैं।)

पापा कई बार जब बात करते थे तो कहते थे, "हम तो आम आदमी हैं।"
एक बढ़ती हुई रात में मैंने पापा से पूछा, "पापा ये आम आदमी कौन होता है?"
बग़ल के टेबल पर पड़े अख़बार में छपी आर. के. लक्ष्मण के कार्टून को दिखा कर बोले, "यही आम आदमी होता है।"

अचानक किसी के बुलाने पर आगे वे कुछ बोल नहीं पाये। उनके जाने के बाद मैं अख़बार में उस आदमी को काफ़ी देर तक देखती रही। दिमाग़ में फिर सवाल आए। कमाल है मेरे पापा तो गंजे नहीं हैं, धोती भी नहीं पहनते और न ही चेक का कोट। और शक़्ल तो (माशा अल्लाह) बिलकुल अलग थी। फिर ये पापा कैसे हो सकते हैं!

मैंने किचन में काम में उलझी माँ से कहा कि माँ पापा तो अख़बार में भी छपते हैं। तुम आम औरत के नाम से क्यों नहीं छपती जो आगे से गंजी हो और चेक का कुर्ता पहनती हो। जिसकी छतरी जैसी मुंछे हों और जो बूढ़ी हो। माँ ने गैस पर कपड़ा घसीटते हुए गंभीरता से नहीं लिया और बोली, "रात हो गई दीदी के पास जाओ।"

मेरी बहन बहुत होशियार थी। मैंने उससे पूछा, "यह आम आदमी कौन है?"

वो तुनक के बोली, "तेरे पास और कोई काम नहीं है जो इस वक़्त अख़बार लिए घूम रही है। मुझे पता था वो यही कहेगी। मुझे गुस्सा आया। मेरी नाराज़गी देखकर उसने न जाने क्या सोचते हुए कहा, “आम आदमी कोई भी हो सकता है। जो रोज़ सुबह काम पर जाता है, जो साईकिल चलाता है, जिसका चेहरा सब से मिलता-जुलता हो। जो बहुत अमीर नहीं होता।”

मैंने उससे कहा, “पर इस कार्टून को पापा ने आम आदमी कहा। तो?”
वो फिर से सवाल सुन के झल्ला गई। और उठकर चली गई अपने नाखून को लाल रंग से रंगने के लिए।

अगली दोपहर भाई के आगे भी मैंने ये सवाल रख दिया। वो मुझ पर गुस्सा नहीं करता। मेरे भाई ने मुझे बताया कि आम आदमी वही होता है जिसके पास मारुति नहीं होती। जो बस में जाते आते हैं। मुझे यकीन हो गया। क्योंकि इन दिनों उसके पेपर में अच्छे नंबर आने लगे थे। उसका दिमाग कॉम्पलैन से बढ़ रहा था जैसे मेरा। 

अगले दिन स्कूल में मैडम ने बस की सैर पाठ पढ़ाया। उसमें सब बच्चे बस में बैठकर सैर सपाटे के लिए जाते हैं। जब पाठ पढ़ लिया गया तब मैंने अपनी दोस्त साइस्ता बानो से कहा, “ये सब बच्चे आम आदमी हैं और लड़कियां भी।“
वो आँखें बाहर निकालते हुए बोली, “क्या तुझे कैसे पता?”
मैंने कहा, “मेरे भाई ने मुझे बताया है।”
वो बोली, “तुझे झूठ बताया है।”
मैंने कहा, “नहीं। वो झूठ नहीं बोलता। आजकल उसके पेपर में अच्छे नंबर आते हैं।”
साइस्ता ने मुझे कुछ अजीब सी नज़रों से देखा और मैडम से झूठ बोलकर कि प्यास लगी बाहर चली गई।
लंच के बाद मैडम बोर्ड पर प्रशन-उत्तर करवाने लगी। एक सवाल आया। वो तेज़ आवाज़ में पूछ रही थीं, “जो बच्चे बस में घूमने गए थे वे कौन थे?”
मेरे अगल बगल में बैठे साथी बोले, “वे सब स्कूल के बच्चे थे।” 
जब वो सब बोल लिये तब मैंने अपना छोटा हाथ खड़ा किया। सबने मुझे सवालों की नज़र से देखा। मैम बोलीं, “बोलो।”
मैंने कहा, “वो सब बच्चे आम आदमी थे। आम आदमी उन्होंने टेढ़ा-मेढ़ा चेहरा बनाते हुए कहा। उन्होंने पूछा, “तुम्हें कैसे पता?”
मैंने कहा, “हमारे बड़े भाई ने कल दोपहर को बताया कि जो लोग बस में जाते हैं वे सब आम आदमी होते हैं।”
वो हल्का मुस्कुरा कर फिर पुछने लगीं, “और क्या बताया है तुम्हें?” 


मैंने कहा उसने यह भी कहा कि जिसके पास मारुति नहीं होती वो भी आम आदमी होता है। इसलिए मैम,- साइस्ता, शमा, रूबी, शबनम आम औरत नहीं है। इनके पास कार है। आप भी आम औरत नहीं हो। आपके पास भी कार है। बड़ी मैम भी।”
मैम बहुत तेज़ हंसी और बोलीं, “आम आदमी और कार का आपस में कोई रिश्ता नहीं होता। हम भी आम आदमी हैं।”
बस फिर क्या था मैंने उस दिन लंच नहीं किया। साइस्ता बानो ने कई बार मुझे बुलाया। पर मैं अपने कद जैसे डेस्क पर बैठे- बैठे यही सोचती रही कि मेरा भाई सही है या मेरी मैम। ख़ैर इस बात को मैं धीरे-धीरे भूल गई। पर मैंने अपने दिमाग़ में आम आदमी को लेकर रहने लगी। सोचा किसी दिन पापा से आराम से पूछूँगी।  

(अपनी हालिया दोस्त की बातों से उठाया एक टुकड़ा बचपन वाला)

21 बरस की बाली उमर को सलाम, लेकिन

  दो साल पहले प्रथम वर्ष में पढ़ने वाली लड़की से मेरी बातचीत बस में सफ़र के दौरान शुरू हुई थी। शाम को काम से थकी हारी वह मुझे बस स्टॉप पर मिल...