Wednesday, 7 September 2016

सपाट सवालों का अनुयायी वाला दोस्त

धूप बहुत तेज़ तो नहीं थी पर फिर भी सिंकाई कर ही रही थी। ऐसे में जांच की आंच में मैं पूरी सुलग गई। गार्ड ने बस में घुसते ही कहा कि सभी अपना आई डी कार्ड निकाल लो। मैं पहले से ही तैयार थी। कार्ड का देखा-दिखाई हुई फिर भी दो लोग बिना कार्ड के निकल आए और उन्हें वहीं गेट के पास ही बस से उतार लिया गया। क्या किया जा सकता है! सुरक्षा का विषय होगा। 
आज फॉर्म का काम भी बहुत जल्दी हो गया और कल आने का निमंत्रण भी मिल गया। ऐसे में एक दोस्त को फोन लगाया तब उसने छठी दफा कृपा करते हुए फोन उठा ही लिया। उसके बाद से उसे बातें कर कर के 3:30 बजे तक खूब पकाया। मेरे वैसे तो बहुत दोस्त हैं और देखा जाये तो बहुत कम भी। लेकिन इस दोस्त की बात ही निराली है। इसके पास कॉपी कलम लेकर बैठा जा सकता है। इतने अनुभव हैं कि हर अनुभव को सुनकर मैं खुद हतप्रभ रह जाती हूँ। 
आज उसने कहा- "शुरू में मैं जब यहाँ (जेएनयू) आया था तब यह जगह मेरे लिए तीर्थस्थल जैसी थी। (अब भी है कि नहीं, मैंने नहीं पूछा) यहाँ की हर चीज में एक चमक नज़र आती थी। इसका कारण यह भी हो सकता है कि मैं शहर को शहर की ही नज़र से देख रहा था। लेकिन अब मैं शहर को और इस जगह को अपनी ऐनक से देखना काफी हद तक सीख गया हूँ। मैं सपाट सवालों का अनुयायी हूँ। हिप्पोक्रेसी मुझे पसंद ही नहीं। बस में थोड़ा सफर कर लूँ तब सिर घूम जाता है।"

इतना कहकर वो रुका तो एक गीत के साथ शुरू हुआ- "आओगे जब तुम हो साजना, अंगना फूल खिलेंगे... बरसेगा सावन झूम झूम के दो दिल... हम्... इतना गा लेने के बाद वो बोला-"हमें गीत गाना बहुत पसंद है।" मैंने टोकते हुए कहा-"मुझे सिखा दो गुरु जी!" 
वो बोला- "इसमें सिखाने जैसा कुछ भी नही। रेडियो से सुन-सुनकर गाइये। हम तो वहीं से सीख लेते हैं।" मैंने कहा- "ऐसी बात नहीं। मुझे सुर लगाना ही सिखा दो बस।" वो फिर हल्का मुस्कुरा दिया। 
बात का विषय बदलते हुए उसने पूछा-"आपने JNU का प्रेजिडेंसियल डिबेट कभी सुना है?" 
मैंने अपना चेहरा बदलते हुए कहा- "नहीं। मेरा मन नहीं करता इस सब में शामिल होने का।"  उसने तुरंत ही JNU वाली बातों की चपत लगाई और बोला- "यहाँ रुकिएगा नहीं, जनिएगा नहीं तब कैसे ये सब जनिएगा? मन लगवाना पड़ता है। सुनेंगी नहीं तो बोलेंगी क्या? थोड़ा प्रखर बनिए। नहीं तो यही शहर दबा देगा आपको। आप एक काम कीजिये आज रूक जाइए और सुनिए यह सब भी।" वह एक सांस में ही सब कह गया। मुझे दो पल लगा कि कोई दूसरा ही उसकी ज़ुबान में मुझे यह कह रहा है। 
इसके बाद वह बोला- "जब भी कोई वोट या चुनाव की बात करने आता है तब हम सीधा पुछते हैं, 'क्यों दें आपको वोट? कौन सा तीर मारा है?"
तभी रेस्ट रूम में टंगा नेहरू जी का स्केच मुझे खल गया। मैंने उसे देखते हुए कहा- "नेहरू जी की नाक ठीक से नहीं बन पाई। कुछ हल्की गड़बड़ है।" 

उसने तुरंत मुझे और भी ठीक करते हुए कहा- "हल्की क्या पूरी गड़बड़ है। जबर्दस्ती का स्केच बना कर टांग दिया है।" उसकी इस सपाट बयानी पर वही बैठी लड़की पीछे मुड़ी और झुंझलाए से चेहरे से हम दोनों को देखने लगी। मुझे लगा कि अभी अंग्रेज़ी वाली लड़ाई चालू होगी। पर उम्मीद के मुताबिक ऐसा नहीं हुआ। 

इसी तरह की बातचीत के बाद कुछ और बाते हुईं जिसमें 'ताने से लेकर बाना' भी था। मैं हमेशा कि तरह बस स्टॉप पर आई और 615 का इंतज़ार करने लगी। बस आई और मैं चल दी। मन में यही सवाल आया कि इतना सपाट यह बंदा कैसे बोल लेता है!


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