Wednesday, 14 September 2016

रोज़मर्रा वाली दिल्ली


हाथ घड़ी में जब साढ़े दस बज रहे थे तब बस में सवारियाँ खुद से अपने आप को बस में भर रही थीं। उनमें मैं भी एक थी। सभी के हाथ में उनके रोज़मर्रा के औज़ार थे। किसी के पास सीमेंट की बोरी में करनी, शायद छोटी छेनी थी तो किसी के पास टिफिन था जो काफी गरम था। औरतें आगे से बस में चढ़ीं तो आदमी पीछे के गेट से। ड्राईवर ने महादेव की कागज की फोटो पर कुछ गेंदे के फूल चढ़ाये और ॐ नमः शिवाय दो बार दोहराया। चूंकि मैं आगे ही खड़ी थी सो मैंने भी ड्राईवर के साथ मन में दो बार ॐ नमः शिवाय कहा। मुझे अच्छा लगा। सच में।

 थोड़ी दूर बस चली ही थी कि ढेर सारी बड़ी गाडियाँ एक के बाद एक कर के बस से आगे निकल गईं। बस के ऊपर अंग्रेज़ी पोस्टर लगे थे। मैंने ऐनक के पार देखते हुए पढ़ने की कोशिश कि तो VOTE SUPPORT- BIDHURI टाइप का कुछ लिखा गया था। सभी कॉलेज के छात्र मालूम पढ़ रहे थे। सभी गाड़ियों के शीशे से अपने आधे शरीर को बाहर निकाले वे सभी नियमों को ठेंगा दिखाकर ट्रेफिक पुलिस के आगे से निकल गए। ऐसा मंजर देखकर कर मेरी बगल में खड़ी अंटी जी को न जाने कौन सा आवेग चढ़ा कि उन्हों ने गाली देते हुए कहा- हराम की खाते हैं। हरामी कहीं के! इन नेताओं को आग भी नहीं लगती कि आग मैया पवितर हो जाती। क़िले की ज़मीन हरामियों ने बेच बेच कर पैसे बना लिया। कोई कमीनी सरकार तब इन नु न कुछ बोली। कुत्ते हैं। किराएदारों से ज़्यादा पैसा एंठे हैं। हमारी तरह कोई मेहनत कर के जी के दिखावें, तब मानू।

मैं अभी उनकी बात को दिमाग में फीड ही कर रही थी तभी एक बुजुर्ग बोले- बताओ। यह तो सरेआम दादागिरी है!

ड्राईवर ने इसमें जोड़ा या बताया, पता नहीं लेकिन वह बोला- इनसे कौन पंगा लेगा। मार ही डालेंगे।

अंटी और अंकल जी तो बस स्टॉप पर कुछ कुछ बोलते हुए निकल गए। फिर मेरा स्टॉप आया तो मैं भी उतर गई। जब तक सभी कारें भी बस से और आगे निकल गई।

लगभग एक घंटे पहले जब मैं घर लौट रही थी तब बस में दो कामगार महिलाएं आगे के गेट से चढ़ गईं। ड्राईवर चिल्लाया- पीछे का गेट न है का! उन दोनों ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। जहां मैं बैठी थी वहीं वे दोनों आकर टिकट के लिए पैसे बढ़ाते हुए बोलीं-भैया पाँच के दो दे दियो।

टिकट आई तो दोनों ने टिकट को मोड़ते हुए ऐसा रूप दिया की टिकट उंगली में पहनी हुई अंगूठी में फंस गई। फिर बातें चल पड़ीं। एक ने कहा- नीचे वाली आज ज्यादा ऐंठ रही थी। कह रही थी इतनी धीरे धीरे काम करने वाली नहीं चाहिए। मैंने भी कहा कि नहीं चाहिए तो नहीं चाहिए। भाड़ में जाएँ ऐसे लोग। बात-बात में टोकते हैं।

दूसरी वाली ने नीचे वाली की पहचान घर के नंबर से पूछी। जवाब में नंबर 130 मिला।

... उनकी और भी बाते हुईं पर मैं खिड़की से बाहर देखने से गुल कर गई। सच में बहुत गंदी लत लगी है दूसरों की बातें सुनने की।

वक़्त 7 बजकर 4 मिनट हो रहा है। पापा सब्जी लेने के लिए साथ चलने को कह रहे हैं। तभी भाई ने बताया कि मत जाओ। कमेटी वाले सभी की सब्जी की रेहड़ियाँ पलट पलट कर ट्रक में भर रहे हैं।...पापा ने एकदम से कहा-क्या ! ?’ मुझे सच में समझ नहीं आया कि उन्हों ने भाव से कहा या फिर सवाल पूछा।   

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