Sunday, 4 September 2016

आला वाला मसीहा

मौसम ऐसा हरजाई निकला है कि मेरे घर से लेकर पूरा मोहल्ला ही बीमार पड़ा हुआ है। महीने के जमे जमाये खर्चों में दवा के खर्चे ने बड़ी सेंध लगा रखी है। गली में जीतने भी लोग हैं उन्हें मौसमी बुखार की एक चपेट जरूर लगी हुई है। सभी का रूटीन हिला और डुला पड़ा है। हर घर के कूड़े से दवाई के छिलके और शीशियाँ ही निकल रही हैं। यह बुखार रोजाना की बातचीत का मुख्य मुद्दा बन पड़ा है। किसी को भी मोदी जी के 'जियो' प्रचार की खबर नहीं। ऐसे में मेरे मोहल्ले में एक शख़्स का चर्चा हो रहा है।

शख्स क्या जनाब, वह तो मसीहा (मोहल्ले के लोगों के शब्दों में) बन कर उभर रहा है। मैं खुद मसीहेपन की अवधारणा के एकदम खिलाफ हूँ। पर सोच पर किसका ज़ोर, वो भी पराई सोच पर। सबसे पुराना डॉक्टर है। मैं बचपन से उनका नाम सुन रही हूँ। निहायती मितभाषी और ऊपर से एमबीबीएस हैं। एक बार की दवा में ही सुकून पड़ जाता है। इस बुखारी मौसम में 40 से लेकर 60-70 लोग का नंबर लग जाता है। फिर भी यह डॉक्टर जाने किस मिट्टी का बना है कि सभी मरीजों का इलाज़ करता है।

जहां सरकारी अस्पताल में इतनी बड़ी मशीनरी है उसके बावजूद वे शिकायत करते हैं वहीं एक कुर्सी और मरीज टेबल के सहारे वह पूरे मोहल्ले को संभाल रहा है। बूढ़े हो चुके हैं। नाम के पीछे लगने वाला 'कुमार' शब्द भी लोगों का अपनत्व उनसे जोड़ देता है। कहने को तो आसपास कई निजी और बड़े अस्पताल हैं पर उनमें जाने की कुव्वत शायद लोगों में नहीं।

सरकारी डिस्पेन्सरी है लेकिन वहाँ के डॉक्टर इस कद्र इल्मधारी हैं कि मरीज को छूए बिना ही मर्ज पकड़ लेते हैं। इस पर से उनका बर्ताव लोगों को कुछ रास नहीं आता। इन हालातों में मोहल्ले में लोगों की मौसमी अवधारणा यह बनी है कि इसी डॉक्टर के पास जाना है।

अभी थोड़ी देर पहले दवा लाई मेरी माँ ने एक मासूम सी चिंता को साझा करते हुए कहा- 'यह डॉक्टर जब चला जाएगा तब लोगों को कौन देखेगा!'

मैंने कहा शायद कोई और आ जाएगा। लेकिन क्या वह अगला एस.कुमार डॉक्टर बनेगा यह तो मैं खुद भी नहीं जानती।

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